# सभी को सुख प्रिय है और दुख अप्रिय, अत: सभी सुख को प्राप्त करना और दुख से बचना चाहते हैं।
# कोई भी प्राणी अपने आपको सुखी महसूस नहीं करता। सभी अपनी स्थिति से असन्तुष्ट रहते हैं।
# हे राजन् ! नित्य धन का लाभ, आरोग्यता, प्रियतमा और प्रियावादिनी स्त्री, आज्ञाकारी पुत्र, तथा धन को प्राप्त करने वाली विद्या— ये संसार के छह सुख हैं।
# देवताओं को अपने वैभव से सन्तोष नहीं होता और वे दूसरे देवों की समृद्धि देख—देखकर असंतुष्टि तथा ईष्र्या की आग में जलते रहते हैं।
# पृथ्वी पति राजाओं को भी सुख नसीब नहीं होता, क्योंकि उन्हें अन्य राजाओं के आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा करने की चिन्ता रहती है।
# संसार में अगर कोई सुखी हैं तो वे साधु—जन हैं जिनके पास न धन है और न धन के लिए तृष्णा ही है।
# धन का उपार्जन करने में भी दुख होता है और उपार्जन कर लेने के बाद उसकी रक्षा करने में भी दुख होता है|
# प्रियवादिनी पत्नी सुख का कारण है, यह बात भी सही होती नहीं दिखाई देती।
# सर्प, घोड़ा, स्त्री, राजा, पुरूष और हथियार इनको सदा परखते रहना चाहिए क्योंकि इन्हें पलटते देर नहीं लगती।
# ‘पहला सुख निरोगी काया।’ किन्तु यह शरीर किसी भी हालत में सदा स्वस्थ नहीं रह सकता। अद्दष्ट मार्ग से आकर रोग उसे घेर लेते हैं।
# आरोग्यता को भी स्थाई सुख मानना निरा अज्ञान है ।
# जो पुत्र कुसंगति में पड़कर पिता के वचनों का निडरतापूर्वक अनादर करते हैं वे मूर्ख और अधम पुत्र होते हैं, जिनके जन्म लेने से कोई सुख माता —पिता को हासिल नहीं होता
# पुत्र से सुख मिलता है यह कहना भूल के अलावा और क्या कहा जा सकता है ?
# धन—पैसे से कभी किसी को संतोष होता तो देखा नहीं गया।
# धन का उपार्जन कराने वाली विद्या को हासिल करके भी व्यक्ति कभी सुख का अनुभव नहीं कर पाता।
# पर — पदार्थों के द्वारा प्राप्त हुआ सुख न तो परिपूर्ण होता है और न स्थायी रह सकता है।
# सातावेदनीय कर्म पराश्रित और अस्थायी है अत: उससे प्राप्त होने वाला सुख सच्चा सुख नहीं है।
# इस संसार में सबसे सुखी वही माना जा सकता है जिसका अन्त सुखमय हो।
# सच्चा सुख कभी पराश्रित नहीं होता। # सुख आत्मा का गुण है और सदैव गुणी में ही विद्यामान रहता है। अत: सच्चा सुख भी आत्मा के अन्दर ही रहता है।
# सच्चा सुख इन्द्रियों के द्वारा भोगा नहीं जा सकता और वाणी से उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । उसे केवल गुंगे के गुड़ की उपमा दी जा सकती है यानी वह केवल अनुभव से जाना जा सकता है।
# सच्चा सुख केवल मुक्त अवस्था प्राप्त कर लेने में है।
# सुख संसार के भोगोपभोगों के पदार्थों का संचय करने में नहीं अपितु उनका त्याग करने में है।
# यह संसार दीपक की लौ के समान है और इसमें रहने वाले जीव पतंग के समान।
# कामनाओं को जीत लो, दुख दूर हो जाएगा।
# वे सच्चे संन्यासी धन्य है जिन्हें किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं, भोजन वस्त्र की भी परवाह नहीं।
# जिन्होंने मन के संपूर्ण विकारों और इन्द्रियों के विषयों को तोड़—फोड़ कर फैक दिया है अर्थात् त्याग दिया है, और अपने कर्मों का क्षय कर लिया है ऐसे संत पुन: पुन: धन्य है।