५ व्रत व ५ समितियों का पालन करना, क्रोध आदि ४ कषायों का त्याग करना, ५ इन्द्रियों को वश में करना संयम है। इसके ७ भेद हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, संयमासंयम, असंयम।
सम्यक् रूप से यम अर्थात् नियंत्रण संयम है। ५ महाव्रत, ५ समितियों का पालन करना, क्रोध आदि ४ कषाय नहीं करना, ५ इन्द्रियों को वश में रखना, दर्शन ज्ञान से परिपूर्ण होना संयम के सामान्य लक्षण हैं। १३ प्रकार के चारित्र (५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति) का पालन करना संयम है।
संयम दो प्रकार का होता है-
प्राणी संयम-सभी जीवों (स्थावर व त्रस) की रक्षा करना प्राणी संयम है।
इन्द्रिय संयम-पांचों इन्द्रियों और मन को वश में करना इन्द्रिय संयम है।
(१) सामायिक संयम-मन, वचन व काय की हिंसाजनक क्रियाओं का त्याग करना तथा सब जीवों में समता भाव रखना, सुख-दुःख में समान भाव रखना, शुभ-अशुभ विकल्पों का त्याग करना सामायिक संयम है।
(२) छेदोपस्थापना संयम-सामायिक से डिग जाने पर शुद्ध आत्मा के अनुभव में लगना अथवा प्रमादवश व्रत आदि में दोष लगने पर प्रायश्चित्त आदि से उसका शोधन कर पुनः व्रतों में स्थिर हो जाना छेदोपस्थापना संयम है।
(३) परिहार विशुद्धि संयम-प्राणी वध की निवृत्ति को परिहार कहते हैं। चारित्र की जिस विशुद्धि से हिंसा का पूर्णरूपेण परिहार हो जाता है, वह परिहार विशुद्धि संयम है।
(४) सूक्ष्म साम्पराय संयम-अपनी आत्मा को कषाय से रहित करते-करते जब सूक्ष्म-कषाय नाम मात्र की रह जावे तो उन आत्म विशुद्ध परिणामों को सूक्ष्म-साम्पराय कहते हैं। इस सूक्ष्म-कषाय को भी दूर करने की कोशिश करना सूक्ष्म साम्पराय संयम है।
(५) यथाख्यात संयम-कषाय रहित आत्मा के शुद्ध स्वभाव में मग्न होना यथाख्यात संयम है। मोहनीय कर्म के क्षय अथवा उपशम होने से यह प्रकट होता है।
संयम के उपरोक्त ५ भेदों के अतिरिक्त मार्गणा की अपेक्षा से संयम के दो भेद और हैं। इनका विवरण निम्न प्रकार है-
(६) संयमासंयम (देश संयम)-सम्यग्दर्शन को ग्रहण करके पाँच पापों का एक देश त्याग-संयमासंयम है।
(७) असंयम-स्थावर व त्रस हिंसा से विरत नहीं होना असंयम है।
देव-गति व नरक-गति में संयम धारण नहीं किया जा सकता है और तिर्यंच गति में भी आंशिक संयम ही धारण किया जा सकता है। अतः इन गतियों के जीवों को मोक्ष नहीं होता है। मनुष्य गति में पूर्ण संयम धारण किया जा सकता है, अतः मनुष्य गति से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
जो देखता है अथवा जिसके द्वारा सामान्य अवलोकन हो, वह दर्शन मार्गणा है। इसके चार भेद हैं- चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन ।
इनके संक्षिप्त लक्षण निम्न प्रकार हैं-
दर्शनोपयोग का लक्षण—प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक है फिर भी उसमें आकार भेद रूप विशेष अंश को ग्रहण करके जो स्व या पर का सत्तारूप सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं।
उसके चार भेद हैं—चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन।
चक्षुदर्शन—चक्षुइंद्रिय संबंधी जो सामान्य आभास होता है वह चक्षुदर्शन है।
अचक्षुदर्शन—चक्षु के सिवाय अन्य चार इंद्रियों के द्वारा या मन के द्वारा जो पदार्थ का सामान्य रूप से ग्रहण होता है वह अचक्षुदर्शन है।
अवधिदर्शन—अवधिज्ञान के पूर्व समय में अवधि के विषयभूत पदार्थों का जो सामान्यावलोकन है वह अवधिदर्शन है।
केवलदर्शन—जो लोक और अलोक दोनों जगह प्रकाश करता है ऐसे आत्मा के सामान्य आभास रूप प्रकाश को केवलदर्शन कहते हैं।
तीन इंद्रिय जीवों तक अचक्षुदर्शन ही होता है। चार इंद्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को दोनों दर्शन होते हैं। पंचेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि को ही किन्हीं अवधिज्ञानी को अवधिदर्शन और केवली भगवान को ही केवलदर्शन होता है। संसारी जीवों के ज्ञान और दर्शन एक साथ नहीं होते हैं किन्तु केवली भगवान के दोनों एक साथ ही होते हैं।
अत: दर्शनमार्गणा को समझकर समस्त बाह्य संकल्प विकल्प को छोड़कर अंतर्मुख होकर निर्विकल्प समाधि में स्थिरता प्राप्त कर शुद्धात्मा का अवलोकन करना चाहिए।
कषाय सहित मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। लेश्या मार्गणा में भाव-लेश्या अभिप्रेत है। इसके छः भेद हैं- कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल।
लेश्या-
जो लिम्पन करती है, वह लेश्या है अर्थात् जो कर्मों को आत्मा से लिप्त करती है, वह लेश्या है। जिसके द्वारा आत्मा पाप-पुण्य से अपने को लिप्त करती है, उसे लेश्या कहते हैं। जैसे मिट्टी, गेरू आदि के द्वारा दीवार रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ-अशुभ भावरूपी लेप के द्वारा आत्मा का परिणाम लिप्त किया जाता है, वह लेश्या कहलाती है। जिस प्रकार थर्मामीटर से शरीर का ताप नापा जाता है, उसी प्रकार भावों के द्वारा आत्मा का ताप अर्थात् लेश्या का पता चलता है।
तीव्रता-मन्दता की अपेक्षा से लेश्या छः प्रकार की होती है- तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम। रंगों से उपमित करने से इन्हें क्रमशः कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, और शुक्ल लेश्या कहते हैं।
लेश्या २ प्रकार की होती हैं – द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या।
(क) द्रव्य लेश्या-वर्ण नाम कर्म के उदय से प्राप्त शरीर का रंग द्रव्य लेश्या है। यह आयु पर्यन्त एक ही रहती है। परन्तु यह आत्मा का उपकार या अपकार नहीं करती है और इससे कर्म बन्ध नहीं होता है। इसके छः भेद हैं-
(१) कृष्ण-भौंरे के समान काला रंग ।
(२) नील-नील मणि के समान रंग ।
(३) कापोत-कापोत (कबूतर) के समान रंग ।
(४) पीत-सुवर्ण के समान रंग ।
(५) पद्म-कमल के समान रंग ।
(६) शुक्ल-शंख के समान श्वेत रंग ।
(ख) भाव लेश्या-मन, वचन व काय से जो भी क्रिया हम करते हैं, वह किसी न किसी कषाय से प्रेरित होती है। कषाय से अनुरंजित मन-वचन-काय की प्रवृत्ति भाव लेश्या है। इनसे कर्म बन्ध होता है। जीवों के परिणामों के अनुसार ये बराबर बदलती रहती हैं। यह छः प्रकार की होती है – कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल।
(१) कृष्ण लेश्या-जो तीव्र-क्रोधी, लड़ाकू, धर्म से रहित, स्वच्छन्द, विषयों में आसक्त, मायावी, आलसी, डरपोक, दुराग्रही, निर्दयी, असंतोषी आदि हो, वह कृष्ण लेश्या वाला जीव है।
(२) नील लेश्या-जो बहुत निद्रालु हो, धन-धान्य के संचय में तीव्र लालसा रखता हो, विषयों में आसक्त हो, कायर हो, दूसरे को ठगने हेतु तत्पर हो, मायाचारी हो, अतिलोभी हो, ये नील लेश्या वाले जीव के लक्षण हैं।
(३) कापोत लेश्या-जो पर निन्दा करने वाला, दूसरों से ईर्ष्या करने वाला, शोक अधिक करने वाला, स्वयं की प्रशंसा करने वाला, दूसरे का विश्वास नहीं करने वाला, अन्यों को अपने से हीन समझने वाला, रण में मरने हेतु उद्यम, प्रशंसकों को धन आदि देने वाला है, वह कापोत लेश्या वाला जीव है।
(४) पीत लेश्या-समदर्शी, दया-दान में रत, मृदु स्वभावी, ज्ञानी, अपने कर्तव्य को जानने वाला, सेव्य-असेव्य को जानने वाला, सत्यवादी आदि गुणों वाला व्यक्ति पीत लेश्याधारी होता है।
(५) पद्म लेश्या-जो त्यागी, भद्र, सच्चा, क्षमाशील, उद्यम कार्यों में लग्न, गुरु व देवता की स्तुति करने वाला हो, उसके पद्म लेश्या होती है।
(६) शुक्ल लेश्या-जो पक्षपात रहित हो, सबसे समान व्यवहार करता हो, किसी से राग, द्वेष या प्रेम के भाव नहीं रखता हो, शत्रु के दोषों पर दृष्टि नहीं डालने वाला हो, पर की निन्दा नहीं करने वाला हो, पाप कर्मों से उदासीन हो, उसके शुक्ल लेश्या होती है।
किसी फलदार वृक्ष को देखकर ६ व्यक्तियों के मन में विभिन्न भाव आ सकते हैं जो उनकी लेश्याओं को दर्शाते हैं।
जैसे (१) वृक्ष को जड़ से काटकर गिराकर फल प्राप्त किये जावें,
(२) वृक्ष के जिस स्कन्ध (मोटी डाली) पर फल लदे हैं, उसे काटकर गिराकर फल प्राप्त किये जावें,
(३) जिस बड़ी टहनी पर फल लदे हैं उसे तोड़कर फल प्राप्त किये जावें,
(४) वृक्ष की जिस छोटी टहनी पर फल लगे हैं, उस टहनी को तोड़कर फल प्राप्त किये जावें,
(५) पेड़ से केवल फलों को तोड़कर फल प्राप्त किये जावें और
(६) जो फल पककर नीचे गिरे हुए हैं, उन्हें बीनकर फल प्राप्त किये जावें।
इस प्रकार उन व्यक्तियों के भाव तो सभी के फल प्राप्त करने के हैं, किन्तु फल प्राप्त करने हेतु वे पेड़ को क्रमशः कम हानि पहुंचाना चाहते हैं। ये ६ प्रकार के भाव क्रमशः छः लेश्याओं को दर्शाते हैं। जिस प्रकार ये भाव उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हैं, उसी प्रकार कृष्ण आदि लेश्या वालों के भाव भी उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हैं।
शुभ-अशुभ लेश्याएँ-मैत्री, शांति, क्षमा आदि भावों वाले व्यक्ति के शुभ लेश्या होती है और हिंसा, झूठ, चोरी, द्वेष, शोक, घृणा आदि अपवित्र भावों वाले व्यक्ति के अशुभ लेश्याएँ होती हैं। उपरोक्त ६ लेश्याओं में से प्रथम तीन अशुभ लेश्याएँ हैं और अंतिम तीन शुभ लेश्याएँ हैं। शुभ लेश्याओं से ही आत्मा का उत्थान हो सकता है। अतः शुभ लेश्याएँ ही अपनाने का प्रयास किया जाना अपेक्षित है।
गतियों में लेश्याएँ-नरक गति में तीनों प्रकार की अशुभ लेश्याएँ होती हैं और शेष तीनों गतियों में छहों प्रकार की लेश्याएँ होती हैं।
अलेश्या का लक्षण-अयोग केवली और सिद्ध भगवान अलेश्य हैं अर्थात् इनके कोई भी लेश्या नहीं होती है।
गुणस्थानों की अपेक्षा से लेश्याएँ-एक से चौथे गुणस्थान तक – छहों लेश्याएँ होती हैं।
पाँचवें से सातवें गुणस्थान तक – तीन (पीत, पद्म और शुक्ल) लेश्याएँ होती हैं।
आठवें से तेरहवें गुणस्थान तक – शुक्ल लेश्या होती है।
चौदहवें गुणस्थान में लेश्या नहीं होती है।
जीव में मोक्ष जाने की शक्ति है या नहीं, इसकी खोज करना भव्यत्व मार्गणा है। यह भव्य व अभव्य दो प्रकार की होती है।
(क) भव्य जीव-जिसमें सम्यक् दर्शन प्राप्त करने की योग्यता होती है, वह भव्य जीव है। इस प्रकार के जीव मोक्ष जाने योग्य होते हैं। काल की अपेक्षा से ये तीन प्रकार के होते हैं-
आसन्न भव्य-जो थोड़े भव धारण कर मोक्ष जावेगा, वह आसन्न भव्य है। इसे निकट भव्य भी कहते हैं।
दूर भव्य-जो बहुत काल में मुक्त होंगे, वे दूर भव्य हैं।
अभव्यसम भव्य-जो जीव मुक्त होने की योग्यता तो रखता है, किन्तु वह कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकेगा, उसे दूरान्दूर भव्य या अभव्यसम भव्य कहते हैं। जैसे एक स्त्री पुत्रवती होने की योग्यता तो रखती है, मगर विधवा हो जाने के कारण अब सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकती है।
(ख) अभव्य जीव-जिन जीवों में सम्यक् दर्शन प्राप्त करने की योग्यता नहीं हो। ये कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं। जैसे बांझ स्त्री कभी भी सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकती है। इसी प्रकार ठर्रा मूंग को कितना भी उबालो वह पकता (सीझता) ही नहीं है।
भव्य मार्गणा का विशेष वर्णन निम्न प्रकार है-
जिन जीवों की अनंतचतुष्टय रूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों उनको भव्य कहते हैं। जिनमें इन दोनों में से कोई लक्षण घटित न हो उनको अभव्य कहते हैं अर्थात् कितने ही भव्य ऐसे हैं जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य हैं परन्तु कभी भी मुक्त न होंगे। जैसे—विधवा सती स्त्री में पुत्रोत्पत्ति की योग्यता है परन्तु उसके कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होगा। कोई भव्य ऐसे हैं जो नियम से मुक्त होंगे। जैसे-बन्ध्यापने से रहित स्त्री के निमित्त मिलने पर नियम से पुत्र उत्पन्न होगा। इस तरह स्वभाव भेद के कारण भव्य दो प्रकार के हैं। इन दोनों स्वभावों से रहित अभव्य हैं जैसे— बन्ध्या स्त्री के निमित्त मिले चाहे न मिले किन्तु पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है।
जघन्य युक्तानन्त प्रमाण अभव्य राशि है और भव्य राशि इससे बहुत ही अधिक है। काल के अनंत समय हैं फिर भी ऐसा कोई समय नहीं आयेगा कि जब भव्य राशि से संसार खाली हो जाए। अनंतानंत काल के बीत जाने पर भी अनंतानंत भव्यराशि संसार में विद्यमान ही रहेगी क्योंकि यह राशि अक्षय अनंत है।
यद्यपि छह महीना आठ समय में ६०८ जीव मोक्ष चले जाते हैं और छह महीना आठ समय में इतने ही जीव निगोदराशि से निकलते हैं फिर भी कभी संसार का अंत नहीं हो सकता है न निगोद राशि में ही घाटा आ सकता है।
जिनका पंचपरिवर्तन रूप अनंत संसार सर्वथा छूट गया है और इसलिये जो मुक्ति सुख के भोक्ता हैं उन जीवों को न तो भव्य समझना और न अभव्य समझना क्योंकि अब उनको कोई नवीन अवस्था प्राप्त करना शेष नहीं रहा इसलिये भव्य नहीं हैं और अनंत चतुष्टय को प्राप्त हो चुके इसलिये अभव्य भी नहीं हैं। ऐसे मुक्त जीव भी अनंतानंत हैं।