जीवन में अभीष्ट की प्राप्ति हेतु हमें अपना समय, ऊर्जा और प्रयास सार्थक दिशा में लगाने चाहिए। ऐसे में यह आवश्यक है कि हम गलत दिशा में जाने से बचें। इस दिशा में जाने से बचने के लिए हमें अपने अस्तित्व की छह विकारी तरंगों को समझना होगा। इन तरंगों को शास्त्रों में षडूर्मि (षड् ऊर्मि) कहा गया है। सामुद्रिक तरंगों जैसी षड ऊर्मियां हमारे भीतर जीवनपर्यंत स्फुरित होती रहती हैं और हमारी मूल्यवान जीवनी ऊर्जा एवं समय को व्यर्थ करती हैं। इनसे पार पाकर ही हम अपने जीवन को सफल एवं सार्थक बना सकते हैं।
हमारे अस्तित्व के तीन मूल आयाम होते हैं- शरीर, प्राण और मन। इन तीनों के क्रमशः दो-दो विकार ऊर्मियां होते हैं, जिनका समुच्चय षड् ऊर्मि कहलाता है। शरीर की दो ऊर्मियां हैं-बुढ़ापा और मृत्यु। प्रत्येक शरीर को इन दोनों को स्वीकारना ही पड़ता है। इनसे गुजरना ही पड़ता है। प्राण की दो ऊर्मियां हैं, भूख और प्यास। इन दोनों को बार-बार पूर्ति द्वारा शांत करना पड़ता है। शरीर में प्राण आए तब से लेकर जब तक शरीर में प्राण रहेंगे, तब तक भूख-प्यास का चक्र चलता रहता है। अस्तित्व की तीसरी इकाई मन की दो कमजोरियां हैं-शोक और मोह। शोक अर्थात क्षुब्धता, उदासी, अवसाद, ऋणात्मकता और मोह मतलब बंधन, फंसाव, आसक्ति एवं जकड़न। गौर कीजिए कि प्रकट या परोक्ष में कोई कारण हो या न हो, मन का स्वभाव ही है इन दोनों विकारों में उलझे रहने का। यही कारण है कि हमारा अधिकांश जागृत समय मन की इन दोनों लहरों के कारण अनुत्पादक रहता है। समय के साथ मन की ऊर्मियां पर्याप्त बलवती होने पर शारीरिक रोग में रूपांतरित होती जाती हैं। स्पष्ट है कि जहां शरीर और प्राण की ऊर्मियों के समक्ष हमारी सीमाएं हैं, परंतु मन की ऊर्मियों का संयमन-नियंत्रण-प्रबंधन, विवेक और बुद्धि की शक्तियों द्वारा किया जा सकता है। इसके लिए गुरु-कृपा के माध्यम से वैचारिक एवं ‘भावनात्मक जागरूकता प्रथम सीढ़ी है।