-गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
सज्जाति: सद्गृहित्वं च, पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता।
साम्राज्यं परमार्हन्त्यं, परनिर्वाणमित्यपि।।६७।।
(१) सज्जाति, (२) सद्गृहस्थ श्रावक के व्रत, (३) पारिव्राज्य मुनियों के व्रत, (४) सुरेन्द्रपद, (५) साम्राज्य चक्रवर्ती पद, (६) अरहन्तपद और (७) निर्वाणपद ये सात परम स्थान कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव क्रम-क्रम से इन परम स्थानों को प्राप्त कर लेता है।
इन्हें कर्त्रन्वय क्रिया भी कहते हैं। इन सप्त परम स्थानों का कर्त्रन्वय क्रियाओं के नाम से आदिपुराण में सुन्दर विवेचन देखा जाता है।
(१) सज्जाति-इन क्रियाओं में कल्याण करने वाली सबसे पहली क्रिया सज्जाति है जो निकट भव्य को मनुष्य-जन्म की प्राप्ति होने पर होती है। दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंश में विशुद्ध जन्म धारण करने वाले मनुष्य के सज्जाति नाम का परम स्थान होता है। विशुद्ध कुल और विशुद्ध जाति रूपी सम्पदा सज्जाति है। इस सज्जाति से ही पुण्यवान मनुष्य उत्तरोत्तर उत्तम-उत्तम वंशों को प्राप्त होता है। पिता के वंश की जो शुद्धि है उसे कुल कहते हैं और माता के वंश की शुद्धि जाति कहलाती है। कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को सज्जाति कहते हैं, इस सज्जाति के प्राप्त होने पर बिना प्रयत्न के सहज ही प्राप्त हुए गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ हो जाती है२।
आर्यखण्ड की विशेषता से सज्जातित्व की प्राप्ति, शरीरादि योग्य सामग्री मिलने पर प्राणियों के अनेक प्रकार के कल्याण उत्पन्न करती है। यह सज्जाति उत्तम शरीर के जन्म से ही वर्णित की गई है क्योंकि पुरुष के समस्त इष्ट पदार्थों की सिद्धि का मूल कारण यही एक सज्जाति है।
संस्कार रूप जन्म से जो सज्जाति का वर्णन है वह दूसरी सज्जाति है उसे पाकर भव्यजीव द्विजन्मा कहलाता है अर्थात् प्रथम उत्तम वंश में जन्म यह एक सज्जाति हुुई पुन: व्रतों के संस्कार से संस्कारित होना यह द्वितीय जन्म माना जाने से उस भव्य की द्विज यह संज्ञा अन्वर्थ हो जाती है। जिस प्रकार विशुद्ध खान में उत्पन्न हुआ रत्न, संस्कार के योग से उत्कर्ष को प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्रियाओं और मंत्रों से सुसंस्कार को प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है।यहाँ विशेष बात समझने की यह है कि जाति व्यवस्था को माने बिना सज्जातित्व नहीं बन सकता। इसी बात को श्री गुणभद्राचार्य कहते हैं। जिनमें शुक्लध्यान के लिए कारण ऐसे जाति गोत्र आदि कर्म पाये जाते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ऐसे तीन वर्ण हैं। उनसे अतिरिक्त शेष शूद्र कहे जाते हैं। विदेहक्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता है, क्योंकि वहाँ उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र सहित जीवों की निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है परन्तु भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थकाल में ही जाति की परम्परा चलती है अन्य कालों में नहीं। जिनागम में मनुष्यों का वर्ण-विभाग इस प्रकार बतलाया गया है१।कृतयुग की आदि में जब प्रजा भगवान के सामने अपनी आजीविका की समस्या लेकर आई, तब भगवान ने उसे आश्वासन देकर विचार किया।पूर्व और पश्चिमविदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है, उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जैसे असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह क्रियाओं की तथा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम, घर, नगर आदि की रचना है वह सब यहाँ पर भी होनी चाहिए। अनन्तर भगवान के स्मरण मात्र से देवों के साथ सौधर्म इन्द्र वहाँ आया और उसने शुभ मुहूर्त में जगद्गुरु भगवान की आज्ञानुसार मांगलिक कार्यपूर्वक अयोध्या के बीच में जिनमंदिर की रचना की। पुन: सर्व ग्राम, नगर आदि की रचना कर प्रजा को बसाकर चला गया।
पुन: भगवान ने असि, मसि आदि षट्कर्मों का उपेदश देकर क्षत्रिय, वैश्य शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की।
उस समय प्रजा अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य आजीविका नहीं करती थी इसीलिए उनके कार्यों में कभी संकर मिलावट नहीं होती थी। उनके विवाह, जाति संबंध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान की आज्ञानुसार ही होते थे।अर्थात् इस कर्मभूमि की आदि में भगवान वृषभदेव ने अपने अवधिज्ञान के बल से विदेह क्षेत्र की अनादिनिधन कर्मभूमि की व्यवस्था को देखकर ही उसी के सदृश यहाँ सब व्यवस्था बनाई थी। अत: जैसे इस भरतक्षेत्र में मोक्षमार्ग की व्यवस्था सादि है, भोगभूमि में या प्रथम, द्वितीय, तृतीय, पंचम तथा छठे काल में मोक्ष नहीं होता है, वैसे ही यह वर्ण व्यवस्था भी सादि है फिर भी इसके बिना मोक्ष नहीं है।स्वयं कुन्दकुन्द भी कहते हैं-
देश, कुल, जाति से शुद्ध, विशुद्ध मन, वचन, काय से संयुक्त ऐसे हे गुरुदेव! तुम्हारे चरणकमल हमारे लिए हमेशा मंगलमयी होवें।जाति व्यवस्था को स्वीकार करने पर ही जाति से शुद्ध यह विशेषण सार्थक होता है।
सिद्धांत चक्रवर्ती श्री नेमिचन्द्राचार्य भी कहते हैं-
दुर्भाव, अशुद्धि, सूतक-पातक दोष से युक्त, रजस्वला स्त्री और जातिसंकर आदि दोष से दूषित लोग यदि दान देते हैं तो वे कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं तथा जो कुपात्र में दान देते हैं वे भी कुभोग भूमि में जन्म लेते हैं।जाति व्यवस्था मानने पर ही जातिसंकर दोष बनेगा अन्यथा नहीं। उपासकाध्ययन में भी कहा है-जैसे माता-पिता के शुद्ध होने पर सन्तान की शुद्धि देखी जाताr है, वैसे ही आप्त के निर्दोष होने पर उनका कहा हुआ आगम निर्दोष माना जाता है।द्रव्य दाता और पात्र की विशुद्धि होने पर ही विधि शुद्ध हो सकती है क्योंकि सैकड़ों संस्कारों से भी शूद्र, ब्राह्मण नहीं हो सकता है।उत्तरपुराण में एक कथा आती है कि जब सत्यभामा ब्राह्मणी को यह मालूम हुआ कि यह मेरा पति कपिल, ब्राह्मण न होकर दासी पुत्र है तो वह ब्रह्मचर्य व्रत लेकर राजा की शरण में गई। राजा ने भी सोचा कि पापी और विजातीय मनुष्यों को संसार में न करने योग्य कुछ भी कार्य नहीं है। इसीलिए राजा लोग ऐसे कुलीन मनुष्यों का ही संग्रह करते हैं२। ऐसा विचार करते हुए राजा ने उस मायावी कपिल को दण्डित किया।
ऐसे ही गुणभद्रसूरि ने बताया है कि एक समय एक मुनि वेश्या के दरवाजे की तरफ से निकले, तब वेश्या ने विनय से निवेदन किया, हे मुने! मेरा कुल दान देने योग्य नहीं है। इस तरह अपने कुल की निंदा करती हुई वह पूछती है- भगवन्! उत्तम कुल और रूपादि इस जीव को किन कार्यों से मिलते हैं ? तब मुनि ने कहा-हे भद्रे! मद्य, मांस आदि के त्याग करने से उतम कुल आदि की प्राप्ति होती है।
इसीलिए सोमदेवसूरि कहते हैं-
मनुष्यों की क्रियाएं शुद्ध होने पर भी यदि उनके आप्त और आगम निर्दोष नहीं है तो उत्तम फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैसे कि क्रियाएँ शुद्ध होने पर भी विजातीय लोगों से कुलीन सन्तानरूप उत्तम फल की प्राप्ति नहीं हो सकतीअत: आचार्य आदेश देते हैं कि-
धर्मभूमि में स्वभाव से ही मनुष्य कम कामी होते हैं। अत: अपनी जाति की विवाहित स्त्री से ही संबंध करना चाहिए। अन्य कुजातियों की स्त्रियों से, बंधु-बांधवों की तथा व्रती स्त्रियों से भी संबंध नहीं करना चाहिए।
यही कारण है कि जीवंधर कुमार ने गायों को जीतने के बाद ग्वाल सरदार की कन्या गोविन्दा को स्वयं न वरण कर अपने मित्र पद्मास्य को ही उसके योग्य समझा और उसके साथ विवाह कराया।
श्री रविषेणाचार्य कहते हैं-
१. कुल, २. शील, ३. धन, ४. रूप, ५. समानता, ६. बल, ७. अवस्था, ८. देश, ९. विद्यागम ये नौ गुण वर के कहे गये हैं। तथापि उत्तम पुरुष इन सभी गुणों में एक कुल को ही श्रेष्ठ गुण मानते हैंं परन्तु वही कुल गुण जिस वर में न हो, भला उसे कन्या वैâसे दी जा सकती है?
यही कारण है कि जब सुग्रीव की भार्या सुतारा के महल में साहसगति विद्याधर कृत्रिम सुग्रीव का रूप बनाकर घुस आया और सच्चे (असली) सुग्रीव के आ जाने के बाद जब मंत्री लोग सत्य और मायावी का निर्णय नहीं कर सके, तब उन लोगों ने विचार किया कि-
लोक में गोत्रशुद्धि अत्यन्त दुर्लभ है इसीलिए उसके बिना बहुत भारी राज्य से भी प्रयोजन नहीं है। निर्मल गोत्र पाकर ही शीलादि आभूषणों से भूषित हुआ जाता है। इसलिए इस निर्मल अंत:पुर की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए।
इसीलिए तो भारतीय संस्कृति में विधवा विवाह का सर्वथा निषेध है। जब चन्द्रनखा को खरदूषण ने हरण कर लिया तब रावण के कुपित होने पर मन्दोदरी कहती है-
यदि किसी तरह वह खरदूषण मारा भी गया तो हरण के दोष से दूषित कन्या अन्य दूसरे को नहीं दी जा सकेगी, उसे तो मात्र विधवा ही रहना पड़ेगा१।
जब सुलोचना ने स्वयंवर में जयकुमार के गले में वरमाला डाल दी, तब भरत सम्राट के पुत्र अर्ककीर्ति कुछ लोगों के भड़काने से युद्ध के लिए तैयार हो गये। उसी बीच अर्ककीर्ति कहते हैं-
मैं सुलोचना को भी नहीं चाहता हूँ क्योंकि सबसे ईर्ष्या करने वाला यह जयकुमार अभी मेरे बाणों से ही मर जावेगा ? तब उस विधवा से मुझे क्या प्रयोजन रह जावेगा२।
इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकाल में कुल की शुद्धि देखकर सजाति में ही विवाह किये जाते थे। विधवा विवाह, पुनर्विवाह आदि प्रथाएं निषिद्ध थीं। सजातीय भार्या को ही धर्मपत्नी की संज्ञा दी जाती है। राजाओं के जो अन्य विजातीय स्त्रियाँ भी रहती थीं वे केवल भोगपत्नी मानी जाती थीं। क्योंकि ‘सज्जाति’ से उत्पन्न सन्तान ही दान, पूजन करने के लिए अधिकारी है और ‘सज्जाति’ को ही दिगम्बरी दीक्षा का विधान है। आचार ग्रंथों में तो ऐसा कथन है ही, श्री पूज्यपाद आचार्य विरचित ‘जैनेन्द्र व्याकरण’ का भी सूत्र है-
जो वर्ण से अर्हत् रूप के योग्य नहीं है इत्यादि इससे स्पष्ट है कि तीन वर्ण ही दीक्षा के योग्य हैं और अन्तिम वर्ण दीक्षा के अयोग्य है।
जिस प्रकार गुलाब के पौधे की टहनी (कलम) काटकर लगाते हैं तो श्वेत, लाल या गुलाबी जैसे भी गुलाब की टहनी है वैसा ही फूल आता है परन्तु यदि सफेद गुलाब की कलम और लाल गुलाब की कलम दोनों को मिलाकर लगा देते हैं, तो उसमें श्वेत या लाल (गुलाब) फूल न आकर एक तीसरे ही रंग का फूल आ जाता है तथा श्वेत या लाल गुलाब जैसी असली सुगंध भी उसमें नहीं रहती है। कालान्तर में उस संकर (मिश्रित) गुलाब की कलम भी नहीं लगाई जा सकती है चूँकि उसकी उपजाऊ शक्ति समाप्त हो जाती है।
वैसे ही ‘जातिसंकर’ से दूषित कुल में मोक्षमार्ग परम्परा नहीं चलती क्योंकि ‘सज्जाति’ परम स्थान के बिना पारिव्राज्य परम स्थान और मोक्ष मिलना असंभव है।
कुछ लोगों का कहना है कि छठे काल में ‘सज्जातित्व’ समाप्त हो जावेगा, क्योंकि तब विवाह प्रथा रहेगी ही नहीं। पुन: आगे छठे और पंचम काल के बाद चतुर्थ काल के अन्त में कुलकर जन्म लेंगे एवं उन्हीं में तीर्थंकरों का भी जन्म होगा। तो बिना ‘सज्जाति’ के भी मोक्षमार्ग चलेगा ही।’इस पर चारित्र चक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने बहुत ही सुन्दर समाधान दिया था। उन्होंने कहा था कि-छठे काल के अन्त में प्रलय के समय जो बहत्तर जोड़े, देवों द्वारा यहाँ से ले जाये जाकर विजयार्ध की गुफाओं में सुरक्षित किए जावेंगे, ‘तिलोयपण्णत्ति’ में ऐसा कथन है कि उस समय कुछ और भी मनुष्य सुरक्षित रखे जावेंगे। उन्हीं में से जिनमें ‘सज्जाति (बिना विवाह के भी एक स्त्री से संबंध होने की परम्परा) सुरक्षित रह जावेगी उन्हीं में कुलकर’ तीर्थंकर आदि जन्म लेवेंगे। उदाहरण के लिए देखिए-
यदि कोई एक बोरी गेहूँ घुने हुए लाकर किसी चतुर महिला को दे देवे और कहे कि इन सर्वथा घुने हुए गेहूँ में से तुम २-४-१० गेहूँ बिना घुने हुए निकाल दो, तो आप ही बतलाइये १०-१२ गेहूँ बिना घुने हुए उस बोरी भर गेहूँ में से ढूंढने पर मिलेंगे या नहीं ? यदि मिल सकते हैं तो पुन: उन्हीं बिना घुने गेहूँ को बोने से परम्परागत अपरिमित गेहूँ हो जाते हैं फिर वैसे ही कई करोड़ों मनुष्यों की संख्या में से १०-२० स्त्री-पुरुष (दंपति) शुद्ध ‘सज्जाति’ वाले तब भी सुरक्षित रह सकते हैं और उनमें से ही किन्हीं को कुलकर तथा तीर्थंकर जैसे महापुरुषों को जन्म देने का सौभाग्य मिल सकता है, ऐसा विश्वास करना चाहिए।