दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम्।
दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम्।।१।।
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखंड में उत्तर प्रदेश है। इस उत्तर प्रदेश में एक बल्लभपुर नगर है। किसी समय वहाँ हेमदत्त नाम से एक श्रेष्ठी रहते थे, ये छप्पन करोड़ दीनारों के स्वामी थे, इनकी पत्नी का नाम हेमश्री था। इनके सात पुत्र थे। सातवें पुत्र का नाम बुद्धिसेन था।इसी उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुरी में एक सेठ महारथ थे इनकी पत्नी सेठानी का नाम महासेना था। ये सेठ बावन करोड़ दीनारो के स्वामी थे। इनके एक पुत्री का नाम मनोवती था। सेठ महारथ ने अपनी पुत्री का विवाह बल्लभपुर के श्रेष्ठी पुत्र बुद्धिसेन के साथ कर दिया। पुत्री विवाह के बाद ससुराल आ गई।इस मनोवती ने किसी समय एक महामुनि के पास देवदर्शन का नियम लिया था। उसके साथ ही उसने यह भी नियम लिया था कि ‘‘मैं प्रतिदिन भगवान का दर्शन करके गजमोती के पुंज चढ़ाकर ही भोजन करूंगी।’’ अपने पितृगृह में वह प्रतिदिन नियम का पालन कर रही थी। ससुराल में उसने भोजन नहीं किया ऐसे तीन दिन निकल गये और वह मौन से बैठी रही, बहुत बार सासु-ससुर आदि के पूछने पर भी ‘नियम’ नहीं बताया। तब सेठ हेमदत्त ने हस्तिनापुर उसके पीहर में सूचना भेजी। वहाँ से मनोवती के भाई मनोजकुमार आये। उन्होंने बहन से भोजन नहीं करने का कारण पूछा, तभी उसने कहा- भैया! तुम मुझे घर ले चलो ‘गजमोती’ चढ़ाकर भगवान का दर्शन करके ही भोजन करुंगी ।भाई के द्वारा सेठ हेमदत्त को ‘बहू’ के भोजन न करने का कारण ज्ञात होते ही उन्होंने अपने भंडार खोल दिये व ‘गजमोती’ दे दिये। मनोवती ने भगवान के समक्ष गजमोती चढ़ाकर आकर भोजन किया पुनः भाई के साथ पी़हर आ गई।
बल्लभपुर के राजा का नाम मरुदत्त था। इनके दो रानियां थीं। मनोरमा और कुसुमा इनके नाम थे।मंदिर की मालिन ने गजमोती सहित पुष्पों से एक सुंदर माला बनाई जो ले जाकर छोटी रानी कुसुमा को पहना दी। बड़ी रानी मनोरमा ने अपमान समझा। राजा ने उसे समझाकर शांत कर गजमोती की माला को बनवाने के लिये कहा। पुन: राजदरबार में सभी जौहरियों को बुलाकर गजमोती की चर्चा की। सभी ने इन्कार कर दिया कि-हमारे यहां गजमोती नहीं हैं। इसमें सेठ हेमदत्त ने भी इन्कार कर दिया। पुन: घर आकर चिंतित हो गये तभी उनके बड़े छहों पुत्रों ने सभी ने यह निर्णय लिया कि- छोटे बेटे बुद्धिसेन को घर से निकाल दो, तो न ‘बहू’- मनोवती आयेगी न गजमोती चढ़ाने का प्रसंग आवेगा। ऐसा ही हुआ ।बुद्धिसेन घर से निकाले गये तो ‘‘हस्तिनापुर पत्नी मनोवती को सूचित कर मैं कहीं दूर देश जाकर व्यापार करूं’’ ऐसा सोचकर वे हस्तिनापुर पहुंच कर सभी से भेद प्रगट न कर मात्र पत्नी को बताया। मनोवती आग्रह पूर्वक पति के साथ ही रात्रि में चुपचाप घर से चल पड़ी। ये दोनों निकल कर पदयात्रा करते हुये रतनपुर के बगीचे में ठहरे।वहाँ मनोवती ने एक कीमती मोती पति को दिया जिससे वे बाजार में व्यापार हेतु जाते रहे व कुछ भोजन का सामान लाकर वन में मनोवती को देते रहे। वह सती पति को भोजन कराकर आप स्वयं जिनदर्शन व गजमोती चढ़ाने की प्रतिज्ञा पूरी न होने से सात दिन तक बगीचे में भूखी बैठी रही, महामंत्र जाप्य करती रही और पति को कुछ भी पता नहीं चलने दिया।
तभी उसके दर्शनप्रतिज्ञा के व महामंत्र के प्रभाव से उसका पैर अकस्मात् नीचे धंसा तो नीचे देखती है, सीढ़ियां बनी हुई हैं। सीढियों से उतर कर नीचे जाकर भव्य जिनमंदिर में विराजमान जिनप्रतिमा के दर्शन किये एवं वहीं पर ढेर रूप में रखे हुये गजमोती चढ़ाकर दर्शन की प्रतिज्ञा पूर्ण कर ऊपर आकर भोजन किया।नीचे तलघर के मंदिर का दर्शन कर ऊपर आते समय उस मनोवती को दो मोती विशेष मिले थे ‘‘जो नर मादा’’ थे। इन मोतियों के प्रभाव से पत्नी मनोवती की प्रेरणा से बुद्धिसेन ने वहाँ के राजा ‘‘यशोधर महाराज’’ को प्रभावित किया। राजा ने अपनी पुत्री गुणवती का विवाह बुद्धिसेन के साथ कर दिया एवं अनेक ग्रामों का राज्य भी देकर राजा बना दिया। किसी एक दिन मनोवती ने अपने पति बुद्धिसेन से रत्नपुर नगर में विशाल जिनमंदिर बनवाने की भावना व्यक्त की। इस मंदिर के निर्माण के समय कुछ विशेष घटना घटित होती है-इधर छप्पन करोड़ दीनारों के स्वामी जौहरी हेमदत्त ने जो ‘दर्शनप्रतिज्ञा’ की निंदा करके ‘‘बहू मनोवती’’ घर में न आये, गजमोती न चढ़ावे, राजा को मेरे यहां गजमोती हैं यह पता न चले ऐसी भावना करके जो पापकर्म का बंध कर लिया था, साथ में छहों पुत्र भी सहयोगी थे। इस पाप का उदय बहुत ही शीघ्र आ गया और सारी संपत्ति कहाँ चली गई पता ही नहीं चला। अत्यधिक दुर्दशा को प्राप्त हुये शहर छोड़कर दर-दर भीख मांगते हुये रत्नपुर नगर पहुंच गये।
किसी ने इस परिवार को भीख मांगते देख ‘‘ये कोई उच्चकुलीन महापुरुष दिखते हैं’’, ऐसा चिंतन कर इन्हें मंदिर निर्माण में मजदूरी करने की प्रेरणा दी। ये सभी वहाँ पहुँच गये। इन्होंने राजसी वेष में अपने पुत्र को नहीं पहचाना किंतु बुद्धिसेन ने पहचान लिया कि-ये मेरे माता-पिता, भाई भावज व भतीजे आदि परिवार हैंं। फिर भी क्रोध के वश हो पत्नी मनोवती के बहुत कुछ मना करने पर भी इन्हें नौकरी पर रख लिया। किंतु मनोवती के आग्रह से माता पिता को बिना मजदूरी किये भी वेतन देने को कह दिया कि-ये दोनो वृद्ध हैं इन्हें बैठे ही भोजन व वेतन आदि देना ऐसा कह दिया। इधर मनोवती ने सासु को घर में बुला लिया तथा उत्तम-उत्तम भोजन बनाकर स्वयं सभी परिवार के लिये भोजन भिजवाने लगी।एक दिन सहज ही सासु बहु के सिर के बाल ठीक करते समय रो पड़ी। पूछने पर कहने लगी-मेरी छोटी बहू के शिर में ऐसा चिन्ह था। वह आज कहाँ है पता नहीं, मनोवती के बहुत कुछ आग्रह पर उसने गजमोती की प्रतिज्ञा, पति द्वारा राजा के यहां झूठ बोलने का व दरिद्रावस्था में भीख मांगने तक की स्थिति का सारा हाल सुना दिया। तभी मनोवती ने उसे युक्ति से वहां से हटाकर पति को बुला का स्पष्ट कह दिया कि-यदि आप आज परिवार मिलन नहीं करते हो तो मैं राजा यशोधर को सारा वृत्तांत बता दूंगी कि-आप अपने परिवार से मजदूरी करा रहे हो ।तब बुद्धिसेन ने रात्रि में सभी को बुलाकर पिता-माता के चरणों में गिरकर परिचय दिया व क्षमायाचना की। पूरे परिवार का मिलन हुआ। पुन: यह निर्णय लिया-कि सभी विशेष वेषभूषा में पालकी आदि सवारी में बैठकर ‘सजधज’ कर आवेंगे। राजा यशोधर के साथ हम आपका स्वागत करेंगे, ऐसा ही हुआ। पूरे परिवार का मिलन व राजा यशोधर द्वारा इन सभी का विशेष सम्मान हुआ।
मंदिर निर्माण पूर्ण व पंचकल्याणक प्रतिष्ठा-कुछ ही दिनों में विशाल मंदिर निर्माण पूर्ण हो गया। ऊंचे शिखर में १००८ शिखरी बनी हुई थीं जिससे मंदिर की सुंदरता अभूतपूर्व थी। रत्नों से निर्मित जिनप्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा संपन््ना हुई, अतिशायी धर्मप्रभावना हुई एवं ‘सती मनोवती’ की प्रशंसा दिग्दिगंत व्यापी हुई है।