मंगलाचरणं सिद्धा: सिद्ध्यन्ति सेत्स्यन्ति, त्रैकाल्ये ये नरोत्तमा:।
सर्वार्थसिद्धिदातार:, ते मे कुर्वन्तु मंगलम्।।१।।
श्लोकार्थ –जो महापुरुष तीनों कालों में-भूतकाल में सिद्ध हो चुके हैं, वर्तमान में सिद्ध हो रहे हैं और भविष्य में सिद्धपद को प्राप्त करेंगे, वे सर्वार्थसिद्धि को प्रदान करने वाले-सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि करने वाले सिद्धपरमेष्ठी भगवान मेरा और तुम्हारा मंगल करें अर्थात् हम सभी के लिए मंगलकारी होवें।
(१) असंयत सम्यग्दृष्टी का उत्कृष्ट अंतर
एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने तीनों करण करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करते हुए अनन्त संसार छेदकर सम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथम समय में संसार को अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर लिया।
पुन: उपशमसम्यक्त्व के साथ अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर
(१)उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियाँ अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर अन्तर को प्राप्त हुआ। पुन: मिथ्यात्व के साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर अंतिम भव में संयम को अथवा संयमासंयम को प्राप्त होकर कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्वी होकर अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण संसार के अवशेष रह जाने पर परिणामों के निमित्त से असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। इस प्रकार सूत्रोक्त अन्तरकाल प्राप्त हुआ ।
(२) पुन: अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त होकर
(३) प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थान संबंधी सहस्रों परावर्तनों को करके
(४) क्षपक श्रेणी के योग्य विशुद्धि से विशुद्ध होकर
(५)अपूर्वकरणसंयत
(६)अनिवृत्तिकरण
(७) सूक्ष्मसाम्परायसंयत
(८)क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ
(९)सयोगिकेवली
(१०) और अयोगिकेवली
(११) होकर निर्वाण को प्राप्त हो गया। इस प्रकार से इन ग्यारह अन्तर्मुहूर्तों से कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का उत्कृष्ट अन्तर होता है। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. १५)
(२) संयतासंयत का उत्कृष्ट अंतर
अब संयतासंयत जीवों का उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने तीनों करण करके सम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथम समय में सम्यक्त्वगुण के द्वारा अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण किया। पुन: सम्यक्त्व के साथ ही ग्रहण किये गये संयमासंयम के साथ अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर, उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियाँ अवशेष रह जाने पर सासादनगुणस्थान को प्राप्त हो
(१) अन्तर को प्राप्त हो गया और मिथ्यात्व के साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर अंतिम भव में असंयम से सहित सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को प्राप्त होकर कृतकृत्य वेदकसम्यक्त्वी हो परिणामों के निमित्त से संयमासंयम को प्राप्त हुआ
(२)इस प्रकार से इस गुणस्थान का अन्तर प्राप्त हो गया। पुन: अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त होकर
(३) प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थान संबंधी सहस्रों परिवर्तनों को करके
(४) क्षपकश्रेणी के योग्य विशुद्धि से विशुद्ध होकर
(५) अपूर्वकरण
(६) अनिवृत्तिकरण
(७) सूक्ष्मसाम्पराय
(८) क्षीणकषाय
(९) सयोगिकेवली
(१०) और अयोगिकेवली
(११) होकर निर्वाण को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से इन ग्यारह अन्तर्मुहूर्तों से कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल संयतासंयत का उत्कृष्ट अन्तर होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. १६)
(३) प्रमत्त संयत का उत्कृष्ट अन्तर
अब प्रमत्तसंयत का अन्तर कहते हैं-एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्व और संयम को एक साथ प्राप्त होते हुए अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र किया। पुन: उस अवस्था में अन्तर्र्मुहूर्त रहकर
(१) प्रमत्तसंयत हुआ
(२) इस प्रकार से यह अर्धपुद्गलपरिवर्तन की आदि दृष्टिगोचर हुई। पुन: उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियाँ अवशेष रह जाने पर सासादनगुणस्थान में जाकर अन्तर को प्राप्त होकर मिथ्यात्व के साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल परिभ्रमण कर अंतिम भव में असंयमसहित सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को प्राप्त होकर कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वी हो अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त होकर प्रमत्तसंयत हो गया
(३) इस प्रकार से इस गुुणस्थान का अन्तर प्राप्त हो गया। पश्चात् क्षपकश्रेणी के योग्य अप्रमत्तसंयत हुआ
(४) पुन: अपूर्वकरणसंयत
(५) अनिवृत्तिकरण संयत
(६) सूक्ष्मसाम्परायसंयत
(७) क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ
(८) सयोगिकेवली
(९)और अयोगिकेवली
(१०)होकर निर्वाण को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से दश अन्तर्मुहूर्तों से कम अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल प्रमत्तसंयत का उत्कृष्ट अन्तर होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. १६-१७ )
(४) अप्रमत्त संयत का उत्कृष्ट अन्तर
अब अप्रमत्तसंयत का अन्तर कहते हैं-एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्व को और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को एक साथ प्राप्त होकर सम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथम समय में ही अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र किया। उस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रहकर
(१) प्रमत्तसंयत हुआ और अन्तर को प्राप्त होकर मिथ्यात्व के साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल परिवर्तन कर अंतिम भव में सम्यक्त्व अथवा संयमासंयम को प्राप्त होकर दर्शनमोह की तीन और अनन्तानुबंधी की चार इन सात प्रकृतियों का क्षपणकर अप्रमत्तसंयत हो गया
(२) इस प्रकार अप्रमत्तसंयत का अन्तरकाल उपलब्ध हुआ। पुन: प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में सहस्रों परावर्तनों को करके
(३) अप्रमत्तसंयत हुआ
(४) पुन: अपूर्वकरण
(५) अनिवृत्तिकरण
(६) सूक्ष्मसाम्पराय
(७) क्षीणकषाय
(८) सयोगिकेवली
(९)और अयोगिकेवली
(१०) होकर निर्वाण को प्राप्त हुआ। इस प्रकार दश अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल प्रमाण अप्रमत्तसंयत का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो गया।
अब असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी का अन्तर कहते हैं-मोहकर्म की अट्ठाईस कर्मप्रकृतियों की सत्ता वाला कोई एक तिर्यंच, अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ और छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त होकर
(१) विश्राम लेकर
(२) विशुद्ध होकर
(३) वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ
(४)पुन: संक्लिष्ट हो मिथ्यात्व को प्राप्त होकर अन्तर को प्राप्त हुआ। आयु के अंत में तिर्यंचायु बांधकर पुन: अन्तर्मुहूर्त विश्राम करके विशुद्ध होकर उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त हुआ
(५) इस प्रकार इस गुणस्थान का अन्तर लब्ध हुआ। पुन: मिथ्यात्व में जाकर नरक से निकला
(६)इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तों से कम तेंतीस सागरोपमकाल असंयतसम्यग्दृष्टि का उत्कृष्ट अन्तर होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २६)
(६) मनुष्य का अप्रमत्तसंयमी होकर उत्कृष्ट अंतर बताते हैं
अब अप्रमत्तसंयत का उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता रखने वाला कोई एक जीव अन्य गति से आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर गर्भ काल से लेकर आठ वर्ष का हुआ और सम्यक्त्व तथा अप्रमत्त गुणस्थान को एक साथ प्राप्त हुआ
(१)पुन: प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आकर अन्तर को प्राप्त हुआ और अड़तालीस पूर्वकोटि काल तक परिभ्रमण कर अंतिम पूर्वकोटि में बद्धदेवायु से सहित होता हुआ अप्रमत्तसंयत हो गया। इस प्रकार से अन्तर प्राप्त हुआ
(२)तत्पश्चात् प्रमत्तसंयत होकर
(३) मरा और देव हो गया। ऐसे तीन अन्तर्मुहूर्तों से अधिक आठ वर्षों से कम अड़तालीस पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. ५६) ==(७) संयतासंयत मनुष्य का उत्कृष्ट अंतर बतलाते हैं
(५) तत: अप्रमत्तादिनवान्तर्मुहूर्तै: सिद्धो जात:। अष्टवर्षै: चतुर्दशान्तर्मुहूर्तैश्च न्यूनं द्वाभ्यां पूर्वकोटीभ्यां सातिरेकं त्रयस्त्रिंशत्सागरप्रमाणमुत्कृष्टान्तरं। संयतासंयत का उत्कृष्ट अंतर कहते हैं-एक जीव पूर्वकोटि वर्ष की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहाँ गर्भ को आदि लेकर आठ वर्षों के पश्चात् अंतर्मुहूर्त से
(१) क्षायिकसम्यक्त्व को प्राप्त कर
(२) विश्राम लेकर
(३) संयमासंयम को प्राप्तकर
(४)संयम को प्राप्त हुआ। वहाँ संयमसहित पूर्वकोटीकाल बिताकर मरा और एक समय कम तेंतीस सागरोपम की आयुस्थिति प्रमाण वाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर पूर्वकोटी की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। जीवन के अल्प अवशेष रह जाने पर संयमासंयम को प्राप्त हुआ
(५) इसके पश्चात् अप्रमत्तादि गुणस्थानसंबंधी नौ अंतर्मुहूर्तों से सिद्ध हो गया। इस प्रकार आठ वर्ष और चौदह अंतर्मुहूर्तों से कम दो पूर्वकोटियों से कुछ अधिक तेंतीस सागरोपमकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत का उत्कृष्ट अंतर होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. १५८)
(८) पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंच-तिर्यंचिनी के क्षायिक भाव नहीं होता है
सम्यग्दृष्टे: औपशमिक: क्षायिक: क्षायोपशमिको वा। औदयिकेन भावेन पुन: असंयतोभाव:, संयतासंयत: इति क्षायोपशमिको भाव:। अस्ति किञ्चिद्विशेष:-पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिनीषु असंयतसम्यग्दृष्टिषु औपशमिक: क्षायोपशमिको वा न च क्षायिक:, क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां बद्धायुष्कानां स्त्रीवेदेषु उत्पत्तेरभावात्, मनुष्यगतिव्यतिरिक्तशेषगतिषु दर्शनमोहनीयक्षपणाभावाच्च। सम्यग्मिथ्यादृष्टि के क्षायोपशमिक भाव होता है, सम्यग्दृष्टि के औपशमिक-क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक में से कोई भी भाव होता है। औदयिक भाव से युक्त असंयतभाव, संयतासंयत भाव ये क्षायोपशमिक भाव होते हैं। यहाँ कुछ विशेष कथन करते हैं-पंचेन्द्रिययोनिमती तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों में औपशमिक अथवा क्षायोपशमिक भाव होता है, क्षायिक भाव नहीं होता है, क्योंकि बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों का स्त्रीवेदियों में उत्पत्ति का अभाव पाया जाता है और मनुष्यगति को छोड़कर शेष गतियों में दर्शनमोहनीय के क्षपण का अभाव देखा जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २०८)
(९) भाववेद की अपेक्षा तीनों वेदों में नव गुणस्थान होते हैं। यहाँ द्रव्य से पुरुषवेदी ही हैं ऐसा जानना।
देवगति में देवों में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।८१।।
सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।८२।।
सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं।।८३।।
देवों में असंयतसम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणित हैं।।८४।।
देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।८५।।
देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं।।८६।।
देवों में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं।।८७।।
देवों में भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क देव और देवियाँ तथा सौधर्म-ईशान कल्पवासिनी देवियाँ, इनका अल्पबहुत्व सातवीं पृथिवी के अल्पबहुत्व के समान है।।८८।।
सौधर्म-ईशान कल्प से लेकर शतार-सहस्रार कल्प तक कल्पवासी देवों में अल्पबहुत्व देवगति सामान्य के अल्पबहुत्व के समान है।।८९।।
आनत-प्राणत कल्प से लेकर नवग्रैवेयक विमानों तक विमानवासी देवों में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।९०।।
उक्त विमानों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।९१।।
उक्त विमानों में सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं।।९२।।
उक्त विमानों में मिथ्यादृष्टियों से असंयत-सम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।९३।।
आनत-प्राणत कल्प से लेकर नवग्रैवेयक तक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि देव सबसे कम हैं।।९४।।
उक्त विमानों में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं।।९५।।
उक्त विमानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।९६।।
नव अनुदिशों को आदि लेकर अपराजित नामक अनुत्तरविमान तक विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।९७।।
उक्त विमानों में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं।।९८।।
उक्त विमानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।९९।।
सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसग्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।१००।।
उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।१०१।।
क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।१०२।।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २७४ से २७८ तक)
(१२) प्रथम नरक में क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंख्यातों हैं।
औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में सयोगिकेवली सबसे कम हैं।।१२२।।
औदारिकमिश्रकाययोगियों में सयोगिकेवली जिनों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१२३।।
औदारिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१२४।।
औदारिकमिश्रकाययोगियों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं।।१२५।।
औदारिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।१२६।।
औदारिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं।।१२७।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-कपाट समुद्घात के समय आरोहण और अवतरणक्रिया में संलग्न चालीस केवलियों के अवलम्बन से औदारिकमिश्रकाययोगियों में सयोगिकेवली सबसे कम हो जाते हैं। देव, नारकी और मनुष्यों से आकर तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोग में सयोगिकेवली जिनों से संख्यातगुणित पाये जाते हैं। सासादन जीव असंख्यातगुणे हैं। यहाँ पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग गुणकार है। गुणकार क्या है ? मिथ्यादृष्टि जीव अनंतगुणे हैं। यहाँ अभव्यसिद्धों से अनन्तगुणित और सिद्धों से भी अनन्तगुणित राशि गुणकार है, ऐसा जानना चाहिए। चतुर्थ गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं, क्योंकि दर्शनमोहनीयकर्म के क्षय से उत्पन्न हुए श्रद्धान वाले जीवों का होना अति दुर्लभ है। क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि संख्यातगुणा हैं, क्योंकि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाले जीव बहुत पाये जाते हैं। संख्यात समय यहाँ गुणकार है। इस प्रकार द्वितीय स्थल में औदारिकमिश्रयोग में अल्पबहुत्व का प्रतिपादन करने वाले छह सूत्र पूर्ण हुए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २८६ व २८७)
(१४) वैक्रियिक मिश्रकाययोगियों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संख्यातों हैं एवं वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातों हैं।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।१३२।।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१३३।।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१३४।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-जिस प्रकार का अल्पबहुत्व देवगति में कहा गया है उसी प्रकार की व्यवस्था वैक्रियिककाययोगियों में जानना चाहिए। शेष सूत्रों का अर्थ सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में वैक्रियिकमिश्रकाययोग में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम होते हैं, क्योंकि उपशमसम्यक्त्व के साथ उपशमश्रेणी में मरे हुए जीवों का प्रमाण अत्यन्त अल्प होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उनसे संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उपशमश्रेणी में मरे हुए उपशामकों से संख्यातगुणित असंयतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों की अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का संचय संभव है। उनसे असंख्यातगुणे अधिक वेदकसम्यग्दृष्टि होते हैं, क्योंकि तिर्यंचों से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों का देवों में उत्पन्न होना संभव है। यहाँ गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग मानना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २८७ से २८८)
(१५) कार्मणकाययोगियों में क्षायिक सम्यग्दृष्टी संख्यातगुणित हैं।
कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।१४१।।
कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१४२।।
कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१४३।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-प्रतर और लोकपूरण समुद्घात में अधिक से अधिक मात्र साठ सयोगिकेवली जिन पाये जाने के कारण उनकी संख्या सबसे कम होती है। चतुर्थ गुणस्थान में सबसे कम उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं, क्योंकि उपशमश्रेणी में उपशमसम्यक्त्व के साथ मरे हुए संयतों का प्रमाण संख्यात ही पाया जाता है। कार्मणकाययोग में क्षायिकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणे होते हैं।
शंका-पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से असंख्यात जीव विग्रह क्यों नहीं करते हैं ?
समाधान-ऐसी आशंका पर आचार्य कहते हैं कि न तो असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव एक साथ मरते हैं, अन्यथा मनुष्यों में असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टियों के होने का प्रसंग आ जायेगा। न मनुष्यों में ही असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव मरते हैं क्योंकि उनमें असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का अभाव है। न असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि तिर्यंच ही मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, क्योंकि उनमें आपके अनुसार व्यय होता है। इसलिए विग्रहगति में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यात ही होते हैं तथा संख्यात होते हुए भी वे उपशमसम्यग्दृष्टियों से संख्यातगुणित होते हैं, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टियों के आय का कारण से क्षायिकसम्यग्दृष्टियों के आय का कारण संख्यातगुणा हैं। वेदकसम्यग्दृष्टि इनसे असंख्यातगुणे होते हैं। यहाँ पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग गुणकार है, जो पल्योपम के असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है और प्रतिभाग क्षायिकसम्यग्दृष्टि राशि से गुणित असंख्यात आवली प्रमाण है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २९०-२९४)
(१६) भावस्त्रीवेदी जो कि द्रव्य से पुरुषवेदी हैं उनके चौदहों गुणस्थान होते हैं, उनकी संख्या दिखाते हैं-
वेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेदियों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दोनों ही गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं।।१४४।।
स्त्रीवेदियों में उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं।।१४५।।
स्त्रीवेदियों में क्षपकों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं।।१४६।।
स्त्रीवेदियों में अप्रमत्तसंयतों से प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं।।१४७।।
स्त्रीवेदियों में प्रमत्तसंयतों से संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं।।१४८।।
स्त्रीवेदियों में संयतासंयतों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१४९।।
स्त्रीवेदियों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१५०।।
स्त्रीवेदियों में सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१५१।।
स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१५२।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-भावस्त्रीवेद को धारण करने वाले द्रव्य पुरुषवेदियों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती मुनियों की संख्या मात्र दस होने के कारण प्रवेश की अपेक्षा वे एक समान और सबसे कम होते हैं। इन दोनों गुणस्थानों में क्षपक श्रेणी वाले मुनियों की संख्या बीस प्रमाण होने से वह भी कम ही है।
स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।१५३।।
स्त्रीवेदियो में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से उपशम सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१५४।।
स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१५५।।
स्त्रीवेदियों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।१५६।।
क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१५७।।
उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१५८।।
इसी प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दोनों गुणस्थानों में स्त्रीवेदियों का अल्पबहुत्व है।।१५९।।
स्त्रीवेदियों में उपशामक जीव सबसे कम हैं।।१६०।।
स्त्रीवेदियों में उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं।।१६१।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-उपर्युक्त सूत्रों का अर्थ सरल है। भावस्त्रीवेदी मुनि श्रेणी में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि सबसे कम होते हैं, उपशमसम्यग्दृष्टि उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं। सबसे कम उपशामक मुनियों की संख्या है और क्षपक मुनि संख्यातगुणे होते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २९२-२९३-२९४)
(१७) पुरुषवेदियों में संयतासंयत असंख्यात हैं
संजदासंजदा असंखेज्जगुणा।।१६६।।
पुरुषवेदियों में अप्रमत्तसंयतों से संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं।।१६६।।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २९५)
(१८) नपुंसकवेदियों में संयतासंयत असंख्यात हैं। असंयत सम्यक्त्वी भी असंख्यात हैं।
संजदासंजदा असंखेज्जगुणा।।१७९।।
सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१८०।।
सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा।।१८१।।
असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१८२।।
नपुंसकवेदियों में प्रमत्तसंयतों से संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं।।१७९।।
नपुंसकवेदियों में संयतासंयतों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१८०।।
नपुंसकवेदियों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१८१।।
नपुंसकवेदियों में सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१८२।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-भावनपुंसकवेदी, द्रव्यपुरुषवेदी जीवों में आठवें-नवमें दोनों गुणस्थानों में प्रवेश की अपेक्षा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव एक समान और सबसे कम हैं, क्योंकि उनका प्रमाण पाँच की संख्यामात्र है। क्षपकों की संख्या दश प्रमाण है। अप्रमत्तसंयत संचयराशि को ग्रहण करने के कारण संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत उनसे संख्यातगुणे हैं। संयतासंयत जीवो का गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है अत: उनकी संख्या असंख्यातगुणी है। सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं, यहाँ आवली का असंख्यातवाँ भाग गुणकार है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि उनसे संख्यातगुणे हैं, यहाँ संख्यात समय गुणकार है। असंयतसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं, यहाँ गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग है। इनसे अनंतगुणी संख्या मिथ्यादृष्टि जीवों की है, यहाँ अभव्यों से अनन्तगुणा गुणकार है और सिद्धों से भी अनंतगुणा है, जो सर्वजीवराशि के अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। तात्पर्य यह है कि प्रथम गुणस्थान से लेकर पंचम गुणस्थान तक द्रव्य से नपुंसकवेदी होते हैं, किन्तु छठे गुणस्थान से लेकर ऊपर के सभी गुणस्थानों में मनुष्य भाव से तो नपुंसक वेदी हो सकते हैं किन्तु द्रव्य से उनके पुरुषवेद ही जानना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २९७)
(१९) नपुंसकवेदी में क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंख्यातों हैं। ये प्रथम पृथ्वी नरक की अपेक्षा से कथन है।
असंयतसम्यग्दृष्टियों में उपशमसम्यदृष्टि सबसे कम हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं, यहाँ गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग है, क्योंकि यहाँ पर प्रथम पृथिवी के क्षायिक सम्यग्दृष्टि नारकी जीवों की प्रधानता रहती है। वेदकसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं, यहाँ गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २९९)
(२०) द्रव्य पुरुषवेदी जो कि भाव से नपुंसक वेदी हैं, उनके चौदहों गुणस्थान होते हैं।
संयतासंयतों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, क्योंकि मनुष्यपर्याप्त नपुंसकवेदी जीवों को छोड़कर उनका अन्यत्र अभाव है। नपुंसकवेदी संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि से उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। गुणकार पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, अर्थात् वह पल्योपम के असंख्यातप्रथम वर्गमूलप्रमाण है। नपुंसकवेदी संयतासंयत उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। गुणकार आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं, क्योंकि अप्रशस्त वेद के उदय के साथ दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपण करने वाले बहुत जीवों का वहाँ अभाव पाया जाता है। दोनों श्रेणी वाले गुणस्थानों में सबसे कम क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं, उनसे संख्यातगुणे उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। उपशमश्रेणी पर चढ़ने वाले उपशामक मुनि सबसे कम हैं, उनसे संख्यातगुणे क्षपकश्रेणी पर चढ़ने वाले मुनियों की संख्या होती है ऐसा जानना चाहिए।