लाट देश के भृगुकच्छ नगर में जिनदत्त सेठ की पुत्री नीली सौंदर्य और गुणों से प्रसिद्ध थी। एक दिन सागरदत्त नामक एक वैश्य पुत्र ने उसे देखकर मुग्ध हो उसके साथ विवाह करना चाहा। पिता के द्वारा विदित होने पर कि यह जिनदत्त अपनी कन्या जैन को ही देगा। तब पिता पुत्र दोनों ही स्वार्थवश जैन बन गये। नीली को विवाह कर पुनः वे बुद्धभक्त हो गये। वे दोनों नीली को भी जैनधर्म से च्युत कर बौद्ध धर्मी बनाना चाहते थे। अत: बार-बार वे नीली को प्रेरणा दिया करते थे। एक दिन श्वसुर समुद्रदत्त ने बौद्ध भिक्षुओं को भोजन कराने के लिए नीली से कहा। उसने उन्हें उन्हीं के जूते का चूर्ण कर भोजन में मिलाकर उन्हें खिला दिया। जब उन साधुओं के वमन करने पर भेद खुला तब नीली के श्वसुर और ननद आदि उस पर कुपित हुये। समय पाकर नीली की ननद ने नीली पर व्यभिचार का आरोप लगा दिया। तब नीली ने चतुराहार त्याग कर मंदिर में कायोत्सर्ग धारण कर लिया।
उसके शील के प्रभाव से नगर-देवता ने शहर के मुख्य-मुख्य फाटक कीलित कर दिये और स्वप्न दे दिया कि ‘महाशीलवती’ महिला के चरण स्पर्श से ये फाटक खुलेंगे। अन्त में नीली ने अपने बांऐ पैर के अंगूठे के स्पर्श से उन कीलित किवाड़ों को खोलकर राजा प्रजा आदि सभी से सम्मान प्राप्त किया और शील की महिमा को प्रगट किया।