पुरुष पात्र स्त्री पात्र १. विद्याधर राजा १. चंदना २. वृषभसेन सेठ २. विद्याधरी ३. भीलों का राजा सिंहराज ३. सहेलियाँ ३-४ ४. भील ४. भील की माता ५. मित्रवीर—नौकर ५. सुभद्रा सेठानी ६. उदयनकुमार—राजपुत्र ६. मृगावती रानी ७. पथिक ३ ७. दासी ८. नगरवासी ४-५ ८. श्राविकाएं ९. नागरिक महिलाएं
प्रथम दृश्य
समय—प्रात:काल स्थान—रंगभूमि (सम्मिलित प्रार्थना) मंगल गीत जग में शांति सुधा बरसा दो, महावीर भगवान्! दु:ख शोक का ताप शांत हो! जन-जन में आनन्द व्याप्त हो!!
जिन वचनामृत को पीकर सब, करें आत्म अमलान! जग में…………….!! सबका धर्म अहिंसामय हो! जन-जन का मन सदा अभय हो!! सम्यक् शील गुणों को पाकर, सब होवें गुणवान्! जग में………….!!
द्वितीय दृश्य
समय—मध्याह्न स्थान—अशोक वन (कुमारी चंदना बगीेचे में अपनी सहेलियों के साथ क्रीड़ा कर रही है। आपस में कुछ चर्चाएं भी हो रही हैं।)
कुसुमा—सखी! तूने कुछ सुना है क्या ? प्रियकारिणी जीजी के सुपुत्र श्री वर्धमान कुमार दिगम्बर मुनि बन गये ?
सरला—(आश्चर्य से) सखी! यह तू क्या कह रही है ? क्या महाराजा सिद्धार्थ के राजमहल में कुछ कमी थी उन्हें ?
विमला—अरे! तुम दोनों को कुछ मालूम ही नहीं, ऐसा लगता है। अपनी सबसे बड़ी जीजी त्रिशला जी हैं। इसलिए तुम चंदना सखी से सारी बातें क्यों न समझ लो।
सरला—तुम्हीं बता दो न, चंदना तो फूल चुनने में लगी हुई है। ऐसा लगता है आज वह अपने किसी इष्टदेव के लिए माला बनाएगी।
चंदना—(हँसकर) हाँ, सखी! तू ठीक कह रही है ? मैं आज इन खिले हुए मालती पुष्पों की माला बनाकर अपने इष्टदेव भगवान् पाश्र्वनाथ के चरणों में चढ़ाऊँगी।
कुसुमा—सखी! वर्धमान कुमार ने विवाह क्यों नहीं किया ? राजा जितशत्रु की कन्या यशोदा कितनी सुन्दर और कितनी गुणवती थी ?
चंदना—सखी! तुझे मैंने एक बार बताया था कि वर्धमान कुमार इस युग के अंतिम तीर्थंंकर हैं। उनके गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही त्रिशला जीजी के आंगन में रत्नों की बरसा हो रही थी। उनके जन्मते ही सौधर्म इन्द्र ने आकर उस नन्हें से शिशु को ले जाकर सुमेरु पर्वत पर जन्माभिषेक उत्सव मनाया था। ऐसा माताश्री बताया करती हैं।… जब उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा गया तब उन्होंने ना कर दिया था। अब उनका दीक्षाकल्याणक भी देवों ने मनाया है। उनके हृदय में इन्द्रिय सुखों की इच्छा नहीं थी, यही कारण है कि उन्होंने विवाह नहीं किया। अब वे अपनी आत्मा के अतींद्रिय सुख को प्राप्त करने का पुरुषार्थ कर रहे हैं। वे वन में…। (चंदना की बातें सभी सखियाँ ध्यान से सुन रही थीं कि इसी बीच एक विद्याधर आकर चंदना को उठाकर भाग जाता है। सब सखियाँ हाहाकार करने लगती हैं।)
तृतीय दृश्य
समय—सायंकाल स्थान—निर्जन वन (ऊपर अधर में आमने-सामने दो विमान दिख रहे हैं। अंधेरा हो रहा है। चंदना के विलाप की आवाज सुनाई दे रही है।)
नेपथ्य से- रानी—(कर्कश स्वर में) अरे दुष्ट! यदि तू अपना जीवन चाहता है तो इस अबोध बालिका को जहाँ से लाया है वहीं पहुँचा दे।… किसी की कन्या के अपहरण का क्या फल मिलता है ? देख! मैं तुझे अभी बताऊँगी। (कुछ-कुछ प्रकाश दिख रहा है। दोनों विमान चले गये हैं। निर्जन वन में चंदना विलाप कर रही है।)
चंदना—ओह! पिताजी! आप जल्दी आओ, मेरी रक्षा करो। हे मात:! मुझे इस दुष्ट विद्याधर ने कहाँ लाके डाल दिया है ? अब मैं आपसे कैसे मिलूँगी ?… हाय दुर्दैव! तूने यह क्या किया ? मेरे आठों भाई-भावजें मेरी खोज में कितने दु:खी हो रहे होंगे ? मेरे अपहरण का समाचार सुनते ही माता-पिता का क्या हाल हुआ होगा ? मेरी प्यारी सखियों! तुम सब मेरे से कितनी दूर हो ?… (दीर्घ नि:श्वास लेकर) ओह! अब इस निर्जन जंगल में श्री जिनेन्द्रदेव के सिवाय मेरा कौन है ? (प्रभात हो गया है। चिड़ियाँ चहचहा रही हैं। चंदना बैठी हुई महामंत्र का जाप कर रही है। उसी समय एक भील आता है। चंदना को देखकर सामने आकर खड़ा हो जाता है और बड़े कौतुक से उसे देखने लगता है। चंदना घबड़ाती है, काँपने लगती है पुन: धैर्यपूर्वक अपने सुन्दर-सुन्दर आभूषण, हार, कंकण, मुद्रिका आदि उतार-उतार कर उसे दे देती है, पुन: उसे उपदेश देती है।)
चंदना—हे बंधु! इस संसार में एक धर्म ही ऐसा है जो इस लोक में धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य और नाना सुखों को देने वाला है तथा परलोक में अच्छी गति में ले जाने वाला है।
भील—वह धर्म क्या है ?
चंदना—भाई! जीवों को नहीं मारना, झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, पराई स्त्री को माता, बहन और पुत्री के समान समझना तथा परिग्रह की अधिक लालसा नहीं रखना यही धर्म है। (भील आभूषण पाकर खुश हो जाता है और धर्म का उपदेश सुनकर कहता है।)
भील—बहन! तुम यहाँ निर्जन वन में अकेली कैसे रहोगी ? आओ, चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें अपने मालिक के घर पहुँचा दूँ। (चंदना भील के साथ चली जाती है)
चतुर्थ दृश्य
समय—सायंकाल स्थान—फूस की झोपड़ी (चंदना एक तरफ बैठी है। भीलों का राजा सिंहराज सामने खड़ा है। उसकी माता एक तरफ से झाँक रही है।)
भीलराज—(गरजते हुए स्वर में) अरी छोकरी! मैं इतनी देर से तुझे प्यार से समझा रहा हूँ। परन्तु तू मेरी बात मानने को तैयार नहीं है। तुझे पता है मैं कौन हूँ ?
चंदना—(साहसपूर्वक) हे भीलराज! तुम चाहे जो कुछ कहो या चाहे जो कुछ कर डालो पर मैं तुम्हें अपने पिता के समान ही समझूँगी।… मैं तुम्हारी कामवासना को पूर्ण करने के लिए कथमपि तैयार नहीं हो सकती। (भीलराज आगे बढ़कर हाथ पकड़ने की कोशिश करता है, चंदना पीछे हट जाती है।)
भीलराज—मैं जबरदस्ती तेरा उपभोग करूँगा। देखता हूँ तेरी रक्षा करने वाला यहाँ कौन है ?
चंदना—अरे पापी! दूर हट! मुझे हाथ लगाएगा तो तू भस्म हो जाएगा (कड़ककर) तुझे पता नहीं मेरा रक्षक धर्म है वह हमेशा मेरे साथ है। (इसी बीच सिंहराज की माता सामने आ जाती है और अपने पुत्र को फटकारते हुए कहती है।)
माता—हे पुत्र! तू ऐसा मत कर, यह प्रत्यक्ष देवता है, यदि कुपित हो गई तो पता नहीं कितने सन्ताप, शाप और दु:खों को दे डालेगी ? अत: तू इसकी इच्छा मत कर। (भीलराज माता की शिक्षा से उसे छोड़कर वहाँ से चला जाता है। तब माता चंदना को गोद में बिठाकर कहती है।)
माता—हे पुत्री! तू चिंता मत कर, मैं तेरी रक्षा करूँगी। तू मेरे पास रह, चल स्नान करके भोजन कर ले। देख, तेरा कोमल फूल के समान चेहरा कैसा मुरझा गया है ? (चंदना उस भीलमाता की गोद में मुँह छिपाकर जोर-जोर से रोने लगती है। माता उसके सर पर हाथ फैरते हुए उठाती है और अपने साथ ले जाती है।)
पंचम दृश्य
समय—प्रात:काल स्थान—जंगल (एक तरफ झोपड़ी में चंदना बैठी हुई है। बाहर सिंहराज भील घूम रहा है अकस्मात् अपने मित्रवीर नाम के मित्र को आते हुए देखकर प्रसन्न हो जाता है।)
सिंहराज—आओ मित्र आओ! आज बहुत दिन बाद आये हो। कहो! सब ठीक-ठीक है ?
मित्रवीर—हाँ मित्र! सब ठीक है, कहो, आप भी खुश हैं ना ?
सिंहराज—हाँ भाई! यहाँ जंगल में हमें भला दु:ख काहे का ? हम तो दिन में शिकार खेलते हैं और रात में खाना-पीना करके सुख से नींद लेते हैं।
मित्रवीर—और फिर आप तो सारे भीलों के राजा हैं तो भला चिंता काहे की ? आपको तो रोज ही कुछ न कुछ चीजें भेंट में मिलती ही रहती होंगी।
सिंहराज—(अट्टहासपूर्वक हँसकर) ह ह ह ह!! तुम ठीक कहते हो।… कुछ दिन पहले एक भील ने हमें एक लड़की लाकर दी थी वह बहुत सुन्दर है।… लेकिन वह मेरे वश में नहीं हो सकी।
मित्रवीर—(आश्चर्य से) अब वह कहाँ है ?
सिंहराज—वह मेरी माता के पास रहती है।… हाँ, मेरी इच्छा है तुम उसे अपने साथ ले जाओ। वह बेचारी यहाँ कब तक रहेगी ?
मित्रवीर—अच्छा मित्र! बहुत अच्छी बात है। (दोनों झोपड़ी में जाते हैं। भीलराज चंदना से कहता है)
भीलराज—चंदना! तुम इसके साथ चली जाओ। यह बहुत ही भले आदमी हैं। आखिर तुम यहाँ जंगल में कब तक रहोगी। (चंदना महामंत्र का स्मरण करते हुए चुपचाप मित्रवीर के साथ चली जाती है।)
छठा दृश्य
समय—मध्याह्न स्थान—मकान की बैठक (कौशाम्बी नगर में सेठ वृषभसेन अपने मकान की बैठक में बैठे हुए हैं। सामने ही मित्रवीर नौकर हाथ जोड़कर खड़ा हुआ है और चंदना पास में खड़ी है।)
मित्रवीर—सेठ जी! इस भोली बालिका को मैं आपके पास लाया हूँ आप इसका संरक्षण कीजिए।
वृषभसेन—(आश्चर्य से चंदना की तरफ देखते हुए) ओह! यह कन्या तुम्हें कहाँ मिली ?
मित्रवीर—मालिक! मैं कुछ काम से भीमकूट पर्वत के पास एक भीलों की पल्ली में गया था। वहाँ पर जो भीलों का राजा है वह मेरा मित्र है। उसी ने यह कन्या मुझे दी है।
वृषभसेन—(चंदना से) आओ बेटी आओ! तुम मेरे इस घर को अपना ही घर समझो। (चंदना सेठ के पास आ जाती है और विनय से बैठ जाती है। सेठजी बड़े प्यार से उसके मस्तक पर हाथ फैरते हुए कहते हैं।)
वृषभसेन—पुत्री! तुम किसकी कन्या हो ? वहाँ भीलों के घर कैसे पहुँच गई ? तुम्हें किसने वहाँ ले जाकर छोड़ा था ? कहो…। (चंदना चुपचाप सिर नीच किये बैठी है तब पुन: सेठजी कहते हैं।)
वृषभसेन—बेटी! अब तुम कुछ चिन्ता मत करो। मैं तुम्हें अपनी पुत्री के समान रखूँगा। (सेठजी चंदना को साथ लेकर महल के अंदर पहुँचते हैं।)
वृषभसेन—(सेठानी से) सुभद्रे! यह कन्या अपनी बेटी के समान है। देखो, इसे बड़े प्यार से रखो और भोजन कराओ।
सुभद्रा—(चंदना को लेकर) आओ बेटी आओ! तुम यहाँ कैसे आईं ? और कहाँ से आईं ? (चंदना अपने अंचल से आँसू पोंछने लगती है। सेठानी करुणा से उसका हाथ पकड़कर अपने पास ले लेती है। सेठजी चले जाते हैं।)
सप्तम दृश्य
समय—मध्याह्न स्थान—महल का आंगन (सेठजी हाथ में गिलास लिये हैं, चंदना एक हाथ से लोटे से पानी दे रही है, सेठजी पी रहे हैं। इसी बीच उसके लम्बे-लम्बे केश नीचे लटक गये तब वह दूसरे हाथ से संभालने लगी। दूसरी तरफ सेठानी दरवाजे से झांक रही है। सेठजी पानी पीकर चले जाते हैं तब सेठानी बड़बड़ाती है।)
सुभद्रा—(क्रोध से भड़ककर) अरी दुष्टे! पापिनी! कुलकलंकिनी! देख, मैं तुझे मजा चखाऊँगी। (चंदना कुछ न समझकर आश्चर्य से सेठानी की ओर देखती है। सेठानी अंदर चली जाती है और दासी से कहती है।)
सुभद्रा—(दासी से) देखा, अभी तूने देखा ना, कैसा सुन्दर इसका रूप है ?… ओह! इसने सेठजी को अपने सौन्दर्य में कैसे फसा लिया ?
दासी—(आश्चर्य से) अरे मालकिन! आप क्या कहती हैं ? क्या अपने सेठजी ऐसे हो सकते हैं ?
सुभद्रा—(क्रोध से) मुझे तो पूरी आशंका है।
दासी—बहू जी! थोड़ा शांति रखो। मान लो सेठजी निर्दोष हों तो ? अरे भला इतनी बड़ी उमर के सेठजी इतनी छोटी छोकरी से कैसे फसेंगे ?
सुभद्रा—(क्रोध से कांपते हुए) हाँ हाँ, मैं सब जानती हूूँ। (दांत पीसते हुए) अरे! इसका यह रूप भला किसके मन को नहीं लुभाएगा ?
दासी—हूँ! इसकी सुन्दरता तो कमाल की है। मालूम पड़ता है साक्षात् कोई देवकन्या है। फिर यदि सेठजी का मन चलायमान हो जाये तो क्या बड़ी बात है ?
सुभद्रा—(माथे पर हाथ रखकर कुछ सोचते हुए) अच्छा, तू जा और नीचे से लोहे की सांकल उठा ला। (दासी लोहे की सांकल लेकर आती है। सेठानी एकदम चंदना के पास पहुँचकर बड़बड़ाते हुए उसके हाथ पैरों को सांकलों से बांध देती है और नीचे ले जाकर एक कमरे में डाल देती है। बेचारी चंदना कुछ समझ नहीं पाती है।)
चंदना—(मन में) ओह! यह क्या बला है ? समझ में नहीं आता है कि यह सेठानी इतनी क्रूर क्यों हो रही है ? और मुझे अपशब्द क्यों कह रही है ? भला मैंने क्या अपराध किया है ? ओह!… कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। और दुर्दैव! तूने मुझे जंगल से निकालकर महल में रखा है और फिर यहाँ पर इस संकट में कैसे डाल दिया ? अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किससे अपने दु:ख को कहूँ ? हे भगवन! हे तीन लोक के नाथ! आपके सिवाय अब मेरा कौन है ? (चंदना रो रही है इसी बीच सेठानी आती है, मिट्टी के सकोरे में कोदों का भात लाती है और चंदना के सामने रख देती है।)
सुभद्रा—दुष्टे! ले, खा ले, पापिनी! पता नहीं तू कहाँ से आकर मुझे सता रही है ? मैं तेरी चमड़ी-चमड़ी उधेड़ दूँगी। (सेठानी एक डंडी से चंदना को मारने दौड़ती है। क्रोध से उसके होंठ कांप रहे हैं। दो चार डण्डे लगा देती है और चली जाती है।)
चंदना—(मन में) बेचारी इस सेठानी का क्या दोष है ? मैंने जो पूर्व में कुछ कर्म संचित किये होंगे उन्हीं का यह फल मुझे भोगने को मिल रहा है। सच है, यह सुभद्रा सेठानी तो निमित्तमात्र है। कर्म सिद्धांत के अनुसार अपने किए हुए कर्मों के सिवाय इस जीव को कोई भी सुख-दु:ख देने वाला नहीं है। यदि अन्य कोई ही सुख-दु:ख देने में समर्थ हो जाये तो अपने द्वारा अर्जित कर्म व्यर्थ ही हो जाएंगे। अत: अब मेरा यही कर्तव्य है कि इन पूर्व संचित कर्मों के फल को शांति से भोगूँ और दु:ख, शोक, संताप, आक्रन्दन आदि को छोड़कर श्री जिनेन्द्रदेव का ध्यान करूँ जिससे दु:खों का अंत हो। (चंदना महामंत्र का स्मरण करती है।)
अष्टम दृश्य
समय—मध्याह्न स्थान—चंदना का कारावास (लोगों का कोलाहल हो रहा है। कुछ लोग आपस में चर्चा करते हुए चंदना के कारावास के पास से जा रहे हैं।)
पथिक नं.१—अरे भाई! कौशाम्बी नगरी के भाग्य जाग गये। आज यहाँ भगवान् महावीर पारणा के लिए पधारे हैं।
पथिक नं.२—हाँ बंधु! पता नहीं वर्धमान महामुनि को आहार देने का सौभाग्य किसे मिलेगा ?
चंदना—(आश्चर्य से) ऐं! क्या भगवान वर्धमान कौशाम्बी नगरी में आ गये हैं ? (चिंतित मुद्रा में) अहो! मुझे इस कारावास के बंधन में पड़े हुए आज कितने दिन हो गए हैं ? क्या मुझे भी भगवान् के दर्शन हो सकेगे ? क्या भगवान की चर्या इधर से हो सकेगी ? (आस-पास में श्रावक-श्राविकाएँ हाथ में झारी, कलश, फल, थाल आदि लेकर पड़गाहन करने के लिए खड़े हुए हैं। उनका कोलाहल हो रहा है।)
श्रावकगण—हे भगवन्! हे महावीर स्वामिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ!
श्राविकाएँ—हे भगवन्! हे वर्धमान महामुने! आइये आइये, यहाँ ठहरिए! (भगवन् महावीर उसी तरफ आ रहे हैं। चंदना गद्गद हो हाथ जोड़कर आगे बढ़ती है कि अकस्मात् उनके हाथ पैरों की सांकल टूटकर गिर जाती है। उसके सिर पर मालती के फूलों की माला लटकने लगती है, गले में हार, हाथ में कंकण, चूड़ियाँ हो जाती है। साड़ी सुन्दर हो जाती है। उसके शील के प्रभाव से सारे वस्त्र, आभूषण सुन्दर हो जाते हैं। सामने रखा हुआ मिट्टी का सकोरा सोने का पात्र बन जाता है और उसमें रखा हुआ कोदों का भात शालि-चावल का भात बन जाता है। आसपास में पाटे, चौकी, झारी आदि बर्तन दिखने लगते हैं। चंदना आगे बढ़कर हाथ जोड़कर पड़गाहन करती है। (ऐसे समय में पहले कुछ अंधकार दिखाना चाहिए जिससे सारी चीजें वहाँ एकत्रित करने में और चंदना को अलंकृत करने में सुविधा रहे, पुन: प्रकाश दिखाना चाहिए।)
चंदना—(गद्गद स्वर से) हे भगवन्! हे वर्धमान जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ! हे प्रभो! यहाँ आओ आओ, ठहरो ठहरो! (भगवान महावीर खड़े हो जाते हैं। चंदना बारम्बार नमस्कार करते हुए तीन प्रदक्षिणाएँ देती हैं।)
चंदना—हे स्वामिन्! उच्च स्थान पर विराजिए। (भगवान् विराजमान हो जाते हैं, चंदना पाद प्रक्षालन, पूजन और नमस्कार करके प्रार्थना करती है।)
चंदना—हे नाथ! मेरा मन शुद्ध है, वचन शुद्ध है, काय शुद्ध है और यह अन्न-जल भी शुद्ध है। आप कृपाकर आहार स्वीकार कीजिए। (चंदना भगवान् को आहार दे रही है। इधर जनता की भीड़ उमड़ती चली आ रही है। उधर आकाश से देवगण पंचाश्चर्य वृष्टि कर रहे हैं। पंचरंगी रत्न बरस रहे हैं, सुगंधित पुष्प बरस रहे हैं, मंद सुगंध पवन चल रही है। दुंदुभि बाजे बज रहे हैं और ‘जय हो, जय हो, अहो दानं, अहो पुण्यं, सती चंदना धन्य हो, धन्य हो, भगवान् महावीर की जय हो, जय हो, जय हो।’ इस प्रकार से देवगण जय-जयकार लगा रहे हैं। उनके साथ उपस्थित सभी नर-नारी भी जय-जयकार लगा रहे हैं। इसी बीच में रानी मृगावती भी अपने पुत्र को साथ में लेकर वहाँ आ जाती है। भगवान् महावीर आहार लेकर चले जाते हैं। तब मृगावती चंदना के पास आ जाती है।)
मृगावती—(आश्चर्य से) अरे मेरी प्यारी बहन चंदने! तू यहाँ कैसे ? (दौड़कर चंदना को छाती से चिपकाते हुए) चंदना! तेरे अपहरण के बाद हम लोग कितने दु:खी थे ? आज तू बड़े भाग्य से हमें मिली है।
चंदना—जीजी! हमें इस कौशाम्बी नगरी में रहते हुए आज कई महीने व्यतीत हो गये हैं।
मृगावती—चंदना! बता तो सही, तुझे किस दुष्ट पापी ने हरा था ? और उसके चंगुल से तू कैसे छूटी है ?
चंदना—जीजी! एक विद्याधर ने मेरा अपहरण किया, पुन: अपनी स्त्री के डर से उसने मुझे अपने विमान से नीचे गिरा दिया, वहाँ पर एक भील मुझे अपने साथ ले गया और अपने स्वामी को सौंप दिया। उसने मेरा शीलभंग करना चाहा, किन्तु जब मैं दृढ़ रही तब उसकी माता ने मेरी रक्षा की। पश्चात् उस भिल्लराज ने मुझे अपने मित्र को सौंप दिया। उसने यहाँ लाकर मुझे सेठ वृषभसेन को दे दिया। सेठ सेठानी ने मुझे पुत्रीवत् संभाला। अनन्तर पता नहीं मेरे किस जन्म के अर्जित कर्म का उदय हो गया कि सेठानी ने मुझे सांकलों से बांधकर यहाँ डाल रखा था।… आज पुण्योदय से भगवान् महावीर के दर्शन हुए हैं।… (इतना सुनते ही मृगावती रोने लगती है और पुन:-पुन: चंदना के सिर पर हाथ फिराते हुए कहती है।)
मृगावती—बहन चंदना! तूने इतनी छोटी सी उमर में कितने दु:ख सहे हैं ? ओह! विधि की विडम्बना को धिक्कार हो। अहो! इस मूढ़ सेठानी ने तुझ जैसी पवित्र बालिका को क्यों कष्ट दे रखा था? और तूने मुझे कुछ समाचार क्यों नहीं दिलाया ?
चंदना—जीजी! बेचारी सेठानी का क्या दोष है ? मैंने ही किसी जन्म में अशुभ कर्म बांधे होंगे, उन्हीं का फल यहाँ मुझे भोगना पड़ा है।
मृगावती—ओह! तू इतनी कोमल सुकुमार कन्या, तेरी यह छोटी सी अवस्था! तूने माता-पिता आदि कुटुम्बियों का वियोग कैसे सहा ? (मृगावती बार-बार चंदना को छाती से लगा रही है और उसके सिर पर हाथ फैर रही है। दूर से सेठ-सेठानी देख रहे हैं और काँप रहे हैं। इधर चंदना रत्नों का ढेर उठा उठाकर लोगों को बांट रही है और बहुत से रत्न सुरक्षित अपने रहने के स्थान में रख रही है।)
मृगावती—चलो बहन चलो! अब मेरे साथ चलो। (चंदना बहन के साथ चली जाती है। लोग चंदना के बारे में चर्चा कर रहे हैं।)
श्रावक नं.१—यह सुकुमारी चंदना क्या महारानी मृगावती की बहन थी ?
श्रावक नं.२—भाई! उसका चेहरा ही देखो, महारानी के चेहरे से मिलता-जुलता था।
श्राविका नं.१—तो क्या यह चंदना वैशाली के राजा चेटक की पुत्री है ?
श्राविका नं.२—हाँ, बहन! कुछ दिन पूर्व मैंने सुना था कि राजा चेटक की सबसे छोटी पुत्री चंदना को कोई दुष्ट उठाकर ले गया है।
श्राविका नं.३—हाँ, हाँ! उस समय राजा चेटक के कुछ आदमी यहाँ भी तो खोजने के लिए आए हुए थे।
श्रावक नं.१—हाँ हाँ, उस समय अपने यहाँ के महाराज शतानीक ने भी तो जगह-जगह अपने कर्मचारियों को खोजने के लिए भेजा था किन्तु कहीं पर भी कुछ पता नहीं चला पाया था।
श्रावक नं.२—देखो तो सही, कितने महीने से यह यहाँ सेठ वृषभसेन के महल में रह रही थी किन्तु किसी को कुछ पता ही नहीं चला।
श्राविका नं.१—चलो अच्छा हुआ, आज उसके भाग्य जाग गए।
श्राविका नं.२—और उसके निमित्त से कौशाम्बी नगरी के भी भाग्य जाग गये।
श्राविका नं.१—हाँ बहन! हम लोगों के भी भाग्य जग गये, देखो ना तीर्थंकर महावीर के दर्शन मिल गये।
श्राविका नं. २—और उनका आहार देखने का भी पुण्य अवसर मिल गया।
श्रावकगण—सचमुच में हम लोग बहुत ही भाग्यशाली हैं जो कि आज वर्धमान भगवान् के दर्शन का अवसर मिला है।
नवम दृश्य
समय—मध्याह्न स्थान—राजमहल (रानी मृगावती सिंहासन पर बैठी हुई है। पास में एक आसन पर चंदना बैठी हुई हैं। सामने सेठ-सेठानी हाथ जोड़े खड़े हैं।)
वृषभसेन—(हाथ जोड़कर कांपते स्वर में) महारानी जी! मेरा अपराध क्षमा कर दो।
सुभद्रा—(आँसू पोछते हुए) महारानी जी! मैं आपकी शरण में आई हूँ, मेरी रक्षा करो।
मृगावती—यद्यपि तुम दोनों ने घोर अपराध किया है फिर भी…। (बीच में बोलते हुए)
वृषभसेन—हे मात:! आप दयालु हैं हम दोनों पर दया कीजिए।
मृगावती—(करुणा से) अच्छा, तो… तुम दोनों ही चंदना के चरणों की शरण लेवो यह जैसा कहेंगी वैसा ही होगा। (दोनों ही चंदना के चरणों में गिर पड़ते हैं।)
वृषभसेन-सुभद्रा—(गिड़गिड़ाते स्वर से) हे देवि! पवित्रमूर्ति! हमारे अपराध क्षमा करो, हमें जीवनदान देओ।
सुभद्रा—हे शील शिरोमणि! मैंने आपको न पहचान कर ही यह अनर्थ कर डाला है, अब आपको समझा है कि आप साधारण कन्या नहीं प्रत्युत् महासती हैं, मनुष्य नहीं साक्षात देवता ही हैं।
चंदना—(करुणा से) हे मात:! मेरे हृदय में आपके प्रति किचिंत् भी क्रोध नहीं है। वास्तव में आपका क्या दोष है ? मैंने पूर्व भव में जो कुछ अशुभ कर्म संचित किये होंगे उसी का फल मुझे भोगना पड़ा है।
सुभद्रा—(प्रसन्न होकर) धन्य हो, धन्य हो, हे चंदने! आप साक्षात् क्षमा की मूर्ति ही हो।
वृषभसेन—हे चंदने! हे पुण्यमूर्ति! मेरे घर में रहते हुए अकारण ही आपको जो कष्ट भोगना पड़ा है उसका मुझे बड़ा पश्चात्ताप है।
चंदना—हे तात्! आप मेरे धर्मपिता हैं, आपने तो बहुत बड़े संकट के समय मेरा संरक्षण किया है और फिर जो भी कष्ट मुझे मिला है वह सब आपके बिना जाने ही हुआ है। भला आपको इसका अफसोस क्यों ?
सुभद्रा—सारे कष्टों को देने वाली तो मैं ही हूँ।
चंदना—मात:! आप तो निमित्त मात्र हैं। आप भला हमें दु:ख कैसे दे सकती थी ? अरे! यदि अन्य ही कोई अन्य किसी को सुख-दु:ख देने लग जाएँ तो अपने किए हुए कर्म व्यर्थ ही हो जाएँ ? अत: मेरे कर्मों ने ही मुझे दु:ख दिया था न कि आपने! अब आप दोनों के प्रति मेरा पूर्णतया क्षमाभाव है अत: आप लोग शांति धारण कीजिए। (मृगावती से) जीजी! आप इन्हें राजा की तरफ से अभयदान दिला दीजिए।
मृगावती—(प्रसन्न होकर) ठीक है, चंदना! जैसा तुम कहोगी वैसा ही होगा। इन्हें किसी प्रकार का दण्ड नहीं दिया जाएगा।
वृषभसेन-सुभद्रा—(गद्गद होकर) धन्य हो, महासती चंदना। धन्य हो! आप दया की अवतार हो। आपके गुणों का देवगण मिलकर भी बखान नहीं कर सकते हैं। आप अगणित गुणों की भण्डार हो। हे महारानी जी! आपको माता त्रिशलादेवी और चंदना की बहन होने का सौभाग्य मिला है अत: आप भी महाभाग्यशालिनी हैं। (दोनों बार-बार चंदना को और मृगावती को प्रणाम करते हैं और उनसे अभयदान प्राप्त कर चले जाते हैं।)