सद् बुद्धि
धरती पर जितने भी प्राणी हैं उनको दो रूपों में बांटा जा सकता है। एक वे जिनके लिए विचारपूर्वक कर्म संभव है और दूसरे वे जिनके लिए विचारहीन भोग का ही महत्व है। मनुष्य प्रथम प्रकार की श्रेणी में आता है। वहीं मनुष्य से इतर प्राणी दूसरी श्रेणी के अंतर्गत रखे जा सकते हैं। मनुष्य विचारपूर्ण कर्म के द्वारा सभी प्रकार की उन्नति कर सकता है। शेष प्राणियों के लिए पूर्व निर्धारित जीवन को जीना उनकी विवशता है। वस्तुतः मनुष्य सत्वबुद्धि संपन्न प्राणी है। वह अपनी पारमार्थिक उन्नति के लिए आध्यात्मिक जीवन और उसके अनुरूप कर्म कर जीवन के उदात्त स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत पशु मात्र स्वार्थ पूर्ति हेतु ही कर्म करते हैं। अपनी इसी सात्विक बुद्धि संपन्नता के कारण मनुष्य पशुओं से श्रेष्ठ हो जाता है।
सात्विक बुद्धि की प्राप्ति के लिए सत् विद्या का अध्ययन आवश्यक है। इसके साथ तप का पा और मन में दान का भाव आवश्यक हो जाता है। भर्तृहरि ने कहा है, ‘जो व्यक्ति आत्मज्ञान से रहित होता है। जिनके हृदय में शील और प्रशंसनीय सद्गुण नहीं होते और जो धर्म का आचरण न करके सदैव स्वार्थपूर्ण कर्म करते हैं, वास्तव में वे मनुष्य होकर भी पशु जैसे ही हैं।’ इस प्रकार जिनमें केवल उदरपूर्ति करने की भोग बुद्धि है, वे अपने जीवन में स्वयं अपना अथवा दूसरों का लौकिक या पारलौकिक लाभ नहीं कर सकते। यदि हम पशुओं की दिनचर्या को देखें तो पाएंगे कि वे प्रातःकाल से लेकर रात्रि तक मात्र स्वार्थपूर्ति में ही संलिप्त रहते हैं। वहीं मनुष्य के पास सद्- बुद्धि रूपी एक ऐसी विशेष शक्ति है, जो उसे विचारपूर्ण कर्म कर भोग से परे पारमार्थिक जीवन जीने के योग्य बनाती है । – इस प्रकार भोग परायण बुद्धि और कर्म परायण
बुद्धि का अंतर ही पशु और मनुष्य का वास्तविक अंतर है। इस सद्- बुद्धि से ही हम शुभ कर्म कर परमार्थ की प्राप्ति कर सकते हैं। अपनी जीवन यात्रा में यही हमारा ध्येय मंत्र होना चाहिए।