इस संसार को धिक्कार है, जहाँ परम रूप-र्गिवत युवक मृत्यु के बाद अपने उसी त्यक्त मृत शरीर में कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है। न नास्तीहावकाशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि। जन्ममरणबाधा, अनेकशो यत्र न च प्राप्ता:।।
इस संसार में बाल की नोंक जितना भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ इस जीव ने अनेक बार जन्म—मरण का कष्ट न भोगा हो। जह वित्थण्णम्मि सरे गुंजावायाहओ भमेज्ज हडो। तह संसार—समुद्दे कम्माइद्धो भमइ जीवो।।
जिस तरह विस्तीर्ण तालाब में मंद-मंद वायु से हड नामक वनस्पति घूमती रहती है, वैसे ही संसार—समुद्र में कर्म की लहरों से जीव परिभ्रमण करता है।