आचार्य प्रवर श्री शांतिसागर जी महाराज वर्तमान युग के एक महानतम अध्यात्म योगी, महाश्रमण, श्रेष्ठतम साधु पुरुष थे। गत पांच सौ वर्ष से विलुप्त श्रमण—संस्कृति के वे जीवन प्रदाता थे। शिवस्वरूप रत्नत्रय की जीती—जागती ज्योति थे। दिगम्बरत्व की एक आदर्श प्रतिमा थे।
विश्व के एक असाधारण निष्कलंक महाव्रती सन्त थे। चारित्र के एकमेव चक्रवर्ती थे। सम्यग्ज्ञान की प्रतिभा के धनी थे। वे गुरुणां गुरु थे। उन्होंने अपने महान दीर्घ साधु जीवन में ‘‘बाप से बेटा सवाया’’—कहावत को चरितार्थ करने वाले ऐसे ही महान आदर्श विद्वत निष्कलंक शिष्य तैयार किये जो स्वयं शिष्य बनकर नहीं रहे, किन्तु गुरु बन गये; जिन्होंने अपने गुरु की तरह ही विशाल संघ के नायक बनकर समस्त देश भर में विहार किया एवं जैन धर्म की ध्वजा को फड़कती रखकर उसकी शान बढ़ाई। उन्होंने समाज में अपने निर्मल चारित्र से विशिष्ट प्रतिभा स्थापित की।
उन सबमें स्व. परमपूज्य १०८ आचार्य शिरोमणि श्री वीरसागर जी महाराज अग्रस्थानीय थे। आचार्य संघ में वे ही एक ऐसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ साधु थे, जिन्होंने सबसे पहले आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज से समडोली में चातुर्मास के समय भगवती जिन दीक्षा धारण की थी। यद्यपि पूज्य श्री वीरसागर जी महाराज के साथ—साथ ही संघ के एक और साधु पूज्य नेमिसागर जी ने भी आचार्य महाराज से भगवती दीक्षा धारण कर ली थी।
वे भी संघ में एक ज्येष्ठ आदर्श तपस्वी साधु थे तथापि आचार्य संघ की परम्परा को चलाने का जो बीज मुनि वीरसागर जी महाराज में अज्ञात रूप से दीक्षा के समय बोया गया था, वही बीज भविष्य में अशोक वृक्ष बनकर सार्थक हो गया।
पूज्य मुनिराज वीरसागर जी महाराज
पूज्य मुनिराज वीरसागर जी महाराज अपने गुरु आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के आदेश से आचार्य पद प्राप्त होने के कई वर्ष पहले ही संघ से अलग हो गये थे। उनके साथ भी कुछ साधु—साध्वियां संघ के रूप में विहार करने लगीं। इसी संघ ने धीरे—धीरे एक विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लिया। आचार्य शांतिसागर जी के संघ की तरह ही मुनिराज वीरसागर जी महाराज के संघ का भी भारत में सर्वत्र असाधारण प्रभाव पड़ने लगा।
चर्तुिवध संघ सदैव भक्तिपूर्वक साथ चलता था। धर्म की ऐसी महान् प्रभावना होती थी कि जिसे देख ऐसा लगता था कि देवातिशय धर्मचक्र संघ के आगे—आगे चल रहा हो।
परम पूज्य श्रमणराज वीरसागर जी महाराज के निर्मल रत्नत्रय की यशोसुरभि से सारा दिगन्त व्याप्त हो गया। आचार्य शान्तिसागर जी महाराज की सूक्ष्म दृष्टि से अपने इस ज्येष्ठ शिष्य की श्रेष्ठता छिपी न रह सकी। उनकी अपने सभी शिष्यों की योग्यता पर अत्यन्त पैनी दृष्टि रहती थी।
पूज्य मुनि वीरसागर जी के आचार्य संघ से अलग हो जाने पर भी पूज्य मुनि नेमिसागर जी उसके बाद भी अनेक वर्षो तक पूज्य आचार्य महाराज के साथ रहे। वे भी एक वृद्ध विद्वान् ज्येष्ठ तपस्वी साधु थे। किन्तु आचार्य महाराज द्वारा श्री कुंथलगिरि सिद्ध क्षेत्र पर अन्तिम सल्लेखना धारण करने के पहले ही मुनिराज नेमिसागर जी महाराज संघ से अलग होकर स्वतंत्र विहार करने लगे थे।
सल्लेखना के समय वे बम्बई में थे। पास में होने के कारण संघ के आचार्य पद पर पूज्य नेमिसागर जी महाराज को आसीन किया जाना संभव था किन्तु आचार्य शान्तिसागर जी महाराज सच्चे मानुष पारखी जौहरी थे। आचार्य पद का दायित्वपूर्ण भार, संघ के संचालन करने का सुयोग्य नेतृत्व एवं आगम परम्परा को निर्बाथ रूप से चलाने की योग्यता उन्होंने पूज्य मुनिराज वीरसागर जी में पाई।
अत: अन्तिम सल्लेखना के समय, कुंथुलगिरि से जयपुर अत्यन्त दूर होने पर भी, आचार्य महाराज ने अपना आचार्य पद ब्र. सूरजमल जी के साथ जयपुर भेजकर पूज्य मुनि वीरसागर जी महाराज को आचार्य पद से अलंकृत किया। इस समुचित निर्णय से समाज में सर्वत हर्ष की लहर दौड़ गई।
आचार्यश्री के बाद एक अत्यन्त सुयोग्य, सबल, निर्मल एवं वात्सल्यपूर्ण गुरु का नेतृत्व पाकर समाज आश्वस्त हुआ। भगवती दीक्षा के समय अज्ञात रूप से आचार्य पद का प्रक्षिप्त बीज मुनिराज श्री वीरसागर जी में सार्थक सिद्ध हुआ।
वास्तव में पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है
वास्तव में पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है जबकि वह पिता की कुल परम्परा का निर्वाह यथोचित यशस्विता के साथ करें। आचार्य वीरसागर जी महाराज के एक जन्मदाता और दूसरे दीक्षा के रूप में दो पिता थे। जन्मदाता पिता का नाम ‘‘सुखराम’’ था और दीक्षा—दाता पिता ‘‘आचार्य शान्तिसागर’’ थे।
आचार्य वीरसागर जी महाराज ने अपने जीवन भर किये साधुत्व पूर्ण कृतित्व से न केवल अपने ‘‘वीरसागर’’ नाम को सार्थक किया, किन्तु अपने जन्मदाता पिता और दीक्षादाता गुरु दोनों के नामों को दिगन्त उज्जवल किया। अपने ‘‘वीर’’ नाम को तो उन्होंने भगवान् महावीर की तरह ही अविवाहित रहकर ही प्रव्रज्या धारण कर सार्थक किया। जिस गम्भीरता से उन्होंने अपने विशाल चर्तुिवध संघ को अन्त तक सम्भाला उससे उनका ‘‘सागर’’ नाम भी सार्थक हुआ।
दीक्षा धारण करने के पहले भी ब्रह्मचर्य अवस्था में त्याग और संयम का कठोरता से पालन करते हुए उन्होंने कचनेर अतिशय क्षेत्र में एक धर्म पाठशाला स्थापित की थी जिसका अनेक वर्षो तक नि:स्वार्थ बुद्धि से सफल संचालन कर उन्होंने अनेक विद्र्यािथयों को धर्म शिक्षा से संस्कारित किया था।
उनमें से ही स्व. आचार्य शिवसागर जी थे जिन्होंने बाद में अपने शिक्षा गुरु आचार्यश्री वीरसागर से ही दीक्षित होकर अपने गुरु के ही विशाल संघ के नेतृत्व का भार संभालकर आचार्य पद की परम्परा को सफलता पूर्वक सम्भाला। इस प्रकार आचार्य वीरसागर जी महाराज दीक्षा के पूर्व भी ‘‘गुरुजी’’ बनकर रहे और दीक्षा के बाद भी एक विशाल संघ का वात्सल्यता के साथ बहुत सुन्दर संचालन कर जीवन के अन्तिम समय तक सबके गुरु रूप में पूजित हुये।
जन्म के साथ ही जीवन के अन्त तक गुरुत्व का ऐसा सुन्दर सम्मिश्रण शायद ही किसी अन्य साधु के जीवन में देखने को मिले। आचार्य वीरसागर जी महाराज के जीवन के अनेक गुणों में यदि कोई विशेष गुण प्रकर्षता के साथ निखरता था तो वह था उनकी ‘‘वात्सल्यता’’। वे यद्यपि अपने महाव्रत पालन और तपस्विता में अत्यन्त कठोर थे तथापि संसार के प्राणियों के प्रति उनकी मृदुता, दयालुता और वत्सलता अप्रतिम थी।
इसी वत्सलता का यह परिणाम उनके विशाल संघ के रूप में देखने को मिला कि जो एकदफा उनका शिष्य बना, वह अन्त तक उनके प्रति एकनिष्ठ रहा। किसी ने भी उनके संघ का परित्याग नहीं किया। संघ की विशालता और भव्यता बढ़ती गई, कभी घटी नहीं। वास्तव में आचार्य वीरसागर जी का वात्सल्य गुण सबके लिए आकर्षण की वस्तु थी।
आचार्य वीरसागर जी महाराज की अपने गुरु श्री शान्तिसागर जी के प्रति नि:स्सीम भक्ति थी। अपने गुरु की आज्ञा से विशाल संघ के साथ अनेक वर्षों तक स्वतन्त्र विहार करने पर भी उन्होंने कभी भी अपने शिष्यों द्वारा आचार्य पद ग्रहण नहीं किया। ऐसा करना वे गुरु की अवज्ञा मानते थे।
प्रकृति के भी वे इतने सरल और निरपेक्ष थे कि पूज्य १०८ आचार्य शान्तिसागर जी के द्वारा आचार्य पद दिये जाने पर भी उसे उन्होंने अनिच्छापूर्वक चर्तुिवध संघ और हजारों भक्तों के विशेष आग्रहवश ग्रहण किया। तथापि अपने इस आचार्य पद के शासन का उपयोग उन्होंने कठोरता से नहीं किया। उनके सरल और मृदुल स्वभावी शासन की शरण सबको ग्राह्य लगती थी। निरभिमानता तो इतनी थी कि संघ में सबके गुरु होने पर भी वे कहते थे कि मैं सबका ‘‘शिष्य’’ हूँ।
आचार्यश्री का जीवन अत्यन्त निरपवाद था
आचार्यश्री का जीवन अत्यन्त निरपवाद था। वे अयाचक साधु थे। उन्होंने कभी अपने संघ संचालन या विहार की व्यवस्था करने को किसी से याचना नहीं की। न कभी कोई वाहन साथ रखते थे, न किसी प्रकार का आडम्बर रहता था, तथापि उनकी निर्मल और अयाचक वृत्ति का ही परिणाम था कि वे चलते थे तो श्रावकगण और भक्तजन स्वयं भक्तिवश अपना—अपना चौका और वाहन साथ लेकर चलते थे।
किसी के साथ मजबूरी का सौदा नहीं होता था। स्वयं प्रेरित त्याग, संयम, तप, व्रत और दान का अपूर्व संगम देखकर हृदय श्रद्धा से भर जाता था। ऐसे महासाधु की पावन रज लगाकर अपने जीवन को भाग्यशाली बनाने की नगर—नगर में, गांव—गांव में और जन—जन में स्पर्धासी लग जाती थी।
सचमुच में ऐसे परमयोगी महामुनि को पाकर धरा धन्य हो गई, माता—पिता की कोख सार्थक हो गई, गुरुणां गुरु आचार्य शांतिसागर जी का श्रमण संस्कृति की परम्परा को जीवित रखने का स्वप्न साकार हुआ और समाज को भी आचार्य शान्तिसागर जी के बाद एक समर्थ एवं विशुद्ध व्रती, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी गुरु का समागम तथा मार्ग दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
इस लेखक को भी लगभग बीस वर्ष की ही उम्र में जीवन विशुद्धि की माला के रूप में शूद्र जल त्याग व्रत लेने का और उत्तम पात्रदान देने का सौभाग्य पहली ही बार पावन गजपंथा सिद्धक्षेत्र पर इसी महासाधु के प्रसाद से प्राप्त हुआ था और तब से आचार्यश्री का मुझ जैसे साधारण व्यक्ति पर विशेष अनुग्रह रहा है। उसी अनुग्रह का यह फल है कि आज यह एक श्रावक और समाज सेवक की दृष्टि से कुछ बन पाया है।
न जाने मेरे जैसे ऐसे कितने अनगिनत लोगों को पूज्य आचार्यश्री ने हस्तावलम्बन देकर धर्म मार्ग पर लगाया है। वे सच्चे अर्थ में तरण तारण थे। वास्तव में ऐसे ही निरपवाद महान् आदर्श साधुओं से देश, समाज और धर्म की शोभा होती है। उनकी पावन स्मृति हमारे जीवन की प्रेरणा स्रोत बनकर आत्म विकास में सहायक बने ऐसी भावना भाते हुए उस महापुरुष के पुनीत चरणों में श्रद्धावनत हो, नम्र अभिवादन करते हैं।