आस्रव का निरोध अर्थात् आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर तत्त्व है। दूसरे शब्दों में कर्मों को नहीं आने देना संवर तत्त्व है। जिन कारणों से कर्म का आस्रव होता है, यदि वे कारण दूर कर दिये जावें तो कर्मों का आना रुक जावेगा। यही संवर है। यह दो प्रकार का होता है- भाव संवर और द्रव्यसंवर।
(१) भावसंवर- आत्मा के जिन भावों (व्रत, संयम, गुप्ति आदि) से कर्मों का आना रुकता है, वह भावसंवर है।
(२) द्रव्यसंवर- जिन परिणामों से पुद्गल कर्मों का आत्मा की ओर आकृष्ट होने की शक्ति का क्षय हो जाता है, वह द्रव्यसंवर है।
भावसंवर व द्रव्यसंवर दोनों ही एक साथ एक समय में होते रहते हैं। संवर से मोक्ष मार्ग प्रशस्त होता है।
संवर के भेद (Kinds of Samvar)- संवर के ५७ भेद हैं अर्थात् इनसे कर्मों का आना रुक जाता है। ये निम्न प्रकार हैं-
तीन गुप्ति (Three Self-Guards)- तीनों प्रकार के योगों का सम्यक् प्रकार से निग्रह करना अथवा मन, वचन, काय की स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति है। संसार के कारणभूत राग आदि से जो रक्षा करे वह गुप्ति कहलाती है। जैसे खेत की रक्षा हेतु बाड़ और नगर की रक्षा हेतु कोट/खाई होती है, वैसे ही साधु की पापों से रक्षा हेतु तीन गुप्तियां परम उपाय है। इनका विवरण निम्न प्रकार है-
१. मनोगुप्ति- मन को वश में करना और राग, द्वेष, मोह आदि भावों का परिहार करना अर्थात् मन में बुरे संकल्प, विकल्प नहीं आने देना मनोगुप्ति है।
२. वचन गुप्ति- वाणी को वश में करना और आगम के अनुसार वचन बोलना वचन गुप्ति है।
३. काय गुप्ति- अपने शरीर को वश में करना अर्थात् शरीर द्वारा होने वाली पाप क्रियाओं का त्याग करना काय गुप्ति है।
सम्यक्रूप (भली प्रकार) से प्रवृत्ति करने को समिति (म्arल्त्हिो) कहते हैं। प्राणियों को पीड़ा न पहुँचाने की दृष्टि से और दया भाव से सावधानीपूर्वक आहार, विहार और निहार आदि की क्रिया करना समिति है। ये ५ प्रकार की होती हैं-
१. ईर्यासमिति-ईर्या का अर्थ होता है गति, गमन। जीवों को पीड़ा न पहुँचाने की दृष्टि से मार्ग में चार हाथ आगे देखकर चलना ईर्या समिति है। इस ही वजह से साधु सवारी का उपयोग नहीं करते हैं।
२. भाषा समिति- हित, मित, प्रिय, शास्त्रोक्त वचन बोलना तथा कटु-वचन, परनिंदा, चुगली, हंसी, आत्म प्रशंसा आदि का त्याग करना भाषा समिति है।
३. एषणा समिति- जीवन पर्यन्त सुकुल श्रावक द्वारा दिया गया निर्दोष आहार समतापूर्वक ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना एषणा समिति है।
४. आदान- निक्षेपण समिति-ज्ञान व संयम में सहायक पिच्छी, कमण्डलु और शास्त्र आदि उपकरणों को देखभाल कर उठाना-रखना आदान-निक्षेपण समिति है। इन उपकरणों को भूमि/पाटियें आदि पर रखने से पूर्व उस स्थान को पिच्छी से साफ करके ही रखते है। और उठाते समय भी पिच्छी फेरकर ही उपकरणों को उठाते हैं।
५. प्रतिष्ठापन (उत्सर्ग) समिति- जहाँ जीवों की विराधना न हो, ऐसे जीव-जन्तु रहित स्थान पर सावधानीपूर्वक मल-मूत्र कफ आदि का विसर्जन करना प्रतिष्ठापन (उत्सर्ग) समिति है।
दशधर्म (Ten Religions)- उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य।
बारह भावना (Twelve Contemplations)- अनित्य भावना, अशरण भावना, संसार भावना, एकत्व भावना, अन्यत्व भावना, अशुचि भावना, आस्रव भावना, संवर भावना, निर्जरा भावना, लोक भावना, बोधि-दुर्लभ भावना, धर्म भावना।
परीषह का अर्थ है- परी (सब ओर से) + षह (सहन करना)। आंतरिक संवेदनाओं से तथा बाह्य संयोगों-वियोगों से उत्पन्न सभी प्रकार के कष्टों तथा दुःखों को समतापूर्वक सहन करना ही परीषह जय है। मुनिराजों को इन बाधाओं के आने पर पीड़ा का अनुभव तो होता है, किन्तु वे इन्हें कर्मों की निर्जरा हेतु समतापूर्वक सहते हैं। परीषह २२ प्रकार के होते हैं। इनको जीतने से चारित्र में दृढ़ निष्ठा होती है और कर्मों का संवर होता है। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न है-
१. क्षुधा परीषह- भूख की बाधा को सहना।
२. तृषा परीषह- प्यास के दुःख को सहना।
३. शीत परीषह- सर्दी के दुःख को सहना।
४. उष्ण परीषह- गर्मी के दुःख को सहना।
५. दंशमशक परीषह- मच्छर, डांस, बिच्छू आदि के काटने के दुःख को सहना।
६. नग्नता परीषह- नंगे रहकर भी ग्लानि, लज्जा, विकार नहीं करना।
७. अरति परीषह- अनिष्ट वस्तु पर द्वेष नहीं करना तथा भोग सामग्री के प्रति उदासीन रहना।
८. स्त्री परीषह- ब्रह्मचर्य व्रत को डिगाने हेतु स्त्री द्वारा किये जाने वाले उपद्रव होने पर भी विकार नहीं करना।
९. चर्या परीषह- चलते समय पैर के नीचे पत्थर, कंकर आने पर होने वाले दुःख को सहना।
१०. निषद्या (आसन) परीषह- उपसर्ग आने पर संकल्पित आसन से विचलित नहीं होना।
११. शय्या परीषह- जमीन या पाटे पर एक करवट से सोने पर होने वाले दुःख को सहन करना।
१२. आक्रोश परीषह- किसी के द्वारा गाली आदि देने पर भी क्रोध नहीं करना।
१३. वध परीषह- किसी के द्वारा मारने-पीटने पर भी क्लेश नहीं करना।
१४. याचना परीषह- भूख लगने या बीमारी आदि होने पर भी किसी से किसी वस्तु की याचना नहीं करना।
१५. अलाभ परीषह- भोजन आदि नहीं मिलने पर या अन्तराय हो जाने पर क्लेश नहीं करना।
१६. रोग परीषह- बीमारी हो जाने पर दुःख नहीं करना।
१७. तृणस्पर्श परीषह- शरीर में तृण, कांटा, सुई आदि चुभने पर भी निश्चल रहना।
१८. मल परीषह- शरीर में पसीना आने या मिट्टी जम जाने पर भी क्लेश नहीं करना और स्नान नहीं करना।
१९. सत्कार- पुरस्कार परीषह-किसी के द्वारा सत्कार, नमस्कार, विनय आदि नहीं करने पर भी बुरा नहीं मानना।
२०. प्रज्ञा परीषह- अधिक विद्वान् हो जाने पर भी मान नहीं करना।
२१. अज्ञान परीषह- ज्ञान प्राप्ति के लिये अनेक उपाय करते रहने पर भी ज्ञान प्राप्त नहीं होने का दुःख नहीं मानना।
२२. अदर्शन परीषह-बहुत समय तक तपस्या आदि करने पर भी किसी फल की प्राप्ति नहीं होने पर भी सम्यग्दर्शन से विचलित नहीं होना।
चारित्र (Conduct)- आत्म स्वरूप में स्थिर होना चारित्र है। यह पाँच प्रकार का निम्नानुसार है-
(१) सामायिक चारित्र- समस्त सावद्य योग (मन-वचन-काय की हिंसाजनक प्रवृत्ति) का त्याग करना, सब जीवों में समता भाव रखना, सुख-दुख में समान रहना, शुभ-अशुभ विकल्पों का त्याग करना सामायिक चारित्र है।
(२) छेदोपस्थापना चारित्र- प्रमादवश व्रतों में दोष लग जाने पर प्रायश्चित्त आदि द्वारा उसका शोधन करके पुनः व्रतों में स्थापित हो जाना छेदोपस्थापना चारित्र है।
(३) परिहार विशुद्धि चारित्र- प्राणी हिंसा से निवृत्ति को परिहार कहते हैं। राग-द्वेष विकल्पों का त्याग कर आत्मा की शुद्धि करना परिहार विशुद्धि चारित्र है।
(४) सूक्ष्म साम्पराय चारित्र- सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्म साम्पराय कहते हैं। अत: सूक्ष्म लोभ कषाय मात्र के रह जाने को सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते हैं।
(५) यथाख्यात चारित्र- समस्त मोहनीय कर्म प्रकृतियों के क्षीण हो जाने पर जो स्वाभाविक पूर्ण वीतराग चारित्र उत्पन्न होता है, वह यथाख्यात चारित्र है।
प्रत्येक कर्म के आत्मा के साथ बंधने के समय उसकी जो प्रकृति होती है, उसी के अनुसार आत्मा को भला-बुरा फल देकर कर्म का आत्मा से झड़ जाना निर्जरा है। इस प्रकार आत्म प्रदेशों के साथ बंधे हुए कर्मों के अंशत: क्षय होने को निर्जरा कहते हैं। आत्मा का वह परिणाम जो निर्जरा में कारण है, वह भाव निर्जरा है और बंधे हुए कर्मों का आंशिक निर्जरित होना द्रव्य निर्जरा है।
निर्जरा दो प्रकार की होती है-सविपाक और अविपाक।
(१) सविपाक निर्जरा- यथा काल अर्थात् क्रम से परिपाक काल आने पर जो कर्म शुभ-अशुभ फल देकर निवृत्त होते हैं, वह सविपाक निर्जरा है। जैसे फल का पक कर डाली से गिर जाना। यह संसारी प्राणियों के निरंतर होती रहती है।
(२) अविपाक निर्जरा- बंधे हुए कर्मों का उदय काल आने से पूर्व ही तप आदि द्वारा उदय में लाकर क्षय करना अविपाक निर्जरा है। जैसे बिना पके आम, केले आदि को पेड़ से तोड़ने के बाद पाल में दबाकर (उष्मा देकर) समय से पूर्व पका लिया जाता है। उदयावली में तो सभी कर्म आते हैं, किन्तु अविपाक निर्जरा में उनका अनुभव नहीं किया जाता है और सविपाक निर्जरा में अनुभव किया जाता है। इस प्रकार परिपाक काल आने से पूर्व कर्मों को गला दिया जाता है। यही अविपाक निर्जरा है। अविपाक निर्जरा सम्यक्दृष्टि, व्रतधारी तथा मुनिराजों के होती है। मोक्ष मार्ग में यही उपयोगी है।
बारह प्रकार के तप आगम में बताये गये हैं।
इच्छाओं का निरोध करना तप है। तप का अर्थ है ‘‘तपाना’’। जिस प्रकार तपाने से सोने का मैल दूर होकर वह शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार तप करने से आत्मा का कर्म रूपी मैल दूर होकर वह शुद्ध अवस्था को प्राप्त करती है। इस प्रकार तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है। तप द्वारा मन रूपी हाथी पर नियंत्रण रखा जा सकता है। ये तप १२ होते हैं-
६ बाह्य तप और ६ अभ्यन्तर तप।
बाह्य तप (६)- जो तप बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होता है और दूसरे को दिखाई दे वह बाह्य तप है। यह छ: प्रकार का होता है-
१. अनशन- आन्तरिक बल की वृद्धि के लिये अन्न, जल आदि सभी चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन (उपवास) तप है।
२. अवमौदर्य (ऊनोदर)- स्वाभाविक आहार अर्थात् सामान्य भूख से कम मात्रा में भोजन ग्रहण करना अवमौदर्य अथवा ऊनोदर तप है।
३. वृत्तिपरिसंख्यान- आहार हेतु जाते समय साधु का दाता, घर आदि के बारे में संकल्प करना वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप है। कितने घरों पर जाऊँगा, कितने दाताओं से आहार लूंगा, आहार में क्या ग्रहण करूंगा आदि अनेक प्रकार के संकल्प करना इसमें सम्मिलित है।
४. रस परित्याग- भोजन के छः रसों (दूध, दही, घी, तेल, मीठा और नमक) का त्याग करना अथवा इनमें से एक या अधिक रसों का त्याग करना रस परित्याग तप है।
५. विविक्त शय्यासन- राग-द्वेष आदि उत्पन्न करने वाले आसन या शय्या का त्याग करके एकान्त स्थान पर जो शय्या और आसन ग्रहण किया जाता है, वह विविक्त शय्यासन तप है।
६. काय-क्लेश- शरीर को सुख मिलने की इच्छा का त्याग करना काय-क्लेश है। २२ परीषह (सर्दी, गर्मी आदि बाधाओं) का सहन करना भी इस तप में आता है।
अभ्यन्तर तप (६)- जो तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं रखता है, वह अभ्यन्तर तप है। यह मन का नियमन करने वाला होता है। बाह्य तप की अपेक्षा अभ्यन्तर तप का फल विशेष होता है। यह ६ प्रकार का होता हैः-
१. प्रायश्चित्त- प्रमादवश मूलगुणों में जो दोष लग जाते हैं, उनके निराकरण हेतु गुरु से जो प्रायश्चित्त ले कर उपवास आदि किये जाते हैं, वह प्रायश्चित्त तप है।
२. विनय- रत्नत्रय धारण करने वालों के प्रति नम्रता व विनय भाव रखना विनय तप है।
३. वैयावृत्य- गुणी जनों की जो सेवा-सुश्रुषा की जाती है वह वैयावृत्य तप कहलाता है।
४. स्वाध्याय- आत्म हित की भावना से सत्-शास्त्रों का वाचन, पठन, मनन करना, उपदेश करना स्वाध्याय है।
५. व्युत्सर्ग-अहंकार व ममकार का त्याग करना व्युत्सर्ग है। शरीर एवं अन्य समस्त वस्तुओं से ममत्व छोड़कर एक मुहूर्त, एक दिन या एक माह आदि अवधि के लिये आत्मस्थ रहना व्युत्सर्ग तप है।
६. ध्यान- चित्त की एकाग्रता का नाम ध्यान है।