षड्दर्शन समुच्चय में बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनीय इनको षड्दर्शन कहा है। आगे चलकर नैयायिक और वैशेषिक दर्शनों को दो न कहकर एक कहने से आस्तिकवादी के पाँच ही दर्शन कह देते हैं एवं उसमें नास्तिक चार्वाक की संख्या मिलाकर ‘षड्दर्शन’ कहते हैं। इस षड्दर्शन में मीमांसक और वेदांती को भी एक ही में लिया है।
आगम का लक्षण-आप्त के वचनों से होने वाले अर्थ ज्ञान को आगम कहते हैं।
जो वीतरागी है, प्रत्यक्ष ज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता है और परम हितोपदेशी है, वही आप्त है। समस्त पदार्थों का ज्ञाता कहने से श्रुतकेवली में लक्षण चला जाता इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान से ऐसा शब्द दिया है और परम हितोपदेशी पद से अरहन्त ही ग्रहण किए गए हैं, सिद्ध नहीं, क्योंकि वे अनुपदेशक हैं इसलिए गौणरूप आप्त हैं अत: नैयायिक आदि के द्वारा माने गए आप्त सर्वज्ञ नहीं हैं, इसलिए आप्ताभास हैं।
जैनधर्म में किसी को इस जैनधर्म का प्रवर्तक नहीें माना गया है क्योंकि यह जैनधर्म अनादि निधन धर्म है। अनादिकाल से जीव कर्मों का नाशकर सर्वज्ञ होते रहे हैं और वर्तमान से लेकर अनंतानंत काल तक सर्वत्र होते रहेंगे। जैन दर्शन में संसारपूर्वक-बंधपूर्वक ही मोक्ष माना गया है अत: संसारी जीव ही आत्मा की सर्वोच्च विशुद्धि प्राप्त करके भगवान बन जाते हैं, ‘कर्मारातीन् जयतीति जिन: जिनो देवता अस्य स जैन:’ जो कर्म शत्रुओं को जीतते हैं वे जिन कहलाते हैं एवं ‘जिन’ देवता जिसके उपास्य हैं वे जैन कहलाते हैं, यह धर्म ‘अहिंसामय’ है अत: ‘सर्वेभ्यो हित: सार्व:’’ प्राणिमात्र का हितकारी होने से ‘सार्वधर्म’ कहलाता है।
जिन भगवान के ही सार्व, सर्वज्ञ, अर्हंत, जिनेन्द्र, शिव, परमेश्वर, महेश्वर, महादेव आदि सार्थक नाम है। जैनधर्म में मनुष्य रत्नत्रय उपाय तत्त्व से मोक्षरूप उपेयतत्त्व को प्राप्त कर लेता है जैनधर्म में ‘सभी वस्तुएँ द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं एवं पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं, सत् रूप-महासत्ता से एक एवं पृथक्-पृथक् अवांतरसत्ता से अनेक हैं, किन्तु इस मर्म-स्याद्वाद को न समझकर बौद्धों ने वस्तु को सर्वथा क्षणिक कह दिया है। सांख्य ने ही सर्वथा नित्य कह दिया है।
वेदांती ने एक ब्रह्मरूप एवं अन्यों ने अनेक रूप कह दिया है। ऐसे ही कर्मों की विचित्रता से संसार का वैचित्र्य देखकर वैशेषिकों ने ईश्वर को सृष्टि का कर्ता कह दिया है, किन्तु जैनाचार्यों ने सृष्टि को अनादिनिधन एवं जीव पुद्गल संयोग से उत्पन्न हुई सिद्ध किया है। मीमांसक ने वेद को अनादि कह दिया है किन्तु वास्तव में अर्थ की अपेक्षा आगम अनादि है एवं सर्वज्ञ की वाणी द्वारा गणधर ग्रथित होने से परम्परा कृत आचार्य प्रणीत होने से सादि भी हैं। अनेकांत शासन में कुछ भी दोष नहीं है।
जैनाचार्यों ने इन ग्रंथों का अवलोकन केवल उनके तत्त्वों की मान्यताओं का खण्डन करने के लिए ही किया है। जब बौद्ध परम्परा में दिङ्नाग के पश्चात् धर्मकीर्ति जैसे प्रखरतार्किकों की तूती बोलती थी, तो ब्राह्मण परम्परा में कुमारिल जैसे उद्भट विद्वानों की प्रतिध्वनि मंद नहीं हुई थी।
दोनों ही विद्वानों ने अपनी-अपनी कृतियों में जैन परम्परा के मंतव्यों की खिल्ली उड़ाई थी और समंतभद्र जैसे तार्किकों का खण्डन किया था। उस समय अकलंक देव ने आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत लेकर बौद्धदर्शन आदि पढ़ने का संकल्प किया, उस समय श्री अकलंक देव ने न्याय प्रमाण विषयक अनेकों ग्रंथ रचे, लघीयस्त्रय, न्याय विनिश्चय, सिद्धि विनिश्चय, अष्टशती, प्रमाणसंग्रह आदि ग्रंथों में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति जैसे बौद्ध तार्किकों की एवं उद्योतकर भर्तृहरि कुमारिल जैसे ब्राह्मण तार्किकों की उक्तियों का निरसन करते हुए जैन मन्तव्यों की स्थापना तार्किक शैली से की है।
इन अकलंकदेव से पूर्व श्री समंतभद्र स्वामी ने भगवान की स्तुति करते हुए न्याय का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है। श्री उमास्वामी आचार्य के महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण पर आप्तमीमांसा स्तुति बनाकर तो एक अलौकिक प्रतिभाशाली कहलाये हैं। श्री विद्यानंद महोदय ने आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा एवं अष्टसहस्री, श्लोकवार्तिकालंकार टीका आदि ग्रंथों में न्याय का विशद वर्णन किया है। श्री माणिक्यनंदि के परीक्षामुखसूत्र ग्रंथ पर प्रमेयरत्नमाला, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि विस्तृत टीकाएँ हुई हैं। जैन न्याय का मतलब यही है कि
प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा करना न्याय है। न्याय शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए सभी शास्त्रकारों ने उसका यही अर्थ किया है ‘नीयते ज्ञायते विवक्षितार्थोऽनेनेति न्याय: न्यायकु। ‘नितरामीर्यते गम्यते गत्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात् ज्ञायंतेऽर्था: अनित्यत्दास्ति-त्वादयोऽनेनेति न्याय: तर्कमार्ग:। जिसके द्वारा विवक्षित अर्थ का ज्ञान हो, उसे न्याय कहते हैं। अतिशयरूप से जिसके द्वारा अनित्यत्व, अस्तित्व आदि अर्थ जाने जाये वह न्याय-तर्क मार्ग है। न्यायविनिश्चयालंकार में जैनाचार्यों ने भी विशेषरूप से कहा है कि-
‘निश्चितं च निर्बाधं च वस्तुतत्त्वमीयतेऽनेनेति न्याय:।’ जिसके द्वारा निश्चित और निर्बाध वस्तु तत्त्व का ज्ञान होता है, उसे न्याय कहते हैं। इसमें ‘निर्बाध’ पद जैन न्याय की निर्दोषता को प्रगट करता है। ऐसा ज्ञान प्रमाणों के द्वारा होता है। इसी से न्याय विषयक ग्रंथों का मुख्य विषय प्रमाण होता है प्रमाण के ही भेद प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि माने गये हैं, किन्तु प्रत्यक्ष और आगम के द्वारा वस्तु तत्त्व को जानकर भी उसकी स्थापना और परीक्षा में हेतु और युक्तिवाद का अवलम्बन लेना पड़ता है। इसी से न्याय को तर्कमार्ग और युक्तिशास्त्र भी कहा है। जैनधर्म के बारहवें दृष्टिवाद अंग में ३६३ मिथ्यामतों का स्थापनापूर्वक खंडन किया गया है।
कल्याण के इच्छुक अज्ञजनों के पूर्वोपार्जित पाप के उदय से एवं स्वयं कलिकाल के प्रभाव से गुण द्वेषी एकांतवादियों ने न्यायशास्त्र को मलिन कर दिया है। करुणाबुद्धि से प्रेरित हो करके हम उस मलिन किये गये न्यायशास्त्र को सम्यग्ज्ञानरूपी जल से किसी तरह प्रक्षालित करके निर्मल करते हैं। इसी भावना से ही श्री अकलंक देव ने जैनधर्म के स्याद्वाद की विजय पताका लहराई थी और आज भी वीरप्रभु का अनेकांत शासन जयशील हो रहा है।
तीर्थंकर श्री वृषभदेव या महावीर प्रभु ने इस जैनधर्म की स्थापना नहीं की है, प्रत्युत सभी तीर्थंकर धर्मतीर्थ के प्रकाशक, उपदर्शक मात्र होते हैं, स्याद्वादमय धर्म तो वस्तु का स्वरूप होने से किसी के द्वारा प्रस्थापित नहीं है। जैनधर्म में वर्तमान में दो भेद दिख रहे हैं दिगम्बर और श्वेताम्बर। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में स्त्रीमुक्ति, केवली कवलाहार, सवस्त्रमुक्ति आदि माने गये हैं, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में स्त्रियों को उसी भव से मुक्ति का निषेध, केवली के कवलाहार का निषेध एवं सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है।
जैनधर्म के मर्म को समझने के लिए महापुराण, पद्मपुराण, भद्रबाहुचारित्र आदि प्रथमानुयोग, तत्त्वार्थसूत्र, गोम्मटसार, त्रिलोकसार, षड्खंडागम आदि करणानुयोग, रत्नकरण्डश्रावकाचार, वसुनंदिश्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्ध्यिुपाय, मूलाचार, आचारसार आदि चरणानुयोग एवं समाधितंत्र, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश, समयसार आदि द्रव्यानुयोग ऐसे चारों अनुयोगों के ग्रंथों का गुरुमुख से पठन, स्वाध्याय करना चाहिए।