आचार्य श्री पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा जो ग्रंथ रचा गया उसका नाम क्या था ? स्वयं सूत्रों में तो ग्रंथ का कोई नाम हमारे देखने में नहीं आया किन्तु धवलाकार ने ग्रंथ की उत्थानिका में ग्रंथ के मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता, इन छह ज्ञातव्य बातों का परिचय कराया है। वहां इसे ‘खंडसिद्धान्त’ कहा है और इसके खंडों की संख्या छह बतलाई है। इस प्रकार धवलाकार ने इस ग्रंथ का नाम ‘षट्खंड सिद्धान्त’ प्रकट किया है। उन्होंने यह भी कहा है कि सिद्धान्त और आगम एकार्थवाची हैं। धवलाकार के पश्चात् इन ग्रंथों की प्रसिद्धि आगम परमागम व षट्खंडागम नाम से ही विशेषत: हुई। अपभ्रंश महापुराण के कर्ता आचार्य श्री पुष्पदन्त ने धवल और जयधवला को आगम सिद्धान्त, गोम्मटसार के टीकाकार ने परमागम तथा श्रुतावतार के कर्ता आचार्य श्री इन्द्रनन्दि ने षट्खंडागम कहा है और इन ग्रंथों को आगम कहने की बड़ी भारी सार्थकता भी है। सिद्धान्त और आगम यद्यपि साधारणत: पर्यायवाची गिने जाते हैं, किन्तु निरूपित और सूक्ष्मार्थ की दृष्टि से उनमें भेद है। कोई भी निश्चित या सिद्ध मत सिद्धान्त कहा जा सकता है किन्तु आगम वही सिद्धान्त कहलाता है जो आप्तवाक्य है और पूर्व परम्परा से आया है। इस प्रकार सभी आगम को सिद्धान्त कह सकते हैं किन्तु सभी सिद्धान्त आगम नहीं कहला सकते। सिद्धान्त सामान्य संज्ञा है और आगम विशेष।
इस विवेचन के अनुसार प्रस्तुत ग्रंथ पूर्णरूप से आगम सिद्धान्त ही है। धरसेनाचार्य ने पुष्पदन्त और भूतबलि को वे ही सिद्धान्त सिखाये जो उन्हें उनसे पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्राप्त हुए और जिनकी परम्परा महावीर स्वामी तक पहुँचती है। श्री आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने भी उन्हीं आगम सिद्धान्तों को पुस्तकारूढ़ किया और टीकाकार ने भी उनका विवेचन पूर्व मान्यताओं और पूर्व आचार्यों के अनुसार ही किया है जैसा कि उनकी टीका में स्थान-स्थान पर प्रकट है। आगम की यह भी विशेषता है कि उसमें हेतुवाद नहीं चलता क्योंकि आगम अनुमान आदि की अपेक्षा नहीं रखता किन्तु स्वयं प्रत्यक्ष के बराबर का प्रमाण माना जाता है।
आचार्य श्री पुष्पदन्त व भूतबलि की रचना तथा उस पर आचार्य श्री वीरसेन की टीका इसी पूर्व परम्परा की मर्यादा को लिये हुए है इसीलिये आचार्य श्री इन्द्रनन्दि ने उसे आगम कहा है और इसी सार्थकता को मान देकर आचार्य श्री इन्द्रनन्दि द्वारा निर्दिष्ट नाम षट्खंडागम स्वीकार किया गया है।
‘जीवट्ठाण’—
षट्खंडों में प्रथम खंड का नाम ‘जीवट्ठाण’ है। उसके अन्तर्गत १ सत् , २ संख्या, ३ क्षेत्र, ४ स्पर्शन, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाव और ८. अल्पबहुत्व, ये आठ अनुयोगद्वार तथा १ प्रकृति समुत्कीर्तना, २ स्थानसमुत्कीर्तना, ३-५ तीन महादण्डक, ६ जघन्य स्थिति, जीवट्ठाण ७ उत्कृष्ट स्थिति, ८ सम्यक्त्वोत्पत्ति और ९ गति—आगति ये नौ चूलिकाएँ हैं। इस खंड का परिमाण धवलाकार ने अठारह हजार पद कहा है। पूर्वोक्त आठ अनुयोग द्वार और नौ चूलिकाओं में गुणस्थान और मार्गणाओं का आश्रय लेकर यहाँ विस्तार से वर्णन किया गया है।
खुद्दाबंध—
दूसरा खंड खुद्दाबंध (क्षुल्लकबंध) है। इसके ग्यारह अधिकार हैं—१ स्वामित्व, २ काल, ३ अन्तर, ४ भंगविचय, ५ द्रव्यप्रमाणा-नुगम, ६ क्षेत्रानुगम, ७ स्पर्शनानुगम, ८ नाना—जीव—काल, ९ नाना—जीव—अन्तर, १० भागाभागानुगम और ११ अल्प-बहुत्वानुगम। इस खंड में इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मबन्ध करने वाले जीव का कर्मबन्ध के भेदों सहित वर्णन किया गया है।
बंधस्वामित्वविचय—
तीसरे खंड का नाम बंधस्वामित्वविचय है। कितनी प्रकृतियों का किस जीव के कहां तक बंध होता है, किसके नहीं होता है, कितनी प्रकृतियों की किस गुणस्थान में व्युच्छित्ति होती है, स्वोदय बंधरूप प्रकृतियाँ कितनी हैं और परोदय बंधरूप कितनी हैं, इत्यादि कर्मबंध संबंधी विषयों का बंधक जीव की अपेक्षा से इस खंड में वर्णन है।
वेदना—
चौथे खंड का नाम वेदना है। इसके आदि में पुन: मंगलाचरण किया गया है। इसी खंड के अन्तर्गत कृति और वेदना अनुयोगद्वार हैं किन्तु वेदना के कथन की प्रधानता और अधिक विस्तार के कारण इस खंड का नाम वेदना रखा गया है।
कृति में औदारिकादि पांच शरीरों की संघातन और परिशातनरूप कृति का तथा भव के प्रथम और अप्रथम समय में स्थित जीवों के कृति, नोकृति और अवक्तव्य रूप संख्याओं का वर्णन है। १. नाम, २. स्थापना, ३ द्रव्य, ४. गणना, ५ ग्रंथ, ६ कारण और ७ भाव, ये कृति के सात प्रकार हैं, जिनमें से प्रकृत में गणनाकृति मुख्य बतलाई गई है।
वेदना में १. निक्षेप, २. नय, ३. नाम, ४. द्रव्य, ५. क्षेत्र, ६. काल, ७. भाव, ८. प्रत्यय, ९. स्वामित्व, १०. वेदना, ११. गति, १२. अनन्तर, १३ सन्निकर्ष, १४ परिमाण, १५. भागा—भागानुगम और १६. अल्पबहुत्वानुगम, इन सोलह अधिकारों के द्वारा वेदना का वर्णन है।
इस खंड का परिमाण सोलह हजार पद बतलाया गया है।
वर्गणा—
पांचवें खंड का नाम वर्गणा है। इसी खंड में बंधनीय के अन्तर्गत वर्गणा अधिकार के अतिरिक्त स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन का पहला भेद बंध, इन अनुयोग द्वारों का भी अन्तर्भाव कर लिया गया है।
स्पर्श में निक्षेप, नय आदि सोलह अधिकारों द्वारा तेरह प्रकार के स्पर्शों का वर्णन करके प्रकृत में कर्म स्पर्श से प्रयोजन बतलाया है।
कर्म में पूर्वोव्ाäत सोलह अधिकारों द्वारा १. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. प्रयोग, ५. समवधान, ६. अध:, ७ ईर्यापथ, ८. तप, ९. क्रिया और १०. भाव, इन दश प्रकार के कर्मों का वर्णन है।
प्रकृति में शील और स्वभाव को प्रकृति के पर्यायवाची बताकर उसके नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, इन चार भेदों में से कर्म द्रव्य प्रकृति का पूर्वोक्त १६ अधिकारों द्वारा विस्तार से वर्णन किया गया है।
इस खंड का प्रधान अधिकार बंधनीय है, जिसमें २३ प्रकार की वर्गणाओं का वर्णन और उनमें से कर्मबन्ध के योग्य वर्गणाओं का विस्तार से कथन किया है।
महाबंध—
आचार्य श्री इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार में कहा है कि आचार्य श्री भूतबलि ने पांच खंडों के आचार्य श्री पुष्पदन्त विरचित सूत्रों सहित छह हजार सूत्र रचने के पश्चात् महाबंध नाम के छठवें खंड की तीस हजार श्लोक प्रमाण रचना की।
धवला में जहाँ वर्गणाखंड समाप्त हुआ है वहां सूचना की गई है कि—
‘जं तं बंधविहाणं तं चउव्विहं, पयडिबंधो ट्ठिदिबंधो अनुभागबंधो पदेसबंधो चेदि। एदेिंस चदुण्हं बंधाणं विहाणं भूदबलि—भडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिदं ति अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं। तदो सयले महाबंधे एत्थ परूविदे बंधविहाणं समप्पदि’।
अर्थात् बंधविधान चार प्रकार का है—प्रकृति बंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध। इन चारों प्रकार के बंधों का विधान भूतबलि भट्टारक ने महाबंध में सविस्तार रूप से लिखा है, इस कारण हमने (वीरसेनाचार्य ने) उसे यहाँ नहीं लिखा। इस प्रकार से समस्त महाबंध के यहां प्ररूपण हो जाने पर बंध विधान समाप्त होता है।
ऐसा ही एक उल्लेख जयधवला में भी पाया जाता है जहाँ कहा गया है कि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध का वर्णन विस्तार से महाबंध में प्ररूपित है और उसे वहां से देख लेना चाहिये क्योंकि जो बात प्रकाशित हो चुकी है उसे पुन: प्रकाशित करने में कोई फल नहीं। यथा—
सो पुण पयडिट्ठिदिअणुभागपदेसबंधो बहुसो परूविदो (चूर्णिसूत्र)। सो उण गाहाए पुव्वद्धम्मि णिलीणो पयडि–ट्टिदि—अणुभाग—पदेस—विसओ बंधो बहुसो गंथंतरेसु परूविदो त्ति तत्थेव वित्थरो दट्ठव्वो, ण एत्थ पुणे परूविज्जदे, पयासियपयासणे फलविसेसाणुवलंभादो। तदो महाबंधाणुसारेणेत्थ पयडि—ट्ठिद—अणुभाग—पदेसबंधेसु विहासियसमत्तेसु तदो बंधो समत्तो होई।
इससे आचार्य श्री इन्द्रनन्दि के कथन की पुष्टि होती है कि छठवां खंड स्वयं भूतबलि आचार्य द्वारा रचित सविस्तार पुस्तकारूढ़ है।
किन्तु आचार्य इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार में आगे चलकर कहा है कि वीरसेनाचार्य ने एलाचार्य से सिद्धान्त सीखने के अनन्तर निबन्धनादि अठारह अधिकारों द्वारा सत्कर्म नामक छठवें खंड का संक्षेप से विधान किया और इस प्रकार छहों खंडों की बहत्तर हजार ग्रंथ प्रमाण धवला टीका रची गई।
धवला में वर्गणाखंड की समाप्ति तथा उपर्युक्त आचार्य श्री भूतबलिकृत महाबंध की सूचना के पश्चात् निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, सातासात, दीर्घ: ह्रस्व, भवधारणीय, पुद्गलात्म, निधत्त—अनिधत्त, निकाचित—अनिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कंध और अल्पबहुत्व, इन अठारह अनुयोगद्वारों का कथन किया गया है और इस समस्त भाग को चूलिका कहा है। यथा—
एत्तो उवरिम गंथो चूलिया णाम।
आचार्य श्री इन्द्रनन्दि के उपर्युक्त कथनानुसार यही चूलिका संक्षेप से छठवां खंड ठहरता है और इसका नाम सत्कर्म प्रतीत होता है तथा इसके सहित धवला षट्खंडागम ७२ हजार श्लोक प्रमाण सिद्ध होता है। विबुध श्रीधर के मतानुसार आचार्य श्री वीरसेनकृत ७२ हजार प्रमाण समस्त धवला टीका का ही नाम सत्कर्म है। यथा—
अत्रान्तरे एलाचार्य भट्टारकपार्श्वे सिद्धांतद्वयं वीरसेननामा मुनि: पठित्वाऽपराण्यपि अष्टादशाधिकाराणि प्राप्य पंच खंडे षट् खण्डे संकल्प्य संस्कृतप्राकृतभाषया सत्कर्मनामटीकां द्वासप्ततिसहस्रप्रमितां धवलनामांकितां लिखाप्य िंवशतिसहस्र कर्मप्राभृतं विचार्य वीरसेनो मुनि: स्वर्ग यास्यति। (विबुध श्रीधर, श्रुतावतार मा. ग्रं. मा. २१, पृ. ३१८)
दुर्भाग्यत: महाबंध (महाधवल) हमें उपलब्ध नहीं है, इस कारण महाबंध और सत्कर्म नामों की इस उलझन को सुलझाना कठिन प्रतीत होता है किन्तु मूडबिद्री में सुरक्षित महाधवल का जो थोड़ा सा परिचय उपलब्ध हुआ है उससे ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ भी सत्कर्म नाम से है और उस पर एक पंचिकारूप विवरण है जिसके आदि में ही कहा गया है—
‘वोच्छामि संतकम्मे पंचियरूवेण विवरणं सुमहत्थं। ….. चोव्वीसमणियोगद्दारेसु तत्थ कदिवेदणा त्ति जाणि अणियोगद्दाराणि वेदणाखंडम्हि पुणो फास (कम्म—पयडि—बंधणाणि) चत्तारि अणियोगद्दारेसु तत्थ बंध—बंधणिज्जणामणियोगेहि सह वग्गणाखंडम्हि, पुणो बंध—विधाणणामाणियोगो खुद्दाबंधम्हि सप्पवंचेण परूविदाणि। तो वि तस्सइगंभीरत्तादो अत्थ—विसम पदाणमत्थे थोरुद्धयेण (?) पंचियसरूवेण भणिस्सामो।
इसका भावार्थ यह है कि महाकर्मप्रकृति पाहुड के चौबीस अनुयोगद्वारों में से कृति और वेदना का वेदना खंड में, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्ध के बंध और बंधनीय का वर्गणाखंड में और बंधविधान नामक अनुयोगद्वार का खुद्दाबंध में विस्तार से वर्णन किया जा चुका है। इनसे शेष अठारह अनुयोगद्वार सब सत्कर्म में प्ररूपित किये गये हैं तो भी उनके अतिगंभीर होने से उसके विषय पदों का अर्थ संक्षेप में पंचिकारूप से यहां कहा जाता है।
इससे जान पड़ा कि महाधवल का मूलग्रंथ संतकम्म (सत्कर्म) नाम का है और उसमें महाकर्मप्रकृतिपाहुड के चौबीस अनुयोगद्वारों में से वेदना और वर्गणाखंड में वर्णित प्रथम छह को छोड़कर शेष निबंधनादि अठारह अनुयोगद्वारों का प्ररूपण है।
महाधवल या सत्कर्म की उक्त पंचिका कब की और किसकी है ?—
संभवत: यह वही पंचिका है जिसको आचार्य श्री इन्द्रनन्दि ने आचार्य श्री समन्तभद्र से भी पूर्व तुम्बुलूराचार्य द्वारा सात हजार श्लोक प्रमाण विरचित कहा है।
किन्तु जयधवला में एक स्थान पर स्पष्ट कहा गया है कि सत्कर्म महाधिकार में कृति, वेदनादि चौबीस अनुयोग द्वार प्रतिबद्ध हैं और उनमें उदय नामक अर्थाधिकार प्रकृति सहित स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों के अनुत्कृष्ट, उत्कृष्ट जघन्य व अजघन्य उदय के प्ररूपण में व्यापार करता है। यथा—
संतकम्ममहाहियारे कदि—वेदणादि—चउवीसमणियोगद्दारेसु पडिबद्धेसु उदओ णाम अत्थाहियारो ट्ठिदि—अणुभाग—पदेसाणं पयडिसमण्णियाणमुक्कस्साणुक्कस्स—जहण्णाहण्णुदयपरूवणे य वावारो।
इससे जाना जाता है कि कृति, वेदनादि चौबीस अनुयोगद्वारों का ही समष्टिरूप से सत्कर्म महाधिकार नाम है और चूंकि ये चौबीस अधिकार तीसरे अर्थात् बंधस्वामित्वविचय के पश्चात् क्रम से वर्णन किये गये हैं अत: उस समस्त विभाग अर्थात् अन्तिम तीन खंडों का नाम संतकम्म या सत्कर्मपाहुड महाधिकार है।
किन्तु जैसा आगे चलकर ज्ञात होगा, इन्हीं चौबीस अनुयोगद्वारों से जीवट्ठाण के थोड़े से भाग को छोड़कर शेष समस्त षट्खंडागम की उत्पत्ति हुई है अत: जयधवला के उल्लेख पर से इस समस्त ग्रंथ का नाम भी सत्कर्म महाधिकार सिद्ध होता है। इस अनुमान की पुष्टि प्रस्तुत ग्रंथ के दो उल्लेखों से अच्छी तरह हो जाती है। पृ. २१७ पर कषायपाहुड और सत्कर्मपाहुड के उपदेश में मतभेद का उल्लेख किया गया है। यथा—
‘एसो संतकम्म—पाहुड—उवएसो। कसायपाहुड—उवएसो पुण…….’
आगे चलकर एक जगह पर शंका की गई है कि इनमें से एक वचन सूत्र और दूसरा असूत्र होना चाहिये और यह संभव भी है क्योंकि ये जिनेन्द्र वचन नहीं हैं किन्तु आचार्यों के वचन हैं। इसका समाधान किया गया है कि नहीं, सत्कर्म और कषायपाहुड दोनों ही सूत्र हैं क्योंकि उनमें तीर्थंकर द्वारा कथित, गणधर द्वारा रचित तथा आचार्य परम्परा से आगत अर्थ का ही ग्रंथ न किया गया है। यथा—
‘आइरियकहियाणं संतकम्म—कसाय—पाहुडाणं कथं सुत्तत्तणमिदि चे ण…….।
यहां स्पष्टत: कषायपाहुड़ के साथ सत्कर्मपाहुड से प्रस्तुत समस्त षट्खंडागम से ही प्रयोजन हो सकता है और वह ठीक भी है क्योंकि पूर्वों की रचना में उक्त चौबीस अनुयोग द्वारों का नाम महाकर्म प्रकृतिपाहुड है। उसी का श्री धरसेनाचार्य गुरु ने मुनि श्री पुष्पदन्त भूतबलि द्वारा उद्धार कराया है, जैसा कि जीवट्ठाण के अन्त व खुद्धाबंध के आदि की एक गाथा से प्रकट होता है—
जयउ धरसेणणाहो जेण महाकम्मपयडिपाहुडसेलो।
बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ पुप्फुयंतस्स।। (धवला अ. ४७५)
महाकर्म प्रकृति एवं सत्कर्म संशाए—
महाकर्म प्रकृति और सत्कर्म संज्ञाएं एक ही अर्थ की द्योतक हैं अत: सिद्ध होता है कि इस समस्त षट्खंडागम का नाम सत्कर्म प्राभृत है और चूंकि इसका बहुभाग धवला टीका में ग्रथित है अत: समस्त धवला को भी सत्कर्म प्राभृत कहना अनुचित नहीं। उसी प्रकार महाबंध या निबंधनादि अठारह अधिकार भी इसी के एक खंड होने से सत्कर्म कहे जा सकते हैं और जिस प्रकार खंड विभाग की दृष्टि से कृति का वेदनाखंड में स्पर्श, कर्म, प्रकृति तथा बंधन के प्रथम भेद बंध का वर्गणाखंड में अन्तर्भाव कर लिया गया है उसी प्रकार निबन्धनादि अठारह अधिकारों का महाबंध नामक खंड में अंतर्भाव अनुमान किया जा सकता है जिससे महाधवलान्तर्गत उक्त पंचिका के कथन की सार्थकता सिद्ध हो जाती है क्योंकि सत्कर्म का एक विभाग होने से वह भी सत्कर्म कहा जा सकता है।
सत्कर्मप्राभृत षट्खंडागम तथा उसकी टीका धवला की इस रचना को देखने से ज्ञात होता है कि उसके मुख्यत: दो विभाग हैं। प्रथम विभाग के अन्तर्गत जीवट्ठाण, खुद्दाबंध व बंधस्वामित्वविचय हैं। इनका मंगलाचरण श्रुतावतार के आदि में एक ही बार जीवट्ठाण के आदि में किया गया है और उन सबका विषय भी जीव या बंधक की मुख्यता से है। जीवट्ठाण में गुणस्थान और मार्गणाओं की अपेक्षा सत् , संख्या आदि रूप से जीवतत्व का विचार किया गया है। खुद्दाबंध में सामान्य की अपेक्षा बंधक और बंधस्वामित्वविचय में विशेष की अपेक्षा बंधक का विवरण है।
श्रुतावतार—
दूसरे विभाग के आदि में पुन: मंगलाचरण व श्रुतावतार दिया गया है और उसमें यथार्थत: कृति, वेदना आदि चौबीस अधिकारों का क्रमश: वर्णन किया गया है और इस समस्त विभाग में प्रधानता से कर्मों की समस्त दशाओं का विवरण होने से उसकी विशेष संज्ञा सत्कर्मप्राभृत है। इन चौबीसों से द्वितीय अधिकार वेदना का विस्तार से वर्णन किये जाने के कारण उसे प्रधानता प्राप्त हो गई और उसके नाम से चौथा खंड खड़ा हो गया। बंधन के तीसरे भेद बंधनीय में वर्गणाओं का विस्तार से वर्णन आया और उसके महत्त्व के कारण वर्गणा नाम का पांचवां खंड हो गया। इसी बंधन के चौथे भेद बंधविधान के खूब विस्तार से वर्णन किये जाने के कारण उसका महाबंध नामक छठवां खंड बन गया और शेष अट्ठारह अधिकार उन्हीं के आजू बाजू की वस्तु रह गये।
जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड रचना—
धवला की रचना के पश्चात् उसके सबसे बडे पारगामी विद्वान् नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने इन दो ही विभागों को ध्यान में रखकर जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड की रचना की, ऐसा प्रतीत होता है। तथा उसके छहों खंडों का ख्याल करके उन्होंने गर्व के साथ कहा है कि ‘जिस प्रकार एक चक्रवर्ती अपने चक्र के द्वारा छह खंड पृथिवी को निर्विघ्न रूप से अपने वश में कर लेता है, उसी प्रकार अपने मतिरूपी चक्रद्वारा मैंने छह खंड सिद्धान्त का सम्यक््â प्रकार से साधन कर लिया—
जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण।
तह मइ चक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं।।३९७।। गो. क.।।
इससे आचार्य नेमिचंद्र को सिद्धान्त चक्रवर्ती का पद मिल गया और तभी से उक्त पूरे सिद्धान्त के ज्ञाता को इस पदवी से विभूषित करने की प्रथा चल पड़ी। जो इसके केवल प्रथम तीन खंडों में पारंगत होते थे उन्हें ही जान पड़ता है, त्रैविद्यदेव का पद दिया जाता था। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में अनेक मुनियों के नाम इन पदवियों से अलंकृत पाये जाते हैं। इन उपाधियों ने आचार्य श्री वीरसेन से पूर्व की सूत्राचार्य, उच्चारणाचार्य, व्याख्यानाचार्य, निक्षेपाचार्य और महावाचक की पदवियों का सर्वथा स्थान ले लिया किन्तु थोड़े ही काल में गोम्मटसार ने इन सिद्धान्तों का भी स्थान ले लिया और उनका पठन—पाठन सर्वथा रुक गया। आज कई शताब्दियों के पश्चात् इनके सुप्रचार का पुन: सुअवसर मिल रहा है।
दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यतानुसार षट्खंडागम और कषायप्राभृत ही ऐसे ग्रंथ हैं जिनका सीधा सम्बन्ध महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से माना जाता है। शेष तब श्रुतज्ञान इससे पूर्व ही क्रमश: लुप्त व छिन्न-भिन्न हो गया। द्वादशांग श्रुत का प्रस्तुत षट्खंडागम का द्वादशांग से सम्बन्ध ग्रंथ में विस्तार से परिचय कराया गया है।
बारहवें दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये पांच प्रभेद हैं। इनमें से पूर्वगत के चौदह भेदों में से द्वितीय अग्रायणीय पूर्व से ही जीवट्ठाण का बहुभाग और शेष पांच खंड संपूर्ण निकले हैं। जिनका क्रमभेद वंशवृक्षों से स्पष्ट हो जायेगा।
इस वंशवृक्ष से स्पष्ट है कि अग्रायणीय पूर्व के चयनलब्धि अधिकार के चतुर्थ भेद कर्मप्रकृति पाहुड के चौबीस अनुयोगद्वारों से ही चार खंड निष्पन्न हुए हैं। इन्हीं के बंधन अनुयोगद्वार के एकभेद बंधविधान से जीवट्ठाण का बहुभाग और तीसरा खंड बंधस्वामित्वविचय किस प्रकार निकले यह आगे के वंश वृक्षों से स्पष्ट हो जायेगा।
बंध के ११ अनुयोगद्वारों में से पांचवां द्रव्यप्रमाणानुगम है। वही जीवट्टाण की संख्या प्ररूपणा का उद्गम स्थान है।
इन वंश वृक्षों से षट्खंडागम का द्वादशांगश्रुत से सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है और साथ ही साथ उस द्वादशांग वाणी के साहित्य के विस्तार का ही कुछ अनुमान किया जा सकता है।