दशलक्षण पर्व में प्रतिदिन दशधर्मों की पूजा होती है। एक-एक दिन क्रम से एक-एक मंत्र की जाप्य होती है एवं प्रतिदिन एक-एक धर्म की वाचना होती है अर्थात् एक धर्म पर प्रवचन होता है। प्रतिवर्ष एक प्रश्न आता है कि दशधर्मों में सत्य धर्म चौथे दिवस आता है या शौच धर्म पहले चौथे नम्बर पर आता है ? मैंने कई एक ग्रंथों का अध्ययन किया, तो देखा कि अनेक ग्रंथों में सत्यधर्म पहले-चौथे नम्बर पर है पुन: शौच धर्म है तथा कई एक ग्रंथों में शौच धर्म पहले है पुन: सत्य धर्म है अत: दोनों ही परम्पराएं मान्य हैं-प्रमाणीक हैं, फिर भी श्री कुन्दकुन्ददेव विरचित ‘द्वादशानुप्रेक्षा’ ग्रंथ में सत्य धर्म पहले है। जैसे कि-मुनिधर्म के दश भेद
उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव।
तवचागमकिंचण्हं बम्हा इदि दसविहं होदि।।७०।।
उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य ये मुनिधर्म के दश भेद हैं।।७०।।
आर्जवधर्म का लक्षण मोत्तूण कुडिलभावं णिम्मलहिदएण चरदि जो समणो।
अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण।।७३।।
जो मुनि कुटिलभाव को छोड़कर निर्मल हृदय से आचरण करता है, उसके नियम से तीसरा आर्जव धर्म होता है।।७३।।
सत्य धर्म का लक्षण परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं।
जो वददि भिक्खु तुरियो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं।।७४।।
दूसरों को संताप करने वाले वचन को छोड़कर जो भिक्षु स्वपरहितकारी वचन बोलता है, उसके चौथा सत्यधर्म होता है।।७४।।
शौच धर्म का लक्षण कंखाभावणिवित्तिं किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो।
जो वट्टदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोच्चं।।७५।।
जो उत्कृष्ट मुनि काङ्क्षाभावसे निवृत्ति कर वैराग्यभाव से युक्त रहता है, उसके शौचधर्म होता है।।७५।।१
इसी प्रकार ‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’ ग्रंथ में–
सत्यधर्म का वर्णन स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च।
वक्तव्यं वचनमथ प्रविधेयं धीधनैर्मौनम्।।९१।।
उत्कृष्टज्ञान के धारण करने वाले मुनियों को प्रथम तो बोलना ही नहीं चाहिए यदि बोलो तो ऐसा वचन बोलना चाहिए, जो समस्त प्राणियों के हित का करने वाला हो तथा परमित हो और अमृत के समान प्रिय हो तथा सर्वथा सत्य हो किन्तु जो वचन जीवों को पीड़ा देने वाला हो तथा कड़वा हो, तो उस वचन की अपेक्षा मौन साधना ही अच्छा है।।९१।।
सति सन्ति व्रतान्येव, सूनृते वचसि स्थिते।
भवत्याराधिता सद्भि:-र्जगत्पूज्या च भारती।।९२।।
जो मनुष्य सत्य वचन बोलने वाला है अर्थात् सत्य व्रत का पालन करने वाला है उसके समस्त व्रत विद्यमान रहते हैं अर्थात् सत्यव्रत के पालन करने से ही वह समस्त व्रतों का पालन करने वाला हो जाता है और वह सत्यवादी सज्जनपुरुष तीन लोक की पूजनीक सरस्वती को भी सिद्ध कर लेता है।भावार्थ-सरस्वती भी उसके अधीन हो जाती है।।९२।।
तथा और भी आचार्य कहते हैं कि सत्यवादी मनुष्य परभव में जाकर श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा बनते हैं तथा इन्द्रादिफल को प्राप्त कर लेते हैं और सबसे उत्कृष्ट मोक्षरूपी फल को भी प्राप्त कर लेते हैं यह बात तो दूर रही किन्तु इसी भव में वे चन्द्रमा के समान उत्तम कीर्ति को पा लेते हैं तथा शिष्ट मनुष्य उनको बड़ी प्रतिष्ठा से देखते हैं और वे सज्जन कहे जाते हैं इत्यादि नाना प्रकार के उत्तम फल उनको मिलते हैं जो कि सर्वथा अवर्णनीय है। इसलिए सज्जनों को अवश्य ही सत्य बोलना चाहिए।।९३।।
शौचधर्म का वर्णन यत्परदारार्थादिषु, जन्तुषु निस्पृहमहिसकं चेत:।
दुर्भेद्यान्तमलहृत्तदेव शौचं परं नान्यत्।।९४।।१
जो परस्त्री तथा पराये धन में इच्छा रहित है तथा किसी भी जीव के मारने की जिसकी भावना नहीं है और जो अत्यन्त दुर्भेद्य लोभ क्रोधादिमल का हरण करने वाला है, ऐसा चित्त ही शौच धर्म है किन्तु उससे भिन्न कोई शौच धर्म नहीं है। भावार्थ – गंगा आदि नदियों में स्नान भी किया तथा पुष्कर आदि तीर्थों में भी गये किन्तु मन लोभ आदि से ही संयुक्त बना रहा, तो कदापि शौचधर्म नहीं पल सकता इसलिए मन को सबसे पहले शुद्ध करना चाहिए।।९४। मूलाचार प्रदीप ग्रंथ में भी सत्यधर्म पहले है। यथा-
आद्याक्षमोत्तमा श्रेष्ठं मार्दवं चार्जवोत्तमम्।
सत्यं शौचं महान् संयमस्तपस्त्यागसत्तम:।।५८।।
आकिंचन्यं परं ब्रह्मचर्यसल्लक्षणान्यपि।
इमानि धर्ममूलानि श्रमणानां दशैव हि।।५९।।२
उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य यह मुनियों के दश धर्म हैं और समस्त धर्मों के मूल हैं।।५८-५९।। कवि द्यानतराय कृत दशलक्षण पूजा में भी सत्यधर्म का अघ्र्य पहले है पुन: शौच धर्म है। इसी के अनुसार मैंने दशलक्षण पूजा में सत्य धर्म पहले लिया है पुन: शौचधर्म। अत: मैं इसी क्रम से व्रतों के मंत्र करती हूँ एवं ऐसे ही मंत्र जपने की प्रेरणा देती हूँ। तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में तथा इस ग्रंथ के टीका ग्रंथों में सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि ग्रंथों में शौच धर्म पहले है तथा तत्त्वार्थसूत्र की टीका ‘‘तत्त्वार्थवृत्ति’’ग्रंथ में सत्यधर्म पहले है। सूत्र में सत्य पहले लेकर टीका में सत्यधर्म की टीका पहले है। इन ग्रंथों के अध्ययन से यह निश्चित हो जाता है कि दोनों परमपराएँ प्रमाण हैं-मान्य हैं। जहाँ जैसी परम्परा चल रही हो, उसे गलत नहीं कहना चाहिए। हमारे व आपके लिए श्री कुन्दकुन्ददेव, श्री पद्मनंदिदेव, श्री सकलकीर्ति आचार्य, श्री उमास्वामी आचार्य, श्री पूज्यपाद स्वामी, श्री अकलंक देव सभी आचार्यदेव प्रमाणीक एवं पूज्य हैं। अत: एक किसी को प्रमाण व दूसरे को अप्रमाण नहीं कहना चाहिए।