(१) आयतन, (२) चैत्यगृह, (३) जिनप्रतिमा, (४) दर्शन, (५) जिनबिंब, (६) जिनमुद्रा, (७) ज्ञान, (८) देव, (९) तीर्थ, (१०) अरहन्त और (११) प्रव्रज्या इन ग्यारह विषयों को बोधप्राभृत में वर्णन किया है।
आयतन—जिनमार्ग में जो संयम सहित मुनिरूप है उसे आयतन कहा है अर्थात् मन, वचन, काय और पाँचों इन्द्रियों के विषयों को जिन्होंने वश में कर लिया है वे संयमी मुनि आयतन हैं तथा मद, राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत नहीं हैं। पांच महाव्रतों को धारण करते हैं ऐसे महर्षि महामुनि ही आयतन कहलाते हैं। विशुद्ध ध्यान से सहित एवं केवलज्ञान से युक्त जिन श्रेष्ठ मुनि के निजात्म स्वरूप सिद्ध हुआ है अथवा जिन्होंने छह द्रव्य, सात तत्व, नवपदार्थ अच्छी तरह जान लिये हैं उन्हें ‘सिद्धायतन’ कहा है अर्थात् यहाँ पर भगवान् कुन्दकुन्द ने प्रथम तो सामान्य मुनियों को आयतन कहा है पुन: ऋद्धिधारी ऋषियों को, अनन्तर अरहंत केवली भगवान् को आयतन शब्द से कहा हैै क्योंकि ये ही धर्म के आयतन—स्थान हैं—आधार हैं ऐसा समझना ।
चैत्यगृह—जो ज्ञानयुक्त आत्मा को जानते हों, दूसरे भव्य जीवों को उसका बोध कराते हों, पांच महाव्रतों से शुद्ध हों तथा स्वयं ज्ञानमय हों ऐसे मुनि को ‘चैत्यगृह’ कहते हैं। इस प्रकार वास्तव में ‘चैत्यगृह’ संयमी मुनि हैं। जिन मन्दिर को ‘चैत्यगृह’ कहना व्यवहार है।
जो चैत्यगृह के प्रति दुष्ट प्रवृत्ति करते हैं, उनको उससे बन्ध और उसके फलस्वरूप दु:ख उत्पन्न होता है तथा जो चैत्यगृह के प्रति उत्तम प्रवृत्ति करते हैं उनको वह मोक्ष व उसके फलस्वरूप सुख प्रदान करता है। इस तरह जिनशासन में ‘चैत्यगृह’ को षट्कायिक जीवों का अर्थात् प्राणीमात्र का हितकारी माना गया है अर्थात् श्री कुन्दकुन्ददेव ने संयमी मुनि को ‘चैत्यगृह’ कहा है तथा कृत्रिम—अकृत्रिम जिनमन्दिर भी चैत्यगृह हैं ऐसा समझना। इन दोनों के प्रति दुर्भाव से पाप और दु:ख एवं भक्ति से पुण्य एवं मोक्ष सुख प्राप्त होता है, यह स्पष्ट है।
जिनप्रतिमा—जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान के द्वारा शुद्ध चारित्र को धारण करने वाले तीर्थंकर की प्रतिमा हैं वह स्वशासन और परशासन की अपेक्षा दो प्रकार की हैं। इसमें जो जंगम—गतिरहित निर्ग्रंथ वीतराग प्रतिमा हैं वही जिनशासन में प्रतिमायें मानी गयी हैं। किन्तु वस्त्राभरण, मुकुट, आयुध आदि से सहित प्रतिमायें मान्य नहीं हैं। यह जंगमप्रतिमा का स्वरूप है। अब जंगमप्रतिमा को बताते हैं—जो निरतिचार चारित्र का पालन करते हैं, जिनश्रुत को जानते हैं, अपने योग्य वस्तु को देखते हैं तथा जिनका सम्यक्त्व शुद्ध है, ऐसे मुनियों का निर्ग्रंथ शरीर जंगमप्रतिमा है। वह वन्दना करने योग्य है अर्थात् निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनि चलती—फिरती जंगमप्रतिमा हैं। आगे सिद्ध प्रतिमा का स्वरूप कहते हैं—जो अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य और अनन्तसुख सहित हैं, शाश्वत—अविनाशी सुख स्वरूप हैं, अदेह— अशरीरी हैं, अष्टकर्म के बन्धन से रहित हैं, उपमारहित हैं। अचल हैं, क्षोभ रहित हैं। जंगमरूप से निर्मापित हैं अर्थात् स्थिररूप से निर्मापित हैं संसार का अन्त होते ही एक समय में लोक शिखर पर जाकर विराजमान हो जाते हैं। अत: सिद्ध स्थान में स्थित हैं। वहाँ पर कायोत्सर्ग आसन से या पद्मासन से विराजमान हैं इसलिये वे सिद्ध भगवान् ‘सिद्ध प्रतिमायें’ कहलाते हैं अर्थात् यहाँ पर कृत्रिम—अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं को जंगमप्रतिमा कहा है और दिगम्बर मुनियों को जंगमप्रतिमा कहा है तथा लोकशिखर पर विराजमान सिद्धों को सिद्धप्रतिमा कहा है।
अन्यत्र ग्रन्थों में अष्ट प्रातिहार्य तथा यक्ष—यक्षिणियों सहित मूर्ति को अरहंत प्रतिमा एवं छत्र, चामर आदि प्रातिहार्यों से तथा यक्ष—यक्षिणियों से रहित जिनप्रतिमा को सिद्ध प्रतिमा कहा है अथवा कृत्रिम प्रतिमाओं को जिनप्रतिमा एवं अकृत्रिम अनादिनिधन स्वयंसिद्ध प्रतिमाओं को सिद्धप्रतिमा कहा है, ऐसा समझना। तात्पर्य यह हुआ कि यहाँ पर भगवान् कुन्दकुन्ददेव ने दिगम्बर मुनियों को ‘आयतन’ ‘चैत्यगृह’ और प्रतिमा शब्दों से भी मान्य करके सर्वथा वन्दनीय और पूज्य घोषित किया है।
दर्शन—जो सम्यक्त्व, संयम और सुधर्मरूप मोक्षमार्ग को दिखलाता है तथा स्वयं निर्ग्रंथ—परिग्रहरहित और ज्ञानमय है वह जिनमार्ग में ‘दर्शन’ कहा गया है अर्थात् यह दर्शन यति और श्रावक के आधारभूत है और अविरत सम्यग्दृष्टि के आधारभूत है। वास्तव में मुनि के निर्ग्रंथ रूप को दर्शन कहा है तथैव श्रावक व अविरत सम्यग्दृष्टिजन भी दर्शन हैं तथा इस प्रकार के रूप के श्रद्धान रूप सम्यक्त्व को भी ‘दर्शन’ कहते हैं।
जिस प्रकार फूल गंधमय और दूध घृतमय होता है उसी प्रकार दर्शन भी निश्चय से सम्यग्ज्ञानमय होता है। वह सम्यग्दर्शन यति श्रावक और असंयत के रूप में स्थित है।
जिनबिम्ब—जो ज्ञानमय है, संयम से शुद्ध है, अत्यन्त वीतराग है तथा कर्मक्षय में कारणभूत शुद्ध दीक्षा और शिक्षा देते हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी ‘जिनबिंब’ हैं अर्थात् ये आचार्य परमेष्ठी शिष्यों को कर्मक्षय में हेतु ऐसी व्रतारोपण रूप दीक्षा देते हैं तथा द्वादश अनुप्रेक्षा आदि रूप शिक्षा देते हैं अत: ये जीवन्मुक्त जिन भगवान् के समान माननीय हैं ऐसा समझना। अन्यत्र भी कहा है—
‘‘जो ज्ञानकांड में और क्रियाकांड में शिक्षा और दीक्षा में ऋषि, यति, मुनि और अनगार इन चार प्रकार के मुनियों के अग्रसर हैं तथा स्ांसार रूपी समुद्र से पार करने के लिये नौका के समान हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी देव के समान आराधना करने के योग्य हैं’’।
उन जिनबिंबरूप आचार्यदेव को प्रणाम करो, उनकी सब प्रकार की पूजा करो, उनके प्रति विनय और वात्सल्य भाव प्रगट करो जिनके कि सम्यग्दर्शन है तथा निश्चित रूप से चेतना भाव विद्यमान है अर्थात् यहाँ पर जिनबिंब शब्द से जिनबिंब के समान मुद्रा के धारक आचार्यदेव का ग्रहण किया है। हे भव्य जीवों! तुम उन्हें पंचांग या अष्टांग नमस्कार करो। ऐसे ही उपाध्याय मुनि तथा सर्वसाधुओं की भी भक्ति करो। ये भी जिनबिंब स्वरूप हैं। अष्टद्रव्य से इनकी पूजा करो। इसके सिवाय इन तीनों परमेष्ठियों की विनय करो, हाथ जोड़कर वंदन करो, उनके आते समय सन्मुख जावो, सहज स्नेह प्रदर्शित करो, उन्हें आहार देवो, उनके पैरों को दबाना, तेल मालिश करना, चरण प्रक्षालन करना आदि वैयावृत्य करो जो कि तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिये कारणभूत है।
स्वामी श्रीसमंतभद्र महामुनि भी कहते हैं—
संयमी जनों की आपत्ति—विघ्न—बाधाओं को दूर करना, पैर दबाना तथा उनके गुणों में राग होने से उनका जितना भी उपकार है वह सब वैयावृत्य है। इस प्रकार जिनमें निश्चय से दर्शन, ज्ञान और आत्म स्वरूप विद्यमान है वे प्रधान रूप से ‘जिनबिंब’ हैं एवं पाषाण आदि से निर्मित जिनबिंब भी स्थापना निक्षेप से पूज्य हैं। उनका भी पंचामृत अभिषेक करो, अष्ट द्रव्य से पूजा करो। इन जिनबिंबों की भक्ति भी संसार समुद्र से पार करने वाली है। जो तप, व्रत और गुण से शुद्ध हैं, वस्तु स्वरूप को जानते हैं तथा शुद्ध सम्यक्त्व के स्वरूप को देखते हैं ऐसे आचार्य ही अरहंत मुद्रा हैं अर्थात् जिनबिंब हैं। यह अरहंत मुद्रा दीक्षा और शिक्षा को देने वाली है अर्थात् वीतराग अरहंत भगवान् की आकृति—मुद्रा को धारण करने वाले आचार्य देव हैं। यह अरहंत मुद्रा शिक्षा को तो देती ही है तथा यात्रा, प्रतिष्ठा आदि कार्यों को प्रवर्ताने वाली है। उसी प्रकार से यंत्र और मंत्र से जिनकी आराधना होती है ऐसी पाषाण निर्मित प्रतिमायें भी ‘जिनबिंब’ कहलाती हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जिनिंबब को ही अरहंत मुद्रा भी कहा है।
जिनमुद्रा—जो संयम की दृढ़ मुद्रा से सहित है, जिसमें इन्द्रियों का निरोध है, जिसमें कषायों का नियन्त्रण है और जो सम्यग्ज्ञान से सहित है, ऐसी मुनिमुद्रा ही जिनमुद्रा है। जिनशासन में यही जिनमुद्रा कही गई है अर्थात् सिर, दाढ़ी, और मूंछ के केशों का लोच करना, मयूर पंखों की पिच्छी धारण करना, कमंडलु रखना यह मुनिमुद्रा ही जिनमुद्रा है। इस मुद्रा से अहर्निश पठन—पाठन आदि के द्वारा ज्ञान का प्रचार होता है अत: यह मुद्रा सर्वथा ही मान्य है। कहा भी है—‘‘मुद्रा सर्वत्र मान्य होती है, मुद्रा रहित का सन्मान नहीं हो सकता है। जिस प्रकार राजमुद्रा को धारण करने वाला अत्यन्त हीन मनुष्य भी मान्य होता है। शास्त्र का यही निर्णय है।’’
मुनियों का आकार जिनमुद्रा है और ब्रह्मचारियों का आकार चक्रवर्ती मुद्रा है। ये दोनों ही मुद्रायें माननीय हैं—पद के अनुकूल आदर करने योग्य हैं।
ज्ञान—जो मोक्षमार्ग इन्द्रिय संयम तथा प्राणी संयम से युक्त है, आर्त—रौद्र दुर्ध्यान से रहित होकर धर्म और शुक्ल ध्यान से सहित है उस मोक्षमार्ग के लक्ष्य—निजात्म स्वरूप को यह जीव ज्ञान के द्वारा प्राप्त करता है इसलिये ज्ञान को जानना चाहिये। निशाना बेधने के अभ्यास से रहित पुरुष जिस प्रकार बाण के निशाने को नहीं कर पाता है उसी प्रकार आत्मस्वरूप के चिन्तन के अभ्यास से रहित पुरुष मोक्षमार्ग के लक्ष्य रूप निजात्म स्वरूप को नहीं प्राप्त कर सकते है चूँकि मोक्षमार्ग ज्ञान और चारित्रस्वरूप है। ज्ञान पुरुष के होता है अर्थात् विनय से संयुक्त सत्पुरुष ही ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान के द्वारा चिंतन करता हुआ वही सत्पुरुष मोक्षमार्ग के लक्ष्य रूप निजात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
यहाँ ज्ञान से श्रुतज्ञान विवक्षित है, वह श्रुतज्ञान विनय से संयुक्त भव्य जीव को ही होता है तथा गाथा के ‘अपि’ शब्द से ऐसा सूचित होता है कि ब्राह्मी, सुन्दरी, राजीमती और चन्दना आदि आर्यिकाओं को भी ग्यारह अंग तक का श्रुतज्ञान प्राप्त हुआ था। जिसके प्रसाद से उन्होंने स्त्रीलिंग का छेदकर स्वर्ग सुख का उपभोग किया है पुन: वहाँ से आकर राजकुल में जन्म लेकर दैगम्बरी दीक्षा लेकर मुक्तिसुख प्राप्त कर लिया है एवं राजीमति, चन्दना आदि आगे तृतीय भव में मोक्ष प्राप्त करेंगी क्योंकि जब स्त्री पर्याय में पूर्ण श्रुतज्ञान उपलब्ध नहीं हो सकता है तब केवलज्ञान की बात दूर ही है किन्तु पुरुषों को उसी भव में पूर्ण श्रुतज्ञान या केवलज्ञान भी प्राप्त हो जाता है।
ऐसे ज्ञान को कौन प्राप्त करता है ?
गुरुओं की चरणरज से जिनका मस्तक रंगा हुआ है, ऐसे विनय से सहित सत्पुरुष ही ऐसा श्रुतज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। वे विनयी मुनि ही श्रुतज्ञान द्वारा रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग का चिंतवन करते हुए लक्ष्य—निजात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। जिस मुनि के पास मतिज्ञान रूपी निश्चल धनुष है, श्रुतज्ञान रूपी डोरी है, भेदाभेद रत्नत्रय रूप बाण है और निजात्मस्वरूप परमार्थ में जिसने लक्ष्य बाँध रखा है, ऐसा मुनि मोक्षमार्ग के लक्ष्य में कभी नहीं चूकता।
श्री सोमदेवसूरि भी श्रुतज्ञान के गुणों की स्तुति करते हुये कहते हैं—
‘इन्द्रियों से होने वाला यह मतिज्ञान अत्यन्त अल्प है, अवधिज्ञान सीमा से सहित है, आश्चर्य से युक्त मन:पर्ययज्ञान विâसी मुनि के होता है फिर भी अत्यन्त अल्प है और यह केवलज्ञान रूप ज्योति इस समय अत्यन्त दुर्लभ होने से मात्र कथा का ही विषय है परन्तु श्रुतज्ञान समस्त पदार्थों को विषय करता है तथा सुलभ भी है अत: उसके माहात्म्य का क्या वर्णन करें ? अर्थात् इस युग में भी इस श्रुतज्ञान का माहात्म्य वर्णनानीत है।
तात्पर्य यह हुआ कि यहाँ ज्ञान अधिकार में भी दिगम्बर मुनि को ही लिया है चूँकि ज्ञान निराधार नहीं रह सकता है ऐसा समझना।
देव—देव वह है जो धर्म, अर्थ और काम को अच्छी तरह देता है । लोक में यह नीति है कि जिसके पास जो वस्तु होती है वह उसे ही देता है। देव के पास धर्म है, अर्थ है, काम है, प्रव्रज्या है और ज्ञान है अत: इन्हें ही वह देता है । यहाँ पर आचार्य ने ‘देवे सो देव’ ऐसा देव शब्द का अर्थ विवक्षित किया है। धर्म का लक्षण चारित्र, दया, वस्तु स्वभाव, स्वात्मोपलब्धि और उत्तम क्षमादि है। धन सम्पत्ति, नवनिधि, चौदह रत्न आदि अर्थ हैं। अर्धमंडलीक, मंडलीक, महामंडलीक, चक्रवर्ती, इन्द्र, तीर्थंकर आदि के भोग—वैभव को काम कहते हैं। केवलज्ञान रूप ज्योति का नाम ज्ञान है तथा केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये कारणभूत प्रव्रज्या दीक्षा है। जिनेंद्रदेव की भक्ति के प्रसाद से ये सब वस्तुयें प्राप्त हो जाती हैं इसलिये वे इनके देने वाले कहे जाते हैं।
आचार्यदेव पुन: कहते हैं कि—
दया से विशुद्ध धर्म, सर्व परिग्रह से रहित दीक्षा और मोह से रहित देव ये तीनों भव्य जीवों का कल्याण करने वाले हैं अर्थात् राग द्वेष, मोह से वीतराग, पूर्णज्ञानी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी भगवान् ही सच्चे देव होते हैं।
तीर्थ—निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनिव्रत और सम्यक्त्व से विशुद्ध पंचेंद्रियों से नियंत्रित और बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से रहित अपने शुद्धात्म स्वरूप तीर्थ में दीक्षा तथा शिक्षा रूप उत्तम स्नान से स्नान करे अर्थात् पच्चीस मलदोष रहित सम्यक्त्व और पांच महाव्रत इनसे जो तीर्थ अत्यन्त निर्मल है, पांचों इन्द्रियों के विषय रूपी मल—कीचड़ से जो रहित है और जो बाह्य पदार्थों की आकांक्षाओं रूपी फेन से भी रहित है ऐसा यह तीर्थ भव्य जीवों के कर्ममल को धोने में समर्थ है। महामुनि ही ऐसे तीर्थं में स्नान करते हैं। आगे और भी कहते हैं कि—जो अतिचार रहित धर्म, सम्यक्त्व, संयम, तप और ज्ञान है वही जिनमार्ग में तीर्थ है। यदि वह शान्त भाव से सहित हो अर्थात् यदि ये धर्म सम्यक्त्व, संयम आदि भाव क्रोध कषाय से दूषित नहीं होते हैं तो ये ही सच्चे तीर्थ कहलाते हैं। तात्पर्य यही है कि ये धर्म, तप, संयम आदि तीर्थं हैं किन्तु ये बिना आधार के नहीं रहते हैं अत: इनके आधारभूत मुनि ही सच्चे तीर्थ हैं।
तथा व्यवहारनय की अपेक्षा इस निश्चयतीर्थ की प्राप्ति के लिये कारणभूत, मुक्त हुये महापुरुषों के चरणरज से स्पर्शित अष्टापद, सम्मेदगिरी, चंपापुर, ऊर्जयंत, पावापुरी, शत्रुंजय, तुंगीगिरी, सिद्धवरकूट, मुक्तागिरी, सोनागिरी, अयोध्या, वाराणसी आदि भी तीर्थ कहलाते हैं । तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों से पवित्र जो भी स्थल हैं वे तीर्थ नाम से जिनागम में प्रसिद्ध हैं। सम्यग्दृष्टि भव्यपुरुष इन तीर्थों की वंदना बड़े भाव से करते हैं क्योंकि ये तीर्थ भी संसार समुद्र से पार करने वाले हैं।
अरहंत—नाम, स्थापना,द्रव्य और भाव ये चार निक्षेप, स्वकीयगुण, स्वकीयपर्याय, च्यवन, आगति और संपदा इन नौ बातों का आश्रय लेकर भव्य जीव अरहंत भगवान् का चिंतवन करते हैं अर्थात् अरहंत भगवान् के जो नाम हैं वे नाम जिन है, उनकी प्रतिमायें स्थापना जिन हैं, अरहंत भगवान् का जीव द्रव्य जिन है और समवसरण में स्थित भगवान् भाव जिन हैं। जिनके अनंतदर्शन और अनंतज्ञान विद्यमान हैं, आठों कर्मों का वध—नष्ट हो जाने से जिन्हें भाव मोक्ष प्राप्त हुआ है तथा जो अनुपम गुणों को प्राप्त हैं ऐसे अरहंत होते हैं। जरा, रोग, जन्म, मरण, चतुर्गति गमन, पुण्य—पाप, अठारह दोष तथा घातिया कर्मों को नष्ट करके जो ज्ञानमय हुये हैं वे अरहंत हैं। इस प्रकार अरहंत को दोषरहित होने से निर्दोष, पूर्णज्ञानी होने से सर्वज्ञ आदि नामोंं से कहना ‘नाम अरहंत’ है।
गुणस्थान, मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण और जीवस्थान इन पांच प्रकारों से अरहंत भगवान् की स्थापना करना चाहिये।
तेरहवें गुणस्थान में विद्यमान सयोगकेवली जिनेंद्र अरहंत कहलाते हैं। उनके चौंतिस अतिशय और आठ प्रातिहार्य होते हैं अर्थात् जन्म से ही तीर्थंकरों के शरीर में मल—मूत्र, पसीना, खून आदि नहीं होता है किन्तु अतिशय सुगंधित, महामहिमावान, अतुल बलशाली, तीन लोक में भी सबसे अधिक सुन्दर ऐसा शरीर होता है। और तो और उनके माता—पिता के शरीर में भी मल—मूत्र नहीं रहता है। यथा—‘तीर्थंकर’, उनके माता—पिता, बलभद्र, चक्रवर्ती, अर्धचक्री, देव और भोगभूमियाँ इनके आहार होता है परन्तु नीहार नहीं होता’।
‘‘ऐसे तीर्थंकरों की दाढ़ी, मूंछ भी नहीं होती है किन्तु शिर पर घुंघराले केश होते हैं। यथा—‘देव, नारकी, बलभद्र, चक्रवर्ती, अर्धचक्री, नारायण, प्रतिनारायण और कामदेव ये दाढ़ी—मूंछ से रहित होते हैं’’ ।
जिस प्रकार से तेरहवें गुणस्थान में घातिकर्म के अभाव से अरहंत होते हैं उसी प्रकार गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहारक इन चौदह मार्गणाओं को यथासम्भव अरहंत में लगाना चाहिये। जैसे—नरक आदि चार गतियों में से अरहंत के मनुष्यगति है, एकेंद्रिय आदि में से अरहंत भगवान् पंचेंद्रिय हैं। इत्यादि तथा आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा, और मन ये छह पर्याप्तियाँ हैं। अरहंत भगवान् इन पर्याप्तियों के गुण से समृद्ध तथा उत्तमदेव हैं। पांच इंद्रिय प्राण, तीन बल प्राण, श्वासोच्छ्वास और आयु, ये दशों प्राण अरहंत में होते हैं। जीवस्थान अर्थात् जीवसमास में पंचेंद्रिय संज्ञी जीवसमास अरहंत के होता है। चौदहवें गुणस्थान में भी अरहंत संज्ञा है। गुणस्थान से परे सिद्ध कहलाते हैं। इस तरह यहाँ तक गुणस्थान, मार्गणा, पर्याप्ति और जीवसमास इन पांच में अरिहंत को घटित किया है। इन्हें ‘स्थापना अरहंत’ समझो।
आगे द्रव्य की अपेक्षा अरिहंत को कहते हैं—
अरहंत भगवान् बुढ़ापा, व्याधि और दु:ख से रहित हैं, आहार और नीहार से रहित हैं, मल से रहित हैं, थूक, पसीना, ग्लानि उत्पन्न करने वाली घृणित वस्तु तथा वात, पित,कफ आदि दोषों से भी रहित हैं। अरहंत भगवान् के दश प्राण, छह पर्याप्तियाँ और एक हजार आठ लक्षण कहे गये हैं। उनके सर्वांग में दूध और शंख के समान श्वेत मांस और रुधिर होता है। अरहंत भगवान् का औदारिक शरीर ऐसे गुणों से युक्त, अतिशयों से सहित और उत्तम सुगंधि से परिपूर्ण होता है। द्रव्य निक्षेप की अपेक्षा अरहंत भगवान् को मद, राग, द्वेष, कषाय और नोकषायों से रहित अतिशय विशुद्ध, मनोव्यापार रहित और क्षायिक भावों से युक्त जानो अर्थात् सर्वगुणसम्पन्न आत्मा ही ‘भाव अरहंत’ है।
प्रव्रज्या—दीक्षा के धारक मुनि को शून्य घर में, वृक्ष के नीचे, उद्यान में, श्मशान में, पर्वत की गुफा में, पर्वत के शिखर पर, भयंकर वन में अथवा वसतिका में निवास करना चाहिये। शून्य घर आदि स्थान स्वाधीन हैं। इनमें रहकर मुनि को सत्त्व, तीर्थ, जिनागम और जिनमंदिर का ध्यान करना चाहिये। साहस का नाम सत्त्व है। मुनिराज दृढ़ता से अपने चारित्र को निश्चल और निर्मल रखते हैं, यह सत्त्वगुण की महिमा है। द्वादशांग श्रुत अथवा चंपा, पावा आदि पवित्र भूमि तीर्थ हैं। ये भी ध्यान करने के लिये योग्य हैं ऐसे कुन्दकुन्ददेव के वचन हैं। परमागम शास्त्र वचन हैं, ये भी ध्यान के योग्य हैं। कहा भी है—
‘‘द्वादशांग जिसका शरीर है, सम्यग्दर्शन जिसका तिलक है, चारित्र जिसका वस्त्र है, और चौदह पूर्व जिसके आभरण हैं, ऐसी श्रुतदेवी की स्थापना करना चाहिये’’।
भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के घर में तथा मध्यलोक में समस्त इंद्रों से वंद्य जो अकृत्रिम जिनालय हैं, वे भी वंदना और ध्यान के विषय हैं तथा चक्रवर्ती, राजा या सामान्य मनुष्यों द्वारा निर्मापित कृत्रिम जिनमंदिर भी सर्वदा पूज्य ही हैं। इन सबका ध्यान करना साधु का कर्तव्य है। ये तीर्थ शास्त्र जिनमंदिर और जिनप्रतिमा मुनि, श्रावक तथा अविरति को ध्यान के लिये अवलंबन स्वरूप हैं, जो ऐसा नहीं मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं।
जो पांच महाव्रत से सहित हैं, पांचों इन्द्रियों को वश में रखने वाले हैं, प्रत्युपकार की वांछा से रहित हैं तथा स्वाध्याय और ध्यान में सतत तत्पर रहते हैं ऐसे श्रेष्ठ मुनिराज उपर्युक्त सत्त्व, तीर्थ आदि को अत्यन्त रूप से इच्छा करते हैं।
जो निवासस्थान और परिग्रह के मोह से रहित है, बाईस परीषहों को जीतने वाली है, कषाय से रहित है तथा पाप के आरंभ से अथवा पापपूर्ण खेती आदि के आरम्भ से मुक्त है ऐसी दीक्षा कही गई है। धन—धान्य तथा वस्त्र का दान, चाँदी—सोना आदि का सिक्का तथा शय्या, आसन और छत्र आदि खोटी वस्तुओं के दान से रहित है। जो शत्रु—मित्र में सम है, प्रशंसा—निन्दा, लाभ—अलाभ में तथा सुवर्ण और तृण में समभाव रखती है। जो ग्रन्थ—परिग्रह, मान, आशा, राग, द्वेष, ममता और अहंकार से रहित है ऐसी दीक्षा होती है। जो नि:स्नेह, निर्लोभ, निर्मोह, निर्विकार, निष्कलुष, निर्भय और विवेकपूर्ण है। जो यथाजातरूप सदृश है, जिसमें भुजायें नीचे की ओर लम्बित हैं, जो शास्त्र से रहित शान्त है, पर के द्वारा बनाये गये आवासों में निवास करने वाली है ऐसी जिनदीक्षा होती है। जो उपशमभाव, क्षमा और दमभाव से युक्त है और शरीर के संस्कार से रहित है, मद, राग और दोष से रहित है। जिसमें मूढ़तायें नष्ट हो चुकी हैं, जो आठों कर्मों को नष्ट करने वाली है, जिसने मिथ्यात्व का समूल चूल नाश कर दिया है, जो सम्यक्त्व गुण से विशुद्ध जिनमार्ग में इन गुणों से विशिष्ट ही दीक्षा होती है।
अरहंत भगवान् के शासन में जिनदीक्षा छहों संहननों में कही गई है। यह निर्ग्रंथ दीक्षा कर्मक्षय का कारण है ऐसा भव्य पुरुष चिन्तन करते हैं। जिसमें तिलतुष मात्र भी बाह्य परिग्रह नहीं है वही निर्ग्रंथ मुद्रा है ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है। यह जिनदीक्षा उपसर्ग और परीषहों को सहन करने वाली है, इनके धारक मुनि निर्जन स्थान में रहते हैं तथा सर्वत्र शिला, काष्ठ फलक या भूमितल पर बैठते या शयन करते हैं । जो पशुओं, महिलाओं, नपुंसकों और कुशील पुरुषों का संसर्ग नहीं करती है, विकथाएँ नहीं करती है तथा स्वाध्याय और ध्यान में युक्त रहती है, तप और गुणों से शुद्ध है। संयम और सम्यक्त्व गुणों से विशुद्ध हैं, गुणों से शुद्ध हैं, वही दीक्षा शुद्ध हैं। इस प्रकार अत्यन्त विशुद्ध सम्यक्त्व से युक्त मुनि की प्रव्रज्या आत्म गुणों की भावना से परिपूर्ण होती है। यह निर्ग्रंथ दीक्षा का कथन यहाँ पर अति संक्षेप से भगवान् श्री कुन्दकुन्द के द्वारा कहा गया है।
आगे श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि—
जिनशासन में तीर्थंकर परमदेव अथवा गौतम पर्यन्त गणधरों ने जिस प्रकार कहा है उसी प्रकार निकट भव्य जीवों को संबोधने के लिये छहकाय के जीवों का हित करने वाला यह निर्ग्रंथ मुद्राधारी मुनि का आचरण मैंने कर्मक्षय रूप शुद्धि के प्रयोजन से कहा है। बोधपाहुड़ की ४२ गाथा से लेकर ६० गाथा तक के आधार से यह प्रव्रज्या का वर्णन है। प्रव्रज्या का अर्थ पारिव्राज्य है : उसके सत्ताईस सूत्र श्रीजिनसेनाचार्य ने कहे हैं। जो इस प्रकार हैं—
जाति, मूर्ति, उसमें रहने वाले लक्षण, शरीर की सुन्दरता, प्रभा, मंडल, चक्र, अभिषेक, नाथता, सिंहासन, उपधान, छत्र, चामर, घोषणा, अशोक वृक्ष, निधि, गृहशोभा, अवगाहन, क्षेत्रज्ञ, आज्ञा, सभा, कीर्ति, वंदनीयता, वाहन, भाषा, आहार और सुख ये जाति आदि सत्ताईस सूत्रपद हैं।
प्रवज्या के सत्ताईस सूत्र पद—
१. जाति—जो सज्जातीय मनुष्य अपनी जाति आदि का अहंकार न करके पांच परमेष्ठी के ही जाति आदि गुणों का आदर करके उनके चरणों की सेवा करता है वह अगले जन्म में दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार उत्तम जातियों को प्राप्त होता है। इन्द्र के ‘दिव्या’ जाति होती है, चक्रवर्तियों के ‘विजयाश्रिता’, अरहन्त देव के ‘परमा’ और सिद्ध जीवों के आत्मा से उत्पन्न हुई ‘स्वा’ जाति होती है। ’’
२. मूर्ति—जो मुनि अपने शरीर को कृश करते हुये षट्काय के जीवों का रक्षण करते हैं वे अगले भव में दिव्या, विजयाश्रिता व परमा मूर्ति को प्राप्त कर लेते हैं।
३. लक्षण—अनेक लक्षणधारी भी मुनि जिनेन्द्रदेव के लक्षणों का चिंतवन करते हुये भवांतर में सर्वोत्तम लक्षणों को प्राप्त कर लेते हैं।
४. सुन्दरता—मुनि अपने सौंदर्य को मलिन करते हुये तपश्चरण के बल से अनुपम सौंदर्य प्राप्त कर लेते हैं।
५. प्रभा—जो अर्हंतदेव की प्रभा का ध्यान करते हैं वे दिव्य प्रभा को प्राप्त कर लेते हैं।
६. मंडल—जो मुनि तेजोमय जिनेंद्रदेव की आराधना करते हैं वे तेजोमंडल से उज्जवल हो जाते हैं।
७. चक्र—जो पहले के अस्त्र , शस्त्रादि से रहित होकर जिनेंद्रदेव की भक्ति करते हैं वे धर्मचक्र के अधिपति हो जाते हैं।
८. अभिषेक—जो मुनि स्नान, संस्कार आदि छोड़कर केवलीजिन का आश्रय लेते हैं वे मेरु के मस्तक पर अभिषेक को प्राप्त होते हैं।
९. नाथता—जो अपने स्वामीपने को छोड़कर परम स्वामी जिनेंद्रदेव की उपासना करते हैं वे जगत के द्वारा सेवनीय त्रिभुवन के नाथ हो जाते हैं।
१०. सिंहासन—जो मुनि घर के सुन्दर आसनों को छोड़कर काष्ठ आदि आसनों पर बैठते हैं वे दिव्य सिंहासन पर आरुढ़ होकर तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं।
११. उपधान—जो मुनि तकिया आदि छोड़कर भुजा पर सिर रखकर शयन करते हैं वे महा अभ्युदय रूप देवों द्वारा कृत दिव्य उपधान को पा लेते हैं।
१२. छत्र—जो मुनि शीतल छत्री आदि का त्याग कर देते हैं वे तीन छत्र को प्राप्त कर लेते हैं।
१३. चामर—जो पंखे आदि की हवा न करके जीवों की दया पालते हैं वे मुनि देवों द्वारा चमरों से सेवित होते हैं।
१४. घोषणा—जो मुनि संगीत आदि का त्याग कर तपश्चरण करते हैं, उनका विजय देवदुंदभि द्वारा घोषित किया जाता है।
१५. अशोक वृक्ष—जो मुनि बगीचों के वृक्षों की छाया छोड़कर तप करते हैं वे अशोक वृक्ष प्रातिहार्य को प्राप्त कर लेते हैं।
१६. निधि—जो अपना योग्य धन छोड़कर निर्मम हो जाते हैं उनके दरवाजे पर नव निधियाँ पहरा देती हैं।
१७. गृहशोभा—जो निज घर को छोड़कर मुनि बनते हैं उनके लिये इन्द्र श्रीमंडप का निर्माण करता है।
१८. अवगाहन—जो तप हेतु सघन वन में विचरते हैं उन्हें तीनों जगत् की अवकाश देने वाली अवगाहन शक्ति प्राप्त हो जाती है अर्थात् समवसरण बन जाता है।
१९. क्षेत्रज्ञ—जो क्षेत्र, मकान आदि का त्याग कर शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं उन्हें तीनों जगत् के क्षेत्र को अपने अधीन रखने वाला ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है।
२०. आज्ञा—जो आज्ञा देने का अभिमान छोड़कर मौन धारण करते हैं सर्व सुर—असुर उनकी आज्ञा शिर पर धारण करते हैं।
२१. सभा—जो अपने परिजन आदि की सभा—गोष्ठी का त्याग करते हैं उन्हें दिव्य समवसरण सभा में विराजने का गौरव प्राप्त होता है।
२२. कीर्ति—जो अपने गुणों की प्रशंसा करना छोड़ देते हैं तथा स्तुति—निंदा में समभावी होते हैं उनकी स्तुति सौ इंद्र मिलकर करते हैं।
२३.वंदनीयता—जो अरहंत देव की वंदना करते हैं वे तीनों जगत् के जीवों से वंद्य हो जाते हैं ।
२४. वाहन—जो पादत्राण और सवारी का त्याग करके दिगम्बर चर्या से पैदल चलते हैं उन्हें कमलों के मध्य चरण रखने योग्य अरहंत अवस्था प्राप्त होती है।
२५. भाषा—जो वचन गुप्ति को धारण कर या भाषा समिति का पालन कर तप करते हैं उन्हें समस्त—असंख्यात जीवों को संतुष्ट करने वाली दिव्यध्वनि का प्रातिहार्य प्राप्त होता है।
२६. आहार—जो मुनि नाना उपवास करके या नियमित आहार करके पारणा करते हैं उन्हें दिव्य तृप्ति, विजय तृप्ति, परम तृप्ति और अमृत तृप्ति ये चारों तृप्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
२७. सुख—जो मुनि इन्द्रियजनित और कामजनित सुख को छोड़कर चिरकाल तक तपश्चरण करते हैं उन्हें परमानंदमय अनंत अव्याबाध सुख प्राप्त हो जाता है।
अभिप्राय यह है कि जिस प्रव्रज्या रूपी चिंतामणि का फल सर्वोत्तम मोक्ष है और जिससे यह अर्हंत देव की जाति, मूर्ति आदि की प्राप्ति होती है, मनुष्य पर्याय को पाकर ऐसी प्रव्रज्या नामक जिनदीक्षा को ग्रहण करके अपना जीवन सफल करना चाहिये और अनंत संसार के परिभ्रमण को जलांजलि दे देनी चाहिये और यदि आप जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण नहीं कर सकते हैं तो तब तक उन जिनमुद्राधारी मुनियों के चरणों में अपनी श्रद्धा और भक्ति रखते हुये उनकी वंदना, पूजा करनी चाहिये, उन्हें आहारदान आदि देकर उनकी यथोचित वैयावृत्य करनी चाहिये। यह आप और हम सबका परम कर्तव्य है जो कि स्वयं के लिये हितकर है।