संगीत कला के सप्त स्वरों में षड़ज एवं पंचम का विशिष्ट महत्व है। तालपुरा वाद्य के चारों तारों में प्रथम तार पंचम में एवं शेष तीनों तारों को षड़ज स्वर में मिलाया जाता है । षड़ज—पंचम— भावानुसार अन्य तंतु—वाद्य यंत्रों के तारों का मिलान उपर्युक्त भावानुसार ही किया जाता है। षड़ज स्वर पुलिंग एवं स्त्री-लिंग पंचम स्वर के अनुसार शास्त्रों में षड़ज का उच्चारण मयूर एवं पंचम का उच्चारण कोयल द्वारा करने का उल्लेख है। ये दोनों स्वर अचल है। चल स्वरों के नाम हैं— ऋषभ, गंधार, मध्यम, धैवत और निषाद। सप्त स्वरों के मध्य में कुछ समुधुर ध्वनियाँ हैं, जिन्हें श्रुति कहते हैं, जिनकी संख्या बाईस है। बाईस श्रुतियों की विभिन्न दूरियों को आधार मानकर मनीषियों ने सप्त—स्वरों की स्थापना की है। पाश्चात् विद्वानों ने स्वरों की कम्पन्न संख्या, गुणोत्तर एवं सेन्ट प्रणाली के माध्यम से सप्तक के स्वरों को स्थापित किया है। भारतीय एवं पाश्चात्य प्रणालियों द्वारा निर्धारित स्वर संवाद मध्यम भाव एवं पंचम भाव संवाद समान ही हैं। किन्तु वायु पुराण में स्वरोत्पत्ति कल्पों द्वारा दरसाई गई है वह विचारणीय है।पुराण में चौदहवें कल्प से गंधार स्वर का संबंध स्थापित कर इसी स्वरं को प्रथम स्थान दिया गया है, जबकि संगीत मनीषियों ने षड़ज स्वर को प्रथम स्थान दिया है। पुराण के मतानुसार षड़ज स्वर का तृतीय स्थान है, जिसकी कल्प संख्या सोलह है। षड़ज एवं पंचम स्वर के संबंध में जो महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है, उससे स्पष्ट बोध होता है कि स्वरों की उत्पत्ति आकाशीय तत्वों के आधार पर निश्चित की गई है। यह जानकारी षड़ज एवं पंचम स्वर के संबंध में लिखे श्लोकों से मिलती है।
वायु बोले — षड़ज नामक सोलहवां कल्प हुआ, जिसमें छह ऋषि प्रसिद्ध थे। शिशिर, बसन्त, निदाध, वर्षा, शरद और हेमन्त नामक ये छहों ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। सोलहवें कल्प में वे पुत्र षड़ज से उत्तपन्न हुए । अत: इन छहों के होने से ऐसा ज्ञात हुआ मानो महेश्वर ही सद्य: स्वयं उत्पन्न हो गए। इसलिये समुद्र की तरह गंभीर ध्वनि वाला षड़ज स्वर उत्पन्न हुआ। संगीतकला के प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रंथों में षड़ज स्वर के छह पुत्रों एवं कल्प से संबंध का उल्लेख नहीं है। स्वर को ईश्वर स्वरूप एवं गंभीर ध्वनि वाला स्वर इस युग के संगीत विद्वान एवं साधक भी स्वीकार करते हैं। आगे पंचम स्वर का कल्प एवं उसके पुत्रों के विषय में पुराण कहता है।
पंचम स्वर का इक्कीसवां कल्प है। इसमें ब्रह्मा के उन्हीं के समान प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान नामक पांच मानस पुत्र हुए । वे अर्थ सहित स्तुति वचनों से महेश्वर का स्तवन करने लगे, जिस कारण उन पांचों महात्माओं ने पंचम स्वर में गान किया , इसलिये वह कल्प पंचम कहलाया। पुराण में उल्लेखित पंचम स्वर संबंधी जानकारी संगीत ग्रंथों में नहीं है। अत: स्वरों के कल्प एवं उनके पुत्र आध्यात्मिक, धार्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से कितने सही है, यह संगीत विद्वानों एवं शोधकत्र्ताओं के लिए विचारणीय है। पंचम स्वर के मध्यमान स्वर संसार से षड़ज स्वर और पंचम भाव स्वर संवाद से ऋषभ स्वर की उत्पत्ति होती है । पुराण में ऋषभ की कल्प संख्या पन्द्रह का उल्लेख है। उदात्त, अनुदात्तादि स्वरों में यह स्वरित स्वर है। इसका स्थान गंधार और षड़ज के मध्य में है। इस स्वर का देवता (पिता) ब्रह्मा एवं देवी महेश्वरी है। पुराण में इसकी माता का नाम मरूदेवी तथा पुत्र का नाम भरत का उल्लेख किया है। संगीत एवं ज्योतिष शास्त्रानुसार ऋषभ (वृषभ) एक आकाशीय नक्षत्र है, जिसकी जन्मभूमि— शाकद्वीप, वर्ण—श्वेत, वस्त्र लाल, शास्त्र— खड़ग, रंग—हरा, वाहन—घोड़ा, गुण—सत, वनस्पति —खर्जूर, ऋतु—बसन्त, स्वामी—वरूण, उच्चारण करने वाला पक्षी—चातक आदि का उल्लेख है।राग रागनियों के चित्रों के अनुसार सप्त स्वरों के चित्र भी हैं, उनमें ऋषभ स्वर के साकार स्वरूप को दरसाया गया है। प्राचीन काल में स्वर को ईश्वर मानकर साधना की जाती थी । स्वरों के स्वरूप का ध्यान करके साधना करने वाला साधक को उसका शुभ फल भी प्राप्त होता था। वे स्वर को अपना इष्टदेव मानते थे। जिन मनीषयों ने ऋषभ की शक्ति को समझा उन्होंने इस भूमि पर मंदिरों में उनकी प्रतिमा को स्थापित किया। ऋषभदेव नाम के अनेक शहरों एवं गावों में प्राचीन मंदिर आज भी हैं और प्राचीन काल के मंदिर खण्डहर रूप में राजस्थान, मध्यप्रदेश,गुजरात आदि स्थानों पर होने का उल्लेख शोधकर्मियों ने किया है। पुराण एवं संगीत शास्त्रों का अध्ययन करने पर पाया जाता है कि प्राचीन काल में हिन्दू धर्म में श्रद्धा रखने वाले लोगों के भी इष्टदेव ऋषभदेव थे। जैनधर्म के आदि तीर्थंकर के रूप में जैन समाज सदैव से इनकी पूजा करता है। अन्य संस्कृतियों में भी ये किसी न किसी रूप में पूज्य हैं। वस्तुत: वे सर्वशक्तिमान सच्चिदानन्द स्वरूप आदिदेव है।