‘‘शृणाति हिनस्तीति शल्यम्’ यह शल्य शब्द का निरूक्ति अर्थ है।जो प्राणी को पीड़ा देता है वह शल्य है ऐसी तत्वज्ञों ने शल्य शब्द की व्याख्या की है। जिस प्रकार शरीर में लगा हुआ या चुभा हुआ बाण या कांटा आदि प्राणी को दु:खी करता है उसीप्रकार शल्य भी प्राणी को संसार परिभ्रमण कराते हुए व्यथित करता है।
शल्य के भेद
माया, मिथ्या और निदान के भेद से शल्य के तीन भेद हैं। अथवा द्रव्य और भावशल्य के भेद से दो प्रकार का भी शल्य होता है। मिथ्यादर्शन, माया और निदान ऐसे तीन शल्यों की जिनसे उत्पत्ति होती है ऐसे कारणभूत कर्म को द्रव्यशल्य तथा इनके उदय से जीव के माया, मिथ्या व निदानरूप परिणाम भावशल्य है। दर्शन ज्ञान, चारित्र और योग के भेद से चार भेद भावशल्य के तथा सचित्त अचित्त और मिश्र शल्य के भेद से द्रव्यशल्य तीन प्रकार का है। शंका, कांक्षा आदि सम्यग्दर्शन के शल्य हैं। आकाल में पढ़ना और अविनयादि करना ज्ञान के शल्य हैं। समिति और गुप्तियों में अनादर रहना चारित्र शल्य, असंयम में परिणति योग शल्य है। दासादिक सचित्त द्रव्य शल्य, सुवर्णादि पदार्थ अचित्त द्रव्य शल्य तथा ग्रामादि मिश्रशल्य है।इस प्रकार शल्य के भेद—प्रभेदों का वर्णन भगवतीआराधना में किया है। प्रस्तुत लेख में मुख्यतया माया, मिथ्या और निदान शल्य सविस्तार विवेच्य है अत: उद्देश्यानुसार उन्हीं का स्वरूप आगे वर्णित है।
माया शल्य : स्वरूप
आत्मा के कुटिलभाव माया है, इसे निकृति या वंचना भी कहते हैं। दूसरों को ठगने के लिए जो कुटिलता या छल किये जाते हैं वह माया है। यह बांस की गंठीली जड़ मेंढे का सींग, गौमूत्र की वक्र रेखा और अवलेखनी के समान चार प्रकार की होती है। राग के उदय से परस्त्री आदि में वाञ्छारूप तथा द्वेष से अन्य जीवों के मारने, बांधने अथवा छेदने रूप मेरे दुध्र्यान को कोई नहीं जानता ऐसा मानकर निजशुद्धात्मभावना से उत्पन्न निरन्तर आनन्दरूप सुखामृत जल से अपने चित्त की शुद्धि न करते हुए बाहर में बगुले जैसे वेष को धारण कर लोेगों को प्रसन्न करना माया— शल्य कहलाती है। निकृति, उपधि, सातिप्रयोग, प्रणिधि और प्रतिकुंचन ये माया के पांच प्रकार हैं। धन के विषय में अथवा अन्य किसी कार्य के विषय मेें जिसकी अभिलाषा उत्पन्न हुई है ऐसे मनुष्य का फंसाने का ठगने का चातुर्य निकृति माया है। अच्छे परिणामों को छिपाकर धर्म के निमित्त से चोरी आदि दोषों में प्रवृत्ति उपधि माया है। धन के विषय में असत्य बोलना, किसी की धरोहर का कुछ भाग हरण कर लेना, दूषण लगाना अथवा प्रशंसा करना सातिप्रयोग माया है। हीनाधिक मूल्य की सदृश वस्तुएं आपस में मिलाना, तोल और माप के सेर, पसेरी आदि बाटों का अथवा माप—तौल के अन्य साधनों को कम—अधिक रखकर उनसे लेन—देन करना, असली—नकली पदार्थ परस्पर में मिलाना यह सब प्रणिधि माया है। आलोचना करते समय अपने दोषों को छिपाना प्रतिकुंचन माया है। इस प्रकार माया का भेद—प्रभेदों सहित स्वरूप जानकर इसका परित्याग कर देना चाहिए। मायाचारी पुरुष अन्य लोगों की वञ्चना करके मन में यह सोचता है कि मैंने अमुक व्यक्ति को ठग लिया, किन्तु ऐसा सोचने और करने वाला आत्मवञ्चना करता है—स्वयं को ठगता है। मायाचारी व्यक्ति के मन—वचन—काय ऋजु नहीं होते वह मन कुछ चिंतन करता है, वचनों से अन्य ही अभिव्यक्त करता है तथा काय से कुछ और ही चेष्टा करता है। मायाचारी करने वालों का इहलोक और परलोक दोनों ही पापमय होते हैं। शास्त्रों में अनेक दृष्टांत भरे पड़े हैं, जिनने भी मायाचारी की , जो मायाशल्य से विद्ध थे उनका इहलोक में तो अपमान हुआ ही, किन्तु परलोक भी दु:खों से भरा हुआ मिला। कौरवों ने पांडवोें के साथ कितनी बार मायाचारी की, मात्र ऐश्वर्य के लोभ मेें उनका प्राणान्त तक करने के लिए मायाजाल रचा—लाक्षा गृह में पांडवों को जलाने का षड़यंत्र किया, किन्तु पुण्यशाली चरमशरीरी तथा सर्वार्थसिद्धि विमानों में उत्पन्न होने वाले वे महात्मा पुरुष कैसे जल सकते थे। हां! कौरवों के कारण उनको १२ वर्ष तक माता कुन्ती और अर्जुन पत्नी द्रौपदी के साथ वनवास के कष्ट पूर्व कर्मोदय होने से अवश्य भोगने पड़े। अन्त में मायावी कौरवों का पतन हुआ। इसकार रावण का दृष्टांत भी है। रावण ने सीता को मायाचारी करके चुराया,परिजनों के समझाने पर भी उसने सीता को वापस नहीं किया। युद्ध में विजय प्राप्त की राम ने तथा रावण अपने परिजनों का (विभीषणादि का) शत्रु भी बना और अन्त में मरण को प्राप्त होकर श्वभ्र (नरक) गामी बना। यह माया शल्य महादोषों की खानि स्वरूप है और आत्मा को दुर्गति का पात्र बनाने वाली है अत: कल्याणेच्छु जनों को भविष्य में तिर्यंच योनि की कारण भूत मायाचार का परित्याग करना चाहिए।
मिथ्यादर्शन शल्य
मिथ्यात्वकर्म के उदय से तत्त्वों का अश्रद्धानरूप परिणाम होता है, उस अश्रद्धान से भगवान अर्हन्त परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग का श्रद्धान तथा जीवादि तत्त्वों के स्वरूप में अश्रद्धान होता है यही मिथ्यादर्शन है।
मिथ्यात्व के प्रकार :— मिथ्यादर्शन एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान के भेद से पाँच प्रकार का है। गृहीत— अगृहीत के भेद से दो प्रकार का भी है। इसके नैसर्गिक और परोपदेश की अपेक्षा भी दो भेद पाये जाते हैं। अथवा ३६३ मिथ्या मतवादियों की अपेक्षा इसके ३६३ भेद भी हैं। परमागम से अन्य भी भेद जान लेना चाहिए। एकान्त—यही है, इसी प्रकार है, धर्म और धर्मी में एकान्तरूप अभिप्राय रखना, जगत के पदार्थ सत् ही हैं, एक ही है, अनेक ही हैं, सावयव ही हैं, निरवयव ही हैं, नित्य ही हैं, अनित्य ही हैं इत्यादि एकान्त अभिनिवेश को एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं। विपरीत ‘—सग्रन्थ को निग्र्रन्थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना स्त्री को मुक्ति होती है इस प्रकार मानना विपरीत मिथ्यादर्शन है। विपरीत मिथ्यादृष्टि हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, राग—द्बेष मोह और अज्ञान से ही मुक्ति होती है ऐसे अभिनिवेश से युक्त होता है। ये सब तो संसार के कारण हैं किन्तु ये मुक्ति के कारण हैं ऐसा मानना तो प्रत्यक्ष विपर्यास है। विनय— परमार्थ देव—शास्त्र—गुरु तथा दर्शन—ज्ञान—चारित्र और तपरूप समीचीन आराधनाओं का जिस प्रकार विनय किया जाता है उसी प्रकार रागी, द्वेषी संसारी पुरुषों का या अन्य मिथ्याधर्मोंं का तथा कुतप तपने वाले पुरुषों का भी विनय करना, उनकी प्रशंसादि करना विनयमिथ्यात्व है। संशय—जिसमें तत्त्वों का निश्चय नहीं है ऐस संशयज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले श्रद्धान को संशयमिथ्यात्व कहते हैं। सम्यग्दर्शन—ज्ञान—चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग हैं या नहीं इस प्रकार संशय बना रहता है। जिसे पदार्थों के स्वरूप का निश्चय नहीं है उसे जीवादि पदार्थों का स्वरूप ऐसा ही है इस प्रकार का निश्चयात्मक श्रद्धान नहीं होता है। अर्थात् संशयमिथ्यादृष्टि को सर्वत्र सन्देह ही रहता है वह निश्चय नहीं कर पाता। अज्ञान—नित्यानित्य विकल्पों से विचार करने पर जीवाजीवादि पदार्थ नहीं है अतएव सब अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है ऐसे अभिनिवेश को अज्ञानमिथ्यात्व कहते हैं। अज्ञानमिथ्यादृष्टि ‘पशुवध धर्म है’ इस प्रकार अहित में प्रवृत्ति कराने का उपदेश देता है। उसके मत में हित—अहित का बिलकुल भी विवेचन नहीं है। इसप्रकार मिथ्यादर्शन का स्वरूप, भेद—प्रभेद आदि को परमागम के अनुसार भली—भांति समझकर उसका परित्याग करना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है। शरीरधारी जीवों को मिथ्यात्व के समान अन्य कुछ भी अकल्याणकारी नहीं है।
निदानशल्य :— भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण नियम से चित्त दिया जाता है वह निदान है। अर्थात् भोगों की लालसा निदान है। निदान ना का शल्य दु:खद होने से उसे भी गणधरादि महापुरुषों ने त्याज्य माना है।
निदान के भेद— प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से निदान दो प्रकार का है। प्रशस्त निदान भी के प्रकार का है। एक संसारमूलक और दूसरा मोक्ष में कारणभूत। अप्रशस्त निदान भी भोगकृत और मानकृत के भेद से दो प्रकार का है। पुरुषत्व, वङ्कावृषभ नाराचादि उत्कृष्टसंहनन, वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाल दृढ़ परिणाम आदि मोक्ष की साधनभूत सामग्री मुझे प्राप्त हो, मेरे दु:खों का नाश, कर्मों का क्षय हो, बोधि—रत्नत्रय की प्राप्ति हो, समाधिमरण हो, जिनेन्द्र भगवान के गुणों की प्राप्ति हो इत्यादि जो निदान—प्रार्थना है ये प्रशस्त—निदान हैं और मोक्ष की कारणभूत सामग्री की इसमें चाचना की गई है। अथवा जिनधर्म की प्राप्ति होने के योग्य देश (आर्य क्षेत्र), योग्यस्थान जहां वीतरागधर्म के आराधक श्रावक रहते हैं और भाव—शुभपरिणाम धनिक एवं बन्धु—बांधवों से संयुक्त परिवार में उत्पन्न होने का निदान करना संसार सम्बन्धी प्रशस्त निदान है। उपर्युक्त दोनों प्रकार के प्रशस्त निदानों में प्रथम निदान मोक्ष की कारणभूत सामग्री का याचक होने से सर्वथा त्याज्य नहीं है। अप्रशस्त निदान तो सर्वथा त्याज्य ही हैं, निंद्य हैं और सिद्धिमन्दिर में प्रवेश कराने में बाधक हैं। क्रुद्ध होकर मरण—समय में शत्रुवधादि की इच्छा करना अप्रशस्तनिदान है। अथवा मान के वशीभूत होकर उत्तम मातृवंश, उत्तम पितृवंश की अभिलाषा करना, आचार्य पदवी, गणधरपद तीर्थंकरपद सौभाग्य, आज्ञा और सुन्दरपना इत्यादि की प्रार्थना करना मानकृत अप्रशस्त निदान है। यद्यपि, आचार्य, गणधर और तीर्थंकर जैसे पदों की इच्छा की गई हो तो भी मानकषाय से दूषित होने से वह भी अप्रशस्त निदान ही है। देव—मनुष्यों में प्राप्त होने वाले भोगों की अभिलाषा करना भोगकृत निदान है। जिस प्रकार कोई कुष्ठरोगी कुष्ठरोग की नाशक रसायन को प्राप्त कर उसको जलाता है उसी प्रकार निदान करने वाला मनुष्य सर्वदु:खों का नाश करने में समर्थ संयम का भोगकृत निदान से नाश करता है। जो प्राणी भोगों की आसक्ति में अपना मन लगाता है उसे हितकर—अहितकर का परिज्ञान नहीं होता। सर्पदंश से युक्त मनुष्य के समान वह मूच्र्छा, दाह और प्रलाप से सहित होता है। भोगासक्ति के कारण वह उनकी पूर्ति के अभाव में अपने आपको दु:खी अनुभव करता है और पूर्ति होने पर भोगों के प्रति तृष्णावृद्धि से भी दु:खी होता है। इस प्रकार तीनों ही प्रकार के शल्य जीव को कष्ट दायक हैं। अत: अहिंसादि व्रतरूप सम्पत्ति के धारक भव्यजन हृदय में प्रविष्ट माया, मिथ्या, व निदानरूप शल्यत्रय का परित्याग करें। संसार परिभ्रमण में कारणभूत इन तीनों शल्यों को पृथक् करके ही संयमधारण पूर्वक इस कलिकाल में भी स्वर्ग गमन कर वहां से पुन: मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर सकते हैं। तथा मनुष्य पर्याय में पुन: संयमधारण कर अनादिकालीन कर्मबन्ध से आत्मा को मुक्तकर शाश्वत सुख के स्थानभूत मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। निष्कामवृत्ति से बढ़कर इस जगत मेें दूसरी कोई सम्पत्ति नहीं है। कामना से मुक्त होने के सिवाय पवित्रता और कुछ नहीं है, वे ही लोग मुक्त हैं जिन्होंने अपनी इच्छाओं को जीत लिया है, शेष लोग देखने में स्वतंत्र दिखाई देते हैं, किन्तु वास्तव में वे कर्म बन्धन से जकड़े हुए हैं।