तीर्थंकर श्रमण महावीर के अनेक नाम हैं जिनसहस्रनाम में उनके हजार नाम है और हर नाम समाये हुए है। हर नाम में सूर्य का— सा प्रताप हैं, तेज है, प्रकाश है। उन सहस्रनामों में से तीन नामों को समझने की करेंगे। एक है वर्धमान , दूसरा महावीर और तीसरा है सन्मति। वर्धमान निरन्तर आगे बढ़ते रहे। पीछे मुड़कर उन्होंने कभी देखा ही नहीं। एक बार जो कदम उठाया उसे कभी पीछे नहीं हटाया। निरन्तर पथ को पार करते हुए चलते रहे। न यश—अपयश की परवाह की और न हानि—लाभ की गणना की। न ही उन्होंने कभी इस बात की चिन्ता की कि कौन उन्हें क्या कह रहा है। बस लक्ष निर्धारित किया, मंजिल का पता किया और कदम बढ़ाते चले गये। मंजिल की तरफ दृष्टि लगाये रहे। क्योंकि वे वर्धमान के साथ महावीर भी थे। बढ़ते रहना आसान नहीं हैं, दुनिया की ठोकरें ऐसी लगती है कि कहीं लुढ़कता चला जाता है व्यक्ति। भटक जाता है, खो जाता है। जो महावीर होते हैं, वे ही वर्धमान हो सकते हैं। महान धैर्य सम्पन्न एवं वीरता सम्पन्न होना ही महावीर होना है। अगर वीरता नहीं हो, साहस और हिम्मत से रहित हो तो वह क्या आगे बढ़ेगा और क्या मंजिल प्राप्त करेगा ? वह तो इधर—ऊधर के विकल्पों के झाड़—झंकाड में अटक कर रह जायेगा। दुख आये तो आ जाय , अभाव हो भले हो, क्या होगा ? जैसी कोई चिन्ता ही नहीं होती उन्हें। क्योंकि दृढ़ निर्धार के साथ उनके कदम आगे बढ़ते रहते हैं कि वही होगा जो हमने संकल्प किया है। कुण्डली तो संकल्प की कुण्डली है। उस कागज की कुण्डली, जन्म कुण्डली में ग्रहों को देखते हैं लोग, पूछते हैं कि क्या होगा ? जो महावीर होते हैं वे अपने संकल्प की कुण्डली देखते हैं। अन्यथा लोग विकल्पों में उलझते रहते हैं। कल करेंगे , फिर कभी करेंगे। और उनका कल तो आता ही नहीं, काल जरूर आ जाता है। एक आदमी सुबह उठकर रेलवे स्टेशन पर आ गया। उसने गार्ड को देखा तो जाकर पूछा कि रेल कब आ रही है ? गार्ड बोला ‘घंटे भर में आयेगी’। सुनकर कुछ सोचता हुआ सा उसने फिर पूछा उसके बाद कब आयेगी ? यही कोई आधा घंटे के बाद, गार्ड बोला। थोड़ी देर रूककर उसने पुन: पूछा ‘गार्ड साब! उसके बाद फिर कब आयेगी ? गार्ड ने परेशान होकर पूछा — लेकिन तुम्हें जाना कहाँ है ? कौन सी गाडी से जाना है ? तो बोला, जाना नहीं है गाडी से। मुझे तो रेलवे लाईन पारे करनी है। गार्ड ने सिर ठोकते हुए कहा, ‘‘ तो चला जा उसके लिए सारी गाडियों का टाईम पूछकर, समय क्यों खराब कर रहा है अपना भी और मेरा भी । जा चला जा। पार कर ले लाईन। दौड़ लगा। उस पागल आदमी की तरह हम भी विकल्पों में घिरे रहते हैं , लाईन पार करते ही नहीं । वहीं खड़े रह जाते हैं। समय निकल जाता है और हम हताश , निराश बैठे रह जाते हैं। एक सज्जन थे। श्रीमन्त थे लेकिन परिवार में केवल एक बेटी थी। उसकी शादी की और जमाई को घर—जमाई बना दिया । दुर्भाग्य से बेटी मर गई । तो जमाई की दूसरी लकड़ी से शादी करवा दी।धन—सम्पत्ति तो अमाप थी लेकिन दान दे नहीं सके। बार—बार विचार कर रहे कि कुछ सत्कर्म में दान दूँ लेकिन बस विचार ही करते रह जाते। लोग कहते कुछ करो सेठजी । आपका कमाया हुआ है अभी आप कर सकते हो । कहते हाँ भाई हाँ, कुछ करने का सोच रहा हूँ। और एक दिन प्राण निकल गये। बहुत कुछ कर सकते थे लेकिन सोच—सोच में ही रह गये। विकल्पों में फसे रह गये अवसर निकल गया। भर्तृहरि ने कहा है—
विघ्न पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना:, प्रारभ्यतुत्तम जना: न परित्यजन्ति।।
बड़े अनुभवी नीतिकार रहे हैं भर्महरि । बड़े सम्राट के पद पर रहे हैं पहले। सन्यास में भी बड़ी ऊँचाईयों को छुआ है। उनके इन वचनों को जैन, बौद्ध, वैष्णव सब उधृत करते रहे हैं अपने ग्रन्थों में। सत्य की कोई ठेकेदारी नहीं होती। अच्छाई सब की होती है। सूर्य जब उदित होता तो सबके लिए प्रकाश विखेरता है। भर्तृहरि कहते हैं कि जो निम्नश्रेणी के लोग होते हैं वे विघ्नों के भय से काम ही शुरू नहीं करते। बाधाओं का भय उन्हें सताता रहता है। अत: काम ही छोड़कर बैठ जाते हैं। लेकिन बाधा तो वास्तव में मन की बाधा होती है। इसलिए कहा है कवि ने—
‘‘ बाधा—बाधा करत है रे मूरख नादान, बाधा का वध किये बिना, क्या पायेगा नाम ?’’
कवि कह रहा है कि बाधा का वध करना होगा अर्थात् संकल्प वह तलवार है कि सारी बाधाएँ समाप्त हो जाती है। और जब संकल्प बल जागृत हो जायेगा तो निश्चित ही बाधाएँ समाप्त होकर कत्र्तव्य का गौरव तुम प्राप्त कर सकोगे। चलना शुरू करोगे तो रास्ता तय कर पाओगे और रास्ता तय होगा तभी मंजिल हासिल होगी। मध्य श्रेणी के वे लोग हैं जो शुरु तो कर लेते हैं। सत्कर्म के पथ पर पैर तो रख लेते हैं लेकिन ज्योंही विघ्न—बाधा आ जाती है तो पथ छोड़कर भाग खड़े होते हैं। रहने दो भाई यह तो बड़ा मुश्किल काम है। अपने बस का नहीं है। हमसे यह होने वाला नहीं है। हम नहीं कर सकते। संकट को देख चोट पडने पर जैसे मिट्टी का ढेला चूर—चूर होकर बिखर जाता है। ऐसे मध्यम श्रेणी के लोगों का मन चूर—चूर हो जाता है। लेकिन उत्तम और श्रेष्ठ वे होते हैं जो बार—बार विघ्न—बाधाओं के आने पर भी पराजित नहीं होते। पहाड जैसी रूकावट भी उन्हें रोक नहीं सकती। उन रूकावटों से ऊपर उठकर वे अपने लक्ष्य को पा लेते हैं। वर्धमान होने के लिए जैसे महावीरत्व की आवश्यकता होती है, उसी तरह सन्मति की भी आवश्यकता होती है। सन्मति याने सद्बुद्धि अगर सन्मति नहीं है तो वीर होकर भी रावण हो जाता है व्यक्ति, दुर्योधन हो जाता है। सन्मति के साथ लक्ष्य का निर्धारण हो हृदय में, महावीरत्व रमा रहे, और आचरण तुम्हारा वर्धमान रहे। बस फिर लक्ष्य दूर नहीं है। चाहे लोक यात्रा हो चाहे अन्तर्यात्रा हो, साहस के साथ सद्बुद्धि के साथ वर्धमान रहना है। जो आलसी है उनके लिए लंका बहुत दूर—सुदूर है। मिलेगी कि नहीं भी मिलेगी। लेकिन जो उद्यमवन्त है उसके लिए एक चरण भर है । वानरवीरों का यह उत्तर है। महान उत्तर है। अपने पुरूषार्थ पर भरोसा जिसे हो, वही यह उत्तर दे सकता है। अर्थात् सत्य संकल्प है हमारा सत्साहस है हमारा और सत्य जो राम है वही सत्य श्रद्धा है हमारी । फिर लंका दूर कैसे होगी ? उद्यमवन्त हजूर।