संतान—संहार का सूतक: सिद्धान्त शास्त्र एवं आगम में
ब्र. शांति कुमार जैन
कहीं भी गर्भस्थ शिशु की हथ्या कराने वाले को कितने समय का सूतक लगेगा, इसका कोई विधान नहीं मिलता । दिगम्बर जैन धर्म की आधार शिला अहिंसा परमो धर्म है। अत: आचार्यों नपे ऐसा सोचा ही नहीं था कि जैन धर्मावलम्बी ऐसा भी घृणित जघन्य क्रूर अमानवीय क्रिया कर सकता है। आचार्य महाराज, आर्यिका माताजी, विद्वान एवं विदुधी श्रावक—श्राविकायें इस बात पर विचार करें कि ऐसे निर्मम हत्यारे पति—पत्नि को सूतक—पातक कितने दिन का लगना चाहिये। अपनी विवेक बुद्धि से निर्णय करके अपने शिष्यों को बनाना चाहिये। आधार के लिए प्रायश्चित, शास्त्र एवं मूलाचार ग्रन्थों का आलोड़न करना चाहिये। वर्तमान परिस्थितियों में इस कुकृत्य पर शीघ्रातिशीघ्र यथा सम्भव अकुंश लगाना अत्यावश्यक है। भय के द्वारा ही बुरी आदतें भी सुधर सकती हैं। इस विषय में निषेध हेतु कुछ नहीं कहना भी वस्तुत: परोक्ष मौन समर्थन ही समझा जाता है । समाज में नए वर्ग के लोग इस खोटे काम को सहज रूप से करने लग गये हैं। इस कुरीति के भविष्य में होने वाले दुष्प्रभाव को विचार करें तो जैनियों की संख्या घटती जायेगी,सज्जाति में विवाह योग्य वर कन्या मिलना दुर्लभ होता जायेगा अन्य जातियों में सम्बन्ध स्वयं लड़के—लड़कियाँ करने लग जायेंगे माता—पिता की आज्ञा एवं जानकारी के बिना ही ।बे मेल विवाह के कारण वह दम्पत्ति एवं उनकी सन्तान सन्तति की परम्परा ही अजैन हो जाती है। इस प्रकार विजातिय विवाह सम्बन्ध से आने वाले १८४०० वर्षों में होने वाली सन्तान में कम से कम एक लाख अजैन हो जायेंगे। समाज की संस्कृति संस्कार ही बिगाड़ता चला जायेगा । मंदिर, भगवान, तीर्थ आदि धर्मायतन अजैनों के अधिकार में चले जायेंगे। यह एक अत्यन्त शोचनीय चिन्तनीय विषय है। विलम्ब के कारण इस कुकर्म के कीटाणु कैंसर की तरह बढ़ते ही जायेंगे। कालान्तर में यह एक लाइलाज समस्या बन जायेगी। सूतक के विषय में अब व्यक्तिगत चिन्तन प्रस्तुत किया जाता है। मनीषी जन गम्भीरता से विचार करें। आत्महत्या करने वाले के परिवार वालों को ६ माह का सूतक लगने की मान्यता है। अपनी सन्तान को पेट में अत्यन्त असहाय एवं शैशव अवस्था में टुकड़े—टुकड़े करके काट—काट कर मार डालना एक अत्यन्त घृणित कार्य है। इस दुष्कृत्य से कभी—कभी उस मां का ही मरण हो जाता है अथवा दुसाध्य रोग लग जाता है । ऐसी घटनायें भी ज्ञात हुई है कि विवाह के पश्चात शीघ्र आने वाली प्रथम सन्तान का गर्भपात करा दिया तो भविष्य में वह महिला नि:सन्तान ही रह गई। माता—पिता दोनों को नपुंसकता का अशुभ कर्म का बंध होता है। माता बंध्या होती है। अगला भव नरक तिर्यंच गति का ही मिलता है। गर्भपात कराने वाले पति—पत्नी को कम से कम एक वर्ष का सूतक तो लगाना ही चाहिये। अथवा दिगम्बर जैन आचार्य महाराज से प्रायश्चित लेकर जीवन में पूरा उतार लें तब तक का सूतक दोनों को लगाना चाहिये। उतने समय तक के लिए उनका लोक व्यवहार एवं सामाजिक व धार्मिक व्यवहार समाज की मान्यता, रीति—रिवाज, जनपद सत्य के अनुसार प्रतिबंधित होना चाहिए। दुबारा कराया जाय तो सूतक की अवधि तीन या पांच वर्ष होनी चाहिये। दुबारा कराया जाय तो सूतक की अवधि तीन या पांच वर्ष की होनी चाहिए। तीसरी बार कराया जाय तो उन दोनों करे जीवन पर्यन्त का सूतक लगना चाहिये उपरोक्त प्रायश्चित विधि से शुद्धिकरण करा लेने पर निर्दोष हो सकते हैं। गर्भपात कराना एक ऐसा गुप्त कार्य है कि गृहस्थ, परिवार, परिजन को कुछ भी ज्ञात नहीं हो पाता है। यह सूतक अन्य किसी को भी नहीं लगेगा।। मात्र पति—पत्नी को ही लगेगा। किसी को ज्ञात हो या नहीं भी हो परन्तु पाप का बंध तो होता ही होगा एवं उसका तीव्र अशुभ फल भी भोगना ही पड़ेगा। इसलिए अपनी सूतक की अशुद्धि मानकर प्रायश्चित के द्वारा शुद्धिकरण करा लेना एवं उस अवधि में अपनी क्रियाओं को स्वयं ही विवेक ज्ञान से प्रतिबंधित रखना अनिवार्य समझना चाहिये। पाप को छिपाना भी और अधिक भयंकर पाप है। गर्भ का ठहर जाना ही एक जीवात्मा का इस भव में जन्म का दिन है। बाद में तो शरीर का निर्णय एवं विकास होता है। यांत्रिक जांच प्रक्रिया से गर्भस्थ शिशु का लिंग निर्धारण करना एवं उसका गर्भपात कराना दोनों ही अनैतिक कार्य हैं। जांच करना एवं कराना भी कानून से दंडनीय अपराध घोषित हो चुका है। मात—पिता को ही सोचना चाहिये कि उनकी मां उसी गर्भ में मार डालती तो वह आज कहां नजर आते। क्या पता गर्भस्थ संतान कितना बड़ा पुण्यवान सौभाग्यशाली व्यक्तित्व को लेकर आया है कि उसके द्वारा देश, धर्म, समाज का कोई महान अपूर्व उपकार, विकास, उन्नति का कार्य होने वाला है। क्या पता उस जीवात्मा के आने से उस गरीब, संकट ग्रस्त, दु:खी परिवार का कल्याण हो जायेगा। ऐसा भी देखा गया है कि बेटे तो सारे दु:ख कष्ट देने वाले हो जाते हैं एवं बेटी का दामाद मददगार सेवा उपकार करने वाला पाया जाता है। बेटे आंसू निकालते हैं बेटियाँ आँसू पोंछती हैं। आप चाहें तो असमय में आने वाली संतान का निरोध अनेक आधुनिक प्रक्रियाओं के द्वारा भी करा सकते हैं। स्त्री रोग चिकित्सकों से पूछकर अपने मासिक धर्म के आवर्त के दिनों पर ब्रह्मचर्य का सहज सरल पालन के द्वारा भी नियंत्रण कर सकते हैं। इसके कोई भी औषधि या प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं रहती। गर्भ निरोध की औषधियाँ सेवन करना भी सांधातिक हानिकारक है।शल्यक्रिया के द्वारा सन्तानोत्पत्ति की शक्ति को समाप्त कर देना भी तो अपने आपको बांद्धया बनाना ही है तो फिर अगला भव भी तो वैसा ही प्रापत होगा। कालान्तर में इसके फलस्वरूप इसी जीवन में अनेक नई—नई आधि—व्याधि भी आ जाती है। शरीर की स्वाभाविक गति विधि पर कुठाराघात ठीक नहीं। अनचाही संतान आती है तो आने दीजिये। उसे किसी जरूरतमंद को दे दीजिये। अथवा अनेक संस्थायें हैं जो कि ऐसे शिशु को संरक्षण करने के लिए ले लेती हैं एवं नि:संतान वालों को गोद भी देती हैं। मासूम शिशु को गर्भ में ही हत्या कर के व्यर्थ का निकाचित महापाप का तीव्र अनुभाग वाला अत्यन्त अशुभ पाप का बंध करना कतई उचित नहीं। इसमें सूतक का विधान हो या स्वयं अपने आपको दंड प्रायश्चित देकर शुद्ध करना चाहिये। भविष्य में कभी भी इस कार्य के करने, कराने, अनुमोदना का त्याग का नियम लेना चाहिये।