द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थ में सगर चक्रवर्ती हुए हैं, इनके पूर्वभवों को सुनाते हैं-जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सकावती देश है-विदेह क्षेत्र है। वहाँ के राजा जयसेन की जयसेना रानी के रतिषेण और धृतिषेण दो पुत्र थे। किसी समय रतिषेण पुत्र की मृत्यु से राजा जयसेन बहुत ही दु:खी हुए। अनंतर अनेक उपायों से संबोधन को प्राप्त कर धृतिषेण पुत्र को राज्य देकर अपने साले महारूत के साथ तथा और भी अनेक राजाओं के साथ यशोधर महामुनि के समीप जैनेश्वरी दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे। जयसेन मुनि आयु के अंत में संन्यास से मरण कर अच्युत स्वर्ग में ‘महाबल’ नाम के देव हो गये। महारूतमुनि भी उसी स्वर्ग में ‘मणिकेतु’ नाम के देव हो गए। दोनों ने परस्पर में प्रीति से प्रतिज्ञा की कि-‘‘हम दोनों में से जो पहले पृथ्वी पर अवतीर्ण होगा, तो दूसरा देव उसे संबोधन देकर दीक्षा ग्रहण करा देगा।’’ कालांतर में बाईस सागर की आयु पूर्ण कर ‘महाबल देव’ वहाँ से च्युत होकर अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी राजा समुद्रविजय की रानी सुबाला के ‘सगर’ नाम के पुत्र हुए। इनकी आयु सत्तर लाख पूर्व की थी, शरीर चार सौ धनुष ऊँचा था और स्वर्णिम कांति थी। इनके अठारह लाख पूर्व कुमारकाल में तथा इतने ही वर्ष महामण्डलेश्वर के पद में रहे हैं। पुन: इनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हो गया जिससे इन्होंने भरत चक्रवर्ती के समान छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर पुन: अयोध्या जाकर एकछत्र शासन किया है। इनके साठ हजार पुत्र थे अर्थात् चक्रवर्ती के ९६ हजार रानियाँ होती हैं अत: इन रानियों से ६० हजार पुत्र थे। किसी समय सिद्धिवन में श्रीचतुर्मुख महामुनि को केवलज्ञान प्रगट हो गया। उनके केवलज्ञान कल्याणोत्सव में मणिकेतु देव आया था। उसने अपने अवधिज्ञान से सगरचक्रवर्ती अपने मित्र को जानकर देवपद में की गई प्रतिज्ञा को स्मरण कर राजाधिराज चक्रवर्ती को अनेक प्रकार से वैराग्य के लिए समझाने लगा किन्तु चक्रवर्ती ने सब कुछ सुनते हुए समझकर भी हंसकर टाल दिया। तब देव वापस अपने स्वर्ग चला गया पुन: उसने किसी समय चारणऋद्धिधारी मुनि का रूप बनाकर चक्रवर्ती के चैत्यालय में पहुँचकर चक्रवर्ती को नाना प्रकार के प्रश्नोत्तरों से समझाने का प्रयास किया, यद्यपि चक्रवर्ती भयभीत हुआ किन्तु दीक्षा लेने के भाव उनके नहीं हुए चूँकि वह पुत्रों के मोह में बहुत ही कसा हुआ था। शास्त्रों में तो पुत्रों को सांकल की उपमा दी है। यथा-
मणिकेतु देव वापस अपने स्थान चला गया। किसी समय चक्रवर्ती के पुत्र राज्यसभा में आकर निवेदन करते हैं कि हमें कोई कार्य सौंपिए। राजा ने कहा कि सभी कार्य परिपूर्ण हो चुके हैं आदि। पुन: किसी दिन पुत्रों ने आकर कहा – हे पूज्य पिता! यदि आप मुझे कोई कार्य नहीं बताएँगे, तो हम भोजन नहीं करेगे। तब राजा चिंता में पड़ गए पुन: कुछ सोचकर बोले-हे पुत्रों! सुनो, भरतचक्रवर्ती ने केलाशपर्वत पर तीर्थंकर भगवन्तों के महारत्नों के मंदिर बनवाए हैं२। तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गंगा नदी को पहुँचाकर पर्वत की परिखा बना दो। इस आज्ञा को शिरोधार्य कर पुत्रों ने दण्डरत्न लेकर वैसा ही करना प्रारंभ कर दिया। जैसा कि कहा है-
उस समय मणिकेतु देव अच्छा अवसर समझकर पुन: उपाय सोचने लगा और वहाँ स्वर्ग से आकर उसने उन पुत्रों को सब तरफ से भयंकर नाग का रूप धरकर मूच्र्छित कर दिया वे सभी प्राय: मृतक के समान ही हो गए। सभी मंत्रियों ने देखा कि सभी पुत्र तो मर गए हैं। राजा को यह समाचार कैसे सुनाया जावे, चूँकि चक्रवर्ती तो पुत्रों के मोह में बंधे हुए हैं, वे इस समाचार से कदाचित् मृत्यु को न प्राप्त हो जाएँ, इस भय से उन्होंने राजा को कोई समाचार नहीं पहुचाया। तदनंतर मणिकेतु देव एक ब्राह्मण का रूप रखकर चक्रवर्ती के पास पहुँचकर अपने पुत्र के वियोग में रोते हुए बोला-हे भूमंडल के नाथ! चक्रवर्तिन्! मेरे पुत्र को यमराज से वापस दिला दो………। आदि कहने लगा।
तब चक्री ने कहा –हे द्विजराज! क्या आप नहीं जानते कि सिद्ध भगवान के सिवाय संसार में कोई भी यमराज को जीत नहीं सकता है। इत्यादि रूप से चक्रवर्ती उस ब्राह्मण को समझाते हुए बोले – हे बुद्धिमन्! तुम यमराज को जीतने के लिए दीक्षा ग्रहण करो। तब मणिकेतु देव ने ब्राह्मण वेष में कहा- हे देव! यदि यही सच है तो मैं भी जो कहूँगा, सो आप भयभीत मत होइए। आपके सभी पुत्र, जो केलाशपर्वत के चारों ओर खाई खोद रहे थे, उन्हें यमराज ने उठा लिया है, इसलिए अब आप भी यमराज को जीतने के लिए दीक्षा स्वीकार कीजिए। इतना सुनते ही चक्रवर्ती सगर मूच्र्छित हो गए। अनेक उपचारों से सचेत हुए, तब वैराग्य भावना का चिंतवन करते हुए उन्होंने अपने पौत्र ‘भगीरथ’ का राज्याभिषेक करके ‘दृढ़धर्मा भगवान केवली’ के पादमूल में पहुँचकर दीक्षा धारण कर ली। उसी क्षण मणिकेतुदेव उन साठ हजार पुत्रों के पास पहुँचकर उन्हें सचेत करके उनको पिता के शोक व दीक्षा का समाचार सुना दिया। देव के वचन सुनकर राजपुत्रों ने भी विरक्तमना होकर जिनेन्द्र भगवान के चरण सान्निध्य में दीक्षा धारण कर ली। अनंतर मणिकेतु देव चक्रवर्ती व सभी पुत्रों के पास, जोकि महामुनि के रूप में विराजमान थे, उन्हें नमस्कार करके अपने सारे मायामयी उपायों को बताकर क्षमायाचना करने लगा। तब इन मुनियों ने कहा कि आपने तो हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है, आप हमारे सच्चे मित्र हैं। इन सभी मुनियों ने अनेक वर्षों तक घोरातिघोर तपश्चरण करके केवलज्ञान प्राप्त किया है पुन: सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया है। अपने पितामह-चक्रवर्ती और सभी उनके पुत्रों को तथा अपने पिता को निर्वाण प्राप्त सुनकर राजा भगीरथ भी परम वैराग्य को प्राप्त हुए। तब उन्होंने अपने पुत्र वरदत्त को राज्यभार सौंपकर केलाशपर्वत पर जाकर शिवगुप्त महामुनि से जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और नानाविध तपश्चरण करते हुए गंगा नदी के तट पर प्रतिमायोग धारणकर ध्यान में स्थित हो गए। उनके तपश्चरण व विशेष ध्यान के प्रभाव से इन्द्र ने आकर क्षीरसागर के जल से भगीरथ महामुनि के चरणों का अभिषेक किया। उस अभिषेक के जल का प्रवाह गंगा नदी में जाकर मिल गया, तभी से गंगा नदी भी तीर्थपने को प्राप्त हो गई१ और उसका ‘भागीरथी’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया है। वहीं पर इन भागीरथ महामुनि ने केवलज्ञान प्राप्त किया है पुन: वहीं से गंगा नदी के तट से निर्वाण को प्राप्त किया है। ऐसे सगरचक्री सिद्ध भगवान, उनके साठ हजार पुत्र एवं भगीरथ पोते सिद्धालय में विराजमान हैं, वे सदा जयवंत होवें, उन सबको हमारा कोटि-कोटि नमस्कार है। यहाँ श्री गौतम स्वामी कहते हैं-हे श्रेणिक! संसार में इसलोक तथा परलोक में मित्र के समान हित करने वाला दूसरा कोई नहीं है। न मित्र से बढ़कर कोई भाई है। जो बात गुरु अथवा माता-पिता से भी नहीं कही जाती, ऐसी गुप्त से गुप्त बात मित्र से कही जाती है, मित्र अपने प्राणों की परवाह न करके कठिन से कठिन कार्य सिद्ध कर देता है। मणिकेतु देव ही इसके विषय में एक स्पष्ट उदाहरण हैं इसलिए आप सभी को भी ऐसे ही मित्र बनाना चाहिए। यद्यपि मणिकेतु देव ने मायाचारी से ऐसा अप्रिय कार्य करके सगर चक्रवर्ती को विरक्त करने का उपाय किया था तथापि आचार्यश्री गुणभद्रदेव इसे अच्छा ही कह रहे हैं।
वचन चार प्रकार के होते हैं
कुछ वचन तो हित और प्रिय दोनों होते हैं। कुछ हित और अप्रिय होते हैं। कुछ प्रिय होकर भी अहितकर होते हैं। कुछ अहित और अप्रिय होते हैं। इन चार प्रकार के वचनों में से अंत के तीसरे व चौथे प्रकार के वचनों को छोड़कर शेष-प्रथम और द्वितीय इन दो प्रकार के वचनों से हित का उपदेश दिया जा सकता है। यहाँ मणिकेतु देव के वचन अथवा उपाय हितकर थे और अप्रिय थे, अर्थात् अप्रिय होकर भी उनका उपाय हितकारी था अत: उन्हें मायाचारी का दोष नहीं लगा था। पद्मपुराण में लिखा है कि भगवान अजितनाथ के पिता ‘जितशत्रु’ महाराजा थे, उनके छोटे भाई विजयसागर की रानी सुमंगला से सगरचक्रवर्ती जन्मे हैं१ पुन: इन्हीं चक्रवर्ती सगर ने भगवान अजितनाथ के समवसरण में दीक्षा ली है और केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष प्राप्त किया है। पद्मपुराण में चक्रवर्ती के इन साठ हजार पुत्रों का पूर्वभव पढ़ने योग्य है। यथा-भगवान अजितनाथ ने दिव्यध्वनि से कहा- एक बार चतुर्विध संघ सम्मेदशिखर की वंदना के लिए जा रहा था, सो मार्ग में वह अन्तिक नामक ग्राम में पहुँचा। संघ में दिगम्बर मुनियों को देखकर उस ग्राम के सब लोग कुवचन कहते हुए संघ की हंसी करने लगे परन्तु उस ग्राम में एक कुभकार था, उसने गाँव के सब लोगों को मना कर संघ की स्तुति की। किसी समय उस ग्राम में रहने वाले एक मनुष्य ने चोरी की थी, सो अविवेकी राजा ने सोचा कि यह गाँव ही बहुत अपराध करता है, इसलिए घेरा डालकर सारा का सारा गाँव जला दिया। जिस दिन वह गाँव जलाया गया था, उस दिन मध्यस्थ परिणामों का धारक वह कुभकार निमंत्रित होकर कहीं बाहर गया था अत: वही एक बच गया था। कालांतर में जब कुभकार मरा तो वह भारी धनपति वैश्य हो गया और गाँव के सब लोग मरकर कौड़ी हुए थे, तो उस वैश्य ने उन कौड़ियों को खरीद दिया। तदनंतर कुभकार का जीव मरकर राजा हुआ और गाँव के-कौड़ी के जीव मरकर गिजाई हुए, सो राजा के हाथी के पैर के नीचे मरकर वे सब गिजाइयों के जीव संसार में भ्रमण करते रहे। कुभकार के जीव राजा ने मुनि होकर मरणकर देवपद प्राप्त किया और वहाँ से च्युत होकर सगरचक्रवर्ती के पुत्र जन्हु का पुत्र भगीरथ हुआ था तथा गाँव के जो सभी लोग एक साथ मरे थे, वे क्रम से कौड़ी, गिजाई आदि पर्यायों में भ्रमण कर कुछ पुण्ययोग से सगरचक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र हुए हैं। मुनिनिंदा के पाप से गाँव के सभी लोग एक साथ मरकर नाना दु:खों को प्राप्त करते रहे थे पुन: पुण्ययोग से चक्रवर्ती के पुत्र हुए और कुभकार ने मुनि की स्तुति के प्रभाव से वैश्य, राजा तथा देव होकर अंत में मोक्ष को प्राप्त किया है अत: मुनियों की निंदा का त्याग कर उनकी स्तुति करके अपने जीवन का सुखी व परलोक को सुखी बनाते हुए परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।