संपहि वड्ढमाणतित्थगंथकत्तारो वुच्चदे- पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाया महव्वया पंच। अट्ठ य पवयणमादा सहेउओ बंध-मोक्खो य।।३९।। को होदि त्ति सोहम्मिंदचालणादो जादसंदेहेण पंच-पंचसयंतेवासिसहियभादुत्तिदयपरिवुदेण माणत्थंभदंसणेणेव पणट्ठमाणेण वड्ढमाणविसोहिणा वड्ढमाणजिणिंददंसण वणट्ठासंखेज्जभवज्जियगरुवकम्मेण जिणिंदस्स तिपदाहिणं करिय पंचमुट्ठीए वंदिए हियएण जिणं झाइय पडिवण्णसंजमेण विसोहिबलेण अंतोमुहुत्तस्स उप्पण्णासेसगणिंदलक्खणेण उवलद्धजिणवयणविणिविणिग्गयबीजपदेण गोदमगोत्तेण बम्हणेण इंदभूदिणा आयार-सूदयद-ट्ठाण-समवायवियाहपण्णत्ति-णाहधम्मकहोवासयज्झयणंतयडदस-अणुत्तरोववादियदस-पण्णवायरण-विवाय-सुत्त-दिट्ठिवादाणं सामाइय-चउवीसत्थय-वंदणा-पडिक्कमण-वइणइय-किदियम्म दसवेयालि-उत्तरज्झयण-कप्पववहार-कप्पाकप्प-महाकप्प-पुंडरीय-महापुंडरीय-णिसिहियाणं चोद्दसपइण्णयाणमंगबज्झाणं च सावणमासबहुलपक्खजुगादि-पडिवयपुव्वदिवसे जेण रयणा कदा तेणिंदभूदि भडारओ वड्ढमाणजिणतित्थगंथकत्तारो। उत्तं च- वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। पाडिवदपुव्वदिवसे तिंत्थुप्पत्ती दु अभिजिम्मि।।४०।। एवं उत्तरतंतकत्तारपरूवणा कदा।
अब वर्धमान जिनके तीर्थ में ग्रंथकर्ता को कहते हैं- पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पाँच महाव्रत, आठ प्रवचनमाता अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्ति तथा सहेतुक बंध और मोक्ष।।३९।। ‘उक्त पाँच अस्तिकायादिक क्या है ? ऐसे सौधर्मेन्द्र के प्रश्न से संदेह को प्राप्त हुए, पाँच सौ-पाँच सौ शिष्यों से सहित तीन भ्राताओं से वेष्टित, मानस्तंभ के देखने से ही मान से रहित हुए, वृद्धि को प्राप्त होने वाली विशुद्धि से संयुक्त, वर्धमान भगवान के दर्शन करने पर असंख्यात भवों में अर्जित महान् कर्मों को नष्ट करने वाले, जिनेन्द्र देव की तीन प्रदक्षिणा करके पंच मृष्टियों से अर्थात् पाँच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वंदना करके एवं हृदय से जिन भगवान का ध्यान कर संयम को प्राप्त हुए, विशुद्धि के बल से मुहुर्त के भीतर उत्पन्न हुए समस्त गणधर के लक्षणों से संयुक्त तथा जिनमुख से निकले हुए बीजपदों के ज्ञान से सहित ऐसे गौतम गोत्र वाले इन्द्रभूति ब्राह्मण द्वारा चूँकि आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृतदशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग व दृष्टिवादांग, इन बारह अंगों तथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धिका, इन अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकों की श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में युग के आदि में प्रतिपदा के पूर्व दिन में रचना की थी, अतएव इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान जिनके तीर्थ में ग्रंथकर्ता हुए। कहा भी है- वर्ष के प्रथम मास व प्रथम पक्ष में श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के पूर्व दिन में अभिजित् नक्षत्र में तीर्थ की उत्पत्ति हुई।।४०।। इस प्रकार उत्तरतंत्रकर्ता की प्ररूपणा की।
संपहि उत्तरोत्तरतंतकत्तारपरूवणं कस्सामो। तं जहा-कत्तियमासकिण्णपक्खचोद्दसरत्तीए पच्छिमभाए महदिमहावीरे णिव्वुदे संते केवलणाणसंताणहरो गोदमसामी जादो। बारहवरसाणि केवलविहारेण विहरिय गोदमसामिम्हि णिव्वुदे संते लोहज्जाइरिओ केवलणाणसंताणहरो जादो। बारहवासाणि केवलविहारेण विहरिय लोहज्जभडारए णिव्वुदे संते जंबूभडारओ केवलणाण-संताणहरो जादो। अट्ठत्तीसवस्साणि केवलविहारेण विहरिय जंबूभडारए परिणिव्वुदे संते केवलणाण-संताणस्स वोच्छेदो जादो भरहक्खेत्तम्मिं। एवं महावीरे णिव्वाणं गदे बासट्ठिवरसेहि केवल-णाणदिवायरो भरहम्मि अत्थमिदि। ६२। ३। णवरि तक्काले सयलसुदणाणसंताणहरो विण्णुआइरियो जादो। तदो अत्तुट्टसंताणरूवेण णंदिआइरिओ अवराइदो गोवद्धणो भद्दबाहु त्ति एदे सकलसुद-धारया जादा। एदेसिं पंचण्हं पि सुदकेवलीणं कालसमासो वस्ससदं ।१००।५। तदो भद्दबाहुभडारए सग्गं गदे संते भरहक्खेत्तम्मि अत्थमिओ सुदणाण-संपुण्णमियंको, भरहखेत्तमावूरियमण्णाणं-धयारेण। णवरि एक्कारसण्णमंगाणं विज्जाणुपवादपेरंतदिट्ठिवादस्स य धारओ विसाहाइरिओ जादो। णवरि उवरिमचत्तारि वि पुव्वाणि वोच्छिण्णाणि तदेगदेसधारणादो। पुणो तं विगलसुदणाणं पोट्ठिल्ल-खत्तिय-जय-णाग-सिद्धत्थ-धिदिसेण-विजय-बुद्धिल्ल-गंगदेव-घम्मसेणाइरियपरंपराए तेयासीदिवरिससयाइमागंतूण वोच्छिण्णं। १८३।११। तदो धम्मसेणभडारए सग्गं गदे णट्ठे दिट्ठिवादुज्जोए एक्कारसण्ण मंगाणं दिट्ठिवादेगदेसस्स य धारयो णक्खत्ताइरियो जादो। तदो तमेक्कारसंगं सुदणाणं जयपाल-पांडु-धुवसेण-कंसो त्ति आइरियपरंपराए वीसुत्तरबेसदवासाइ-मागंतूण वोच्छिण्णं।२२०। ५। तदो कंसाइरिए सग्गं गदे वोच्छिण्णे एक्कारसंगुज्जोवे सुभद्दाइरियो आयारंगस्स सेसंग-पुव्वाणमेगदेसस्स य धारओ जादो। तदो तमायारंगं पि जसभद्द-जसबाहु-लोहाइरियपरंपराए अट्ठारहोत्तर-वरिससयमागंतूण वोच्छिण्णं।११८।४। सव्वकाल-समासो तेयासीदीए अहियछस्सदमेत्तो।६८३। पुणो एत्थ सत्तमासाहियसत्त-हत्तरिवासेसु।७७/७। वारिसेसु पंचमासाहिएसु वड्ढमाणजिणणि-व्वुददिणादो अइक्कंतेसु सगणरिंदरज्जुप्पत्ती जादो त्ति। एत्थ गाहा- सत्तसहस्सा णवसद पंचाणउदी सपंचमासा य। अइकंता वासाणं जइया तइया सगुप्पत्ती।।४३।। (७९९५/५)
अब उत्तरोत्तर तंत्रकर्ताओं की प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-कार्तिक मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि के पिछले भाग में अतिशय महान महावीर भगवान के मुक्त होने पर केवलज्ञान की सन्तान को धारण करने वाले गौतम स्वामी हुए। बारह वर्ष तक केवलविहार से विहार करके गौतम स्वामी के मुक्त हो जाने पर लोहार्य आचार्य केवलज्ञान-परम्परा के धारक हुए। बारह वर्ष केवलविहार से विहार करके लोहार्य भट्टारक के मुक्त हो जाने पर जम्बू भट्टारक केवलज्ञान की परम्परा के धारक हुए। अड़तीस वर्ष केवलविहार से विहार करके जम्बू भट्टारक के मुक्त हो जाने पर भरत क्षेत्र में केवलज्ञान परम्परा का व्युच्छेद हो गया। इस प्रकार भगवान् महावीर के निर्वाण को प्राप्त हो जाने पर बासठ वर्षों से केवलज्ञानरूपी सूर्य भरत क्षेत्र में अस्त हुआ (६२ वर्ष में ३ के.)। विशेष यह है कि उस काल में सकल श्रुतज्ञान की परम्परा को धारण करने वाले विष्णु आचार्य हुए। पश्चात् अविच्छिन्न सन्तान स्वरूप से नन्दि आचार्य, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु, ये सकल श्रुत के धारक हुए। इन पाँच श्रुतकेवलियों के काल का योग सौ वर्ष है (१०० वर्ष में ५ श्रुत के.)। पश्चात् भद्रबाहु भट्टारक के स्वर्ग को प्राप्त होने पर भरतक्षेत्र में श्रुतज्ञानरूपी पूर्ण चन्द्र अस्तमित हो गया। अब भरतक्षेत्र अज्ञान अंधकार से परिपूर्ण हुआ। विशेष इतना है कि उस समय ग्यारह अंगों और विद्यानुवाद पर्यन्त दृष्टिवाद अंग के भी धारक विशाखाचार्य हुए। विशेषता यह है कि इसके आगे के चार पूर्व उनका एक देश धारण करने से व्युच्छिन्न हो गये। पुन: वह विकल श्रुतज्ञान प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन, इन आचार्यों की परम्परा से एक सौ तेरासी वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया (१८३ वर्ष में ११ एकादशांग-दशपूर्वधर)। पश्चात् धर्मसेन भट्टारक के स्वर्ग को प्राप्त होने पर दृष्टिवाद-प्रकाश के नष्ट हो जाने से ग्यारह अंगों और दृष्टिवाद के एकदेश के धारक नक्षत्राचार्य हुए। तदनन्तर वह एकादशांग श्रुतज्ञान जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस, इन आचार्यों की परम्परा से दो सौ बीस वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया (२२० वर्ष में ५ एकादशांगधर)। तत्पश्चात् कंसाचार्य के स्वर्ग को प्राप्त होने पर ग्यारह अंगरूप प्रकाश के व्युच्छिन्न हो जाने पर सुभद्राचार्य आचारांग के और शेष अंगों एवं पूर्वों के एक देश के धारक हुए। तत्पश्चात् वह आचारांग भी यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य की परम्परा से एक सौ अठारह वर्ष आकार व्युच्छिन्न हो गया (११८ वर्ष में ४ आचारांगधर)। इस सब काल का योग छह सौ तेरासी वर्ष होता है (६२±१००±१८३±२२०±११८·६८३)। पुन: इसमें से सात मास अधिक सतत्तर वर्षों को होने के दिन से पाँच मास अधिक सात हजार नौ सौ पंचानवे वर्षों के बीतने पर शक नरेन्द्र के राज्य की उत्पत्ति हुगर्। यहाँ गाथा- जब सात हजार नौ सौ पंचानवे वर्ष और पाँच मास बीत गये तब शक नरेन्द्र की उत्पत्ति हुई।।४३।। (७९९५ व. ५ मा.)
एदेसु तिसु एक्केण होदव्वं। ण तिण्णमुवदेसाण सच्चत्तं, अण्णोण्णविरोहादो। तदो जाणिय वत्तव्वं। एत्तो उवरि पयदं परूवेमो-लोहाइरिये सग्गलोगं गदे आयार-दिवायरो अत्थमिओ। एवं वारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंग-पुव्वाणमेगदेसभूदपेज्जदोस-महाकम्मपयडिपाहुडादीणं धारया जादा। एवं पमाणीभूदमहरिसि-पणालेण आगंतूण महाकम्म-पयडिपाहुडामियजलपवाहो धरसेणभडारयं संपत्तो। तेण वि गिरिणयरचंदगुहाए भूदबलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं। तदो भूदबलिभडारएण सुदणईपवाहवोच्छेद-भीएण भवियलोगाणुग्गहट्ठं महाकम्मपयडिपाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि। तदो तिकालगोयरासेसपयत्थविसयपच्चक्खाणंतकेवलणाणप्पभावादो पमाणीभूदआइरियपणालेणागदत्तादो दिट्ठिट्ठविरोहाभावादो पमाणमेसो गंथो। तम्हा मोक्खकंखिणा भवियलोएण अब्भसेयव्वो। ण एसो गंथो थोवो ति मोक्खकज्जजणणं पडि असमत्थो, अमियघडसयवाणफलस्स चुलुवामियवाणे वि उवलंभादो।
इन तीन उपदेशों में एक होना चाहिए। तीनों उपदेशों की सत्यता संभव नहीं है, क्योंकि इनमें परस्पर विरोध है। इसका कारण जानकर कहना चाहिए। यहाँ से आगे प्रकृत की प्ररूपणा करते हैं-लोहाचार्य के स्वर्गलोक के प्राप्त होने पर आचारांगरूपी सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार भरतक्षेत्र में बारह सूर्यों के अस्तमित हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग पूर्वों के एकदेशभूत ‘पेज्जदोस’ और ‘महाकम्मपयडिपाहुड’ आदिकों के धारक हुए। इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षिरूप प्रणाली से आकर महाकम्मपयडिपाहुड- रूप अमृत-जल-प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी गिरिनगर की चन्द्रगुफा में सम्पूर्ण महाकम्म्पयडिपाहुड भूतबलि और पुष्पदन्त को अर्पित किया। पश्चात् श्रुतरूपी नदीप्रवाह के व्युच्छेद से भयभीत हुए भूतबलि भट्टारक ने भव्य जनों के अनुग्रहार्थ महाकम्मपयडिपाहुड का उपसंहार कर छह खण्ड (षट्खण्डागम) किये। अतएव त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाले प्रत्यक्ष अनन्त केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्यरूप प्रणाली से आने के कारण प्रत्यक्ष व अनुमान से चूँकि विरोध से रहित है अत: यह ग्रंथ प्रमाण है। इस प्रकार मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों को इसका अभ्यास करना चाहिए। चूँकि यह ग्रंथ स्तोक है अत: वह मोक्षरूप कार्य को उत्पन्न करने के लिए असमर्थ है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिए क्योंकि अमृत के सौ घड़ों के पीने का फल चुल्लु प्रमाण अमृत के पीने में भी पाया जाता है।