हस्तिनापुर में पांडवों का शासन चल रहा था। प्रजा के लोग दुर्योधन आदि कौरवों के दुव्र्यवहार को भी भुला चुके थे। उस सुखद प्रसंग में नारद ऋषि यत्र-तत्र विचरण करते हुए वहाँ पर आ गये। पाँचों पांडवों से मिलकर प्रसन्न हुए। पांडवों ने भी उनका बहुत ही आदर-सम्मान किया। अनन्तर नारदजी द्रौपदी के महल में पहँचे। वह आभूषण-अलंकार आदि धारण करने में व्यग्र थी। नारदजी कब आये और कब चले गये, उसे इस बात का पता भी नहीं लग सका। नारदजी द्रौपदी के इस व्यवहार को अपना अपमान समझकर क्रोध से जलने लगे। उन्होंने उसको दु:ख देने का निश्चय किया और उपाय सोचने लगे। वे इसी धुन में हस्तिनापुर से निकल गये और आकाशगामिनी विद्या के बल से आकाशमार्ग से उड़ते हुए जम्बूद्वीप के बाहर लवणसमुद्र का उल्लंघन कर पूर्वधातकी खण्ड के भरतक्षेत्र में पहँुच गये। वहाँ पर अंगदेश में अमरकंकापुरी नगरी है। उसका राजा पद्मनाभ रूप और गुणों से प्रसिद्ध था। उसने नारद की बहुत ही विनय की पुन: उन्हें आत्मीयजन समझकर अपना अंत:पुर दिखाया और पूछने लगा-‘‘हे नारद! हमारी सुन्दर स्त्रियों जैसा रूप कहीं अन्यत्र भी आपने देखा है क्या?’’ उस समय नारद ने अपने अपमान का बदला चुकाने का एक अच्छा अवसर समझकर अर्जुन की पत्नी द्रौपदी के रूप की प्रशंसा करना शुरू कर दी और कहने लगे-‘‘हे पद्मनाथ! उस महिला का लोकोत्तर सौंदर्य आपकी इन पत्नियों में से किसी का भी नहीं है।’’ तब पद्मनाभ कामपिशाच के वशीभूत होता हुआ पूछता है-‘‘हे ऋषे! वह कहाँ रहती है? किसकी पुत्री है? अथवा किसकी पत्नी है?’’ नारद कहने लगे-‘‘राजन्! जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में एक हस्तिनापुरी नगर है। वहाँ पर इस समय पाँच पांडव राज्य कर रहे हैं। उन पाँचों में जो बिचले भाई अर्जुन हैं जिनकी धनुर्विद्या की बराबरी इस मध्यलोक में आज कोई भी नहीं कर सकता है। यह सती द्रौपदी उन्हीं अर्जुन की भार्या है।’’ इत्यादि रीति से नारद द्रौपदी का पता बतलाकर आप स्वयं आकाशमार्ग से चले गये। इधर राजा पद्मनाभ के हृदय में उसे प्राप्त करने की इतनी तीव्र उत्कण्ठा जागृत हो गई कि उसे अब न भोजन-पान में रुचि रही, न नींद में ही। उसने तीव्र घोर तपश्चरण के द्वारा पाताल लोेक में निवास करने वाले एक ‘संगमक’ नाम के देव की आराधना की। यह देव आकर राजा के कहे अनुसार अपने विक्रिया बल से रात्रि में सोती हुई द्रौपदी को उठाकर ले आया और इस धातकी खण्ड में राजा पद्मनाभ के बगीचे में छोड़ दिया और राजा को सूचना देकर आप अपने स्थान को चला गया।
राजा ने आकर साक्षात् देवांगना के समान सुन्दर द्रौपदी को देखा। द्रौपदी उस समय जागृत हो गयी थी किन्तु ‘यह स्वप्न है’ ऐसा समझकर वह पुन: सो गई। बार-बार वह जागृत होती और नया ही स्थान देखकर स्वप्न समझकर सो जाती। इस तरह नेत्रों को बन्द करने वाली द्रौपदी का अभिप्राय जानकर राजा पद्मनाभ उसके समीप में पहँुचा और मधुरवाणी में बोला-‘‘हे सुन्दरी! उठो और देखो! यह धातकीखण्ड द्वीप है और मैं इस अमरकंकापुरी का राजा पद्मनाभ हूँ। नारद के द्वारा तुम्हारे रूप की प्रशंसा सुनकर मैंने देव की आराधना की थी अत: एक देव तुम्हें वहाँ से अपहरण कर यहाँ ले आया है।’’ इतना सुनते ही द्रौपदी का हृदय काँपने लगा। वह आश्चर्यचकित हो सोचने लगी-‘‘हाय! यह क्या हुआ? मेरे ऊपर यह भयंकर संकट कहाँ से आ पड़ा? अब यहाँ मेरा रक्षक कौन है?…..’’ पुन: तत्क्षण ही उसने अपने मन में यह नियम कर लिया कि जब तक मुझे अर्जुन का दर्शन नहीं होता, तब तक के लिये मेरे चतुराहार का त्याग है। इस प्रकार प्रतिज्ञा करके उसने अपनी वेणी में गाँठ लगा ली। अब वह अपने को शीलरूपी वङ्कामय कोट के भीतर बैठी हुई समझने लगी। पद्मनाभ ने जब उसे सोच-विचार में निमग्न देखा तब वह पुन: बोला-‘‘हे देवि! अब नेत्र खोले और मेरी तरफ देखो। मैं तुम्हारे अधरामृत का इच्छुक हूँ। मेरी इच्छा को पूर्ण कर मेरे साथ मनमाने भोगों का अनुभव करो।’’ तब द्रौपदी कहती है-‘‘अरे मूर्ख! तुझे पता नहीं मैं कौन हूँ? मैं सती द्रौपदी हूँ। बलभद्र और श्रीकृष्ण नारायण मेरे भाई हैं। धनुर्धारी अर्जुन मेरा पति है। महान् बलशाली युधिष्ठिर और भीम मेरे पति के बड़े भाई हैं। नकुल तथा सहदेव मेरे देवर हैं। जल और स्थल में जिन्हें कहीं भी कोई रोक नहीं सकता ऐसे शीघ्रगामी उनके रथ समस्त पृथ्वी पर घूमते रहते हैं। इसलिये हे भाई! तू यदि अपने परिवार सहित जीवित रहना चाहता है, तो मुझे शीघ्र ही मेरे स्थान पर वापस पहँुचा दे, अन्यथा तेरी खैर नहीं है।’’ इस पर पद्मनाभ कहता है-‘‘हे द्रौपदी! तुम अब होश में आओ और अपने भाई, पति आदि के अभिमान को छोड़ो। वे सब इस समय तुमसे कितने दूर हैं इसकी तुम्हें कल्पना भी नहीं है। अब तुम स्वप्न में भी उनसे मिलने की आशा छोड़ दो।’’ द्रौपदी कहती है-‘‘अरे दुष्ट! तू मुझे यहाँ अकेली और अनाथ मत समझ, मेरा रक्षक धर्म है, वह सदैव ही मेरे साथ रहता है। इतनी दूर भी वही मेरी रक्षा करेगा।’’ राजा पद्मनाभ अनेक प्रकार से अनुनय-विनय करके भी जब द्रौपदी को अनुकूल नहीं कर सका, तब वह उसे अनेक प्रकार के भय दिखलाने लगा। जब द्रौपदी भयानक वातावरणों से और मरने से भी नहीं डरी, तब वह बलात्कार करने के लिये आगे बढ़ा। इस पर द्रौपदी ने कहा-‘‘यदि एक महीने के अन्दर ही हमारे आत्मीयजन यहाँ नहीं आ जाते हैं तो तेरी जैसी इच्छा हो, वैसा करना।’’
इस पर वह पद्मनाभ शान्त होकर घर चला गया और तब से प्रतिदिन अपनी स्त्रियों के साथ द्रौपदी को अनुकूल करने की चेष्टा करता रहा। द्रौपदी विश्वस्त हो गई। फिर भी स्वजन के वियोग में निरन्तर अश्रु बहाती हुई पति के आने की प्रतीक्षा करने लगी। पति के दर्शन तक उसने अन्न-जल का त्याग कर ही दिया था, अब वह महामन्त्र का सहारा लेकर अपने प्राणों को धारण कर रही थी। इधर प्रात: द्रौपदी को न पाकर अर्जुन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह सोचने लगा-‘‘रात्रि में ही मेरी वल्लभा कहाँ चली गई? महल में अकस्मात् अदृश्य कैसे हो गई?’’ अर्जुन ने यह समाचार अपने भाईयों को दिया। सुनकर सब स्तब्ध रह गये। अन्त में सभी ने यह निर्णय निकाला कि अवश्य ही द्रौपदी को कोई देव या दानव अपहरण कर कहीं ले गया है, जहाँ पर वह कष्ट में होगी। पाण्डवों ने वहाँ से चलकर श्रीकृष्ण के निकट आकर उन्हें भी यह समाचार सुनाया। इस आकस्मिक दुर्घटना से श्रीकृष्ण भी बहुत दु:खी हुए। उन्होंने पूरे भरतक्षेत्र में अपने सेवकजनों को भेजकर पता लगवाया किन्तु कहीं पर भी द्रौपदी का पता नहीं लग सका। तब उन सभी यादवों ने यह निश्चय किया कि कोई दुष्ट विद्याधर मनुष्य अथवा देव उसका अपहरण कर कहीं अन्य क्षेत्र में ले गया है। फिर भी समस्त यादव उसकी खोज में तत्पर हो गये। इसी बीच में एक दिन श्रीकृष्ण अपनी सभा में विराजमान थे कि नारदजी वहाँ आ गये। समस्त यादवों ने उनका सम्मान किया। नारद कहने लगे- ‘‘हे नारायण! मैंने द्रौपदी को धातकीखण्ड द्वीप की अमरकंकापुरी में राजा पद्मनाभ के उद्यान में देखा है। वह स्वजन वियोग के शोक से अत्यन्त दुर्बल हो गयी है। निरन्तर अश्रुओं से अपना मुख धोती रहती है। उसे इस समय अपने शीलव्रत का ही सबसे बड़ा भरोसा है। पद्मनाभ के अन्त:पुर की स्त्रियाँ यद्यपि उसकी सेवा में लगी हुई हैं, किन्तु वह लम्बी-लम्बी श्वास छोड़ती रहती है। आप जैसे भाई के रहते हुए वह शत्रु के घर में क्यों रह रही है? आप उसको शीघ्र ही शत्रुओं से छुड़ाकर यहाँ लाओ।’’ नारद ऋषि से प्रिय समाचार सुनकर श्रीकृष्ण आदि सभी लोग बहुत ही प्रसन्न हुए और नारद की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। पुन: वे बोले-‘‘वह दुष्ट राजा द्रौपदी का अपहरण कर कहाँ जावेगा? मैं अभी उसे यमराज के घर भेज दूँगा।’’
इत्यादि शब्दों से शत्रु के प्रति रोष व्यक्त करते हुए श्रीकृष्ण द्रौपदी को लाने के लिए रथ पर बैठकर दक्षिण समुद्र के तट पर जा पहँुचे। पाँचों पाण्डव भी वहाँ पहँुच गये। वहाँ पर इन लोगों ने धातकीखण्ड को जाने की इच्छा से लवण समुद्र के अधिष्ठाता देव की आराधना की। देव ने आकर छह रथ लाकर पाँचों पाण्डवों और श्रीकृष्ण को उनमें बिठा दिया। ये छहों जन शीघ्र ही लवण समुद्र पार कर धातकीखण्ड के भरत क्षेत्र की अमरकंकापुरी के उद्यान में पहँुच गये और वहाँ के पुरुषों से पद्मनाभ को खबर भेज दी कि श्रीकृष्ण और पाण्डव आ गये हैं। पद्मनाभ की सेना युद्ध के लिये आ गई। पाँचों पाण्डवों ने उस सेना को इतना मारा कि वह तहस-नहस होकर नगर में भाग गई। पद्मनाभ नगर का गोपुर द्वार बन्द कर महल में घुस गया। तब श्रीकृष्ण ने अपने पैरों के आघात से उस वङ्का के फाटक को तोड़ना शुरू किया। उनके पैरों के प्रहार से शहर का परकोटा और गोपुर द्वार टूट-टूटकर गिरने लगे। मदोन्मत्त हाथी इधर-उधर भागने लगे। नगर में सर्वत्र हाहाकार मच गया। तब राजा पद्मनाभ घबराकर द्रौपदी की शरण में पहँुचा और कहने लगा-‘‘हे मात:! हे पतिव्रते! हे शीलशिरोमणि! मेरी रक्षा करो। मेरे अपराध को क्षमा करो, क्षमा करो, मुझे अभयदान दिलाइये।’’ द्रौपदी को करुणा आ गई तब उसने कहा-‘‘हे भाई! तुम स्त्री का वेश धारणकर चक्रवर्ती श्रीकृष्ण की शरण में जाओ तो वे अवश्य ही तुम्हें छोड़ देंगे। उत्तम पुरुष अपराधी जनों को भी नम्र हो जाने पर छोड़ देते हैं पुन: भीरू स्त्री का वेश धारण करने पर तो वे अवश्य ही दया करेंगे।’’ इतना सुनकर राजा पद्मनाभ स्त्री का वेश धारणकर अपनी स्त्रियों को साथ लेकर द्रौपदी को आगे किया और श्रीकृष्ण की शरण में आ पहँुचा। तब श्रीकृष्ण ने शरणागत को अभयदान देकर मात्र उसके स्थान और नाम में परिवर्तन कर दिया और उसे वापस भेज दिया। द्रौपदी ने श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और पाँचों पाण्डवों के साथ यथायोग्य विनय व्यवहार किया। तदनन्तर अर्जुन ने विरह से दु:खी अपनी वल्लभा का आलिंगन कर अपने हाथों से उसकी वेणी खोलकर उसकी प्रतिज्ञा को पूर्ण किया। द्रौपदी ने भी पति को और स्वजनों को प्राप्त कर हर्ष के साथ अपना पुनर्जन्म माना पुन: सबने स्नान आदि से निवृत्त होकर भोजन किया तब द्रौपदी ने भी भोजन ग्रहण किया।
अनन्तर वे सभी रथ में बैठकर समुद्र के किनारे आ गये। तब श्रीकृष्ण ने अपना शंख बजाया। उसकी ध्वनि समस्त दिशाओं में व्याप्त हो गई। उस समय वहाँ चम्पानगरी के बाहर जिनेन्द्रदेव का समवसरण स्थित था। धातकीखण्ड के भरतक्षेत्र के नारायण कपिल श्री जिनेन्द्रदेव की वन्दना करने वहाँ आये थे। उन्होंने पृथ्वी को कम्पित कर देने वाला वह शंखनाद सुना, तब भगवान से पूछा-‘‘हे नाथ! मेरे समान शक्ति को धारण करने वाले किस मनुष्य ने यह शंख बजाया है? इस समय मेरे द्वारा शासित इस भरतक्षेत्र में मेरे समान तो कोई अन्य मनुष्य है नहीं?’’ भगवान की दिव्य ध्वनि खिरी। गणधर ने समझाया-‘‘राजन्! जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के नारायण श्रीकृष्ण यहाँ आये हुए हैं। अमरकंकापुरी के राजा पद्मनाभ ने अर्जुन की पत्नी द्रौपदी का अपहरण कराया था। उसी को लेने के लिए पाँडव और श्रीकृष्ण यहाँ आये हुए हैं।’’ इतनी बात सुनकर कपिल नारायण श्रीकृष्ण से मिलने के लिए जाने लगा। यह देख श्री गणधर ने कहा-‘‘हे राजन्! तीन लोक में कभी भी चक्रवर्ती-चक्रवर्तियों का, तीर्थंकर-तीर्थंकरों का, बलभद्र-बलभद्रों का, नारायण-नारायणों का और प्रतिनारायण-प्रतिनारायणों का परस्पर में मिलाप नहीं होता है। तुम जाओगे तो चिह्नमात्र से ही तुम्हारा और उसका मिलाप हो सकेगा। एक-दूसरे के शंख का शब्द सुनना तथा रथों की ध्वजाओं को देखना, इन्हीं चिह्नों से तुम्हारा और उसका साक्षात्कार हो सकेगा। कपिल नारायण भगवान की वाणी के अनुसार समुद्र तट पर आया। तब तक श्रीकृष्ण अपने रथों को समुद्र में उतार चुके थे अत: दूर से ही अर्ध-चक्री कपिल ने श्रीकृष्ण के रथ की ध्वजा को देखा पुन: अपनी चम्पानगरी में वापस चले आये। इधर आकर चक्रवर्ती कपिल ने अनुचित कार्य में प्रवृत्त होने वाले राजा पद्मनाभ को बहुत ही फटकारा। इधर ये पाँचों पाँडव, श्रीकृष्ण और द्रौपदी सभी लोग महासमुद्र को पार कर तट पर आ गये। द्रौपदी ने अपने शील की दृढ़ता से अन्य द्वीप में भी अपना साहस नहीं छोड़ा। सच है, महिलाओं के लिए शीलव्रत ही सर्वश्रेष्ठ व्रत है।