१. संयोजना दोष-आहारादि के पदार्थों का मिश्रण कर देना, ठंढे जल आदि में उष्ण भात आदि मिला देना, अन्य भी प्रकृति विरुद्ध वस्तु का मिश्रण करना, संयोजना दोष है।
२. अप्रमाण दोष-उदर के दो भाग रोटी आदि से पूर्ण करना होता है, एक भाग रस, दूध, पानी आदि से भरना होता है और एक भाग खाली रखना होता है। यह आहार का प्रमाण है, इसका अतिक्रमण करके आहार लेना अप्रमाण दोष है।
३. अंगार दोष-जिह्वा इंद्रिय की लंपटता से भोजन ग्रहण करना।
४. धूमदोष-भोज्य वस्तु आदि की मन में निंदा करते हुए आहार ग्रहण करना।
इस प्रकार से उद्गम के १६ ± उत्पादन के १६ ± एषणा के १० ± और संयोजना आदि ४ · सब मिलाकर ४६ दोष होते हैं।
जो पहले आठ दोषों में १ कारण दोष था वह इनसे अलग है। अब उसको बतलाते हैं-
‘‘छह१ कारणों से आहार ग्रहण करते हुए भी मुनि धर्म का पालन करते हैं और छह कारणों से ही आहार को छोड़ते हुए भी वे मुनि चारित्र का पालन करते हैं।’’