सुख-दु:ख के कारण धर्म, अधर्म, उत्कृष्ट धर्म, अधर्म के फल भोगने के स्थान स्वर्ग, नरक, पुण्य और पाप दोनों के नाश से होने वाला मोक्ष सुख इत्यादि अतीन्द्रिय पदार्थों की कल्पना उसी तरह हास्यास्पद और उपदेशणीय है, जिस तरह आकाश में अनेक रंगों से विचित्र चित्र बनाने की भावना हास्यास्पद है।
साध्यवृत्तिनिवृत्तिभ्यां या प्रीतिर्जायते नरे।
निरर्था सा मते तेषां धर्म: कामात्परो न हि।।८६।। (षड्दर्शन. पृ. ४५९)
कर्तव्य कार्य में प्रवृत्ति और न करने योग्य अकार्य से निवृत्ति होने पर जो मनुष्यों को आत्मसंतोष या प्रीति उत्पन्न होती है, उसे चार्वाक लोग निरर्थक बताते हैं, उनके यहाँ तो काम पुरुषार्थ से बढ़कर कोई धर्म ही नहीं है अर्थात् चार्वाक लोग जप, तप, संयम, साधना आदि कार्यों में प्रवृत्ति करने और विषय सुख, इंद्रिय लंपटता, हिंसा, असत्य आदि पाप कार्यों के त्याग करने को मूढ़ता समझते हैं इसलिए इनके यहाँ आत्मा, परलोक, मोक्ष और मोक्ष के कारणों की वार्ता ही समाप्त हो जाती है।
‘निरोधहेतु नरात्म्याद्याकारश्चित्तविशेषो मार्ग:।
मार्गण् अन्वेषणे मार्ग्यते न्विष्यते याच्यते निरोधार्थिभिरिति चुरादिणिजन्तत्वेनाल्प्रत्यय:।
नि:क्लेशावस्था चित्तस्य निरोध:।’ (षड्दर्शन, पृ. ३९)
निरोध-निर्वाण मार्ग के इच्छुक मुमुक्षु जिसे ढूंढ़ते हैं, जिसकी याचना करते हैं, वह मार्ग है (अन्वेषण अर्थ में मार्गण्-धातु से चुरा दिगण में णिच् प्रत्यय में बाद अल् प्रत्यय से मार्ग शब्द बना है।) निरोध में हेतुभूत नैरात्म्यादि भावनाऐं ही निर्वाण में कारण होने से मार्ग कही जाती हैं एवं चित्त की क्लेश रहित अवस्था को निर्वाण कहते हैं। अर्थात् दु:ख, दु:ख समुदय, मार्ग और निरोध, ऐसे चार आर्य सत्य माने हैं। दु:ख का नाम संसार है, दु:ख समुदय संसार का कारण है, मार्ग मुक्ति का कारण है एवं निरोध का अर्थ मुक्ति है।
‘सर्वभावेष्वविपरीतदर्शनं विद्या।
यत्सर्वभावेष्वनित्यानात्मकाशुचिदु:खेषु अनित्यानात्मकाशुचिदु:खदर्शनं सा विद्या।
ततो मोक्ष:।’ (तत्त्वार्थ वा., पृ. १३)
जब सब पदार्थों में अनित्य निरात्मक अशुचि और दु:ख रूप तत्व ज्ञान उत्पन्न होता है, तब अविद्या नष्ट हो जाती है। अविद्या के विनाश से क्रमश: संस्कार आदि का नाश होकर मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इस तरह बौद्ध मत में अविद्या से बंध और विद्या से मोक्ष माना गया है। अर्थात् बौद्धों के यहाँ अनित्य अशुचि आदि पदार्थों को नित्य शुचि आदि समझना अविद्या है।
अविद्या से रागादि संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नाम रूप (पंचस्कंध) नाम रूप से षडायतन, षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाति, जाति से जरा-मरण होते हैं। यह संसार के कारणों की परम्परा बताई है।
वैसे ही विद्या से अविद्या का अभाव, अविद्या के अभाव से संस्कार का निरोध, संस्कार के अभाव से विज्ञान का अभाव, विज्ञान के अभाव से नाम रूप का अभाव, नाम रूप के अभाव से षडायतन का अभाव, षडयतन के अभाव से स्पर्श का, स्पर्श के अभाव से वेदना का, वेदना के अभाव से तृष्णा का, तृष्णा के अभाव से उपादान का, उपादान के अभाव से कर्म का, कर्म के अभाव से जाति का, जाति के अभाव से जरा-मरण का अभाव हो जाता है। मतलब विद्या से मोक्ष होती है,
किन्तु यह बौद्ध मान्यता बिल्कुल गलत है पदार्थ सर्वथा क्षणिक न होकर नित्य भी हैं, उन्हें क्षणिक समझना विद्या नहीं है, प्रत्युत महा अविद्या है। इस क्षणिक मत की बुद्धि के अभाव से सम्यक्त्व और ज्ञान आदि प्रगट होने से ही मोक्ष होती है।
विषर्थयाद् बंधस्यात्मलामे सति ज्ञानादेव तद्विनिवृत्तेस्रित्वानुपपत्ति:।।४१।।
तत्त्वार्थ वा. पेज ११
शंका-मिथ्याज्ञान से ही बंध होता है अत: मोक्ष भी ज्ञान मात्र से ही होना चाहिये इसलिये मोक्ष के लिये तीन कारण नहीं बनते हैं।
यथा-जब तक पुरूष को महान् आदि के क्रम से उत्पन्न होने वाले पाँच भौतिक शरीर में अहंपने का मिथ्याज्ञान रहता हैं, तभी तक शरीर को आत्मा मानने से विपर्यय ज्ञान से बंध होता हैं। और जब इसे प्रकृति और पुरुष में भेद विज्ञान हो जाता है, वह पुरुष के सिवाय यावत् पदार्थों को प्रकृति कृत और त्रिगुणात्मक मानकर उनसे विरक्त होकर इनमें मैं नहीं हूँ, ये मेरे नहीं हैं यह परम विवेक जाग्रत होता है, तब ज्ञान मात्र से मोक्ष हो जाता है। अत: ज्ञान मात्र ही मोक्ष का कारण है।
जैनाचार्य कहते हैं कि ज्ञान मात्र से मोक्ष माना जाय तो पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति के द्वितीय क्षण में ही मोक्ष हो जाना चाहिये । पुन: एक क्षण भी संसार में ठहरने से उपदेश तीर्थ प्रवृत्ति आदि कुछ भी नहीं हो सकेगें । यह सम्भव नहीं कि दीपक भी जल जाय और अन्धेरा भी रह जाय ।
उसी तरह से ज्ञान मात्र से मोक्ष कहने पर यह सम्भव नहीं है कि ज्ञान भी हो जाय और मोक्ष न हो । यदि कहो कि पूर्णज्ञान होने के बाद भी कुछ संस्कार शेष रह जाते हैं जिनके क्षय हुये बिना मोक्ष नहीं होती, एवं जब तक उन संस्कारों का क्षय नहीं होता तब तक उपदेश आदि प्रवृत्ति होती है तब तो यह स्पष्ट अर्थ हुआ कि संस्कार क्षय से मुक्ति होती हैं न कि ज्ञान मात्र से।
पुन: यह बताओ! संस्कारों का क्षय ज्ञान से होता है या अन्य कारणों से ? यदि ज्ञान से कहो तो ज्ञान होते ही संस्कार का क्षय हो जाना चाहिये । पुन: वही उपदेश नहीं हो सकेगा । यदि अन्य कारण कहो, तो उसी का नाम चारित्र है। एवं ज्ञान मात्र से मोक्ष कहने से तो सिर मुंडाना, गेरुआ वेष, यम, नियम, जप, तप, दीक्षा आदि सब व्यर्थ हो जावेगें।
दु:खादिनिवृत्ति: इत्यन्वेषां ।४५।
दु:खजन्मप्रवृत्तिमिथ्याज्ञाननामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावान्नि:श्रेयसाधिगम:।
(न्याय सूत्र १।१।२)
दु:खादि की निवृत्ति होना मोक्ष है, ऐसा नैयायिकों का कहना है। अर्थात् मिथ्या ज्ञान का कार्य दोष, दोष का कार्य प्रवृत्ति, प्रवृत्ति का कार्य जन्म और जन्म का कार्य दु:ख है। मिथ्या ज्ञान का अभाव होने पर क्रमश: दोष, प्रवृत्ति, जन्म और दु:ख नष्ट हो जाते हैं उसी का नाम मोक्ष है।
इनके द्वारा मान्य सात पदार्थ और नव द्रव्य की कल्पना, ईश्वर सृष्टि की और समवाय की कल्पना ही अनुचित है तब उनके यहां मिथ्याज्ञान का अभाव असंभव है। अत: इनके द्वारा मान्य मोक्ष के कारणों से जप, तप, आदि मिथ्या चारित्र से मोक्ष प्राप्त करना अशक्य है।
इच्छाद्वेषाभ्यामपरेषां ।४४। (तत्वार्थवा०पृ०११)
वैशेषिक का कहना है कि इच्छा और द्वेष से धर्म अधर्म की प्रवृत्ति, उनसे सुख दु:खरूप संसार । जिस पुरुष को तत्वज्ञान हो जाता है उसे इच्छा और द्वेष नहीं होते, इनके न होने से धर्म अधर्म नहीं होते, इनके न होने से नये शरीर और मन का संयोग नहीं होता, जन्म नहीं होता और संचित कर्मों का निरोध हो जाने से मोक्ष हो जाता है।
जैसे प्रदीप के बुझ जाने से प्रकाश का अभाव हो जाता है, उसी तरह धर्म और अधर्म रूप बन्धन के हट जाने से जन्म-मरण चक्ररूप संसार का अभाव हो जाता है। अत: षट् पदार्थ का तत्व ज्ञान होते ही अनागत धर्म और अधर्म की उत्पत्ति नहीं होगी और संचित धर्माधर्म का उपभोग और ज्ञानाग्नि से विनाश होकर मोक्ष हो जाता है। अत: वैशेषिक मत में भी तत्वज्ञान से मोक्ष माना है।
वास्तव में इन वैशेषिक के मोक्ष कारण तत्व भी गलत हैं तत्वज्ञान मात्र से मोक्ष होना असम्भव है यह बात ऊपरी कही जा चुकी है, तथा इनके सोलह पदार्थो का ज्ञान तत्वज्ञान नहीं है क्योंकि सोलह पदार्थ वास्तविक नहीं है कल्पना से कल्पित हैं, अत: इनके द्वारा मान्य भी मोक्ष कारण तत्व वाधित है।
इनका कहना है कि अदृष्ट के दो भेद है-धर्म, अधर्म । धर्म पुरुष का गुण है, कर्ता के प्रियहित और मोक्ष में कारण हैं, अतीन्द्रिय है, अन्तिम सुख का यथार्थ विज्ञान होने से इसका नाश होता है। जब तक तत्वज्ञान की पूर्णता नहीं होती तब तक धर्म का कार्य सुख बराबर चालू रहता है। तत्वज्ञान होने के बाद प्रारब्ध कर्मों के फल रूप अन्तिम सुख तक बराबर धर्म ठहरता है अन्तिम सुख के प्राप्त होने के बाद धर्म का तत्वज्ञान से नाश हो जाता है । यह तत्वज्ञान श्रुति स्मृति विहित मार्ग का पालन करने से अहिंसा आदि एवं विशेष रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के पूजन अध्ययन आदि से उत्पन्न होता है अत: तत्वज्ञान से मोक्ष होता है। यह मान्यता पूर्वोवत प्रकार से गलत ही है।
कुमारिल भट्ट ने कहा है कि पुरुष की प्रीतिको श्रेय कहते है यथा-
श्रेयो हि पुरुषप्रीति: सा द्रव्यगुणकर्ममि: ।
नौदनालक्षणै: साध्या तस्यादैष्वेवधर्मता ।।
(मी०श्लोक०चोदना सूत्र श्लो०१९१)
पुरुष की प्रीति को श्रेय कहते हैं यह प्रीति वेद वाक्यों से प्रति पादित यज्ञादि में उपयुक्त होने वाले द्रव्य, गुण, और क्रियाओं से उत्पन्न होती है अत: स्वर्गादि रूप प्रीति के साधन द्रव्य, गुण आदि में ही धर्मता है मतलब ये मीमांसक सर्वज्ञ, ईश्वर को नहीं मानते हैं तब मोक्ष और उसके कारणों की बात ही खत्म हो जाती है। ये सदा ही आत्मा को धर्म से स्वर्गादि सुख और अधर्म से नरकादि दु:ख की व्यवस्था कर देते हैं। बस इनके यहां बुद्धि में मीमांसा करने का ही अभाव है।
आत्मा नित्य अविनाशी द्रव्य है जो वास्तविक जगत् में वास्तविक शरीर के साथ संयुक्त रहता है मृत्यु के बाद भी यह अपने कर्मों के फलों का उपयोग करने के लिये विद्यमान रहता है, चैतन्य आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं हैं, किन्तु औपाधिक है। सुषुप्तावस्था तथा मोक्षावस्था में आत्मा को चैतन्य नहीं रहता, क्योंकि उसके उत्पाद कारणों का अभाव हों जाता है जितने जीव हैं उतने ही आत्मा हैं । जीवात्मा बन्धन में आते हैं और उससे मोक्ष भी पा सकते हैं।
(भारतीय द०पृ०२११)
वास्तव में मोक्षावस्था में जीवात्मा को चैतन्य शून्य मानना मतलब जीव के मोक्ष का अभाव सिद्ध कर देना है।
प्राचीन मीमांसकों के मत में स्वर्ग ही जीव का चरम लक्ष्य माना गया है, इसलिये कहा गया है स्वर्गकामो यजेत सभी कर्मों का अंतिम उद्देश्य है स्वर्ग प्राप्ति। परन्तु धीरे धीरे मीमांसक गण अन्यान्य भारतीय दर्शनों की तरह मोक्ष-सांसारिक बंधनों से छूटकर मुक्ति को सबसे बड़ा कल्याण नि:श्रेयस मानने लगे हैं।
निष्काम धर्माचरण और आत्मज्ञान के प्रभाव से पूर्व कर्मों के संचित संस्कार भी क्रमश: लुप्त हो जाते हैं। तब इसके बाद पुनर्जन्म नहीं होता और कर्म का बन्धन छूट जाता है, परन्तु मीमांसक का यह मोक्षकारण तत्व ठीक नहीं है।
ब्रह्म स्वरूप में लय हो जाना ही मुक्ति है इस ब्रह्मालयावस्था के सिवाय अन्य किसी प्रकार की मुक्ति वेदान्तियों को इष्ट नहीं है। ये भगवत् शब्द से पुकारे जाते हैं। इनके कुटीचर, बहूदक,हंस और परमहंस ये चार भेद होते हैं। हंस साधुओं को तत्वज्ञान हो जाता है तब ये परमहंस कहलाते हैं।
परमहंसादिदत्रयाणां च कटिसूत्रं न कौपीनं न वस्रं न कमंडलुनै दण्ड:
सार्ववर्णेकभैक्षाटनपरत्वं जातरूपधरत्वं विधि:।। (ना०प०उ० ५/१)
परम हंसादि तीनों के कटिसूत्र, कौपीन, वस्र व कमंडलु नहीं होते हैं सभी वर्णों में भिक्षा ले लेते हैं जातरूपधारी होते हैं। इनके अध्ययन का एक मात्र विषय है वेदान्त। ये चारों ही मात्र ब्रह्मार्द्वत की सिद्धि में अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं।।
(षड्द.पृ.४३२)
ब्रह्मसूत्र पर अनेक भाष्य लिखे गये हैं हर एक भाष्यकार एक-एक वेदान्त संप्रदाय के प्रवर्तक बन गये हैं इस तरह शंकर, रामानुज, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्क आदि के नाम पर भिन्न-भिन्न संप्रदाय चल पड़े हैं।
शंकराचार्य के अनुसार जीव और ब्रह्म दो नहीं हैं, इनमें द्वैत नहीं हैं। अत: इनके मत का नाम अद्वैत हैं। रामानुजाचार्य अद्वैत को स्वीकार करते हुये भी कहते हैं कि एक ही ब्रह्म में जीव तथा अचेतन प्रकृति भी विशेष रूप है, अनेक विशेषण विशिष्ट एक ब्रह्म को मानने के कारण इस मत का नाम पड़ा है। विशिष्टाद्वैत । मध्वाचार्य ब्रह्म और जीव को दो मानते हैं अत: इस मत का नाम द्वैत है। निंबार्काचार्य का मत है कि जीव और ब्रह्म किसी दृष्टि से दो तथा किसी दृष्टि से दो नही है। इस मत को द्वैताद्वैत कहते हैं।
इनमें सबसे प्रसिद्ध है शंकर का अद्वैत और रामानुज का विशिष्टाद्वैत।
सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्र्र्र्र्र्र्र्राक्ष: सहस्र्र्र्र्र्र्रपात् ।
स भूमिंविश्वतो वृत्वा त्यतिष्ठद्दशाग्डुम् ।।१।।
पुरुष एवेवं सर्व यद्भूतं यच्च मव्यं ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नैनातिरोहति ।।२।।
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पुरुष: ।
पादो स्य विश्वभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।३।।
(ऋग्वेद. १।-६०)
पुरुष के सहस्रमस्तक, सहस्रनैत्र, सहस्र पैर हैं, वह समस्त पृथ्वी में व्याप्त है और उससे दश अंगुल परे भी है। जो कुछ है, जो कुछ होगा, सो सब वही पुरुष है, वह अमरत्व का स्वामी है, जितने अन्न से पलने वाले जीव हैं सबमें वहीं है। उसकी इतनी बड़ी महिमा है, वह उससे भी बड़ा पुरुष है, उसके एक पाद से संपूर्ण विश्वव्याप्त है और तीन पाद अमृत हैं जो द्युलोक में हैं, वही चारों और चराचर विश्व में व्याप्त है।
आश्चर्य तो इस बात का है कि वैशेषिक और नैयायिक, ईश्वर को सृष्टि की रचना में निमित्त मानते हें। सर्वेश्वरवादी ईश्वर को जगत का उपादान कारण मानते हैं, किन्तु ये वेदान्ती तो ईश्वर को जगत् का निर्माण करने में उपादान और निमित्त दोनों कारण मान लेते हैं। वैदिक ऋषि की दिव्य दृष्टि इतनी दूर तक पहुंच गई है कि एक ही मंत्र में उन्होंने अद्वैत, जगदैक्यवाद तथा निमित्तोपादानेश्वरवाद के तत्व भर दिये हैं।
इस तत्व को कभी ‘व्रह्म’ कभी ‘आत्मा’ कभी केवल ‘सत’ कहा गया है। अर्थात् शरीर इन्द्रिय मन बुद्धि आदि वास्तविक आत्मा नहीं है, वे उसके बाह्म रूप हैं। सबका मूल आधार आत्म तत्व है, आत्मा शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। सत्य, अनन्त और ज्ञान स्वरूप होने के कारण जो ही आत्मा मनुष्य में है वहीं सब भूतों में है। अतएव आत्मा परमात्मा एक ही है। इस आत्मज्ञान या आत्मविद्या को श्रेष्ट विद्या कहते हैं।
आत्म ज्ञान का साधन है काम क्रोधादि वृत्तियों का दमन करना एवं ब्रह्म का श्रवण, मनन, निदिध्यासन। जब तत्वज्ञान के द्वारा संस्कारों का लोप हो जाता है तब आत्मा का साक्षात्कार हो जाता हैं। उपनिषदों का मत है कि मकाण्ड के द्वारा जीवन के परम पुरुषार्थ की-अमरत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है। केवल न आत्मज्ञान या ब्रह्मविद्या के द्वारा ही पुनर्जन्म और तज्जन्य क्लेशों का अन्त हो सकता है। जो अपने को शाश्वत ब्रह्म से अभिन्न समझ लेता है वही अमरत्व प्राप्त करता है।
विषयों को भोग करने की वासनायें वे बेडियां हैं जो हमें जकड़कर सांसारिक बंधन में रखती हैं और जिनसे जन्म और मृत्यु एवं पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है। जब मनुष्य का हृदय वासना से रहित निष्काम हो जाता है तब वह इस जीवन में ब्रह्म में लीन हो जाता है।
शैव, पाशुपत, कापाालिक और कालामुख मतों के अनुसार जगत का उपादान कारण पंचभूत है एवं निमित्त कारण ईश्वर है, किन्तु वेदान्तियों के अभिप्राय से जगत् का उपादान और निमित्त दोनों ही कारण चित्रूप परमब्रह्म आत्मा ही है।
इस प्रकार से कोरे वेंंदांत के अध्ययन से मुक्ति नहीं मिल सकती है यद्यपि उपनिषदों में ज्ञान मात्र से मुक्ति कही है फिर भी ज्ञान शब्द का अर्थ श्रुति का कोरा शब्द ज्ञान नहीं है। श्रवण-गुरु के उपदेश सुनना, । मनन उन उपदेशों पर युक्ति पूर्वक विचार करना । निदिष्यासन् उन सत्यों का बारम्बार ध्यान करना। पूर्व संचित संस्कारों का नाश बारबांर ब्रह्म विद्या के अनुशीलन, तदनुुल आचरण से होता है। आगे बढ़ते-बढ़ते जीव और ब्रह्म का भेद मिट जाने से उसी के साथ बंधन कटकर मोक्ष का साक्षात् अनुभव होता है।। (भारतीय द०)
यह वेदांतियों द्वारा मान्य मोक्ष का कारण प्रारंभ में बड़ा सुन्दर लगता है, किन्तु जैनाचार्यो का कहना है कि जब एक ‘अद्वैतरूप ब्रह्म’ ही सिद्ध नहीं है, नाना जीवों की सत्ता पृथक-पृथक हैं तब उस ब्रह्म का श्रवण, मनन, चिंतन, ध्यान भी अविद्या का ही विलास है। इसलिये वेदांतियों द्वारा मान्य मोक्ष के कारण तत्व भी ठीक नहीं हैं।
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: (तत्वार्थ सूत्र)
जैनाचार्यों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र इन तीनों की एकता को मोक्ष की प्राप्ति का उपाय बतलाया है।