जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मास्रव के सारे द्वार बंद कर दिए हैं उस संयमी को पापकर्म का बंध नहीं होता। तपसा चैव न मोक्ष:, संवरहीनस्य भवति जिनवचने। न हि स्रोतसि प्रविशति, कृत्स्नं परिशुष्यति तडागम्।।
यह जिन—वचन है कि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता, जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता। संजम—विराय—दंसण—जोगऽभावो य संवरओ।।
संयम, विराग, दर्शन और योग का अभाव—ये संवर के हेतु हैं। रुंधियछिद्दसहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि। मिच्छत्ताइअभावे, तह जीवे संवरो होई।।
जलयान के सहस्रों छिद्रों को बंद कर देने पर जिस प्रकार जल उसमें नहीं जा सकता, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि का अभाव होने पर जीव में संवर हुआ करता है। (फिर पाप—कर्म उस तक नहीं आ पाते।)