भव्यात्माओं! आगम ग्रंथों में पाक्षिक श्रावक का विशेष लक्षण बताते हुए आचार्यों ने कहा है कि जो श्रावक जिनेन्द्रदेव की आज्ञा से निरन्तर ही विषयों को छोड़ने योग्य समझता हुआ भी मोह के निमित्त से उन्हें छोड़ने के लिए असमर्थ है। उस गृहस्थ के लिए ही गृहस्थ धर्म पालने की अनुमति है। उस गृहस्थ धर्म में सबसे प्रथम वह गृहस्थ जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का श्रद्धान करता हुआ हिंसा को छोड़ने के लिए मद्य, मांस, मधु और पाँच उदंबर फलों का त्याग कर ही देवे। मद्य-शराब के एक बिंदु में इतने जीव हैं कि वे संचार करें तो तीन लोक को भी पूरित कर सकते हैं और उसके पीने से जीवों के इस लोक-परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। इसलिए इस मदिरा को दूर से ही छोड़ देना चाहिए। मांस का भक्षण तो स्पष्ट में ही बुरा है। यहाँ तक कि विवेकी सभ्यजन मांस के नाम को सुनकर भोजन करते हुए भी छोड़ देते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि जैसे मांस प्राणी का अंग है वैसे ही अन्न भी पंचेन्द्रिय प्राणी का अंग है पुन: अन्न, वनस्पति आदि का भक्षण करना भी मांस दोष के समान है? तो ऐसा नहीं है, देखो अन्न और मांस दोनों ही यद्यपि प्राणी के अंग समान रूप से हैं फिर भी अन्तर है क्योंकि अन्न खाने योग्य है और मांस खाने योग्य नहीं है। जैसे स्त्री और माता दोनों ही स्त्रीपने से समान हैं किन्तु स्त्री ही भोग्य है माता नहीं। अथवा यो समझिए कि मांस जीव का शरीर है किन्तु जो-जो जीव के शरीर हैं वे सभी मांस नहीं है। जैसे कि नीम तो वृक्ष है किन्तु जितने वृक्ष हैं वे सभी नीम नहीं है। अथवा गाय से उत्पन्न होकर भी दूध ग्राह्य है किन्तु गोमांस ग्राह्य नहीं है। सर्प से मणि उत्पन्न होती है वह तो विषनाशक है किन्तु सर्प का डस लेना विषकारक है।
इसलिए एकेन्द्रिय जीवों के कलेवर अन्न, वनस्पति आदि को मांस संज्ञा नहीं है किन्तु दो इंद्रिय से लेकर सभी जीवों के कलेवर मांस कहलाते हैं और वे त्याज्य हैं। मधु-शहद की एक बिंदु मात्र के भक्षण से सात ग्राम के जलाने जितना पाप लगता है इसलिए यह भी महा निंद्य पदार्थ है। इसी प्रकार से नवनीत-मक्खन को भी दो मुहूर्त से बाद में नहीं खाना चाहिए उसमें भी बहुत जीव जन्म ले लेते हैं। उसी प्रकार पीपल, उदुम्बर, पाकर, बड़ और अंजीर इन फलों को सुखाकर भी नहीं खाना चाहिए। अष्टमूलगुण धारी श्रावक का कर्तव्य है कि वह रात्रि भोजन और अनछना पानी भी कभी नहीं पीवे क्योंकि ये स्वाध्याय और धर्म दोनों की हानि करने वाले हैं। यह पाक्षिक श्रावक पांच अणुव्रतों को भी अभ्यासरूप से पालता है और सप्त व्यसनों का भी त्याग कर देता है। दूसरी प्रकार से अष्टमूल गुणों का वर्णन इस प्रकार है-मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन और पांच उदुम्बर फल इनका त्याग करना तथा पंचपरमेष्ठी की वंदना करना, जीव दया पालना और पानी छानकर पीना।
जो भव्य जीव जीवन भर के लिए इन महापापों को छोड़ देता है और जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है ऐसा शुद्ध बुद्धि वाला जीव ही जिनधर्म को सुनने के लिए योग्य होता है।
इसी बात को श्री अमृतचंद्र सूरि ने पुरुषार्थ सिद्धिउपाय में कहा है-
अष्टावनिष्ट दुस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवज्र्य। जिनधर्म देशनाया: भवंति पात्राणि शुद्धधिय:।।
अर्थात् ‘अनिष्ट, दुस्तर और पापों के घर ऐसे इन आठों को छोड़कर शुद्ध बुद्धि वाले प्राणी जिन धर्म की देशना के पात्र होते हैं।’ ऐसा सम्यग्दृष्टि श्रावक हमेशा जिनेन्द्रदेव की पूजा किया करता है। पूजा को इज्या भी कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं-नित्यमह, आष्टान्हिक, इन्द्रध्वज, चतुर्मुख और कल्पद्रुम।
नित्यमह-अपने घर पर स्नान करके शुद्ध धुले हुए वस्त्र पहनकर घर से जल चंदन आदि सामग्री ले जाकर मंदिर में जिनेन्द्रदेव की पूजा करना नित्यमह कहलाती है। अपनी शक्ति के अनुसार जिनप्रतिमा, जिनमंदिर आदि का निर्माण कराना, मंदिर को पूजा व्यवस्था के लिए जमीन, धन आदि मंदिर में दान देना, त्रिकाल में जिनदेव की आराधना करना, अपने घर के चैत्यालय में पूजा करना और भक्तिपूर्वक प्रतिदिन मुनियों को दान देना यह सब नित्यमह पूजा है।
आष्टान्हिक- नंदीश्वर पर्व में जो पूजा की जाती है वह आष्टान्हिक पूजा है।
इन्द्रध्वज- जो पूजा इन्द्र आदिकों के द्वारा विशेषरूप से की जाती है वह इन्द्रध्वज कहलाती है।
चतुर्मुख- जो जिन पूजा मुकुटबद्ध मंडलेश्वर राजाओं द्वारा की जाती है वह सर्वतोभद्र-महामह या चतुर्मुख कहलाती है। यह सब जीवों को हितकर होने से सर्वतोभद्र, चतुर्मुख जिनबिंब विराजमान करके चारों दिशाओं में पूजा करने से चतुर्मुख और सबसे बड़ी महान होने से महामह कहलाती है।
कल्पद्रुम- इस पूजा में चक्रवर्ती किमिच्छक दान देकर सभी की इच्छा पूर्ण कर देते हैं अर्थात् तुम्हें क्या इच्छा है, तुम्हें क्या इच्छा है ऐसा सभी की इच्छा को पूर्ण करते हुए दान देकर जो जिनेन्द्रदेव की महान पूजा करते हैं वह कल्पद्रुम इस अपने सार्थक नाम वाली पांचवीं पूजा कहलाती है।
जो गृहस्थ अभिषेक, पूजन, गीत, नृत्य आदि द्वारा पूजन करते हैं वे महान पुण्य का बंध कर लेते हैं। अष्टद्रव्य से पूजन का महान फल है। अर्हंत देव के चरणों में जलधारा देने से ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मरूपी रज शांत हो जाती है। चंदन से पूजा करने से सुगंधित शरीर प्राप्त होता है। अक्षत से पूजा वैभव को अखंडित करने वाली है। पुष्प से पूजा करने वाले स्वर्ग में मंदार माला को प्राप्त करते हैं। नैवेद्य से पूजा करने से लक्ष्मी के स्वामी होते हैं। दीप से पूजा करने वाले कांति को विस्तृत करते हैं। धूप से पूजन करके उत्कृष्ट सौभाग्य को प्राप्त होते हैं। फल से पूजा करके इच्छित फल को प्राप्त कर लेते हैं और अर्घ से पूजा करके अभिमत वस्तुओं को प्राप्त कर लेते हैं। इसके सिवाय जिन पूजा का फल तो अचिन्त्य है।
सम्यग्दृष्टि पूजक को ‘मैं पहले, मैं पहले’ कहते हुए सभी सुख संपत्तियाँ आकर घेर लेती हैं। निर्विघ्नता से पूजा, बड़े-बड़े विधान आदि करने के लिए तथा योग्यदान, मान आदि सत्कारों से विधर्मियों को भी अपने अनुवूâल करके और सहधर्मियों को भी अपने आधीन करके पूजा करना चाहिए। जो श्रावक स्त्री संसर्ग, आरंभ आदि सहित हैं वे विधिवत् स्नान आदि करके शुचि होकर ही जिनपूजा करें। कभी-कभी कोई श्रावक यह प्रश्न करते हैं कि मंदिर बनवाने से तो महान आरंभ होता है? लेकिन ऐसी बात नहीं है, जिन प्रतिमा, जिनमंदिर, वसतिका और स्वाध्याय भवन आदि बनवाने वालों को महान् सातिशय पुण्य का बंध होता है और परम्परा से वे लोग इस पुण्य के बल से कर्मों का भी नाश कर लेते हैं।
क्योंकि गृहस्थ तो हमेशा पाप क्रिया में आरंभ, व्यापार, मकान बनवाने आदि में ही प्रवृत्त रहते हैं। यद्यपि मंदिर बनवाने आदि के आरंभ में हिंसा है तो भी उसके महान पुण्य में वह समुद्र के जल में एक कण विष के समान क्या कर सकता है और तो क्या-‘‘मुक्ति प्रासाद सोपान माप्तैरुक्तो जिनालय:’’ शास्त्र में ऐसा कहा है कि जिनेन्द्रदेव ने मंदिर को मुक्तिमहल की सीढ़ी बताया है। ग्रंथकार कहते हैं कि इस दु:षमाकाल रूपी रात्रि को धिक्कार हो कि जहाँ पर बड़े-बड़े शास्त्र के विद्वान भी जिनबिंब दर्शन के बिना प्राय: करके भगवान की भक्ति करने में प्रवृत्त नहीं होते हैं।
इसलिए प्रत्येक स्थान पर जिनमंदिर की परम आवश्यकता है। अहो! इस पंचमकाल में गृहत्यागी मुनियों का मन भी रागादि परिणति से चंचल होकर धर्म कर्म में प्रवृत्ति नहीं कर पाता है इसलिए जिनमंदिर की बहुत ही आवश्यकता है अर्थात् मुनिगण भी मंदिर और जिनप्रतिमाओं के आश्रय से अपनी प्रवृत्तियों को नियमित कर पाते हैं उन्हें भी आज इनकी पूरी आवश्यकता रहती है। इस प्रकार सरल प्रवृत्ति से जिनपूजा करने वालों के सभी दु:ख नष्ट हो जाते हैं और दशों दिशाएं उनके मनोरथों को पूर्ण करती हैं।