तात्पर्यवृत्ति-संग्रहनय सत्सामान्य शुद्ध द्रव्य को विषय करता है क्योंकि उसमें अन्य उपाधि से रहित होने से ही शुद्धि संभव है। ‘सामान्य को विषय करने वाला ही नय संग्रह है वह स्वजाति के अविरोध से भेदोें से सहित ऐसी पर्यायों में एकत्व को प्राप्त करके समस्त को ग्रहण करने वाला ‘संग्रह’ कहलाता है। ऐसा निरुक्ति सिद्ध अर्थ है।
क्योंकि वह तदभेदत:-उस सत्सामान्य लक्षण शुद्ध द्रव्य में अभेद रूप है। सभी जीव और अजीवों में अव्यतिरिक्त-अभिन्न है।
प्रश्न-प्रागभाव आदि सत्त्व से भिन्न हैं तो यह उनसे अभिन्न कैसे होगा ?
समाधान-जीवादि सत् विशेषों के मध्य में एक भी भेद जीव, उसकी पर्याय अथवा अन्य कोई असदात्मा-असत्वरूप नहीं है क्योंकि विरोध आता है। यदि असत् रूप है पुन: ‘है वैâसे’ ? यदि ‘है’ तो असत्स्वरूप वैâसे है ? इस प्रकार स्ववचन में विरोध होता है अत: वह सत् सिद्ध है इसलिए प्रागभाव आदि हो अथवा अन्य कोई हो उसे कथंचित् प्रतीति के बल से सदात्मक-सत् रूप ही स्वीकार करना चाहिए।
भावार्थ-संग्रहनय सत् सामान्य को विषय करता है अर्थात् इसी नय की अपेक्षा से संपूर्ण चराचर जगत् एकरूप है। इस संग्रहनय के उदर में सारा लोकालोक समा गया है। इसी नय के एकांत दुराग्रह से ब्रह्माद्वैतवादी आदि अद्वैतवादियों ने सारे विश्व को एक सत्रूप-ब्रह्मरूप या ज्ञानरूप इत्यादि प्रकार से स्वीकार कर लिया है। यहाँ एक प्रश्न हुआ कि प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव आदि अभावों को संग्रहनय कैसे जानेगा ? तब आचार्य ने कहा है कि नैयायिक द्वारा मान्य अभाव तो तुच्छाभावरूप है किन्तु जैनों ने अभाव को भावांतर रूप से स्वीकार किया है जैसे ‘दीपस्तम:१ पुद्गलभावतोऽस्ति’ दीपक के बुझने से अंधकार हो गया तो भी जैसे प्रकाश पुद्गल की पर्याय थी वैसे ही अंधकार भी पुद्गल की पर्याय है। अथवा ‘खे नास्ति२ पुष्पं तरुषु प्रसिद्धं’ आकाश में पुष्प नहीं है यह कथन सर्वथा अभाव रूप नहीं है क्योंकि पुष्प वृक्षों में तो प्रसिद्ध ही है।
अथवा जीव या उसकी कोई भी पर्याय ‘नहीं है’ ऐसा कहने पर तो यदि असत् स्वरूप है तो ‘है’ वैâसे कहा ? और यदि ‘है’ तो असत्स्वरूप उसका वैâसे रहा ? इसलिए सभी अभाव कथंचित् भावात्मक ही हैं। ‘न जैन: अजैन:’ जैन नहीं है वह अजैन है यहाँ पर भी नञ् समास में नहीं का अर्थ है कि वह जैन नहीं है किन्तु ब्राह्मण या क्षत्रिय आदि कुछ है।
उत्थानिका-प्रत्यक्ष से भेद सिद्ध है पुन: अभेद नयरूप संग्रह मिथ्या है क्योंकि प्रत्यक्ष से बाधित है। इस प्रकार की सौगत की विचारधारा का निराकरण करते हुए कहते हैं-
अन्वयार्थ-(भेदाज्ञानं प्रत्यक्षं) भेद को नहीं ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान (सदात्मना) सत्रूप से (बहि: अंत: च) बहिरंग और अंतरंग पदार्थ में (सामान्य लक्षणात्) सामान्य लक्षण वाले (भेदात्) भेद से (द्रव्यं स्वलक्षणं) द्रव्य को वस्तुभूत (शंसेत्) कहता है।।४।।
अर्थ-भेद को नहीं ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान सत् रूप से बहिरंग और अंतरंग पदार्थ में सामान्य लक्षण भेद का आश्रय करके द्रव्य को स्वलक्षण-वस्तुभूत कहता है।।४।।
तात्पर्यवृत्ति-इंद्रिय और मन से होने वाला विशद ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। वह भेदाज्ञान अर्थात् बौद्धों के द्वारा परिकल्पित भेदों को-निरंश क्षणों को नहीं जानता है-नहीं ग्रहण करता है, ऐसा वह भेद को नहीं ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान सद्रूप से बाह्य-अचेतन घटादि और अंतरंग चेतन में शुद्ध अथवा अशुद्ध द्रव्य को स्वलक्षण-वास्तविक कहता है, कल्पित नहीं कहता है क्योंकि पदार्थों में सत्रूप से भेद प्रत्यक्ष से नहीं जाना जाता है कि जिससे प्रत्यक्षज्ञान द्रव्य को (एकरूप) न कहे।
वैâसे ? सामान्य-अन्वय, लक्षण-लिंग है जिसका उस सामान्य लक्षण भेद का आश्रय लेकर कहता है अर्थात् प्रत्यक्ष अथवा अन्य अनुमानादि प्रमाण भेदनिरपेक्ष अभेद को सिद्ध नहीं करते हैं क्योंकि वैसी उपलब्धि नहीं होती है। इस हेतु से प्रत्यक्ष भी द्रव्य सिद्धि का कारण ही है इसलिए संग्रहनय मिथ्या वैâसे हो सकेगा ? अर्थात् नहीं हो सकेगा।
भावार्थ-प्रत्यक्ष प्रमाण भी सत्रूप से किन्हीं भी चेतन-अचेतन पदार्थों में भेद को नहीं करते हुए सत् लक्षण वाले द्रव्य को सिद्ध कर देता है इसलिए सत्सामान्य-सबको एक सत् रूप ग्रहण करने वाला संग्रहनय मिथ्या नहीं है प्रत्युत् समीचीन ही है क्योंकि यहाँ अभेद भी भेद निरपेक्ष विवक्षित नहीं है।
उत्थानिका-इस प्रकार सत्सामान्य लक्षण शुद्ध द्रव्य का समर्थन करके अब ऊर्ध्वता सामान्य लक्षण अशुद्ध द्रव्य का समर्थन करते हैं-
अन्वयार्थ-जैसे (सदसत् स्वार्थ निर्भासै:) सत्-असत् रूप और अर्थ के आकार से (एकं) ज्ञान एक है, वैसे ही (स्वयं अभेदवैâ:) स्वरूप से भेद नहीं करने वाले ऐसे (सहक्रम विवर्तिभि:) सहभावी और क्रमभावी से तथा (दृश्यादृश्यै:) व्यंजन पर्याय और अर्थ पर्यायों से (एकं विभाति) एक द्रव्य प्रतिभासित होता है।।५।।
अर्थ-जैसे सत्-असत् रूप स्व और अर्थ के निर्भास-आकार से ज्ञान एक है। वैसे ही स्वयं स्वरूप से भेद को नहीं करने वाले, ऐसे सहभावी-क्रमभावी, दृश्य-व्यंजन और अदृश्य-अर्थ पर्यायों से जीवादि वस्तु एक प्रतिभासित होती है।।५।।
तात्पर्यवृत्ति-एक द्रव्य रूप से अभिन्न जीवादि वस्तु युगपत् होने वाली सहभावी और क्रम से काल के भेद से होने वाली, परिणमन करने वाली क्रमभावी भेद-गुण पर्यायों से विशेषरूप से प्रत्यक्षादि ज्ञान में प्रतिभासित होती है। ‘१गुणपर्ययवद्द्रव्यं-गुण पर्याय वाला द्रव्य है’ ऐसा सूत्रकार का कथन है। रागादि पर्याय में सहवर्ती हैं। स्वयं-स्वरूप से गुणपर्याय रूप से जिसमें गुण अथवा पर्याय का भेद नहीं है तथा ‘२द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा:’-जो द्रव्य के आश्रित हैं, निर्गुण हैं, वे गुण कहलाते हैं’’ ऐसा वचन है। गुण और पर्यायों को भी गुणपर्यायवत्त्व से द्रव्यत्व का प्रसंग आ जाता है क्योंकि द्रव्य उस लक्षण वाला ही है।
प्रश्न-वे पर्यायें वैâसी हैं ?
उत्तर-स्थूल व्यंजन पर्यायों को दृश्य कहते हैं और सूक्ष्म, केवल आगम से जानने योग्य अर्थ पर्यायों को अदृश्य कहते हैं। इन उभयात्मक पर्यायों से द्रव्य अभिन्न है अत: एक है।
इसी अर्थ को पुष्ट करने में परप्रसिद्ध दृष्टांत देते हैं। यहाँ कारिका के अर्थ में ‘यथा ज्ञान’ इतना पद अध्याहार करना चाहिए। जैसे-एक ज्ञान में स्व और अर्थ के निर्भास-जीवादि आकार सत्-असत् रूप हैं अर्थात् ज्ञानगत आकार सत्रूप हैं और नीलादि अर्थाकार असत् रूप हैं, इन सत्रूप-असत्रूप आकारों से सहित होकर भी चित्रज्ञान एक है यह बात विरुद्ध नहीं है। उसी प्रकार अर्थ व्यंजन पर्यायों से और सहक्रमवर्ती गुण, पर्यायों से सहित एक द्रव्य भी प्रतिभासित हो रहा है, यह बात विरुद्ध नहीं है क्योंकि विरोध तो अनुपलब्धि से सिद्ध होता है तथा द्रव्य और भेद तो उपलब्ध हो रहे हैं।
इसलिए जीवादि वस्तु भेदाभेदात्मक सिद्ध हैं क्योंकि उसी प्रकार से वे ज्ञान का विषय हैं और अर्थ क्रियाकारी हैं। निश्चित ही सर्वथा नित्य अथवा वस्तु अर्थक्रिया को करते हुए प्रतीति में नहीं आती है कि जिससे उसे परमार्थसत् माना जा सके अर्थात् उन नित्य अथवा क्षणिक को वास्तविक नहीं माना जा सकता है।
भावार्थ-सभी वस्तुएँ अपने-अपने अनंत गुण पर्यायों से सहित होकर भी कथंचित् सत् रूप से एक रूप हैं और कथंचित् अपने अस्तित्व से पृथक्-पृथक् होने से अनेक रूप भी हैं इसलिए सभी वस्तुएँ भेदाभेदात्मक ही हैं। सत्ता के दो भेद हैं-महासत्ता और अवांतरसत्ता। महासत्ता सत्सामान्य मात्र से सभी चेतन-अचेतन वस्तु को एकरूप ग्रहण करती है और अवांतर सत्ता अर्थात् प्रत्येक वस्तु का अलग-अलग अस्तित्व यह सभी वस्तुओं को भेदरूप ग्रहण करता है अतएव वस्तु भेदाभेदात्मक है।
उत्थानिका-कार्य कारण का भिन्न काल होने से क्षणिक में ही अर्थक्रिया संभव है नित्य में नहीं, इस प्रकार के बौद्ध के वाक्यों को शोधन करते हुए कहते हैं-
अन्वयार्थ-(चेत् स्वयं कारणसत्तया) यदि स्वयं कारण की सत्ता से (कार्योत्पत्ति: विरुद्धा:) कार्य की उत्पत्ति विरुद्ध होवे, तब (क्षणिके अर्थे) क्षणिक अर्थ में (अर्थक्रिया संभव साधनं) अर्थक्रिया का होना सिद्ध (युज्येत) किया जा सके।।६।।
अर्थ-यदि स्वयं कारण की सत्ता से द्रव्य के उपादान भाव से कार्य की उत्पत्ति विरुद्ध होवे तब क्षणिक अर्थ में अर्थक्रिया का संभव सिद्ध हो सके। इष्ट प्रयोजनभूत कार्य का होना संभव किया जा सके किन्तु ऐसा है नहीं। इसलिए क्षणिक एकांत में अर्थक्रिया का अभाव है।।६।।