तात्पर्यवृत्ति-अक्ष-इंद्रिय और अनिंद्रिय के प्रति जो नियत है वह प्रत्यक्ष ज्ञानमात्र है उसके समान जो आभासित होता है वह प्रत्यक्षाभ-प्रत्यक्षाभास कहलाता है। वह वैâसा है ? तिमिर से उत्पन्न हुआ ज्ञान तैमिरिक है, ऐसे ही और भी शीघ्र भ्रमण आदि ज्ञान होते हैं, वे प्रमाण हैं। वे वैâसे प्रमाण हैं ? कथंचित् भाव प्रमेय की अपेक्षा से अथवा द्रव्य की अपेक्षा से वे सर्वथा प्रमाणाभास ही नहीं हैं किन्तु प्रमाण भी हैं। बाह्य पदार्थ के आकार को विषय करने में ही ज्ञान में विसंवाद आता है किन्तु स्वरूप की अपेक्षा उन ज्ञानों में विसंवाद नहीं है। इस विषय में अविनाभाव दिखलाते हैं-
जो ज्ञान जिस प्रकार ही-जितने विषय को जानने प्रकार से अविसंवादी है अर्थात् गृहीत अर्थ के विषय में व्यभिचार होना विसंवाद है उससे रहित अविसंवादी वह ज्ञान उसी प्रकार-उतने विषय को जानने के प्रकार से परीक्षकों ने प्रमाण इष्ट किया है-माना है। उसी को कहते हैं-
‘सभी प्रमाणाभास संशय आदि ज्ञान स्वरूप की अपेक्षा से अथवा द्रव्य की अपेक्षा से प्रमाण होते हैं क्योंकि उस विषय में अविसंवादी हैं। जो जिस विषय में अविसंवादी है वह उस विषय में प्रमाण है जैसे रस में रसज्ञान और संशय आदिक ज्ञान स्वरूप के विषय में अथवा द्रव्य रूपादि को विषय करने में अविसंवादी हैं इसलिए उन विषयों में वे कथंचित् प्रमाण हैं।
विसंवाद ही निश्चित रूप से अप्रमाणता का कारण है और अविसंवाद ही प्रमाणता का कारण है। इस प्रकार न्याय सभी वादीजनों सम्मत है। सर्वथा प्रमाणाभासता न्याय से शून्य है। ‘‘बहि:१ प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते’’ बाह्य प्रमेय की अपेक्षा में प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों होते हैं, ऐसा वचन है। ज्ञान अपने स्वरूप से विसंवादी नहीं है। क्योंकि वे ‘अहं प्रत्ययं’ से (मैं इस ज्ञान से) सिद्ध हैं और प्रसिद्ध विषय में प्रवर्तमान होते हुए अप्रमाण वैâसे हो सकेंगे ?
भावार्थ-आचार्यश्री का ऐसा कहना है कि यदि संशय ज्ञान अपने स्वरूप में भी अप्रमाण हो जावे तब तो संशय न रहकर असंशय-सच्चा हो जावेगा अत: सभी ज्ञान अपने-अपने स्वरूप को बताने में सच्चे ही हैं और द्रव्यदृष्टि से ज्ञान सामान्य की अपेक्षा भी सच्चे ही हैं। हाँ, बाह्य पदार्थों को जानने के विषय में जहाँ पर विसंवादी होता है वहीं पर झूठा कहलाता है और जहाँ पर विसंवाद रहित होता है वहीं पर सच्चा कहा जाता है ऐसा समझना।
उत्थानिका-इस समय जो सौगतों ने विकल्पज्ञान को प्रत्यक्षाभास कल्पित किया है, उसका निराकरण करते हुए कहते हैं-
अन्वयार्थ-(विकल्पानां) विकल्पों में (विशदार्थावभासनं) विशद अर्थ को प्रतिभासित करने वाला ज्ञान (स्वसंवेद्यं) स्वसंवेद्य है, (संहृताशेषचिंतायां) वह अशेष विकल्पों के नष्ट हो जाने पर (सविकल्पावभासनात्) सविकल्प रूप के प्रतिभास से होता है।।२।।
अर्थ-विकल्पों में विशद अर्थ को प्रतिभासित करने वाला ज्ञान स्वसंवेद्य है, वह अशेष चिंता-विकल्पों के संहृत-नष्ट हो जाने पर सविकल्प रूप के प्रतिभास-अनुभव से होता है। अर्थात् ‘यह गौ है, यह घट है’, इत्यादि रूप से जो विकल्प ज्ञान होता है, वह विशद होने से प्रत्यक्ष है, प्रत्याक्षाभास नहीं है।।२।।
तात्पर्यवृत्ति-स्व-तत्त्वज्ञानरूप से संवेद्य-ग्राह्य अर्थात् ज्ञान का स्वरूप स्वसंवेद्य कहलाता है क्योंकि इसमें वेद्य और वेदक इन दोनों आकार का विरोध नहीं है अन्यथा ज्ञान अवस्तु हो जावेगा। वह ज्ञान वैâसा है ? विशद अर्थ का अवभासी है विशद-स्पष्ट और परमार्थ सत्-वास्तविक पदार्थ का अवभासित करने वाला ज्ञान विशद अर्थावभासी है। किनमें विशद अर्थ प्रतिभासन होता है ? यह घट है, यह गौ है, यह शुक्ल है, यह गायक है इत्यादि विकल्पों का-निश्चय ज्ञानों में विशद अर्थ प्रतिभासन होता है। वैâसे प्रतिभासित होता है ? विकल्प-जाति आदि आकार वाले ज्ञान सहित जो सविकल्पक ज्ञान है, उसके प्रतिभासन-अनुभव से प्रतिभासित होता है। कब प्रतिभासित होता है ? अशेष स्मृति आदि चिंता-विकल्पों के नष्ट हो जाने पर होता है अर्थात् चक्षु आदि के ज्ञान में जाति आदि आकार विशेष का जानना अप्रतिहत-निर्विघ्न रूप से होता है इसलिए विकल्प ज्ञान को प्रत्यक्षाभास कहना गलत है, यह अर्थ हुआ।
भावार्थ-‘यह गौ है, यह घट है’ इत्यादि विषयों में जो स्पष्ट रूप से पदार्थों का प्रतिभासन होता है वह स्वसंवेद्य है अर्थात् ज्ञानस्वरूप है। वह ज्ञान संपूर्ण स्मृति आदि विकल्पों की समाप्त दशा में जाति आदि आकार के विकल्प सहित होने वाले अनुभव से होता है इसलिए यह विकल्पों से अर्थ को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान सविकल्पक है वह सच्चा है, प्रमाणाभास-असत्य नहीं है।
उत्थानिका-स्वसंवेदन आदि प्रत्यक्ष ज्ञान में विकल्प नहीं हैं क्योंकि वे दिखते नहीं हैं, इस पक्ष का निराकरण करते हुए कहते हैं-
अन्वयार्थ-(प्रतिसंविदितोत्पत्तिव्यया:) प्रत्येक में अनुभव में आते हुए उत्पत्ति और व्ययरूप (कल्पना:) विकल्प (सत्य: अपि) विद्यमान होते हुए भी (प्रत्यक्षेषु) प्रत्यक्ष ज्ञानों में (तत् न लक्षेरन्) वे लक्षित नहीं होते हैं (स्वलक्षण भेदवत्) जैसे स्वलक्षण में भेद नहीं जाना जाता है।।३।।
अर्थ-प्रत्येक प्राणियों में उत्पत्ति और व्यय-विकल्प विद्यमान होते हुए भी स्वसंवेदन आदि प्रत्यक्ष ज्ञानों में वे लक्षित नहीं होते हैं। उस विकल्प में स्वलक्षण के भेद के समान अर्थात् प्रत्येक संवेदन वालों में अनेकों विकल्प उत्पत्ति और व्ययरूप से मौजूद हैं फिर भी निर्विकल्प प्रत्यक्ष आदि ज्ञानों में वे जाने नहीं जाते हैं जैसे कि विकल्प्ाज्ञान में स्वरूप का भेद जाना नहीं जाता है।।३।।
तात्पर्यवृत्ति-स्वसंवेदन आदि प्रत्यक्ष ज्ञानों में विद्यमान रहते हुए भी वे विकल्प लक्षित-विवेचित नहीं किये जाते हैं अर्थात् उन्हें कह नहीं सकते हैं। वे वैâसे हैं ? उत्पत्ति-आत्मलाभ और व्यय-अभाव प्रतिसंविदित-प्रत्येक प्राणियों में उपलब्ध होने वाले ऐसे ये उत्पत्ति और व्ययरूप विकल्प हैं।
क्योंकि सत्त्व के बिना उत्पादव्ययवत्त्व अनुभव में नहीं आता है अन्यथा अतिप्रसंग हो जावेगा और विकल्पों में उत्पाद, व्ययपना असिद्ध भी नहीं है क्योंकि वह कार्य कारण के संबंध में प्रवर्तमान है। निर्विकल्प से विकल्प का होना भी शक्य नहीं है। वह निर्विकल्प अकिंचित्कर है, विकल्प को उत्पन्न करने की शक्ति से रहित है।
शंका-विकल्पों के मौजूद होने पर भी प्रत्यक्षज्ञान में नहीं दिखते हैं। इसका क्या कारण है ?
समाधान-जानने वाले का शक्ति का अप्रणिधान-उधर न लगना ही है ऐसा हम कहते हैं। इस विषय में दृष्टांत-उन विकल्पों के स्वलक्षण-स्वरूप का सजातीय विजातीय से व्यावृत्त होना भेद कहलाता है उसके स्वलक्षण के भेद के समान। यहाँ यह अर्थ हुआ कि जिस प्रकार प्रतीति के विषयभूत उत्पाद, व्यय विद्यमान होते हुए भी स्वलक्षण से व्यावृत्तिरूप कल्पनाओं में लक्षित नहीं होते हैं, वे अनुमान से ही सिद्ध हैं उसी प्रकार से निर्विकल्प प्रत्यक्ष ज्ञानों में कल्पना में भी लक्षित नहीं होती हैं।
शंका-तब तो नहीं दिखती हुई उन कल्पनाओं का उस ज्ञान में वैâसे अस्तित्व सिद्ध होगा ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, पुन: उस विषय के स्मरण की अन्यथानुपपत्ति से वे कल्पनाएं सिद्ध हैं अर्थात् ज्ञान में यदि कल्पनाएं न हों तब तो पुन: उनके विषय का स्मरण वैâसे हो सकेगा ? इसलिए उनका अस्तित्व सिद्ध है।संहृतसकल विकल्पावस्था अर्थात् अश्व का विकल्प करते हुए गौ को देखने की अवस्था है, उसमें भी गोदर्शन निश्चयात्मक ही है क्योंकि पुन: उसके विषय के स्मरण की अन्यथानुपपत्ति है। जहाँ निश्चय का अभाव है वहाँ स्मरण नहीं उत्पन्न होता है, जैसे-चलते हुए तृण का स्पर्श हो जाने पर स्मरण नहीं उत्पन्न होता है और पुन: उनका स्मरण होता है, इसलिए अनुमान में विकल्पों का अस्तित्व सिद्ध है। जैसे-उस विकल्प के स्वरूप की व्यावृत्ति सिद्ध है। उसकी व्यावृत्ति भी प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं है क्योंकि वैसा अनुभव नहीं आता है। इसलिए यह बात सिद्ध हो गई कि निश्चय-विकल्पज्ञान प्रमाण है क्योंकि वह अविसंवादी है।
उत्थानिका-इसी का समर्थन करते हुए कहते हैं-
अन्वयार्थ-(अक्षधी:) इंद्रियज्ञान-मतिज्ञान (स्मृतिसंज्ञाभि:) स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, (चिंतया) तर्क और (आभिनिबोधवैâ:) अनुमान ज्ञानों के द्वारा (व्यवहाराविसंवाद:) व्यवहार में अविसंवादी है (अत: प्रमाण हैं) (तत:) इनसे (अन्यथा) अन्य प्रकार से-व्यवहार में विसंवादी होने से (तदाभास:) प्रमाणाभास हैं।।४।।
अर्थ-इन्द्रियज्ञान-मतिज्ञान स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ज्ञानों के द्वारा व्यवहार में अविसंवादी है। इनसे अन्य प्रकार से-व्यवहार में विसंवादी होने से प्रमाणाभास हैं।।४।।