५.१ जैसे खान में से निकला स्वर्ण पाषाण योग्य निमित्त पाकर मूल्यवान बन जाता है और ईंट, चूना, सीमेंट आदि वस्तुएँ कारीगर के संयोग से सुन्दर महल के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं, उसी प्रकार मानव पर्याय में गर्भ में आते ही बालक-बालिकाओं उपयोगी संस्कार मिल जावें तो वे योग्य बन सकते हैं।
प्रथम तो माता-पिता के रज-वीर्य से बनने वाला पिण्ड, जहाँ जीव आता है, उस पर माता-पिता के जीवन का प्रभाव पड़ता है। गर्भाधान के पश्चात् माता के सद्विचार, आचार एवं आहार-विहार के प्रभाव से बालक की शक्तियाँ दृढ़ होती हैं। जैसे कच्चे गेहूँ और चने को सूर्य की धूप-पानी आदि पका देते हैें उसी प्रकार अपने बालक-बालिकाओं को सुसंस्कारित करने के लिए उचित निमित्त (संस्कार विधि) की आवश्यकता है।
माता के गर्भ में उत्पन्न होने के पश्चात् और गर्भ में आने के पूर्व संस्कारों का जो महत्व है तथा जिनसे जीवन निर्माण होता है, वे संस्कार सोलह प्रकार के होते हैं, अत: इन्हें षोडश संस्कार के नाम से जाना जाता है।
बिना साफ की गई भूमि में जिस प्रकार बीज फलीभूत नहीं होता, उसी प्रकार यह जीवित शरीर, विधिपूर्वक संस्कारों के बिना संयम, व्रत और शुभाचरण का पात्र नहीं होता।
गर्भ में आने वाले बालक को उसकी मानसिक और शारीरिक शक्तियों की दृढ़ता और कमजोरी माता द्वारा प्राप्त होती है। माता के मन, वचन, काय की क्रिया का असर संतान के ऊपर पड़ता है, अत: माता को विवेकशील और धर्मात्मा होना चाहिए।
संतान के पूर्वोपार्जित कर्म, उसके निर्माण में अन्तरंग निमित्त हैं और बाह्य निमित्त अन्य सामग्री होती है। जैसे माता के आहार का अंश गर्भस्थित संतान को प्राप्त होता है, जिससे उसके शरीर को पोषण मिलता है साथ ही उसके विचारों व क्रियाओं का उस पर असर होता है, अत: बच्चों को सुयोग्य बनाने के लिए योग्य माताओं के समान शास्त्रानुसार धार्मिक संस्कारों की आवश्यकता है। ये संस्कार वैज्ञानिक दृष्टि से भी द्रव्य परमाणु की शक्ति की अपेक्षा से बच्चों के मन, वचन और शरीर के भीतर अपना प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
विवाह केवल विषयाभिलाषा से ही नहीं, अपितु पुत्रोत्पत्ति एवं गार्हस्थ्य जीवन में परस्पर सहयोग द्वारा सदाचरण, लोकसेवा तथा आत्मोन्नति के उद्देश्य से किया जाता है।
स्त्री को मासिक धर्म के तीन दिन, एकान्त में बिना किसी को स्पर्श किये, व्यतीत करना चाहिए। वह चौथे दिन स्नान कर घर के भोजन आदि विशेष कार्यों को न करते हुए बारह भावना का चिन्तवन करती रहे और साधारण कामकाज में भाग लेती रहे। पाँचवें दिन शुद्ध होकर मंदिर में जाकर जिनेन्द्र दर्शन, पूजन, स्वाध्याय आदि करे। इस प्रकार उसे व्यवहार दृष्टि से ३ दिन और धर्म की दृष्टि से चार दिन की अशुद्धि पालनी चाहिए।
गर्भाधान के पूर्व संस्कार विधि में विनायक यंत्रपूजा व हवन में गृहस्थाचार्य निम्नलिखित विशिष्ट मंत्रों से आहुति देते हुए पति-पत्नी पर आशीर्वादरूप में पीले चावल क्षेपण करें—
‘‘सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भव, आर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाणभागी भव।’’ पश्चात् पुण्याहवाचन, शान्तिपाठ, समाधि भक्ति व समापन पाठ पढ़कर पूजा पूर्ण करें। अन्त में सौभाग्यवती स्त्रियों से आशीर्वाद ग्रहण करें।
गर्भ के दिन से तीसरे माह में गर्भाधान क्रिया के अनुसार विनायक यंत्र पूजा, ११२ आहुतियों से हवन, पुण्याहवाचन, शान्तिपाठ, समाधि पाठ, क्षमापान करके हवन के नीचे लिखे खास मंत्रों की आहुति देवें और पति-पत्नी पर पुष्पक्षेपण करें।
‘‘त्रैलोक्यनाथो भव, त्रिकालज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव’, इसी समय ‘‘ॐ कंठ व्ह: प: असि आ उसा गर्भार्भकं प्रमोदेन परिरक्षत स्वाहा’ यह मंत्र तीन बार पढ़कर गर्भवती पर पति द्वारा जलसेचन करावें।
गर्भाधान के पाँचवें माह में यह सुप्रीति या पुँसवन क्रिया श्रवण, रोहिणी, पुष्य नक्षत्र, रवि, मंगल, गुरु, शुक्रवार, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२, १३ तिथि के मुहूर्त में करें। इसमें पूर्ववत् पूजा, हवन, पुण्याहवाचन आदि करके निम्न प्रकार खास मंत्रों से आहुति व पुष्पों से आशीर्वाद देवें।
‘अवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेक कल्याणभागी भव, निष्क्रांति कल्याणभागी भव, आर्हन्त्य कल्याणभागी भव, परमनिर्वाण कल्याणभागीभव’। इसी समय पति, पत्नी के सिर की माँग में सिंदूर और १०८ जौ के दानों की पहले से तैयार कराई गई माला ‘ॐ झं वं क्ष्वीं क्ष्वीं हं स: कान्तागले यवमालां क्षिपामि झौं स्वाहा’ मंत्र पढ़कर पत्नी के गले में पहनावें। पत्नी अपनी आँखों में अंजन लगावें।
यह क्रिया सातवें माह में शुभ मुुहूर्त मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, मूल, उत्तरात्रय, रोहिणी, रेवती इन में से किसी नक्षत्र में व रवि, मंगल, गुरु इन वारों तथा १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १३ इन तिथियों में किसी तिथि में करें। इसका दूसरा नाम खोला भरना है। इसमें पहले के समान पूजा, हवन, पुण्याहवाचन आदि करें। नीचे लिखे खास मंत्रों से आहुति व आशीर्वाद देवें—
सज्जातिदातृभागी भव, सद्गृहस्थदातृभागी भव, मुनीन्द्रदातृभागी भव, सुरेन्द्रदातृभागी भव, परमराज्यदातृभागी भव, आर्हन्त्यदातृभागी भव, परमनिर्वाणदातृभागी भव।
अनन्तर पुत्र वाली सौभाग्यवती स्त्री द्वारा तेल व सिंदूर में डुबोकर शमी (सोना) वृक्ष की समिधा (सींक) से गर्भिणी पत्नी के केशों की माँग भरी जावे। इसी दिन गोद (खोल) में श्रीफल, मेवा, फल आदि भराकर पति-पत्नी या केवल पत्नी महिलाओं के साथ जिनमंदिर जावें।
यह संस्कार गर्भ के दिन से ९वें माह में किया जाता है। इसमें पूर्ववत् यंत्र पूजा व हवन करें। साथ ही नीचे लिखे खास मंत्रों से आहुति व दम्पत्ति को आशीर्वाद देवें।
सज्जातिकल्याणभागी भव, सद्गृहस्थकल्याणभागी भव, वैवाहकल्याणभागी भव, मुनीन्द्रकल्याणभागी भव, सुरेन्द्रकल्याणभागी भव, मन्दराभिषेककल्याणभागी भव, युवाराज्यकल्याणभागी भव।
पुण्याहवाचन, शान्ति पाठ आदि के पश्चात् गृहस्थाचार्य पति, पत्नी को णमोकार मंत्र पढ़कर रक्षा सूत्र बाँधें।
नोट-यदि गर्भाधान संस्कार क्रमश: न कर सकें तो ४-५वें संस्कारों के साथ उन संस्कारों के मंत्र व क्रियाएँ इसी समय कर ली जावें। गर्भिणी महिला को प्रतिदिन ‘‘ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसा नम:’’ इस मंत्र की जाप कर लेना चाहिए। उसे गर्भ के पाँचवें माह से, अधिक ऊँची जमीन पर चढ़ना नहीं चाहिए। वह वाहन (बैलगाड़ी, अश्व या धक्के वाली गाड़ी) पर न बैठे। तेज औषधि न लेवे, बोझा न ढोवे, ब्रह्मचर्यपूर्वक रहे, सादा भोजन करे। स्वाध्याय में अधिक समय व्यतीत करें। हाथ चक्की से आटा पीसने का अभ्यास रखे। इन संस्कारों को छोड़कर अन्यत्र हवन में शामिल न हो। क्रोधादि कषाय न कर शान्त परिणाम रखे। पति का भी कर्तव्य है कि वह पत्नी को उक्त कार्यों में सहयोग देवे।
बालक के जन्म के बाद यह संस्कार किया जाता है। जन्म का १० दिन का सूतक होने से गृहस्थाचार्य या जिनको सूतक न लगे, वे जिनमंदिर में पूजा-विधान करें। हवन में ‘दिव्य नेमिविजयाय स्वाहा’ परमनेमिविजयाय स्वाहा, आर्हंत्यनेमिविजयाय स्वाहा, घातिजयो भव, श्रीआदि देव्य: जातक्रिया: कुर्वन्तु, मन्दराभिषेकार्हो भवतु।’ इन मंत्रों से आहुति देवें। पिता आदि भी पुत्र को देखकर यह आशीर्वाद देवें। इस दिन बाजें बजवावें।
नोट-कन्या उत्पन्न होने पर भी पहले बताये समान यथायोग्य संस्कार करें। उसकी उपेक्षा न करें। क्योंकि कन्या रत्न मानी जाती है।
जन्म के १२, १६ या ३२वें दिन यह संस्कार करें। दस दिन सूतक होने से जिनाभिषेक, पूजा, शास्त्र का स्पर्श नहीं होता। सूतक त्रिलोकसार, मूलाचार आदि प्राचीन ग्रंथों में भी बताया गया है। सूतक वाले के घर में मुनिराज आहार नहीं लेते हैं।
नोट-पुत्र या पुत्री के मूल नक्षत्र में उत्पन्न होने पर जन्म पत्रिका बनाते समय ज्योतिषी अरिष्ट बताते हैं। जैन विधि से उसकी शान्ति निम्न प्रकार करना चाहिए—
मूल शान्ति-यदि मूल या उसके समान नक्षत्रों में पुत्र-पुत्री हों तो उस नक्षत्र की शांति हेतु निम्नलिखित १०१ माला का घर में कोई व्यक्ति या अन्य किसी के द्वारा जप करा लें। यह विधि जन्म से २८वें दिन जब वही नक्षत्र आता है, तब की जाती है। इस दिन चौंसठ ऋद्धि मण्डल विधान पूजा कर लें। इसके तीन-चार दिन पूर्व से जप कर लें।
जप मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं असि आ उ सा मूल नक्षत्रोत्पन्न पुत्र-पुत्री संबंधी सर्वारिष्ट निवारणं कुरु कुरु स्वाहा।
घर का प्रसूति स्थान ४५ दिन तक अशुद्ध रहता है। ४५वें दिन नवजात शिशु को मंदिर ले जावें। वहाँ जिनेन्द्र प्रतिमा के सामने शिशु की माता अपने शिशु को नीचे सुला दें और गृहस्थाचार्य या अन्य कोई व्यक्ति नव बार णमोकार मंत्र उसके कानों में सुनावें। बालक को उसी समय अष्ट मूलगुण (पाँच उदम्बर और तीन मकार का स्थूलरूप से त्याग) धारण कराकर जैन बनावें। इस त्याग की जिम्मेदारी बालक के विवेकशील होने तक माता-पिता एवं परिवार की रहती है।
यदि कोई दिगम्बर मुनि-आर्यिका आदि गुरुजन विद्यमान हों तो उनके मुखारिंवद से णमोकार मंत्र सुनवाएं एवं अष्टमूलगुण भी गुरु से ग्रहण करावें।
नामकरण-‘‘सहस्रनामभागी भव, विजयनामाष्टसहस्रभागी भव, परमनामाष्टसहस्रभागी भव।’ इन मंत्रों से आशीर्वाद दिया जावे। अनेक नाम लिखकर किसी से एक चिट उठवाने से भी नाम का निर्णय हो सकता है।
नाम घोषित करने के समय, ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं अर्हं अमुक बालकस्य नामकरणं करोमि। अयं आयुरारोग्यैश्वर्यवान् भवतु भवतु झ्रौं झ्रौं असि आ उसा स्वाहा।’ मंत्र पढ़ा जावे।
यह संस्कार लोक में प्रसिद्ध सूर्य-दर्शन (सूरज का मुहूर्त) के समान है। इसमें जैनेतर जनता सूर्य व कूप पूजा आदि करती है। इस क्रिया को जन्म से लगभग १५ से ४५ दिन के भीतर कर लेते हैं, जबकि २, ३ या चौथे माह में किये जाने का शास्त्र में उल्लेख है। इसके आशीर्वाद मंत्र नीचे लिखे अनुसार हैं-
‘उपनयनिष्क्रांतिभागी भव, वैवाहनिष्क्रांतिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रांतिभागी भव, सुरेन्द्रनिष्क्रांतिभागी भव, मन्दराभिषेकनिष्क्रांति भागी भव, यौवराज्य-निष्क्रांतिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रांतिभागी भव, परमराज्यनिष्क्रांतिभागी भव, आर्हन्त्यनिष्क्रांतिभागी भव।’ बालक को जिनालय में दर्शन कराते समय ‘ॐ नमोऽर्हते भगवते जिनभास्कराय जिनेन्द्र प्रतिमा दर्शने अस्य बालकस्य दीर्घायुष्यं आत्मदर्शनं च भूयात्’ यह मंत्र पढ़ें।
पाँचवें माह में बालक को बैठाने की क्रिया की जाती है। उस समय पूर्वमुख कर सुखासन में बैठावें। नीचे लिखे आशीर्वादसूचक खास मंत्र पढ़ें-
‘दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासन भागी भव।’
जन्म से ७, ८ या नवमें माह में अन्न आहार बालक को कराना चाहिए। इसके पहले अन्न देने से स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। लीवर आदि के रोग इसी के परिणामस्वरूप होते हैं। इसके खास मंत्र ये हैं-
‘दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव, अक्षीणामृतभागी भव।’
इस गमन विधि का उल्लेख आदिपुराण में नहीं है। परन्तु त्रिवर्णाचारादि संस्कार ग्रंथों में इस संस्कार की पूर्ण विधि पाई जाती है। अतएव इस विधि का लिखना भी परमावश्यक है।
यह संस्कार नवमें महीने में किया जाता है। जिस दिन गमन करने योग्य नक्षत्र वार और योग हो, उसी दिन यह संस्कार करना चाहिए।
प्रथम ही बालक का पिता पहले के समान श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा तथा होम करे। बालक को वस्त्रालंकारों से विभूषित करें। उस मंडप में किनारे-किनारे चारों ओर एक धुला हुआ वस्त्र इस प्रकार बिछावे कि जिसमें वेदी तथा श्रावकादि सज्जनजनों के बैठने का स्थान बीच में आ जाये अर्थात् वेदी और सज्जनों के बैठने का स्थान के चारों ओर परिक्रमारूप से वह वस्त्र बिछावे। यह वस्त्र पूर्व दिशा की ओर से बिछाना प्रारंभ करें और दक्षिण उत्तर पश्चिम की ओर होता हुआ पूर्व दिशा में ही समाप्त करें।
अनन्तर पिता उस बालक के दोनों हाथ पकड़ अग्निकुण्ड की पूर्व दिशा में उत्तर दिशा की ओर मुख कराकर उस बालक को उस बिछे हुए वस्त्र पर खड़ा करे तथा ‘‘ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते महावीराय चतुस्त्रिंशदतिशय-युक्ताय युक्ताय बालकस्य पादन्यासं शिक्षयामि तस्य सौख्यं भवतु भवतु झ्वीं क्ष्वीं स्वाहा’ यह मंत्र पढ़कर उस बालक का दायां पैर आगे बढ़ावे। फिर इसी प्रकार उस बालक के दोनों हाथ पकड़े हुए उसी वस्त्र पर उसे चलाता जाये। पूर्व दिशा समाप्त होने पर दक्षिण की ओर मुड़ जाये। दक्षिण से पश्चिम उत्तर की ओर होता हुआ फिर पूर्व की ओर आ जाये।
इसी प्रकार तीन प्रदक्षिणा करा देवे। ध्यान रहे कि प्रदक्षिणा देते समय अग्निकुण्ड बालक के दायें हाथ की ओर रहेगा।
प्रदक्षिणा दे चुकने पर बालक से श्री जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करावे तथा अग्नि गुरु और वृद्धजनों को भी नमस्कार करावे।
यह क्रिया बालक के एक वर्ष का होने पर करें। इस दिन मंदिर में पूजा विधान करावें। बालक को मंदिर भेजें। उसका जन्म दिवस मनावें। बालक को इन मंत्रों से आशीर्वाद देवें।
‘‘उपनयन जन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्म-वर्षवर्धनभागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्धनभागी भव, यौवराज्यवर्षवर्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव।’
यह बालक के पाँच वर्ष पूर्ण होने पर होता है। दो-तीन वर्ष में भी यह क्रिया की जा सकती है। कहीं-कहीं ४५ दिन में भी मुण्डन कराने की परंपरा है तथा कुछ परिवारों में १ वर्ष के अंदर ही बच्चे का मुण्डन करा लेते हैं एवं कहीं-कहीं तीर्थों पर ले जाकर भी मुण्डन कराते हैं, प्रयाग-इलाहाबाद (उ.प्र.) में ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ पर बच्चों के मुण्डन कराने से उनकी विद्या, बुद्धि का खूब विकास होता है। इसके मुहूर्त सोम, बुध, शुक्रवार, २, ३, ५, ७, १०, ११, १३ तिथि, ज्येष्ठा, मृगशिरा, चित्रा, रेवती, हस्त, स्वाति, पुनर्वसु, पुष्य, धनिष्ठा, शतभिषा, अश्विनी नक्षत्र हैं। खास आशीर्वाद मंत्र नीचे लिखे अनुसार हैं-
‘उपनयन मुँडभागी भव, निर्ग्रंथमुँडभागी भव, निष्क्रांतिमुँडभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, सुरेन्द्रकेशभागी भव, परमराज्य केश भागी भव, आर्हन्त्य-केशभागी भव।’ केश निकल जाने के बाद चोटी के स्थान पर केशर से स्वस्तिक बनावें। इसी समय कर्णछेदन क्रिया भी करते हैं।
यह पाँच वर्ष पूर्ण होने पर घर में या पाठशाला में सोम, बुद्ध, शुक्र, शनिवार, हस्त, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, चित्रा, अनुराधा नक्षत्र में तथा २, ३, ५, ६, १०, ११, १२ तिथि के मुहूर्त में करें। जिन मंदिर में या घर पर पूजा के बाद यह क्रिया करें। सर्वप्रथम ‘‘ॐ और ॐ नम: सिद्धेभ्य:’’ बालक से पट्टी पर लिखावें और इनका उच्चारण करावें। आशीर्वाद के विशेष मंत्र निम्न प्रकार हैं-
‘‘शब्दपारगामी भव, अर्थपारगामी भव, शब्दार्थसंबंधपारगामी भव।’ बालक को लिपि पुस्तक दी जावे।
नोट-वर्तमान में २-३ वर्ष के बालक पर भी यह संस्कार कराये जाते हैं क्योंकि बच्चों को अब २-३ वर्ष की उम्र में स्कूल भेजे जाने की परम्परा हो गई है।
आठ वर्ष की उम्र के बालकों में यह यज्ञोपवाrत संस्कार रवि, सोम, बुध, गुरु, शुक्रवार, हस्त, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरात्रय, रोहिणी, आश्लेषा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, मूल, रेवती, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, आर्द्रा, पूर्वात्रय इन वार व नक्षत्रों में करें। रक्षाबंधन के दिन भी सामूहिक रूप में यह क्रिया की जाती है। इसके आशीर्वाद मंत्र इस प्रकार हैं-
‘परमनिस्तारकलिंगभागी भव, परमर्षिलिंगभागी भव, परमेन्द्रलिंगभागी भव, परमराज्यलिंगभागी भव, परमार्हन्त्यलिंगभागी भव, परमनिर्वाणलिंगभागी भव।’
यज्ञोपवीत पहनने का मंत्र-ॐ नम: परमशांताय शान्तिकराय पवित्रीकृतार्हं रत्नत्रयस्वरूपं यज्ञोपवीतं दधामि मम गात्रं पवित्रं भवतु अर्हं नम: स्वाहा।
यज्ञोपवीत का उद्देश्य-अष्टमूलगुण (स्थूल रूप से पाँच पाप का त्याग और मद्य, मांस, मधु का त्याग) अभ्यासरूप में विद्याभ्यास के काल में ग्रहण कर उनके चिन्हरूप में यज्ञोपवीत धारण करना है।
पहले गुरुकुल (ब्रह्मचर्याश्रम) में विद्यार्थी ब्रह्मचर्यपूर्वक रहकर विद्याभ्यास करते थे। विवाह के पूर्व अध्ययन पूर्ण होने तक सादा भोजन और सादगीपूर्ण रहन-सहन व्रत चर्या का उद्देश्य है।
अध्ययन पूर्ण होने पर विद्यार्थी अभ्यासरूप में लिये गये पूर्ण नियम और उनका चिन्ह उतारकर गुरु व माता-पिता की आज्ञा से विवाह के लिए तैयार होता है। उक्त व्रतों में अष्टमूलगुण सदा पालता है क्योंकि यह जैन का चिन्ह है।
विवाह और उसका उद्देश्य-शास्त्र की विधि के अनुसार योग्य उम्र के वर और कन्या का अपनी-अपनी जाति में क्रमश: वाग्दान (सगाई) प्रदान, वरण, पाणिग्रहण होकर अन्त में सप्तपदीपूर्वक विवाह होता है। यह विवाह धर्म की परम्परा को चलाने के लिए, सदाचरण और पुत्र-पुत्री द्वारा कुल की उन्नति के लिए और मन एवं इन्द्रियों के असंयम को रोककर मर्यादापूर्वक ऐन्द्रियिक सुख की इच्छा से किया जाता है क्योंकि पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन अल्प शक्ति रखने वाले स्त्री-पुरुषों से नहीं हो सकता इसलिए आचार्यों ने ब्रह्मचर्याणुव्रत में पर-स्त्री त्याग और स्व-स्त्री संतोष का उपदेश दिया है। यह विवाह देव, शास्त्र, गुरु की साक्षी से समाज के समक्ष होता है, जो जीवनपर्यन्त रहता है।
गठजोड़ा-हवन और सप्तपदी पूजा के बाद जीवनपर्यन्त पति-पत्नी बनने वाले दम्पत्ति में परस्पर प्रेमभाव एवं लौकिक और धार्मिक कार्यों में साथ रहने का सूचक ग्रंथिबंधन (गठजोड़ा) किसी सौभाग्यवती (सुहागिनी) स्त्री के द्वारा कराना चाहिए। कन्या की लुगड़ी (साड़ी) के पल्ले में १चवन्नी, १ सुपारी, हल्दी गाँठ, सरसों व पुष्प रखकर उसे बाँध लें और उससे वर के दुपट्टे के पल्ले को बाँध दें।
अस्मिन् जन्मन्येष बन्धो र्द्वयोर्वै, कामे धर्मे वा गृहस्थत्वभाजि।
योगो जात: पंचदेवाग्नि साक्षी, जायापत्त्योरंचलग्रंथिबंधात्।।
पाणिग्रहण-गठजोड़ा के पश्चात् कन्या के पिता कन्या के बाएँ हाथ में और वर के सीधे हाथ में पिसी हुई हल्दी को जल से रकाबी में घोलकर लेपें। लोक में जो पीले हाथ करने की बात कही जाती है यह वही बात है। फिर वर के सीधे हाथ में थोड़ी-सी गली मेंहदी और १ चवन्नी रखकर उस पर कन्या का बायाँ हाथ रखकर कन्या का हाथ ऊपर व वर का हाथ नीचे करके वर-कन्या के दोनों हाथ जोड़ दें। इस विधि से कन्या का पिता अपनी कन्या को वर के हाथ में सौंपता है। इसे पाणिग्रहण कहते हैं।
हारिद्रपंकमवलिप्य सुवासिनीभिर्दत्तं द्वयोर्जनकयो: खलु तौ गृहीत्वा।
वामं करं निजसुताभवमग्रपाणिम्, लिम्पेद्वरस्य च करद्वयोजनार्थ।।
गृहस्थाचार्य प्रत्येक फेरे के बाद नीचे लिखे हुए अर्घ्य क्रमश: चढ़ाते रहें-
१. ॐ ह्रीं सज्जाति परमस्थानाय अर्घ्यम्।
२. ॐ ह्रीं सद्गृहस्थ परमस्थानाय अर्घ्यम्।
३. ॐ ह्रीं पारिव्राज्य परमस्थानाय अर्घ्यम्।
४. ॐ ह्रीं सुरेन्द्र परमस्थानाय अर्घ्यम्।
५. ॐ ह्रीं साम्राज्य परमस्थानाय अर्घ्यम्।
६. ॐ ह्रीं आर्हन्त्य परमस्थानाय अर्घ्यम्।
हथलेवा के बाद वर-कन्या को खड़ा करा के कन्या को आगे और वर को पीछे रखकर वेदी में चवरी के मध्य में यंत्र सहित कटनी और हवन की प्रज्ज्वलित अग्नियुक्त स्थंडिल के चारों ओर छ: फेरे दिलवावें। बुन्देलखण्ड के परवार आदि जातियों में वर-वधू का हाथ छुड़वाकर छह फेरे दिलाये जाते हैं। इस समय स्त्रियाँ फेरों के मंगल गीत गावें। वर और कन्या के कपड़ों को संभालते हुए फेरे दिलाना चाहिए। एक-दो समझदार स्त्री और पुरुष दोनों को संभालते रहें। छ: फेरों के बाद दोनों अपने पूर्व स्थान पर पहले के समान बैठ जावें। गृहस्थाचार्य निम्न प्रकार सात-सात वचनों (प्रतिज्ञाओं) को क्रम से पहले वर से और फिर कन्या से कहलावें, साथ ही स्वयं उनको सरल भाषा में समझाते जायें।
वर की ओर से कन्या को दिलाये जाने वाले ७ वचन-
१. मेरे कुटुम्बी लोगों का यथायोग्य विनय सत्कार करना होगा।
२. मेरी आज्ञा का लोप नहीं करना होगा ताकि घर में अनुशासन बना रहे।
३. कठोर वचन नहीं बोलना होगा क्योंकि इससे चित्त को क्षोभ होकर पारस्परिक द्वेष की संभावना रहती है।
४. सत्पात्रों के घर आने पर उन्हें आहार आदि प्रदान करने में कलुषित मन नहीं करना होगा।
५. मनुष्यों की भीड़ आदि में जहाँ धक्का आदि लगने की संभावना हो, वहाँ बिना खास कारण के अकेले नहीं जाना होगा।
६. दुराचारी और नशा करने वाले लोगोें के घर पर नहीं जाना होगा, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों द्वारा अपने सम्मान में बाधा आने की संभावना है।
७. रात्रि के समय बिना पूछे दूसरों के घर नहीं जाना होगा ताकि लोगों को व्यर्थ ही टीका-टिप्पणी करने का मौका न मिले।
ये सात प्रतिज्ञायें तुम्हें स्वीकार करना चाहिए। इन वचनों में गार्हस्थ्य जीवन को सुखद बनाने की बातों का ही उल्लेख है। इनके पालन से घर में और समाज में पत्नी का स्थान आदरणीय बनेगा।
इन प्रतिज्ञाओं को कन्या अपने मुँह से नि:संकोच होकर कहे और स्वीकार करे।
कन्या की ओर से वर को दिलाये जाने वाले ७ वचन-
१. मेरे सिवाय अन्य स्त्रियों को माता, बहन और पुत्री के समान मानना होगा अर्थात् पर-स्त्री सेवन का त्याग और स्व-स्त्री सन्तोष रखना होगा।
२. वेश्या, जो परस्त्री से भिन्न मानी जाती है, उसके सेवन का त्याग करना होगा।
३. लोक द्वारा निन्दनीय और कानून से निषिद्ध द्यूत (जुआ) नहीं खेलना होगा।४. न्यायपूर्वक धन वâा उपार्जन करते हुए वस्त्र आदि से मेरा रक्षण करना होगा।
५. आपने जो अपने वचनों में मुझसे अपनी आज्ञा मानने की प्रतिज्ञा कराई है उस संबंध में, धर्म स्थान में जाने और धर्माचरण करने में रुकावट नहीं डालनी होगी।
६. मेरे संबंध की ओर से घर की कोई बात मुझसे नहीं छिपानी होगी, क्योंकि मैं भी आपकी सच्ची सलाह देने वाली हूँ। कदाचित् उससे आपको लाभ हो जाये और अपना संकट दूर हो जाये। साथ ही इससे परस्पर विश्वास भी बढ़ेगा।
७. अपने घर की गुप्त बात दूसरे के याने मित्र आदि के समक्ष प्रकट नहीं करनी होगी। लोगों की मनोवृत्ति प्राय: यह होती है कि वे दूसरे घर की छोटी-सी बात ‘तिल का ताड़’ की उक्ति के समान बड़ी करके अफवाह पैâला देते हैं।
नोट – उक्त वर-वधू की ७-७ प्रतिज्ञाओं को ही आधुनिक भाषा में परिस्थिति को देखकर सम्मिलित रूप से निम्न प्रकार दोनों के लिए सात प्रतिज्ञाएँ प्रचार में आने योग्य हैं।
१. जीवनपर्यन्त साथ रहते हुए सहनशील और कर्मवीर बनकर एक-दूसरे के लिए जीवित रहना-जीवन से निराश न होना।
२. दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने और गृहस्थजीवन के निर्माण में भीतर का उत्तरदायित्व नारी को और बाह्य जीवन का उत्तरदायित्व पुरुष पर है।
३. एक-दूसरे के परिवार के सदस्य बनकर सबके स्नेह और आदर के पात्र बनना। विनय, सेवा करना एवं सद्व्यवहार से घर और ससुराल को स्वर्ग बनाना।
४. परस्पर स्नेह, अभिन्नता, आकर्षण, विश्वास बना रहे, इसके उपाय आचरण में लाना। पति के लिए पत्नी सर्वाधिक सुन्दर व प्रिय और पत्नी के लिए पति परमाराध्य रहे।
५. वधू को कुल वधु (सीता, अंजना, सुलोचना आदि के समान) और वर को कुलपुत्र (राम, जयकुमार, सुदर्शन आदि के समान) बनना जिनसे घर का सम्मान, गौरव, प्रतिष्ठा, कीर्ति बनी रहे वैसे काम करना। निर्व्यसनी, शीलवान और विवेकी बनना।
६. जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र की अर्चना एवं साक्षीपूर्वक विवाह सम्पन्न हो रहा है उनमें श्रद्धा बनाये रखें, इससे बुराइयों से बचने में बल मिलता रहे। आत्महित (वीतरागता) की ओर दृष्टि रखें।
७. समाज, जनता और राष्ट्र की सेवा में दोनों परस्पर सहयोग से आगे बढ़ें। विलासिता से बचें।
इन सात प्रतिज्ञाओं को दोनों स्वीकार करें।इनके सिवा और भी कोई खास बात हो तो विवाह के पहले स्पष्ट कर लेना चाहिए।
जिससे दाम्पत्य जीवन आजीवन आनन्दपूर्वक व्यतीत हो। सच यह है कि अपने साफ और शुद्ध परिणाम से ही संबंध अच्छा रहसकता है।
सप्तपदी के पश्चात् वर को आगे करके सातवाँ फेरा कराया जाये और अपने पहले के स्थान पर जब आवें तब वे पति-पत्नी के रूप में होकर यानि स्त्री-पति के बाँयें ओर पति-स्त्री के दाहिने ओर बैठे। इस अवसर पर स्त्रियाँ मंगलगीत गावें।
उक्त सात फेरे या भाँवर सात परम स्थानों की प्राप्ति के द्योतक हैं। आगमानुसार संसार में (१) सज्जातित्व (२) सद्गृहस्थत्व (३) साधुत्व (४) इन्द्रत्व (५) चक्रवर्तित्व (६) आर्हंत्य और (७) निर्वाण ये सात परम स्थान माने गये हैं।
सातवें फेरे में यह मंत्र बोलें और अर्घ्य चढ़ावें।
‘ॐ ह्रीं निर्वाण परमस्थानाय अर्घ्यं’
सात फेरे होने पर गृहस्थाचार्य नवदम्पत्ति पर निम्न प्रकार मंत्र द्वारा पुष्प क्षेपण करें—
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधव: शान्त्ािं पुष्टिं च कुरुत कुरुत स्वाहा।
यहाँ पर संक्षेप में गृहस्थ जीवन के महत्व पर उपदेश देकर अच्छी संस्थाओं को यथाशक्ति दोनों पक्ष की ओर से दान की घोषणा कराकर यथास्थान भिजवाने का प्रबंध करा देना चाहिए।
इसके बाद कन्या पक्ष की ओर से वर को तिलकपूर्वक कुछ राशि और श्रीफल भेंटकर गठबंधन छुड़ा देना चाहिए।
१. विवाह के दिन कन्या के रजस्वला हो जाने पर कन्या से पाँचवें दिन पूजन-हवन आदि विवाह की विधि कराना चाहिए। विवाह दिन में किया जाना चाहिए।
२. नवदेवता पूजन में अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिनालय ये ९ देवता हैं।
३. गुरु पूजा में ऋद्धियों की स्थापना के लिए ‘‘ॐ बुद्धिचारण विक्रियौषध-तपोबलरसाक्षीणमहानसचतु:षष्ठि ऋद्धिभ्यो नम:’’ यह मंत्र कागज पर केसर से लिखकर नीचे की कटनी पर रख देना चाहिए।
४. विवाह के मुहूर्त निकालने आदि में और अन्य ग्रहादिदोष को दूर करने के लिए जो पीली (गुरु ग्रह संबंधी) पूजा, लाल (रवि ग्रह संबंधी) पूजा आदि शांति के उपाय अन्य ज्योतिषी बताते हैं उनके उपाय जैनशास्त्रानुसार ही करना चाहिए। नवग्रह विधान के अनुसार विवाह के समय जिनेन्द्र पूजा करा देना चाहिए और विशेष करना हो तो नवग्रह मण्डल मंडवाकर ‘‘ॐ ह्रीं अर्हंम् अ सि आ उ सा सर्वविघ्न शांतिं कुरु कुरु स्वाहा’’ इस मंत्र की ग्रह के हिसाब से यथाशक्ति जाप व विवाह के समय आहुति करा देना चाहिए।
आप दोनों गार्हस्थ जीवन में प्रविष्ट हुए हैं। अपने मानव जीवन को पवित्र और सफल बनाने के लिए ही यह क्षेत्र आपने चुना है। इसको आनन्दपूर्ण और सुखमय बनाना आपके ही ऊपर निर्भर है। यह केवल इन्द्रिय भोग भोगने के लिए नहीं, वरन् संयमपूर्वक सदाचार और शील की साधना के उद्देश्य से आपने अंगीकार किया है। आप दोनों एक-दूसरे के प्रति तो जवाबदार हैं ही, पर स्व-धर्म, स्व-समाज की और स्व-देश की सेवा का दायित्व भी आप पर आ पड़ा है। यह गृहस्थ का भार बहुत बड़ा और अनेक संकटों से युक्त है। गृहस्थ अवस्था में आने वाली अनेक आपत्तियों से घबराकर गृह-विरत हो जाने के बहुत उदाहरण मिलेंगे परन्तु हमें आशा है कि आप जीवन की हरेक परीक्षा में उत्तीर्ण होंंगे। समस्त कठिनाइयों को सहन करते हुए उत्तरोत्तर प्रगतिपथ पर दृढ़ रहना आपका कर्तव्य होगा।
पुराणों में उल्लिखित जयकुमार-सुलोचना, राम-सीता या अन्य किसी के दाम्पत्य जीवन के आदर्श को आप अपने सामने रखें। हमारी यह शुभकामना है कि उन्हीं के समान भावी पीढ़ी आपका भी उदाहरण अपने समक्ष रखें।
आप दोनों यौवन के वेग में न बहकर अपने कुल के सम्मान का ख्याल रखते हुए गौरवमय यशस्वी जीवन व्यतीत करें। आपका व्यवहार न्याय एवं नैतिकतापूर्ण हो।
पति का कर्त्तव्य है कि वह अपनी पत्नी को सहयोगिनी मानकर उसे ऊँचा उठाने के साधन सदा जुटाता रहे और पत्नी-पति के हर कार्य को सफल बनाने में पूरा सहयोग देती रहे। दोनों भौतिकता में न लुभाकर आध्यात्मिकता के रहस्य को भी समझें, इसी में उन्हें यथार्थ सुख और शांति प्राप्ति होगी। इसके लिए प्रतिदिन देवदर्शन, गुरुदर्शन, पूजन, सामायिक और स्वाध्याय भी आवश्यक है। हमारी हार्दिक मंगल-कामना है कि आपकी यह जोड़ी दीर्घकाल तक बनी रहे।
जो स्त्री-पुरुष विवाह करते हैं, उन्हें गार्हस्थ जीवन के महत्व को समझकर संयम के साथ धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ को परस्पर अविरोध रूप से सेवन करना चाहिए। अपनी आजीविका के साधन जुटाते हुए न्यायपूर्वक अर्थोपार्जन करना भी गृहस्थ का कर्तव्य है। अर्थ के बिना लोक यात्रा नहीं चल सकती परन्तु अर्थ के पीछे पड़कर धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए। जीवन में सदाचार और प्रामाणिकता का बड़ा महत्व है। चाहे युवा, प्रौढ़ या वृद्ध अवस्था कोई भी हो, उसमें इस लोक की सफलता का और परलोक का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। जीवन के साथ मरण तो अवश्यंभावी है। मरण अच्छा उसी का होता है जिसका जीवन अच्छा रहा हो। मृत्यु मालूम नहीं कब आ जावे, इसलिए हमेशा सावधान रहना चाहिए। जीवन आनन्दपूर्वक व्यतीत करते हुए निराकुलता का भी अनुभव किया जावे, जिससे पापों से बचकर शुभोपयोग का वातावरण उपलब्ध हो सके। विदेश में लोग विवाह करना अच्छा नहीं समझते, बिना विवाह किये वर्षों तक वे अनेक अविवाहित महिलाओं के साथ मित्रता के रूप में रहते हैं। बिना विवाह किये पुरुष और महिला के साथ में रहने से वहाँ ब्रह्मचर्य का व्यवहार नहीं है। संयुक्त परिवार की प्रथा वहाँ नहीं होने से वृद्धावस्था में कोई सहारा नहीं रहता। विवाह करके भी वहाँ तलाक होता रहता है। इसलिए भारत के आदर्श का विचार कर यदि ब्रह्मचर्यपूर्वक नहीं रह सकते तो विवाह करके एक पत्नी व्रत पालने में ही सुख और शांति मिलेगी। अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा में कृतज्ञता प्रगट करने का भी कम महत्व नहीं है क्योंकि भविष्य में हमें भी वृद्ध और रोगी बनकर अपने पुत्रों से अपेक्षा रखना है।
व्यक्तिगत जीवन जीने के बजाय समाज और जनता के संपर्क में भी आना चाहिए। अपनी शक्ति अनुसार समाज सेवा और जनता की सेवा करते रहकर यशस्वी बनना चाहिए, ताकि लोग सदैव याद करते रहें।
बालक का जन्म होने पर जो घरवालों को और कुटुम्बियों को कुछ कालावधि के लिए देवपूजा, आहारदान आदि का कार्य वर्जित किया जाता है, उसी का नाम सूतक है एवं किसी के मरण के बाद जो अशौच होता है, उसे पातक संज्ञा है। यह सूतक-पातक आर्षग्रंथों से मान्य है। व्यवहार में जन्म-मरण दोनों के अशौच को सूतक शब्द से जाना जाता है।
जातीय बन्धुओं में प्रत्यासन्न और अप्रत्यासन्न ऐसे दो भेद होते हैं। चार पीढ़ी तक के बंधुवर्ग प्रत्यासन्न या समीपस्थ कहलाते हैं, इसके आगे अप्रत्यासन्न कहलाते हैं।
जन्म का सूतक चार पीढ़ी वालों तक के लिए १० दिन का है। पाँचवी पीढ़ी वालों को ६ दिन का, छठी पीढ़ी वालों को ४ दिन का और सातवीं पीढ़ी वालों को ३ दिन का है। इससे आगे वाली पीढ़ी वालों के लिए सूतक नहीं है, ऐसे ही मरण का सूतक भी चार पीढ़ी वालों तक के लिए १० दिन का (कहीं-कहीं १२ दिन का सूतक मानने की परम्परा है) पाँचवी पीढ़ी के लिए ६ दिन का आदि है।
जन्म का सूतक चल रहा है, इसी बीच परिवार में मरण का सूतक आ जाने पर वह जन्म के सूतक के साथ समाप्त हो जाता है, ऐसे ही मरण के सूतक में जन्म का सूतक आ जाने पर उसी पहले वाले मरण के सूतक के साथ समाप्त हो जाता है, ऐसे ही जन्म का सूतक यदि ५-६ दिन का हो चुका है पुन: परिवार में किसी का जन्म हो जाये, तो वह सूतक पहले के साथ ही निकल जाता है। यदि पहले सूतक के अंतिम दिन पुन: किसी का जन्म आदि होवे, तो दो दिन सूतक और मानना चाहिए। यदि दूसरे दिन होवे तो तीन दिन का और मानना चाहिए। मरण सूतक के बीच में यदि किसी का मरण हो जावे तो वह पहले सूतक के साथ समाप्त नहीं होगा।यदि किसी ने आत्महत्या पूर्वक मरण कर लिया है तो उसके परिवारजनों को ६ माह का सूतक माना गया है, कदाचित् किन्हीं विशेष जानकार आचार्य या गणिनी माताजी के पास जाकर उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्तादि ग्रहण करने पर ६ महीने के मध्य में भी शुद्धि मानी गई है।
साधु-साध्वियों को जन्म और मरण का सूतक नहीं लगता है और साधुओं का मरण होने पर उनके परिवार वालों को भी सूतक नहीं लगता है। राजा के घर में पुत्र जन्म होने पर उनकी शुद्धि स्नानमात्र से हो जाती है। राजाओं को सूतक नहीं लगता है।
मंत्री, सेनापति, राजा, दास और दुर्भिक्ष आदि आपत्ति से पीड़ित लोग इनके मरने पर भी सूतक नहीं लगता है। युद्ध में मरने पर भी सूतक नहीं लगता है।
गर्भवती का तीन महीने के अंदर ही यदि गर्भस्राव हो जावे तो उसे ही तीन दिन का अशौच है। तीन महीने से लेकर छह महीने तक का यदि गर्भपात हो जाता है तो जितने महीने का हो, उतने दिन का अशौच है। छह महीने के बाद और आठ महीने तक में यदि गर्भपात होकर नष्ट हो जाता है तो माता को पूरे १० दिन का अशौच है, पिता को स्नानमात्र से शुद्धि है।
नाभि छेदन से पहले यदि बालक मर जाये तो माता को पूर्ण १० दिन का अशौच है, पिता व बंधुओं को तीन दिन का है। १० दिन के पहले यदि मर जावे तो पिता व सबको १० दिन का है। दस दिन पूर्ण होने पर अंतिम दिन यदि बालक मर जाये तो दो दिन का अशौच और पालना चाहिए। दूसरे दिन प्रात: मरण होने पर तीन दिन अशौच और पालना चाहिए। १० दिन बाद मरण होने पर माता-पिता व सहोदरों को दस दिन का अशौच है। इतर बांधवों को स्नानमात्र से शुद्धि है। दांत आने के बाद मरण होने पर पिता, भ्राता को दस दिन का तथा शेष जनों को स्नानमात्र से शुद्धि है। चौल कर्म के बाद बालक के मरने पर पिता-भ्राता को १० दिन का, चार पीढ़ी वालों तक ५ दिन का, आगे की पीढ़ी वालों को एक दिन का है। उपनयन के बाद मरण होने पर चार पीढ़ी वालों तक १० दिन का अशौच है।
पुत्री का मरण यदि चौलकर्म से पहले हो जावे तो बंधुओं को स्नानमात्र से शुद्धि है। व्रतसंस्कार से पहले मरण होने पर एक दिन का अशौच है।
दूर देश के अपने परिवार के किसी व्यक्ति के मरण का समाचार मिलने पर अवशिष्ट दिन का सूतक पालना चाहिए। जन्मादि होकर १० दिन बाद समाचार मिलने पर तीन दिन का अशौच मानना चाहिए। अगर एक वर्ष बाद मरण समाचार ज्ञात हो तो स्नानमात्र करना चाहिए। इस प्रकार यह संक्षिप्त सूतक-पातक विधि कही गई है।