सिद्धान् सिद्ध्यर्थमानम्य, सर्वांस्रैलोक्यमूर्ध्वगान्।
इष्ट: सर्वक्रियान्तेऽसौ, शान्तीशो हृदि धार्यते।।१।।
अर्थ – त्रैलोक्य शिखर-सिद्धशिला पर विराजमान अनन्त सिद्धपरमेष्ठियों को नमस्कार करके जो समस्त क्रियाओं के अन्त में इष्ट-विशेषरूप से मान्य-स्वीकार किए गये हैं ऐसे श्री शांतिनाथ भगवान को मैं अपने हृदय में धारण (विराजमान) करता हूँ।।१।।
त्रैकालिकार्हतोऽनन्तां-श्चतुर्विंशतितीर्थपान्।
सीमन्धरादितीर्थेशान्, नुम: सर्वार्थसिद्धये।।२।।
अर्थ – तीनों कालों में होने वाले समस्त अर्हंतों को, चौबीस तीर्थंकरों को तथा सीमंधर आदि विहरमाण बीस तीर्थंकरों की सर्व मनोरथों की सिद्धि हेतु हम वंदना करते हैं।।२।।
शान्ति कुन्थ्वरतीर्थेशां, हस्तिनागपुरीं स्तुम:।
गर्भजन्मतपोज्ञानै:, पूतां तांश्च विशुद्धये।।३।।
अर्थ – श्री शांतिनाथ, वुंâथुनाथ, अरहनाथ तीर्थंकरों को तथा उनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान कल्याणकों से पवित्र हस्तिनापुर नगरी की हम आत्म विशुद्धि के लिए स्तुति करते हैं।।३।।
अष्टादशमहाभाषा, लघुसप्तशतान्विता।
द्वादशाङ्गमयी देवी, सा चित्ताब्जेऽवतार्यते।।४।।
अर्थ – अठारह महाभाषा और सात सौ लघु भाषाओं से समन्वित द्वादशांगमयी जिनवाणी माता है उसको हम अपने चित्तरूपी कमल में अवतरित करते हैं।।४।।
सर्वे वृषभसेनादि-वीरांगजान्त्यसाधव:।
तेभ्यो नमोऽस्तुनश्चामी, धर्मस्याक्षुण्णकारका:।।५।।
अर्थ – श्री वृषभसेन गणधर मुनिराज को आदि में करके अवसर्पिणी काल के अंतिम वीरांगज नामक मुनिराज पर्यन्त समस्त मुनियों को हमारा नमोऽस्तु होवे, ये ही धर्मतीर्थ की अक्षुण्ण परम्परा को चलाने वाले हैं।।५।।
श्रीधरसेनमाचार्यं, श्रुताब्धे: पारगं नुम:।
सिद्धान्तज्ञानमद्यापि, यत्प्रसादाद्धि दृश्यते।।६।।
अर्थ – श्रुतसमुद्र के पारगामी श्री धरसेन आचार्य की हम वंदना करते हैं जिनकी कृपा प्रसाद से आज भी सिद्धान्त का ज्ञान दृष्टिगोचर हो रहा है।।६।।
पुष्पदन्तगुरुं भक्त्या, सूरिं भूतबलिं नुम:।
षट्खण्डागमो याभ्यां, भुवि ग्रन्थोऽवतारित:।।७।।
अर्थ – जिनके द्वारा इस धरती पर षट्खण्डागम ग्रंथ का अवतार हुआ है ऐसे श्री पुष्पदंत एवं भूतबलि आचार्य गुरुवरों को हम भक्तिपूर्वक नमन करते हैं।।७।।
वीरसेनमुनीन्द्रस्यो-पकारो केन वण्र्यते।
धवलाटीकया येन, भव्यान्त: धवलीकृतम्।।८।।
अर्थ – धवला टीका रच करके जिन्होंने भव्यों का अन्त:करण धवल-निर्मल किया है ऐसे श्री वीरसेन मुनीन्द्र के उपकार का वर्णन कौन कर सकता है ? अर्थात् उनके द्वारा किये गये परम उपकार को शब्दों में नहीं कहा जा सकता है।।८।।
कलौ विंशशताब्दौ य:, प्रथमाचार्य इष्यते।
नुमश्चारित्रचक्रीशं, तं श्रीमत्शांतिसागरम्।।९।।
अर्थ – इस कलिकाल की बीसवीं शताब्दी में प्रथम जैनाचार्य के रूप में प्रसिद्ध चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर मुनिराज को हम नमस्कार करते हैं।।९।।
तस्य पट्टाधिपश्चाद्यो, गुरु: श्रीवीरसागर:।
ते नमो येन स्वल्पज्ञा, साहं ज्ञानमती कृता।।१०।।
अर्थ – उन श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम पट्टाधीश मुनिशिष्य आचार्यश्री वीरसागर गुरु को मेरा नमन है जिन्होंने मुझ अल्पज्ञानी को ‘ज्ञानमती’ नाम प्रदान किया था।।१०।।<span
ब्राह्मीश्रेष्ठाम्बिकादिभ्य:, सर्वश्रीसंयतान्त्यजा:।
भक्त्या वंदामहे सर्वा:, धर्मपुत्र्य इवार्यिका:।।११।।
अर्थ – युग की आदि में जो ‘‘ब्राह्मी’’ नाम की प्रधान-गणिनी आदि आर्यिकाएँ हुई हैं तथा युग के अन्त में जो ‘‘सर्वश्री’’ नाम की संयतिका-आर्यिका होंगी, धर्मपुत्री के समान उन समस्त आर्यिकाओं की हम भक्तिपूर्वक वंदना करते हैं।।११।।
एकादशाङ्गभृज्जाता, संयतिका सुलोचना।
नमामस्तां त्रिधा नित्यं, सिद्धान्तज्ञानलब्धये।।१२।।
अर्थ – ग्यारह अंगरूप श्रुत को धारण करने वाली संयतिका आर्यिका सुलोचना को हम सिद्धान्त ज्ञान की प्राप्ति हेतु नित्य ही मन-वचन-काय पूर्वक वंदामि करते हैं।।१२।।
षट्खण्डागमसिद्धान्तं, भक्त्यानम्य पुन: पुन:।
अस्मिन् प्रथमखण्डस्य, मया टीका विरच्यते।।१३।।
अर्थ – षट्खण्डागम सिद्धान्त ग्रंथ को पुन:-पुन: नमन करते हुए इसके प्रथमखण्ड की टीका मेरे द्वारा रची-लिखी जा रही है।।१३।।
उद्धृत्योद्धृत्य टीकांशा-नाद्या या सत्प्ररूपणा।
सरलीक्रियते सैषा, ज्ञानद्र्धिप्राप्तयेऽचिरात्।।१४।।
अर्थ – इस ग्रंथ की टीका के अंशों को यथास्थान निकाल-निकालकर प्रथमखंड की जो सत्प्ररूपणा है, उस प्रकरण की सरल टीका मेरे द्वारा लिखी जा रही है यह शीघ्र ही मुझे ज्ञान ऋद्धि की प्राप्ति करावे।।१४।।
ज्ञानवृद्धिं क्रियान्नित्य-मार्यिका चंदनामति:।
यस्या: प्रार्थनयेदानीं, टीका प्रारभ्यते मया।।१५।।
अर्थ – जिनकी प्रार्थना पर मैंने यह व्याख्या (टीका) प्रारंभ की है वे आर्यिका चन्दनामती नित्य ही ज्ञान की वृद्धि करें।।१५।।
शारदे! तिष्ठ मच्चित्ते, यावन्न पूर्णमाप्नुयात्।
प्रारब्धकार्यमेतद्धि, तावच्छत्तिंâ च देहि मे।।१६।। >
अर्थ – हे सरस्वती मात:! मैंने नवीन टीका रचने का जो यह कार्य प्रारंभ किया है जब तक यह कार्य पूर्ण न होवे, तब तक आप मेरे हृदय में विराजमान रहें और मुझे शक्ति प्रदान करें ताकि यह कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो।।१६।।
सिद्धान्तचिंतामणिनामधेया, सिद्धान्तबोधामृतदानदक्षा।
टीका भवेत्स्वात्मपरात्मनोर्हि, कैवल्यलब्ध्यै खलु बीजभूता।।१७।।
अर्थ – सिद्धान्त ज्ञानरूपी अमृत को प्रदान करने में दक्ष-कुशल यह ‘‘सिद्धान्तचिंतामणि’’ नाम की टीका मुझे तथा पर-अन्य भव्यात्माओं को वैâवल्य प्राप्ति के लिए बीजभूत होवे।।१७।।
पंचकल्याणमेदिन्य: सातिशयस्थलानि च।
यात्रानिर्विघ््नसिद्ध्यर्थं नमामश्चात्मशुद्धये।।१८।।
अर्थ – तीर्थंकरों के पंचकल्याणक से पवित्र भूमियाँ अर्थात् तीर्थक्षेत्रों एवं अतिशय क्षेत्रों को हम अपनी यात्रा की निर्विघ्न सिद्धि (पूर्णता) के लिए तथा अपनी आत्मशुद्धि के लिए नमस्कार करते हैं।।१८।।
सिद्धान् नत्वा गुणस्थाना-तीतानन्तगुणान्वितान्।
वंदामहे त्रिसंध्यं ता – ननन्तगुणलब्धये।।१९।।
अर्थ – जिन्होंने गुणस्थानों से अतीत-रहित अवस्था को प्राप्त कर लिया है तथा जो अनंतगुणों से समन्वित हैं ऐसे सम्पूर्ण सिद्ध परमेष्ठियों को हम अनंतगुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करते हैं।।१९।।
चन्द्रप्रभो वागमृतांशुभिर्यो, जनान् प्रपुष्यन्नकलंकयुक्त:।
न चापि दोषाकरतां प्रयाति, सदा स्तुवे तं भवतापशून्यम्।।२०।।
अर्थ – जो चन्द्रप्रभ भगवान अपने वचनरूपी अमृतकिरणों से भव्यजनों को पुष्ट करते हुए कलंक से रहित हैं और दोषाकर-दोषों के स्थान को भी प्राप्त नहीं करते हैं ऐसे भवताप से रहित चन्द्रप्रभ की मैं स्तुति करता हूँ।।२०।।
महावीरो जगत्स्वामी, सातिशायीति विश्रुत:।
तस्मै नमोऽस्तु मे भक्त्या, पूर्णसंयमलब्धये।।२१।।
अर्थ – तीनों लोकों के अधिपति महावीरस्वामी का अतिशय वर्तमान में खूब प्रसिद्ध है उन महावीर स्वामी को पूर्णसंयम की प्राप्ति हेतु मेरा नमस्कार है।।२१।।
स्वकर्मक्षयत: शांतिं, लब्ध्वा शान्तिकरोऽभवत्। शान्तिनाथ!
नमस्तुभ्यं, मन:क्लेशप्रशान्तये।।२२।।
अर्थ – जिन्होंने अपने कर्मों के क्षय से परमशांति को प्राप्त करके जगत् में शान्ति को प्रदान किया है उन श्रीशांतिनाथ भगवान को मानसिक क्लेश की शांति हेतु मेरा नमस्कार है।।२२।।
महाव्रतधरो धीर:, सुव्रतो मुनिसुव्रत:।
नमस्तुभ्यं तनुतान्मे, रत्नत्रयस्य पूर्णताम्।।२३।।
अर्थ – जो महाव्रतो को धारण करने वाले धीर हैं, जिनका सुव्रत अथवा मुनिसुव्रत नाम है ऐसे हे मुनिसुव्रत भगवान्! आप मुझमें रत्नत्रय की पूर्णता करें इसलिए आपको मेरा नमस्कार हो।।२३।।
हस्तिनागपुरं तीर्थं संस्तुमोऽपीह ये भवा:।
नुम: श्री शांतिनाथादी-नाहारादायकानपि।।२४।।
अर्थ– हस्तिनापुर तीर्थ का हम स्तवन करते हैं तथा हस्तिनापुर में जन्म लेने वाले शांति, वुंâथु, अरहनाथ भगवान को एवं वहाँ आहार ग्रहण करने वाले महामुनि प्रभु ऋषभदेव और अकम्पनाचार्यादि सात सौ मुनियों की भी हम स्तुति करते हैं।।२४।।
केवलज्ञानबीजं स्यात्, श्रुतज्ञानं जिनोद्गतम्।
तस्मै नमोऽस्तु मे नित्यं, द्रव्यभावश्रुताप्तये।।२५।।
अर्थ – जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल से प्रगट हुआ श्रुतज्ञान केवलज्ञान का बीज है अर्थात् केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाला है, इसलिए द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के श्रुत की प्राप्ति के लिए उस श्रुतज्ञान को मेरा नमस्कार होवे।।२५।।
जीयात् ऋषभदेवस्य, शासनं जिनशासनम्।
अन्तिमवीरनाथस्या-प्यहिंसाशासनं चिरम्।।२६।।
अर्थ– भगवान् ऋषभदेव का शासन जो जिनशासन कहलाता है वह जिनशासन पृथ्वी पर जयशील होवे तथा अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का भी अहिंसामयी शासन चिरकाल तक जयशील होवे।।२६।।
अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्।
आचार्या: पाठकाश्चापि, साधवो मम मंगलम्।।२७।।
अर्थ – अर्हन्त भगवान् मेरा मंगल करें और सिद्धपरमेष्ठी मंगल करें तथा आचार्य, उपाध्याय एवं साधुपरमेष्ठी भी मेरे लिए मंगलकारी होवें।।२७।।
जंबूद्वीपेऽथ प्राग्द्वीपे, भरतेऽप्यार्यखण्डके।
यावन्ति जिनबिम्बानि, स्तूयन्ते तानि भक्तित:।।२८।।
अर्थ – मध्यलोक के प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप में जो भरतक्षेत्र है उसके आर्यखण्ड में जितने भी जिनबिम्ब विराजमान हैं, उन सबकी मेरे द्वारा स्तुति की जाती है।।२८।।
पाश्र्वनाथं जिनं नत्वा, केवलज्ञानभूषितम्।
शारदां हृदि संस्थाप्य, वंदे सर्वान् गणीश्वरान्।।२९।।
अर्थ – केवलज्ञान लक्ष्मी से विभूषित श्री पाश्र्वनाथ जिनेन्द्र को नमस्कार करके शारदा-सरस्वती माता को अपने हृदय में स्थापित करके मैं सभी गणधर देवों की वंदना करती हूँ।।२९।।
अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, पाश्र्वनाथश्च मंगलम्।
चतुर्विंशतितीर्थेशा, नित्यं कुर्वन्तु मंगलम्।।३०।।
अर्थ – अरिहंत परमेष्ठी हम सबके लिए मंगलकारी होवें एवं पाश्र्वनाथ तीर्थंकर भगवान् सबका मंगल करें तथा चौबीसो तीर्थंकर भगवान् नित्य ही मंगलप्रद होवें।।३०।।
शारदा गुरवश्चापि, कुर्युर्जगति मंगलम्।
जैनेन्द्रशासनं नित्यं, कुर्यात्सर्वस्य मंगलम्।।३१।।
अर्थ – सरस्वती माता एवं साधुपरमेष्ठी गुरुजन इस जगत् में मंगल करें तथा जिनेन्द्र भगवान् का जैनशासन नित्य ही सबका मंगल करे, यही मंगलभावना है।।३१।।