तात्पर्यवृत्ति-व्यवहार में अविसंवाद यह अनुवृत्ति में चला आ रहा है। आप्त के वचन आदि के निमित्त से होने वाला मतिपूर्वक अर्थज्ञान श्रुत कहलाता है और वह प्रमाण सिद्ध ही है।
प्रश्न-किस प्रकार से सिद्ध है ?
उत्तर-व्यवहार-त्याग-ग्रहण आदि में अविसंवादी होने से प्रत्यक्षादि ज्ञानों के समान प्रमेय अर्थों को जानने में वह प्रमाण सिद्ध है।
प्रश्न-वे प्रमेय क्या हैं ?
उत्तर-द्वीपान्तर आदि प्रमेय हैं। उन्हीं का स्पष्टीकरण करते हैं। प्रकृत जंबूद्वीप है, उससे अन्य धातकीखंड आदि द्वीपांतर कहलाते हैं। आदि शब्द से काल से और स्वभाव से व्यवहित-अत्यंत परोक्ष पदार्थों को ग्रहण करना अर्थात् देशकाल और आकार से विप्रकृष्ट-अत्यंत दूरवर्ती-पदार्थों में श्रुतज्ञान प्रमाण है।
श्रुत से अर्थ को जानकर प्रवृत्ति करता हुआ कोई भी पुरुष रसायन आदि क्रिया में अथवा ग्रहण आदि करने में या मलय-चंदन आदि की प्राप्ति में विसंवाद को प्राप्त नहीं होता है इसलिए परीक्षकजनों को अनाश्वास-अविश्वास नहीं करना चाहिए।
प्रश्न-कहीं-कहीं व्यभिचार देखा जाता है। जैसे-किसी नदी के किनारे लड्डू रखे हुए हैं इत्यादि रूप से प्रतिपादन करने पर उस श्रुत में व्यभिचार-विसंवाद देखा जाता है ?
उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि कहीं पर विसंवाद होने से ज्ञान को अप्रमाण मानने पर सभी जगह अप्रमाण की आशंका नहीं करना चाहिए अन्यथा प्रत्यक्ष आदि ज्ञानों में भी वैसे ही अप्रमाणता का प्रसंग हो जाने से सकल व्यवहार का ही लोप हो जावेगा।
प्रश्न-श्रुत के विषय में वादियों को विसंवाद देखा जाता है, इसलिए वह अप्रमाण है ?
उत्तर-प्रत्यक्षादि ज्ञानों में भी उसी हेतु से अप्रमाणता आ जावे, कोई अंतर नहीं है। जिस प्रकार से पर लोक, पुण्य, पाप, सर्वज्ञादि जो श्रुतज्ञान के विषय हैं इनमें वादियों को विसंवाद है उसी प्रकार से प्रत्यक्ष आदि ज्ञान के विषयभूत जीवादि पदार्थों में भी सत्-असत्, नित्य-अनित्य आदि रूप से विसंवाद होते हैं। इसलिए अविसंवाद (और विसंवाद) से की गई प्रमाणता और अप्रमाणता की व्यवस्था श्रुतज्ञान में अथवा अन्य ज्ञान में स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि यही न्याय रूप है।
भावार्थ-कुछ लोग आगम को प्रमाण नहीं मानते हैं इसलिए यहाँ आचार्य ने स्पष्ट किया है कि जैसे प्रत्यक्ष, अनुमान आदि ज्ञान जहाँ-जहाँ जिस-जिस विषय में अव्यभिचारी हैं वहाँ-वहाँ उस-उस विषय में प्रमाण हैं अन्यत्र व्यभिचारित होने से अप्रमाण हैं। वैसे ही श्रुतज्ञान भी सूक्ष्म-परमाणु आदि अंतरित राम, रावणादि और दूरवर्ती-हिमवान्, सुमेरु आदि विषयों में अविसंवादी होने से प्रमाण है और जहाँ व्यभिचारी हो जाता है वहाँ अप्रमाण है।
उत्थानिका-श्रुत को सर्वत्र अप्रमाण की आशंका करने पर अतिप्रसंग दोष को दिखलाते हैं-
अन्वयार्थ-(प्राय: श्रुते: विसंवादात्) कदाचित् आगम में विसंवाद होने से (प्रतिबंधं अपश्यतां) शब्द और अर्थ के संबंध को नहीं जानने वालों को (चेत् सर्वत्र अनाश्वास:) यदि सभी आगम में अविश्वास है तो (स:) वह अविश्वास (अक्षलिंगधियां सम:) इंद्रिय ज्ञान और अनुमान ज्ञान में समान है।।६।।
अर्थ-प्राय: क्वचित् कदाचित् श्रुत-आगम में विसंवाद होने से उन शब्द और अर्थ के सहज योग्यता लक्षण संबंध को नहीं जानने वाले लोगों को यदि सर्वत्र-सभी आगम में अनाश्वास-अविश्वास रहेगा तब तो यह अविश्वास इंद्रिय ज्ञान और अनुमान ज्ञान में भी समान है अर्थात् आपके द्वारा मान्य प्रत्यक्ष और अनुमान भी क्वचित् विसंवादी होने से अविश्वासी हो जावेंगे।।६।।
तात्पर्यवृत्ति-प्रतिबंध को नहीं देखने वालों को अर्थात् शब्द और अर्थ के सहज योग्यता लक्षण संबंध को नहीं समझने वाले सौगतों को प्राय: क्वचित्-कदाचित् श्रुत-आगम के विसंवाद से यदि सर्वत्र-अविसंवादी श्रुत की प्रमाणता में विसंवाद हो जावे, तब तो वह अविश्वास समान है।
प्रश्न-किसके समान है ?
उत्तर-अक्ष-इन्द्रियाँ और लिंग-हेतु इनसे उत्पन्न होने वाले सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञानों के समान है अर्थात् इन प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञानों में भी क्वचित्-कदाचित् व्यभिचारी दिखने से अविश्वास हो जावेगा, यह अर्थ हुआ है।
प्रश्न-अदुष्ट-निर्दोष कारण से जन्य प्रत्यक्ष अथवा अनुमान ज्ञान पदार्थों में विसंवाद को प्राप्त नहीं होते हैं ?
उत्तर-यदि ऐसी बात है तो अदुष्ट-निर्दोष आप्त वचन से उत्पन्न हुआ श्रुत भी विसंवाद को क्यों प्राप्त होगा ? इस प्रकार दोनों जगह समान ही है।
भावार्थ-सौगत आगम को प्रमाण नहीं मानता है। आचार्यों ने समझाया है कि शब्द और अर्थ में एक सहज योग्यता लक्षण संबंध पाया जाता है। इस निमित्त से वह श्रुतज्ञान सर्वत्र अप्रमाणीक नहीं है अन्यथा प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान भी सर्वत्र अप्रमाणीक हो जावेंगे। यदि कोई कहे कि निर्दोष कारण से उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान नहीं है, तब तो हमारे यहाँ भी निर्दोष कारणरूप आप्त के वचन से उत्पन्न हुआ आगम रूप श्रुतज्ञान प्रमाणीक है, यह अर्थ हुआ।
उत्थानिका-सर्वत्र श्रुत में अविश्वास होने पर और भी अनिष्ट को बताते हैं-
अन्वयार्थ-(आप्तोक्ते:) आप्त के वचन से (हेतुवादात् च) और हेतुवाद से (बहि: अर्थाविनिश्चये) बाह्य अर्थ का निश्चय न मानने पर तो (सत्येतर व्यवस्था का) सत्य-असत्य की व्यवस्था क्या होगी ? और (साधनेतरता कुत:) साधन-असाधन की व्यवस्था वैâसे होगी ?।।७।।
अर्थ-आप्त के वचन से और हेतुवाद से बाह्य अर्थ का निश्चय न मानने पर तो सत्य-असत्य की व्यवस्था क्या होगी ? और साधन-असाध्ान की व्यवस्था वैâसे होगी ?।।७।।
तात्पर्यवृत्ति-सत्य-सुगत के वचन और इतर-असत्य कपिल आदि के वचन इन दोनों की व्यवस्था-विभाग क्या होगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं होगा। उसी प्रकार साधन-अपने इष्ट की सिद्धि निमित्तक सत्त्वादि हेतु और इतर-हेत्वाभास इन दोनों का भाव साधनेतरता भी वैâसे व्यवस्थित होगी ?
प्रश्न-कब ये दोष आएंगे ?
उत्तर-जो जहाँ पर अवंचक है वह वहाँ पर आप्त है, उसके वचन से, केवल आप्त के वचन से ही नहीं किन्तु हेतुवाद-साधन के प्रयोग से इन दोनों से बाह्य अर्थ विप्रकृष्ट-अत्यंत परोक्ष प्रमेय का निश्चय नहीं होने पर उपर्युक्त सत्य-असत्य व्यवस्था और साधन-साधनाभास की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अर्थ यह हुआ कि आप्त के कथन से यदि अर्थ की प्रतीति नहीं मानोगे तब तो आपके सुगत के वचन सत्य हैं और कपिलादि के वचन असत्य हैं यह व्यवस्था वैâसे बनेगी ? क्योंकि अर्थ को विषय नहीं करना दोनों जगह समान है और हेतुवाद से भी बाह्य अर्थ का निश्चय नहीं मानने पर साधन-साधनाभास की व्यवस्था भी वैâसे बनेगी, क्योंकि बाह्य अर्थ की शून्यता दोनों जगह समान है।
भावार्थ-यहाँ पर आचार्य ने सौगत को लक्ष्य करके ही श्रुत को प्रमाण मानने की पुष्टि की है कि यदि आप बुद्ध के वचन को प्रमाण नहीं मानोगे तो आपके बुद्ध सत्य हैं और उनके वचन सत्य हैं। अन्य संप्रदाय वालों के ईश्वर और उनके वचन असत्य हैं यह विभाग भी वैâसे बनेगा ? अत: श्रुत को प्रमाण मान लेना उचित है।
उत्थानिका-सुगत के वचन को भी अप्रमाणता हो जावे क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान को ही प्रमाणता है क्योंकि पुरुषों के विचित्र अभिप्राय होने से अर्थ में व्यभिचार आता है, इस प्रकार की दाशबल की शंका का निरसन करते हैं-
अन्वयार्थ-(चेत् चित्राभिसंधे:) यदि नाना अभिप्राय से (पुंस: वाक् अर्थ व्यभिचारिणी) पुरुष के वचन अर्थ को व्यभिचारित करते हैं, तब तो (विजातीयात् कार्यं दृष्टं) विजातीय कारण से कार्य विरोध रहित हो जावेगा (कारण भेदि किं शक्यं) पुन: कारण में भेद करना क्या शक्य होगा ?।।८।।
अर्थ-चित्र-नाना अभिप्राय से पुरुष के वचन यदि अर्थ को व्यभिचारित करते हैं तब तो विजातीय कारण से कार्य दृष्ट-विरोध रहित हो जावेगा, पुन: कारण का भेद करना क्या शक्य होगा ? अर्थात् नहीं होगा।।८।।
भावार्थ-यदि पुरुष के अभिप्राय भिन्न-भिन्न हैं अत: उनके वचन अर्थ में विसंवाद करते हैं इसलिए किसी को आप्त नहीं माना जा सकता, न उनके वचन ही अर्थ को सही कहने वाले माने जा सकते हैं तब तो गेहूँ के बीज से शालिधान्य उत्पन्न हो जावेंगे, पुन: कारण में भेद कुछ भी नहीं रह सकेगा।
तात्पर्यवृत्ति-पुरुष-वक्ता के चित्र-सत्य-असत्य आदि नानारूप अभिसंधि-अभिप्राय-विवक्षा से यदि वाक्-आप्त के वचन अर्थ में व्यभिचारी हैं-बाह्य पदार्थ में विसंवादी हैं अर्थात् ‘‘सरागा अपि वीतरागवच्चेष्टंते’’ सराग भी वीतराग के समान चेष्टा करते हैं ऐसा वचन है। तब तो विजातीय कारण से भी कार्य दृष्ट-अविरुद्ध हो जावें पुन: उस कारण में भेद करना अर्थात् कारण के प्रतिनियत-स्वात्मलाभ के निमित्त को अलग करना-विजातीय से भेद करना क्या शक्य होगा ? अर्थात् नहीं होगा।
तब उस कार्य के जिस किसी से उत्पन्न होने में विरोध नहीं होगा, निश्चित ही अनियत कारण से उत्पन्न होने वाला कार्य कारण के भेद को नहीं बतलाता है क्योंकि उसमें वैसी शक्ति नहीं है। पुन: कार्य में कारण का व्यभिचार होने से वह अहेतु हो जावेगा, इस तरह अनुमान का उच्छेद हो जावेगा, यह भाव हुआ।
सौगत-विवेकपूर्वक होने वाले कार्य कारण का उल्लंघन नहीं करते हैं।
जैन-यदि ऐसा कहो, तो सम्यक् प्रकार से प्रयुक्त हुए वचन भी यथार्थ विवक्षा का उल्लंघन नहीं करते हैं। इस प्रकार से अर्थ में व्यभिचार वैâसे होगा ?
प्रश्न-विवक्षा में अधिरूढ़ ही वचन का अर्थ है, बाह्य अर्थ नहीं है अर्थात् कहने की इच्छा तक ही वचन का अर्थ सीमित है, बाह्य पदार्थ को नहीं कहता है।
उत्तर-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि विवक्षा का उससे व्यभिचार नहीं है। बोलने की इच्छा विवक्षा है। उस बोलने की इच्छा का नियम बाह्य अर्थ के नियम से युक्त नहीं है अन्यथा अतिप्रसंग आ जावेगा।हाथ की अंगुली के अग्रभाग के आधार पर तो हाथी के अस्तित्व आदि के प्रतिपादक वचन प्रतारण करने वाले-ठगने वाले होने से अप्रमाण सिद्ध हैं क्योंकि राग, द्वेष, मोह से आक्रांत पुरुष के वचन आगमाभास हैं इसलिए द्वीपांतर आदि अर्थों में विसंवाद का अभाव होने से श्रुतज्ञान प्रमाणरूप सिद्ध है, यह बात ठीक ही कही है।
भावार्थ-पुरुषों के मनोगत भावों में और वचनों में अंतर देखकर सर्वत्र वचन को अर्थ का व्यभिचारी कहना ठीक नहीं है अन्यथा विजातीय गेहूँ के बीज से शालिधान्य का अंकुर उत्पन्न हो जावेगा, पुन: कोई भी कारण अपने कार्य का नियामक नहीं हो सकेगा। इसलिए सर्वथा अर्थशून्य अथवा विरोधी वचनों को देखकर सर्वत्र सत्य आगम में भी अविश्वास करना, उसे प्रमाण नहीं मानना अयुक्त है। हमारे यहाँ तो आगम प्रमाण सबसे बलवान है, वही तो प्रत्यक्ष अनुमान आदि की प्रमाणता को सिद्ध करता है। पिता को प्रमाण न मानकर बेटे को प्रमाण मानना कहाँ तक उचित है।
श्लोकार्थ-श्री भट्टाकलंकदेव और प्रभाचंद्राचार्य से अंजित-स्पष्ट किये कथंचित् प्रमाणाभास को ‘स्यात्’-स्याद्वाद मत का आश्रय लेकर श्री अभयचंद्रसूरि के वचन विशेष रूप से वर्णन कर देते हैं अर्थात् कारिका में श्री भट्टाकलंकदेव ने कथंचित् प्रमाणाभास का वर्णन किया है। पुन: श्री प्रभाचंद्राचार्य ने न्याय- कुमुदचंद्र टीका और उसका विशद विवेचन किया है।।१।।यहाँ पर उन दोनों के आधार से और स्याद्वादमत का आश्रय लेकर श्री अभयचंद्रसूरि ने तात्पर्यवृत्ति में उसका ही स्पष्ट और संक्षेप विवेचन कर दिया है।इस प्रकार से अभयचंद्रसूरि कृत लघीयस्त्रय की स्याद्वादभूषण नामक तात्पर्यवृत्ति में प्रमाणाभास नाम का चतुर्थ परिच्छेद पूर्ण हुआ।
इस प्रकार भट्टाकलंक शशांक से स्मृत
लघीयस्त्रय में प्रमाण प्रवेश नाम का
प्रथम प्रकरण समाप्त हुआ।