जम्बूद्वीप के बीचोंबीच में सुमेरू पर्वत है जिसके कारण विदेह क्षेत्र दो भागों में विभक्त हो गया है-पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह। इन विदेह क्षेत्रों में सतत तीर्थंकर विहार करते रहते हैं।
पश्चिम विदेह के अन्तर्गत गन्धमालिनी नामक देश है उसकी प्रमुख राजधानी वीतशोकपुर है । उस वीतशोकपुर के राजा वैजयन्त थे और उनकी महारानी का नाम था भव्यश्री। उनके दो पुत्र थे-संजयन्त और जयन्त। सूर्य-चन्द्रमा के समान ये दोनों पुत्र राजघराने के कुलदीपक थे।
एक दिन की बात है कि बिजली के गिरने से महाराजा वैजयन्त का प्रधान हाथी मर गया। यह देखकर राजा को संसार से वैराग्य हो गया और वे राज्य वैभव त्यागने का विचार करने लगे। राज्य संचालन का भार पुत्रों को सौंपने की इच्छा से उन्होंने दोनों बेटों को बुलाया और बोले-वत्स! अब मैं जैनेश्वरी दीक्षा लेने जा रहा हूँ ,तुम लोग न्यायनीतिपूर्वक प्रजा का पालन करना। मैं उत्तराधिकार में तुम दोनों को अपना राज्य सौंप रहा हूँ, तुम इसे स्वीकार करो।
दोनों भाई कहने लगे-
पिताजी! जिसे क्षणभंगुर समझकर आप छोड़ने जा रहे हैं, उसे हमें देकर आप क्यों संतप्त कर रहे हैं ? यह राजसत्ता निश्चित ही दुखः का कारण है अतः हम इसे नहीं लेना चाहते हैं।
पिताजी ने उन्हें बहुत समझाया कि तुम लोग कुछ दिन राज्य करके पुनः अपने पुत्र को सौंप कर दीक्षा ले लेना। राजाओं की कुल परम्परा उनके पुत्रगण ही चलाते हैं अतः तुम लोग मेरी बात मानकर राजगद्दी स्वीकार करो किन्तु वे पुत्र भी वैराग्य की ओर बढ़ चुके थे अतः राज्य स्वीकार न करके दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की। पिता के साथ संजयन्त और जयन्त दोनों पुत्रों ने भी जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली और वीतशोकपुरी का राज्य संजयन्त के पुत्र को सौंप दिया।
तपस्वी बनकर वैजयन्त मुनिराज खूब तपश्चर्या करने लगे,कठिन से कठिन परीषह सहने लगे। अन्त में ध्यानरूपी अग्नि से घातिया कर्मों का नाशकर उन्होंने दिव्य केवलज्ञान प्राप्त कर लिया, जिसके प्रभाव से गन्धकुटी की रचना हो गई और चारों प्रकार के देव उनकी दिव्यध्वनि सुनने पहुँच गये। केवली वैजयन्त मुनिराज का यह दिव्य वैभव देखकर उनके पुत्र जयन्त मुनिराज ने निदान किया-मैंने जो इतना तपश्चरण किया है उसके प्रभाव से मुझे अगले भव में ऐसी सुंदरता एवं विभूति प्राप्त हो। इस निदान के फलस्वरूप जयन्त मुनि ने आयु के अन्त में समाधिमरण करके धरणेन्द्र पद प्राप्त किया।
इधर संजयन्त मुनिराज भी घोर तपस्या में लीन थे। एक दिन की बात है कि कि विद्युद्दंष्ट्र नाम का एक विद्याधर आकाशमार्ग से कहीं जा रहा था कि उस जगह उसका विमान अचानक रुक गया। अपना विमान रुका देखकर विद्याधर को बड़ा आश्चर्य हुआ, उसने नीचे की ओर दृष्टि डाल कर देखा तो संजयन्त मुनि ध्यान लीन दिखाई पड़े। उन्हें देखते ही विद्याधर के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। उसने समझा कि इस मुनि ने ही मेरा विमान रोका है अतः उसने उनके ऊपर भयंकर उपसर्ग करना शुरू कर दिया किन्तु वे सच्चे मुनिराज शरीर से पूर्ण निस्पृह होकर आत्मचिन्तवन में लीन थे। उनके लिए उस समय शत्रु भी मित्र था, ऐसे धैर्यशाली गुरुओं के लिए ही कवियों ने लिखा है-
अरि मित्र महल समान कंचन कांच निन्दन थुति करन।
अर्घावतारन असि प्रहारन में सदा समता धरन।।
श्री संजयन्त मुनिराज भी इसी तरह के चिन्तन में दृढ़ थे अतः उन्हें भयंकर उपद्रव भी विचलित न कर सका। विद्याधर का क्रोध बढ़ता ही गया, मुनिराज को कुछ बोलता न देखकर वह उन्हें वहाँ से उठा ले गया और भारतवर्ष में पूर्व दिशा की ओर बहने वाली सिंहवती नाम की बड़ी भारी नदी में डाल दिया।
दैव की विचित्र गति है। शरीर से निस्पृह वीतरागी मुनियों को भी पूर्वकृत कर्मों का उदय आने से घोर कष्ट सहन करने पड़ते हैं किन्तु वे शुक्लध्यानी मुनिराज आत्मतत्व से रंचमात्र भी नहीं डिगते हैं। चतुर्गति के दुःखों का स्मरण करते हुए संजयन्त मुनिराज भी अधीर नहीं हुए। दुर्भाग्य से नदी तट पर बसे उस नगर के लोग भी बड़े पापी थे सो उन लोगों ने भी मुनि को राक्षस समझकर उन्हें पत्थरों से मारा और जनता में यह प्रचार किया कि यह हमें खाने आया है। इन भीषण दुःखों को सहकर भी जो रंच मात्र दुखी नहीं होते हैं, ऐसे मुनिवर हमें शक्ति प्रदान करें।
एक कवि ने सच्चे साधुओं के गुण बखान करते हुए कहा है कि-
णं वा रत्नं वा रिपुरिव परममित्रमथवा,
स्तुतिर्वा निन्दा वा मरणमथवा जीवितमथ।
सुखं वा दुःखं वा पितुवनमहोत्सौधमथवा,
स्फुटं निग्र्रन्थानां द्वयमपि समं शान्तमनसाम्।।१।।
अर्थात् जिनके पास राग—द्वेष को बढ़ाने वाला परिग्रह नहीं है, निग्रन्थ हैं और सदा शान्तचित्त रहते हैं उन साधुओं के लिए तृण हो या रत्न, शत्रु हो या मित्र, उनकी कोई प्रशंसा करे या बुराई, वे जीवित रहें अथवा मर जावें, उन्हें सुख हो या दुःख और उनके रहने को श्मशान मिले या महल किन्तु उनकी दृष्टि सभी पर समान रहती है।
महामुनि संजयन्त भी महामना सहनशील आत्मा थे अतः उन्होंने अपने हृदय में लेशमात्र भी दुःख नहीं उत्पन्न किया। अपूर्व धैर्यपूर्वक उन्होंने कष्ट सहकर शुक्लध्यान में पहुँचकर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया तथा कुछ क्षणों में ही अघातिया कर्मों का नाशकर निर्वाण को प्राप्त हो गये । उनके निर्वाणकल्याणक की पूजा करने देवतागण आ गए । इन देवताओं के समूह में संजयन्त मुनि के छोटे भाई जयन्त मुनिराज जो निदान के फलस्वरूप धरणेन्द्र की पर्याय में उत्पन्न हुए थे वे भी आए।
धरणेन्द्र अपने भाई के शरीर की दुर्दशा देखकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने समझ लिया कि इस नगर के नागरिकों ने इन निर्दोष मुनिराज की यह दशा की है अतः आवेश में आकर उन सबको अपने नागपाश से बांधकर भीषण कष्ट देना शुरू कर दिया । सारे नगर में त्राहि माम् मच गया,सम्पूर्ण नर-नारी धरणेन्द्र देवता से अपने प्राणों की भिक्षा माँगने लगे और कहने लगे-
प्रभो! हम लोगों ने अज्ञानतावश थोड़ा कष्ट मुनिराज को अवश्य पहुँचाया है उसका आप हमें प्रायश्चित दे दीजिए किन्तु इनकी यह दुर्दशा तो विद्युद्दंष्ट्र विद्याधर ने की है। उसी ने इन्हें यहाँ नदी में लाकर डाला है अतः आप तो उस विद्याधर से इस पाप का कारण पूछें।
यह सुनते ही धरणेन्द्र देव इस विद्याधर को पकड़ने के लिए दौड़े और उसे अपने नागपाश में बांध लिया, पुनः उसे खूब मारपीट कर धरणेन्द्र एक समुद्र में डालने जा रहे थे कि एक दयालु दिवाकर देव ने धरणेन्द्र को रोका और उससे कहने लगे-हे मित्र! आप इसे प्राणघातक कष्ट मत दीजिए। इस विद्याधर की संजयन्त मुनिराज के साथ चार भवों से शत्रुता चली आ रही है, उसी वैर के कारण इस भव में इसने मुनि पर उपसर्ग किया है। अब मेरा यही कहना है कि आप आगे वैर परम्परा अपने लिए नहीं बढ़ावें और इस विद्याधर को कर्मों के भरोसे छोड़ दें।
धरणेन्द्र ने तुरन्त उसे छोड़ दिया तथा दिवाकर से बोले-हे देव! यदि ऐसा है तो आप इन लोगों के वैर का कारण बताएं,मैं उसे सुनना चाहता हूँ ।
दिवाकर देव ने तब इस प्रकार कहना प्रारभ्भ किया-
पहले समय में भारतवर्ष में एक सिंहपुर नाम का शहर था, उसके राजा का नाम सिंहसेन था तथा उसकी रानी का नाम रामदत्ता था । वह बड़ी बुद्धिमती, सरल स्वभावी थी । वहाँ के राज्यमंत्री का नाम श्रीभूति था,वह बड़ा कुटिल था। दूसरों को ठगना,धोखा देना यह उसका प्रधान कार्य था।
एक दिन पद्मखंडपुर निवासी सुमित्र सेठ का पुत्र समुद्रदत्त श्रीभूति के पास आया और बोला-
महाशय! मैं व्यापार के लिए विदेश जा रहा हूँ । लम्बे अरसे के बाद वहाँ से वापस लौटूंगा, तब तक न जाने कैसा समय जा जावे ? इसीलिए मेरे पास जो पांच कीमती रत्न हैं उन्हें आपके पास धरोहर के रूप में रखना चाहता हूँ।
श्रीभूति ने अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों से उसे सन्तुष्ट कर लिया और समुद्रदत्त के पाँचों रत्न उसने रख लिए । बेचारा सीधा सरल समुद्रदत्त अपनी यात्रा के चल दिया और जाते-जाते श्रीभूति से कह गया कि आप मेरे रत्न धरोहर रूप में अपने पास रखें, मैं वापस आकर अपने रत्न ले लूंगा।
कई वर्ष बाद समुद्रदत्त जब अपने नगर को लौट रहा था तब उसके साथ भीषण दुर्घटना घटी। किनारे लगते-लगते जहाज फट गया अतः सारा माल समुद्र के गर्भ में समा गया। किसी तरह से समुद्रदत्त को कुछ सहारा मिल जाने से उसकी जान बची और वह अपना जीवन लेकर दुखी मन से घर आया। आते ही उसे अपने रत्नों की याद आई जिन्हें ऐसे समय के लिए ही उसने संजोकर रखा था । कुछ आशा की किरण उसके मन मे प्रस्फुटित हुई और वह चल पड़ा अपने पांचों रत्न लेने श्रीभूति के पास। श्रीभूति के पास पहुँचकर समुद्रदत्त ने दीन मुद्रा में अपनी यात्रा की कहानी सुनाई और उसके पास धरोहर में रखे अपने रत्न माँगे। उस धूर्त ओैर कुटिल श्रीभूति ने जब उसको फटेहाल देखा तो अवसर का लाभ उठाते हुए उसने आंखे लाल-पीली करके गुस्से में कहा-
अरे पगले! कैसे रत्न ? किसके रत्न ? कितने रत्न ? किसने किसको दिये थे ? क्या तू जहाज डूबने के कारण पागल हो गया है ? अथवा मुझे तू पागल बनाकर पैसा ऐंठना चाहता है ?
बेचारा समुद्रदत्त यूं ही दुख का मारा था, ऐसी निराशाजनक बातें सुनकर वह बिल्कुल ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया और बार-बार श्रीभूति को उन रत्नों की याद दिलाने लगा किन्तु श्रीभूति ने बेचारे समुद्रदत्त को मनमानी फटकार बताकर अपने पास बैठे हुए लोगों से कहा-
देखिए साहब! मैंने आपसे अभी कहा था न, कि कोई निर्धन मनुष्य पागल बनकर मेरे पास आवेगा और झूठा ही बखेड़ा कर झगड़ा पैदा करेगा। वही बात सत्य निकली। आप लोग स्वयं ही इसकी दशा देखें और विचार करें कि ऐसे दरिद्री के पास रत्न भला कहाँ से आ सकते हैं ? मैं आप लोगों से पूछता हूँ कि क्या कभी किसी ने इसके पास रत्न देखे हैं ? यह व्यर्थ ही मुझे परेशान कर रहा है। इस प्रकार अनेक खरी खोटी सुनाकर उसने समुद्रदत्त को नौकरों से धक्के दिलाकर बाहर निकाल दिया अतः अब वह सब ओर से अनाथ हो गया, निराशा के अथाह समुद्र में वह गोते खाने लगा। कर्मों की लीला देखिए कि पहले तो उसे श्रीभूति ने पागल बना दिया था और अब वह सचमुच ही पागल हो गया। वह शहर में घूम-घूम कर चिल्लाने लगा कि पापी श्रीभूति ने मेरे रत्न ले लिए हैं, अब वह उन्हें देता नहीं है। राजमहल के पास भी उसने बहुत पुकार मचाई परन्तु उसकी कहीं सुनाई नहीं हुई। सब उसे पागल समझकर दुत्कार देते थे। अन्त में उसने एक उपाय सोचा और रानी के महल के पीछे एक वृक्ष पर चढ़कर पिछली रात में प्रतिदिन जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। वह रोज एक ही बात रटता था कि पापी श्रीभूति ने मेरे रत्न ले लिये हैं, मुझे वापस नहीं दे रहा है अतःमैं बहुत दुखी हूँ। बहुत दिनों तक तो रानी भी उसे पागल समझती रही परन्तु एक दिन वह सोचने लगी कि इसकी बात में कुछ रहस्य अवश्य है ।
रानी ने काफी चिन्तन करने के बाद एक दिन राजा से कहा-
प्राणनाथ! आप इस चिल्लाने वाले को पागल कहते हैं किन्तु मेरी समझ में यह बात नहीं आती है क्योंकि यदि वह पागल होता तो एक ही समय एक ही बात क्यो बोलता है ? इसलिए इसका ठीक-ठीक पता अवश्य लगाना चाहिए।
स्वामी! कहीं ऐसा न हो जाय कि अन्याय से यह बेचारा गरीब मारा न जा रहा हो ?
रानी के कहे अनुसार राजा सिंहसेन ने समुद्रदत्त को बुलाकर रानी के सामने ही उससे सारी बातें पूछीं कि तुम प्रतिदिन एक ही बात कहते रहते हो ? श्रीभूति को बदनाम करने का तुमने यह षड्यंत्र क्यों रचा है ? तुम मुझे सारी स्थिति यदि सच—सच बताओगे तो मैं तुम्हारी सहायता करूंगा अन्यथा तुम्हें दंडित करूँगा क्योंकि न्यायनीतिपूर्वक निर्णय लेना मेरा कर्तव्य है।
समुद्रदत्त को अब जैसे कुछ सहारा मिला और उसने राजा को अपने ऊपर बीती विपत्ति का सारा वर्णन सुनाया। राजा ने रानी से विचार-विमर्श किया कि इस गरीब के रत्न श्रीभूति से कैसे प्राप्त किये जाएं ? रानी बुद्धिमती तो थी ही, इसलिए उसने राजा को निश्चिन्त करके रत्नों के मंगाने का भार अपने ऊपर ले लिया ।
दूसरे ही दिन रानी ने श्रीभूति को बुलाया और उससे कहा-मैंने शतरंज खेलने में आपकी बड़ी प्रशंसा सुनी है। मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी कि आपके साथ शतरंज मैं भी खेलूं इसीलिए मैंने आपको बुलाया है। आज बड़ा अच्छा अवसर है कि आप मेरे घर आ गए हैं अतः शतरंज का खेल शुरू किया जावे। तुरन्त रानी ने अपनी दासी को शतरंज ले आने की आज्ञा दी। रानी तो कुछ क्षणों में अपनी सारी बात बोल गई किन्तु यह अप्रत्याशित बात सुनकर श्रीभूति एकदम घबरा गया, उसके मुंह से एक शब्द भी निकलना मुश्किल हो गया। उसने किसी तरह कांपते हुए रानी से कहा-
महारानी जी! आप यह क्या रही हैं ? मैं एक क्षुद्र कर्मचारी आपके साथ शतरंज कैसे खेलूं ? यह मुझसे नहीं होगा। यदि राजा साहब सुन लेंगे तो भला मेरा क्या हाल होगा ?
रानी ने मुस्कुराते हुए उसे अभयदान देते हुए कहा कि तुम चिन्ता मत करो। मैंने स्वयं राजा साहब से आज्ञा ले ली है और आप तो हमारे बुजुर्ग हैं। इसमें डरने की बात ही क्या है ? मैं तो केवल विनोदवश आपके साथ शतरंज खेल रही हूँ ।
राजाज्ञा की बात सुनकर श्रीभूति के मन से भय निकल गया और वह रानी के साथ शतरंज खेलने के लिए तैयार हो गया। रानी और श्रीभूति ने शतरंज खेलना शुरू किया । वास्तव में तो रानी के लिए शतरंज एक बहाना था जिसके निमित्त से वह असलियत का पता लगाना चाहती थी । खेलते-खेलते रानी ने श्रीभूति को अपनी बातों में लुभाकर उसके घर की सब बातें जान ली और इशारे से अपनी दासी को समझाकर श्रीभूति के घर भेज दिया।
दासी ने जाकर श्रीभूति की पत्नी से कहा-
तुम्हारे पति कष्ट में फंसे हैं अतः उन्होंने कहलाया है कि जो पांच रत्न तिजोरी में रखे हैं उन्हें दे दो ताकि मुझे संकट से शीघ्र छुटकारा मिल जावे ।
श्रीभूति के समान ही उसकी पत्नी भी बड़ी चतुर थी उसने सोचा कि कहीं यह मुझे धोखा न दे रही हो ? अतः दासी को डांट-फटकार कर भगा दिया कि उनसे कह दो मुझे कुछ पता नहीं है। रत्न कहाँ रखे हैं ?
दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी। अपनी चाल का उपयोग न देखकर रानी ने दूसरी युक्ति सोची। इस बार वह हार-जीत का खेल खेलने लगी। मंत्री ने पहले तो कुछ आनाकानी की पुनः रानी के अपार धन का लोभ मन में आते ही वह तैयार हो गया । रानी ने सबसे पहले पासे में ही श्रीभूति की एक कीमती अंगूठी जीत ली और चुपके से अंगूठी दासी को देकर उसे कुछ समझाकर श्रीभूति के घर फिर भेज दिया और स्वयं खेल में व्यस्त हो गई। इस बार रानी का प्रयास व्यर्थ नहीं गया । दासी ने उसके घर पहु्चते ही ज्यो ही उसकी पत्नी को फटकारते हुए उसकी अंगूठी दिखाई और बोली कि यदि तुम्हें पति की जान प्यारी है तो रत्न दे दो अन्यथा पति को परलोक जाने दो, इसके बाद मैं फिर तुम्हें कहने नहीं आऊंगी।
दासी की इन बातों को सुनकर और पति की अंगूठी देखकर श्रीभूति की पत्नी घबरा गई। उसने जल्दी से पांचों रत्न निकालकर दासी के हवाले कर दिए और रानी ने उन्हें महाराज सिंहसेन को सौंप दिया बस अब शतरंज का खेल समाप्त हो गया और राजदरबार में न्यायनीति देखने के लिए भीड़ इकट्ठी हो गई। राजा ने श्रीभूति को राजसभा में बुलाया और रत्नों को सामने रखकर कहा-बोलो! ये रत्न किसके हैं ? इस गरीब समुद्रदत्त को जिस तरह तुमने पागल बनाया है, इस तरह न जाने कितनों को तूने ठगा होगा ? क्या तुझे अब संसार में सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है ? पुनः राजा ने अपने सलाहकारों से मंत्रणा करके उसके लिए तीन दण्ड घोषित किए कि इनमें से जो एक दण्ड तुम्हें स्वीकार हो उसे भोगना पड़ेगा ।
१. एक सेर पक्का गोबर खाना पड़ेगा ।
२. मल्ल के द्वारा बत्तीस घूंसे मार खाना होगा ।
३. सर्वस्व हरण करके देश निकाला दण्ड लेना होगा।
श्रीभूति ने पहले गोबर खाना स्वीकार किया किन्तु उससे एक ग्रास भी न खाया गया, तब उसने मल्ल के घूंसे खाना स्वीकार किया। तब मल्ल बुलाए गए और उन्होंने श्रीभूति को घूंसे मारने शुरू किए । कुछ घूंसे पड़ते ही बेचारे की आत्मा शरीर से निकल गई। उसकी मृत्यु बड़े आर्तध्यान से हुई जिससे वह मरकर राजा के खजाने में विकराल सर्प हो गया, यह समस्त दृश्य देखकर समुद्रदत्त को संसार से वैराग्य हो गया। जिन रत्नों को पाने की लालसा से वह पागल हो रहा था, उन रत्नों को भी छोड़कर उसने दिगंबर मुनिराज के पास मुनिदीक्षा धारण कर ली। शुद्ध भावों से तपश्चरण करके आयु के अन्त में मरकर समुद्रदत्त का जीव इन्हीं राजा सिंहसेन के सिंहचन्द्र नाम का पुत्र हुआ।
वैर परम्परा यहीं से प्रारम्भ हो गई। राजा सिंहसेन ने तो अपने कत्र्तव्य का पालन कर दुर्जन को दण्ड दिया था और सज्जन को न्याय, किन्तु लोभ कषाय के कारण राजा के प्रति क्रूर भाव धारण कर सर्प बना वह श्रीभूति का जीव तो अवसर की तलाश कर रहा था। एक दिन राजा अपना खजाना देखने के लिए गए थे, उन्हें देखते ही सर्प का क्रोध भड़क उठा और उसने राजा को काट लिया। राजा भी बेचारा आर्तध्यान से मरकर सल्लकी वन में हाथी हो गया।
इधर सर्प के द्वारा अपने महाराज की मृत्यु देख कर सुघोष नामक मंत्री को बड़ा क्रोध आया। उसने अपने मंत्रबल से बहुत से सर्पों को एकत्रित कर लिया और उनसे बोला-तुम में से जिसने भी महाराज सिंहसेन को डंसा हो वह उनका विष शीघ्र खींच ले। सभी सर्पों ने सिर हिलाकर मना कर दिया कि हम लोगों ने राजा को नहीं मारा है। तब मंत्री कहने लगा कि यदि तुममें से कोई स्वीकार नहीं करोगे तो सबको अग्निकुंड में प्रवेश करना पड़ेगा। यदि तुम लोग निर्दोष हो तो अग्नि तुम्हें कोई कष्ट नहीं पहुँचाएगी अन्यथा अग्नि में जलकर भस्म हो जाओगे । सभी सर्प तो मंत्री के कहे अनुसार अग्निकुंड में जाकर बिना हानि के निकल कर बाहर चले गए। अब श्रीभूति का जीव बाकी रह गया उससे मंत्री ने कहा कि या तो तू विष खींचकर राजा को जीवित कर दे अन्यथा अग्नि में प्रवेश कर जा किन्तु वह तो महाक्रोधी था, उसने अग्निवुंâड में प्रवेश कर प्राण गंवा दिए परन्तु विष न खींचा।
वैर की शृंखला देखिए, जिस वन में राजा का जीव हाथी था उसी वन में वह सर्प का जीव सर्प बन गया ? राजा की मृत्यु से उसकी रानी एवं पुत्र बड़े दुखी हुए और संसार की क्षणभंगुर लीला देखकर उन दोनों को वैराग्य हो गया। रानी ने वनश्री रआयिका के पास दीक्षा ले ली और पुत्र सिंहचन्द्र ने अपने छोटे भाई पूर्णचन्द्र को राज्य सौंपकर सुव्रत मुनि के पास जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । घोर तपश्चर्या के कारण सिंहचन्द्र मुनिराज को शीघ्र ही मनःपर्ययज्ञान प्राप्त हो गया अतः वे सबके मन की बातें जानने में सक्षम हो गए।
माता हो तो ऐसी हो।
श्री रामदत्ता अपने पुत्र मुनिराज को मनःपर्ययज्ञान हुआ जानकर उनके पास आइं और विनयपूर्वक नमस्कार कर कहने लगीं-हे साधुराज! मेरी कूख धन्य है जिसने आप जैसे पुरुषोत्तम को उत्पन्न किया, आज मैं अपने मातृत्व को भी धन्य समझती हूँ।
वे पुनः पूछने लगीं-हे पूज्य मुनिवर! आपके छोटे भाई पूर्णचन्द्र आत्महित के लिए कब उद्यत होंगे ?
उत्तर में सिंहचन्द्र मुनिराज बोले-माता! सुनो, मैं तुम्हें संसार की विचित्र लीला सुनाता हूँ जिसे सुनकर तुम भी आश्चर्य करोगी। पुनः वे अपनी मधुर वाणी में कहने लगे-माता! तुम्हें तो मालूम ही है कि पिताजी सर्प के काटने से मृत्यु को प्राप्त हो गए थे तब वे मरकर सल्लकी वन में हाथी हुए। वे ही पिता हाथी की पर्याय में एक दिन मुझे मारने के लिए झपटे तब मैंने उस हाथी को समझाया और कहा-हे गजेन्द्र! जानते हो, तुम पूर्व भव में राजा थे और मैं प्राणों से भी प्यारा तुम्हारा पुत्र था। वैâसा आश्चर्य है कि आज पिता ही पुत्र को मारना चाहता है।
मेरे इन शब्दों को सुनते ही उस हाथी को जातिस्मरण हो आया, वह रोने लगा। हे मां! उसकी आंखों से बहती अविरल अश्रुधारा देखकर मुझे भी भयंकर दुःख हुआ किन्तु कर्मों की विचित्रता के समक्ष भला किसका वश चल सका है ? मैंने उसे जिनधर्म का उपदेश दिया जिसके फलस्वरूप हाथी ने पंच अणुव्रत धारण किए और जंगल में भी वह अहिंसात्मक वृत्ति से अपना जीवन बिताने लगा।
एक दिन हाथी जल पीने के लिए नदी पर गया, वहाँ जल में प्रवेश करते ही कीचड़ में फंस गया। अनेक प्रयत्न के बाद भी जब वह कीचड़ से निकलने में सफल नहीं हुआ तब उसने समाधिमरण की प्रतिज्ञा ले ली। वे आर्यिका माताजी आश्चर्य के साथ इस रोमांचक कथानक को सुन रही हैं और कभी-कभी विह्वल होकर दीर्घ निःश्वांस छोड़ती हुई मुनिराज के वीतरागी श्रीमुख का अवलोकन करती हुई अपनी स्त्री पर्याय को धन्य समझ रही हैं। मुनिराज पुनः कहते हैं-पूर्व भव के श्रीभूति का जीव अब सर्प की पर्याय में था, वह यहाँ भी हाथी को कष्ट देने आ गया। बड़े धैर्य के साथ हाथी ने उसका उपसर्ग सहन किया और शान्तिपूर्वक पंचनमस्कार मंत्र जपते-जपते अपने प्राण छोड़े। समाधिमरण के प्रभाव से वह हाथी सहस्रार स्वर्ग में देव हो गया।
इधर वह सर्प भी बहुत कष्टों को सहन कर मरा और पाप कर्म के उदय से चौथे नरक में नारकी हो गया। नरक के दुःखों का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है ? जहाँ तिल-तुष मात्र भी सुख का अंश नहीं है। माता फिर पूछती हैं कि मुनिवर! स्वर्ग के बाद फिर उस राजा का जीव कहाँ पहुँचा ? मुनिराज बोले-हाँ, उसे भी बताता हूँ। हाथी मरकर देव हुआ था, उस हाथी के दांत और कपोलों में से निकले हुए मोती एक भील के हाथ लग गए पुनः भील ने उन्हें एक धनमित्र नामक सेठ के हाथ बेच दिये और धनमित्र ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ कीमती मोती समझ कर राजा पूर्णचन्द्र को भेंट कर दिए। राजा यह कीमती भेंट पाकर बड़े प्रसन्न हुए उन्होंने उसके बदले में धनमित्र को खूब धन दिया। इसके बाद राजा ने उन दांतों के तो पलंग के पाये बनवाये और मोतियों का हार बनवा कर अपनी प्राणप्रिय रानी को सौंप दिया।
इस समय वे विषयसुख में खूब मग्न होकर अपना अमूल्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इस जीवन की विनाशीक पर्यायों को ज्ञानी आत्मा के अतिरिक्त कोई नहीं जान पाता और इसीलिए अज्ञानी जीवों को संसार के दुःख भोगने पड़ते हैं। हे माता! जो तुमने पूर्णचन्द्र के कल्याण का मार्ग पूछा है सो यदि तुम जाकर उसे उपदेश दो और यह सब घटना सुनाओ तो वह अवश्य अपने कल्याण की ओर अग्रसर होगा।
पुत्र के कल्याण की इच्छा से माता उसी क्षण उठकर पूर्णचन्द्र के महल की ओर चल देती है। महल में अकस्मात् आर्यिका माताजी को इस प्रकार आया देखकर राजा पूर्णचन्द्र उठे और बड़े विनय से उन्हें पवित्र काष्ठासन प्रदान कर नम्रतापूर्वक उनके आने का कारण पूछा।
माता ने धर्मवात्सल्यपूर्वक उसे सिंहचन्द्र मुनिराज के द्वारा बताई हुई सारी बातें बताई और बोलीं कि इस समय भी तेरे घर में तेरे पिता के दांत और मोती मौेजूद हैं। हे वत्स! यह संसार की विचित्र लीला है, अब इसके बाद तुम्हें जो उचित जान पड़े सो करो।
आर्यिका माताजी इतना कहकर चुप हो गई और पूर्णचन्द्र अपने पिता का दर्दनाक कथानक सुनकर रो पड़ा। उसका हृदय पिता के शोक से संतप्त हो गया। उसके रुदन से राजमहल में हाहाकार मच गया। पूर्णचन्द्र ने पितृप्रेम के वश होकर पलंग के पायों को छाती से लगा लिया। मोह के वश होकर तो मानव पागलवत् चेष्टा करने लगता है, उसे निज का भान नहीं रहता। पूर्णचन्द्र ने उन पलंग के पायों और मोतियों की चन्दन आदि से पूजा कर उन्हें जला दिया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मोह का चक्र जब अच्छे-अच्छे महात्माओं पर भी चल जाता है तब पूर्णचन्द्र पर उसका प्रभाव पड़ना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर भी पूर्णचन्द्र ने शीघ्रता से अपने को संभाला और पवित्र श्रावक धर्म को ग्रहण करने लगे। पुनः आयु के अन्त में शुभ भावों से मरण करके महाशुक्र नामक दसवें स्वर्ग में देव हो गये और उनकी माता भी आर्यिका अवस्था में तपश्चर्या कर समाधिमरण करके उसी स्वर्ग में देव रूप में जन्मीं। मनःपर्यय ज्ञानी सिंहचन्द्र मुनिराज अपने उत्कृष्ट चारित्र के प्रभाव से ग्रैवेयक में जाकर देव हुए।
इस प्रकार अपने-अपने हीनाधिक पुण्य के प्रभाव से वे दोनों पुत्र एवं माता अलग-अलग स्वर्गो में जन्म लेकर पुनः अकृत्रिम चैत्यालय आदि की वंदना से पुण्योपार्जन करने लगे।
दिवाकर देव धरणेन्द्र से उन्हीं संजयन्त मुनिराज के बारे में बताते हुए कहता है कि-सूर्य की आभा के समान चमकशाली एक नगर था जिसका नाम पड़ा-सूर्याभपुर। भारतदेश का यह नगर अपने गुणों से दुनिया में प्रसिद्ध था, वहाँ के राजा का नाम था सुरावर्त और महारानी का नाम था यशोधरा । दोनों धर्मात्मा एवं सरल स्वभावी थे, वे सदा दान-पूजन उपवासादि करते हुए अपने गृहस्थ धर्म का पालन कर रहे थे ।
सिंहसेन राजा का जीव, जो हाथी की पर्याय से मरकर स्वर्ग गया था वह यहाँ आकर यशोधरा रानी का पुत्र हुआ, उसका नाम रखा गया-रश्मिवेग। पुत्र के युवा होने पर राजा ने उसे राज्य सौंप कर जिनदीक्षा ले ली। राज्य का न्यायनीतिपूर्वक संचालन करते हुए एक दिन धर्मात्मा रश्मिवेग सिद्धकूट जिनालय की वन्दना करने गया, वहाँ एक हरिचन्द्र नामक मुनिराज से धर्मोपदेश सुनकर रश्मिवेग को वैराग्य हो गया जिसके फलस्वरूप उसने उसी समय मुनिराज से दीक्षा ग्रहण कर ली।
एक दिन रश्मिवेग महामुनि पर्वत की गुफा में कायोत्सर्ग मुद्रा सहित ध्यान कर रहे थे कि वह श्रीभूति का जीव जो भयंकर अजगर हुआ था उसने मुनिराज को काट लिया। मुनिराज ध्यान से रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए और समाधिमरणपूर्वक शरीर त्याग कर कापिष्ठ स्वर्ग में आदित्यप्रभ नामक मर्हिद्धक देव हुए। वह अजगर मरकर पाप के उदय से पुनः चौथे नरक में गया। वहाँ घोर दुःखों को भोग-भोगकर पश्चाताप की अग्नि में झुलसकर उसने अगले भव में भील की पर्याय पाई किन्तु वैर की भावना उसके मन से अभी भी समाप्त नहीं हुई।
इधर राजा सिंहसेन का जीव जो अब रश्मिवेग की पर्याय से मरण को प्राप्त हुआ था वह चक्रपुर नामक शहर के राजा चक्रायुध की महारानी चित्रा देवी के गर्भ से पुत्र रूप में जन्मा, उसका नाम था-वङ्कायुध। कुछ समय बाद अपने योग्य पुत्र को राज्य सौंपकर राजा चक्रायुध ने दीक्षा ले ली। तब वङ्कायुध ने बहुत दिनों तक राजसुख का उपभोग किया। पुनः एक दिन किसी कारण से उसे भी वैराग्य हो गया अतः अपने पिता के पास जाकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली।
श्री वङ्कायुध मुनिराज एक दिन प्रियंगु नामक पर्वत पर ध्यान कर रहे थे कि उनके शत्रु भील ने उन्हें बाण चलाकर मार दिया। वैर से संतप्त पापी जीव कभी हेयोपादेय का विवेक नहीं रख पाते हैं। मुनिराज तो क्षमा और धैर्य के जीवन्त सागर थे, उनके हृदय में शत्रु के प्रति जरा भी द्वेष जाग्रत नहीं हुआ अतः वे समता परिणामों से मरकर सर्वार्थसिद्धि नामक अंतिम अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुए और पापी भील मरकर सातवें नरक चला गया।
सर्वार्थसिद्धि में तेतीस सागर की आयुपर्यन्त सुख भोगकर वङ्कायुध का जीव संजयन्त हुआ और पूर्णचन्द्र का जीव उनका छोटा भाई जयन्त हुआ । वे दोनों भाई छोटी ही अवस्था में काम-भोगों से विरक्त होकर पिता के साथ मुनि हो गये और वह भील का जीव सातवें नरक से निकल कर अनेक कुगतियों में भटका और असंख्य दुःख से पुनः मरकर ऐरावत क्षेत्र के भूतरमण वन में वेगवती नदी के किनारे गोशृंग तापस की शंखिनी नामक स्त्री से हरिणशृंग नाम का पुत्र हुअ। वही हरिणशृंग पंचाग्नि तप तपकर यह विद्युद्दंष्ट्र नामक विद्याधर हुआ है जिसने कि संजयन्त मुनि पर पूर्व जन्म के वैर से घोर उपसर्ग किया है और उनके छोटे भाई जयन्त मुनि निदान करके जो धरणेन्द्र हुए , वे तुम हो।
दिवाकर देव ने इस प्रकार धरणेन्द्र को सभी के भव-भवान्तर बताते हुए कहा-संजयन्त मुनिराज पर पापी विद्युद्दंष्ट्र ने घोर उपसर्ग किया तब भी वे पवित्रात्मा रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए और समस्त परीषहों को सहन कर मोक्ष प्राप्त किया। परम पावन धाम मोक्ष की बात सुनकर धरणेन्द्र को सांत्वना मिली, तथापि विद्युद्दंष्ट्र की पाप प्रवृत्ति के कारण वह कहने लगा कि हे दिवाकर देव! मैं आपके कहने से इसे छोड़ तो देता हूँ परन्तु इसे अपने अभिमान का फल मिले इसलिए मैं इसे श्राप देता हूँ कि मनुष्य पर्याय में इसे कभी विद्या की सिद्धि न हो ।
इसके बाद धरणेन्द्र अपने भाई संजयन्त मुनि के मृत शरीर की बड़ी भक्ति के साथ पूजा करके अपने स्थान पर वापस चला गया । इस प्रकार अक्षय, अविनाशी सुख को प्राप्त संजयन्त मुनिराज मुझे भी उपसर्ग परीषह सहने की शक्ति प्रदान करें।