संजय – गुरु जी! आपने कहा था कि विदेह में षट्काल परिवर्तन नहीं होता, सो वह क्या है? गुरुजी – सुनो! काल के दो भेद हैं-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। जिसमें जीवों की आयु, ऊँचाई, भोगोपभोग संपदा और सुख आदि बढ़ते जावें, वह उत्सर्पिणी है और जिसमें घटते जावें, वह अवसर्पिणी है। इन दोनों को मिलाकर एक कल्पकाल होता है जो कि बीस कोड़ाकोड़ी सागर का है। अवसर्पिणी के छह भेद हैं – सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दु:षमा, दु:षमा-सुषमा, दु:षमा और दु:षमा-दु:षमा। इसी प्रकार उत्सर्पिणी के भी दु:षमा-दु:षमा आदि को लेकर छह भेद हैं। सुषमा-सुषमा – इसमें उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। सुषमा – इसमें मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। सुषमा-दु:षमा – इसमें जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। दु:षमा-सुषमा – इसमें कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है। इसी चतुर्थकाल में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण ऐसे ६३ शलाका पुरुष-महापुरुष जन्म लेते हैं।