कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर१ में कुरुवंश की परम्परा में चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार हुए जो रूपपाश से खिंचकर आये हुए देवों द्वारा संबोधित हो दीक्षित हो गये थे। आराधना कथाकोश में इनका जीवनवृत्त इस प्रकार है- ये सनत्कुमार चक्रवर्ती सम्यग्दृष्टियों में प्रधान थे। उन्होंने छह खण्ड पृथ्वी अपने वश में कर ली थी। नवनिधि, चौदह रत्न, चौरासी लाख हाथी, इतने ही रथ, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी करोड़ शूरवीर, छ्यानवे करोड़ ग्राम, छ्यानवे हजार रानियाँ इत्यादि विशाल वैभव था। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा चक्रवर्ती की आज्ञा शिरसा धारण करते थे। ये चक्रवर्ती कामदेव पद के धारक भी थे। एक दिन सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने अपनी सभा में मनुष्यों के रूप की प्रशंसा करते हुए सनत्कुमार के रूप को सबसे उत्कृष्ट कहा। उस समय कौतुकवश परीक्षा करने के लिए मणिचूल और रत्नचूल नाम के दो देव यहाँ भूमण्डल पर आये। गुप्तवेष से स्नानागार में राजा के रूप को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। अनन्तर द्वारपाल से कहा कि चक्रवर्ती को कहो कि स्वर्ग से दो देव आपके रूप को देखने के लिए आये हैं। चक्रवर्ती ने स्नान करके वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो सिंहासन पर आरूढ़ होकर उन देवों को आने को कहा। उस समय वे देव सभा में आकर बोले-महाराज! स्नान के समय जो आपका रूप था, वह अब नहीं रहा। ऐसा सुनकर सभी सभासदों को बहुत ही आश्चर्य हुआ। देवों ने एक घड़े में जल भर दिया और एक बिन्दु जल निकाल दिया फिर सभा से पूछा कि क्या जल कम हो गया है? उत्तर में सबने कहा-जल ज्यों की त्यों भरा है। बस! देवों ने कहा-ऐसे ही राजा के रूप में जो अन्तर हुआ है वह तुम्हें पता नहीं चल रहा है। इस घटना से चक्रवर्ती संसार के विषय भोगों से विरक्त हो गये। अपने पुत्र सुकुमार को राज्य देकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और घोराघोर तपश्चरण करने लगे। पराधीन प्रकृति, विरुद्ध आहार आदि के निमित्त से और असाता कर्म के तीव्रोदय से मुनिराज सनत्कुमार के शरीर में भयंकर रोग उत्पन्न हो गये किन्तु वे मुनि शरीर से निर्मम होने से उसकी उपेक्षा करके अपनी आवश्यक क्रियाओं में सावधान थे और कठिन से कठिन तप कर रहे थे। पुन: किसी समय सौधर्म स्वर्ग की इन्द्रसभा में मुनियों के चारित्र की प्रशंसा करते हुए इन्द्र ने सनत्कुमार मुनि की प्रशंसा की। उस समय मदनकेतु नाम का देव उनकी परीक्षा के लिए यहाँ आया। वैद्य का वेष बनाकर वन में साधु के पास गया। मुनिराज ने कहा-भाई! मुझे सबसे ब़ड़ा रोग है यदि तुम उसकी दवाई कर सको तो ठीक है। वैद्य ने पूछा-वह क्या है? मुनिराज ने कहा-वह रोग है ‘जन्म लेना’ यदि इस रोग की दवाई तुम्हारे पास है तो दे दो। वैद्य वेषधारी देव ने कहा-इस रोग को तो मैं कुछ नहीं समझता हूँ। उस समय मुनिराज ने अपनी तप शक्ति से उत्पन्न हुई ऋद्धियों के बल से क्षणमात्र में अपने एक हाथ का कुष्ठ रोग नष्ट करके उस वैद्य को बता दिया और कहा कि जब शरीर मेरा नहीं है, तब मैं इसकी चिंता क्यों करूँ ? इसलिए मैं निस्पृह हूँ। यह चमत्कार देखकर वैद्य ने अपने रूप को प्रगट कर मुनि की अनेक स्तुतियों से स्तुति करते हुए पूजा की और कहा-हे नाथ! जन्म-मरण को दूर करने वाली औषधि तो आपके पास ही है और आप स्वयं इसका सेवन कर भी रहे हैं तथा हम जैसे संसारी दीन प्राणी भी आप जैसे महापुरुषों की शरण में आकर इस रोग का नाश कर सकते हैं। इस प्रकार मुनि का माहात्म्य प्रगट कर वह देव स्वर्ग चला गया। इधर मुनिराज सनत्कुमार उपसर्ग एवं परीषहों को सहन करने में समर्थ अपने चारित्र को वृद्धिंगत करते हुए घातिया कर्मों का नाशकर केवली हो गये और बहुत काल तक पृथ्वी पर विहार कर अघातिया कर्मों का भी नाशकर शाश्वत सुखमय सिद्धपद को प्राप्त हो गये। इन चक्रवर्ती की कुल आयु तीन लाख वर्ष की थी। उसमें पचास हजार वर्ष कुमार काल में, पचास हजार वर्ष मांडलिक अवस्था में, दस हजार वर्ष दिग्विजय में, नब्बे हजार वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य के उपभोग में और एक लाख वर्ष संयमी मुनि अवस्था में व्यतीत हुए हैं। ये चक्रवर्ती पन्द्रहवें धर्मनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में हुए हैं। आज लोक के अग्रभाग में विराजमान सिद्ध परमात्मा हैं उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार होवे।