गुणों का समूह संघ है। संघ कर्मों का विमोचन करने वाला है। जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र का संघात (रत्नत्रय की समन्विति) करता है, वह संघ है। कर्मरजजलौघविनिर्गतरस्य, श्रुतरत्नदीर्घनालस्य। पंचमहाव्रतस्थिरर्किणकस्स, गुणकेसरवत:।। श्रावकजन—मधुकर—परिवृतस्य, जिनसूर्यतेजोबुद्धस्य। संघपद्मस्य भद्रं, श्रमणगणसहस्रपत्रस्य।।
संघ कमलवत् है क्योंकि संघ कर्मरज रूपी जलराशि से कमल की तरह ही ऊपर तथा अलिप्त रहता है। रुत रत्न (ज्ञान या आगम) ही उसकी दीर्घनाल है। पंच महाव्रत ही उसकी स्थिर र्किणका है तथा उत्तरगुण ही मध्यवर्ती केसर है, जिसे श्रावकजन रूपी भ्रमर सदा घेरे रहते हैं, जो जिनेश्वर देव रूपी सूर्य के तेज से प्रबुद्ध होता है तथा जिसके श्रमणगणरूपी सहस्र पत्र हैं, उस संघ रूपी कमल का कल्याण हो।