अति अन्याय रूप कार्य के बार-बार करने की प्रवृत्ति को व्यसन कहते हैं। ये व्यसन सात प्रकार के होते हैं—
जुआ खेलना, मांस, मद, वेश्यागमन, शिकार।
चोरी, पररमणी रमण, सातों व्यसन निवार।।
अर्थात् १. जुआ खेलना, २. मांस खाना, ३. शराब पीना, ४. वेश्यासेवन करना, ५. शिकार खेलना, ६. चोरी करना, ७. परस्त्री सेवन करना। इन सात प्रकारों से मानव पाप मार्ग में प्रवृत्ति करता है उसके फलस्वरूप नरकगति के दुःख भोगता है। यहाँ पर क्रम-क्रम से एक-एक व्यसन का वर्णन किया जा रहा है। इन्हें पढ़कर निर्व्यसनी प्राणी दूसरों को प्रेरित कर व्यसन का त्याग करावें तथा अंश मात्र भी जिनमें कोई व्यसन हैं वे उन्हें छोड़ने का सतत् प्रयास कर सद्गति के पात्र बनें—
‘‘प्रथम व्यसन’’
(‘‘जुआ खेलना पाप क्यों’’?)
पैसे से हार—जीत की बाजी लगाकर जो तास पत्तों के द्वारा खेल खेला जाता है, उसे जुआ कहते हैं। जिन पुरुषों को बिना परिश्रम किए हुए द्रव्य के प्राप्त होने की अधिक तृष्णा होती है ऐसे ही पुरुष विशेषतया जुआ खेलते हैं। यह जुआ सप्त व्यसनों का मूल और सब पापों की खान है। जुआरी मनुष्य नीच जाति के मनुष्यों के साथ भी उठने-बैठने का विचार नहीं करता और एकान्त स्थानों में सदा छुप-छुप कर जुआ खेलने के प्रयास में रहता है। जुआरी सब झूठों का सरदार होता है। अपने व्यसन में जीत जाने पर पापों में ही उसके धन का व्यय होता है, कोई भी दुष्कर्म से वह बच नहीं पाता है।
आज भी दीपावली पर्व पर प्रायः अच्छे सभ्य पुरुष भी जुआ खेलते देखे जाते हैं किन्तु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि बुरे कार्य यदि कभी हंसी—मजाक में भी किए जाते हैं तो उनका कुफल अवश्य भोगना पड़ता है पुनः भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण जैसे पावन दिवस पर खेला गया जुआ भला क्या शुभ का द्योतक हो सकता है?
नहीं, प्रत्युत वह तो असंख्य पाप का संचय कराता है। जुआ का दूसरा नाम ‘‘द्यूत’’ भी है, इसके बारे में कविवर भूधरदास जी ने कहा है—
सकल पाप संकेत आप दाहेत कुलच्छन,
कलह खेत दारिद्र देत दीसत निज अच्छन।
जुआ समान इहलोक में आन अनीति न पेखिए,
इस विसनराय के लोक को कौतुक कूं निंह देखिए।।
अर्थात् जुआ व्यसन धर्म एवं सामाजिक प्रतिष्ठा को भी भंग कर देता है तो भी जुआरी को तृप्ति नहीं होती है। इस व्यसन के कारण भीषण कष्ट उठाने वाले पांडवों का कथानक कौन नहीं जानता ? उनका ही उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है—
‘‘इतिहास कौरव पांडवों का’’
ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर का कथानक है। जब यहाँ कुरुवंश के राजा राज्य कर रहे थे, उनका नाम था ‘‘धृत’’। इस न्यायप्रिय राजा के अम्बा, बालिका तथा अम्बिका नाम की तीन रानियाँ थीं । समयानुसार सांसारिक सुखों को भोगते हुए रानी अम्बा ने धृतराष्ट्र को, बालिका ने पांडु को और अम्बिका ने विदुर नामक पुत्र को जन्म दिया।
सभी पुत्रों ने कुमारकाल प्राप्त कर विवाह बन्धन स्वीकार किया। तदनुरूप धृतराष्ट्र की स्त्री का नाम गान्धारी था तथा पांडु के दो स्त्रियाँ थीं कुन्ती और माद्री। इनमें से धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए और पांडु की कुन्ती नामक पत्नी से युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन तथा माद्री से नकुल-सहदेव ये दो पुत्ररत्न उत्पन्न हुए। कुन्ती की कन्या अवस्था में ही किसी कारण विशेष से पांडु के साथ संसर्ग होने से कर्ण नामक पुत्र का प्रसव पहले ही हो चुका था।
एक बार महाराज ‘‘धृत’’ को शरदऋतु में बादलों को नष्ट होते देखकर संसार से वैराग्य हो गया अतः बड़े पुत्र ‘‘धृतराष्ट्र’’ को हस्तिनापुर का राज्यभार सौंपकर पांडु को युवराज बनाकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। उनके साथ ही छोटे भाई विदुर ने भी दीक्षा ले ली। काफी दिनों तक तपस्या करने के बाद धृत मुनि ने तो केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण सुख भोगा और विदुर मुनिराज धर्मोपदेश करते हुए देश-देश में विहार करने लगे।
इसी प्रकार धृतराष्ट्र और पांडु को भी एक दिन वैराग्य का निमित्त मिला। उन्होंने एक भ्रमर को कमल के भीतर मरा हुए देखकर संसार की क्षणभंगुरता का विचार किया और राज्य को दो भागों में विभक्त कर युधिष्ठिर तथा दुर्योधन को उनका स्वामी बनाकर जैनेश्वरी दीक्षा स्वीकार कर ली।
पांडव लोग कुशलतापूर्वक अपने राज्य संचालन में लगे थे, लेकिन कपटी दुर्योधन ने अपना षड्यंत्र रचना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन उसने पांचों पांडव भाइयों को अपने यहाँ आमंत्रित किया और उनका यथोचित आदर सत्कार किया। कुछ क्षण पश्चात् उसने धर्मात्मा युधिष्ठिर से स्नेहपूर्वक कहा—आइए, मनोरंजन के लिए थोड़ी देर द्यूत क्रीड़ा की जाए। युधिष्ठिर सरलचित्त थे, वे दुर्योधन के कपट को समझ न पाए अतः जुआ खेलने को राजी हो गए।
द्यूतक्रीड़ा प्रारम्भ हुई, दोनों ओर से पासे फेंके जाने लगे। सभी पासे कौरवों के अनुकूल पड़ने लगे। युधिष्ठिर की हार होती देखकर भीम ने एक क्रूर दृष्टि पासों पर डाली अतः अब पासे युधिष्ठिर के अनुकूल पड़ने लगे लेकिन दुर्योधन ने पुनः छल से भीम को किसी कार्यवश अन्यत्र भेज दिया तब कौरव फिर विजयी होने लगे। भाग्य का खेल देखो! भीम के वापस आने तक युधिष्ठिर उस जुए में अपना राजपाट सभी हार चुके थे। जब तक भीम उन्हें जुए की निकृष्टता के बारे में समझा ही रहे थे कि तब तक युधिष्ठिर ने अपना पूरा राज्य दांव पर ल्ागा दिया और दुर्योधन द्वारा पराजित होकर विषण्णवदन अपने महल में लौट आए।
दुर्योधन को तो अब मुंहमांगी मुराद ही मिल गई थी। पांडव महल में पहुंचे ही थे कि दुर्योधन का दूत सन्देश लेकर पहुंच गया और युधिष्ठिर से कहने लगा—
‘‘महाराज दुर्योधन ने कहलाया है कि जब आप लोग बारह वर्ष का राज्य तथा समस्त ऐश्वर्य सहित अपने आपको भी हार गए हैं तो अब आपको इस राज्य में रहना उचित नहीं है। शर्त के अनुसार आप लोगों को राज्य से बाहर जाना होगा और छद्म वेश में रहना होगा ताकि कोई पहचान न पावे, यदि किसी ने आपको पहचान लिया तो पुनः बारह वर्ष का वनवास करना होगा। आज ही रात्रि में यहाँ से आप सब प्रस्थान कर जावें यही श्रेयस्कर है।’’
दूत को विदाकर पांडव अपने वनवास की योजना बना ही रहे थे कि अकस्मात् वहाँ दुःशासन आया और द्रौपदी को बलपूर्वक बाहर निकालने लगा। जब द्रौपदी ने कुछ आनाकानी की तो दुष्ट उसके केशों को अपनी मुट्ठी से पकड़कर महल से बाहर ले आया। द्रौपदी की इस दयनीय स्थिति को देखकर भीष्म पितामह ने दुःशासन को बहुत बुरा कहा लेकिन इन दुष्टों के ऊपर भला क्या प्रभाव पड़ने वाला था।
करुण विलाप करती हुई द्रौपदी पांडवों के पास पहुंची और उन लोगों की भर्त्सना करती हुई कहने लगी कि यदि आप लोग सचमुच में वीर पुरुष हैं तो दुर्योधन से मेरे अपमान का बदला क्यों नहीं लेते ? तब भीम और अर्जुन के हृदय में कौरवों को जड़मूल से नष्ट कर देने का पौरुष जागृत हुआ किन्तु युधिष्ठिर ने सबको शान्त करते हुए कहा—यह समय युद्ध का नहीं है। इस समय तो हम वचनबद्ध हैं अतः अनुकूल समय आने पर बदला अवश्य लिया जाएगा। अभी तो वनगमन ही हमारा मुख्य लक्ष्य होना चाहिए। इस प्रकार ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर की आज्ञा सुनकर सभी लोग शान्त हो गए।
वृद्धा माता कुन्ती को विदुर के घर छोड़कर पांचों भाई वन के लिए गमन कर गए। द्रौपदी की जिद के कारण उसे भी साथ में ले जाना पड़ा। अनेकों वन, उपवन, पर्वत, झरने आदि को पार करते हुए पैदल ही यात्रा चल रही थी, वे जहाँ भी थक जाते तो वन में ही विश्राम करते एवं फल-फूल खाकर पेट भरते थे।
दीर्घकाल तक वनवास के कष्ट सहन करने के पश्चात् पांडवों ने युद्ध करके कौरवों पर विजय प्राप्त की, अन्त में दिगम्बर मुनि बनकर शत्रुंजय गिरि पर्वत पर तपस्या करके युधिष्ठिर-भीम-अर्जुन ने निर्वाण पद प्राप्त किया और नकुल सहदेव ने सर्वार्थसिद्धि का अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
पांडवों ने अपने जीवन में एक जुआ व्यसन के कारण वनवास जैसे कष्ट सहे तथा लोकापवाद हुआ इसलिए आज तक उनका उदाहरण जुआ खेलने वालों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है अतः विज्ञ पुरुषों को यह व्यसन दूर से ही छोड़ देना चाहिए।
इस भौतिकवादी युग में भी शेयर बाजार, लाटरी, सट्टेबाजी के कार्यों में अनेक महानुभाव लिप्त देखे जा रहे हैं। ये व्यापार भी जुआ व्यसन के अन्तर्गत ही आते हैं। भारी लाभ की आशा से मानव अपने व्यापार धन्धे को छोड़कर तेजी से शेयर बाजार की ओर भाग रहा है किन्तु भाग्य साथ न देने पर न जाने कितने युधिष्ठिर लुट रहे हैं और जीवन के मध्यम आनंद को भी तिलांजलि देकर उन्हें दर-दर का भिखारी बनना पड़ता है। व्यसन की ओर से मुख मोड़कर, बिना परिश्रम के करोड़पति, उद्योगपति बनने के सपने छोड़कर व्यापार करने वाले मध्यमवर्गीय परिवार आज भी मानसिक दृष्टि से अधिक सुखी देखे जा रहे हैं।
अतएव जुए से होने वाली हानियों की ओर दृष्टि डालते हुए आप सभी को उसके त्याग का संकल्प अवश्य लेना चाहिए।
सात व्यसनों में दूसरे नम्बर का व्यसन है—मांसाहार। यह जहां नैतिकता एवं आध्यात्मिकता का पतन करता है वहीं मानव के अन्दर निर्दयता को पनपाकर उसे पशु से भी निम्न श्रेणी में पहुंचा देता है। मांसाहार से मस्तिष्क की सहनशीलता नष्ट होकर वासना व उत्तेजना वाली प्रवृत्ति बढ़ती है। जब किसी बालक को शुरू से ही मांसाहार कराया जाता है तब वह अपने स्वार्थ के लिए दूसरे जीवों को मारने-कष्ट देने में कभी गलती का अहसास ही नहीं करता है जबकि मानव को स्वभावतः अिंहसक प्राणी माना गया है।
यूं तो प्राचीनकाल से ही शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के मनुष्य इस धरती पर हुए हैं किन्तु वर्तमान में मांसाहार का जो खुला और वीभत्स रूप हमारे देश में पनप रहा है इसे कलियुग का अभिशाप ही कहना होगा। भारतीय संस्कृति खोखली होकर अपने भाग्य पर आंसू बहाने को मजबूर हो गई है। जहां रक्षक ही भक्षक बना हुआ है
अर्थात् सरकार स्वयं पशुओं का मांस निर्यात कर पाश्चात्य देशों की श्रेणी में अपना नाम दर्ज करा रही है तब मानवता भला किसके दरवाजे भीख मांगने जाएगी ? वह कराह-कराह कर एक दिन पंगु हो जाएगी और मानव की शक्ल के पशु देश का राज्य संचालित कर अपनी स्वार्थपूर्ति करके धरती पर ही नरकों के दृश्य उपस्थित कर देंगे।
पुराण ग्रन्थ हमें बताते हैं कि यदि राजा भी मांसाहारी बन गया तो नीतिप्रिय जनता ने उसे राजिंसहासन से अपदस्थ कर जंगल का राजा बना दिया। एक लघु कथानक है—
‘‘श्रुतपुर’’ नामक एक नगर में राजा बक राज्य करता था, वह मांसाहारी था, एक दिन उसके रसोइए को किसी कारणवश पशु का मांस न मिला तो उसने एक मरे हुए बालक का मांस्ा पकाकर राजा को खिला दिया। राजा को वह मांस बड़ा स्वादिष्ट लगा अतः उसने रसोइये से प्रतिदिन मनुष्य का ही मांस तैयार करने को कहा। अब रसोइया गांव की गलियों में जाकर रोज बच्चों को मिठाई आदि का प्रलोभन देकर लाने लगा और राजा की भोजनपूर्ति करने लगा। इस तरह नगर में बच्चों की संख्या घटते देख जब पता लगाया तो राजा को जबरदस्ती जंगल में भगा दिया।
किन्तु जंगल में भी वह आते-जाते निरपराधी मनुष्यों को मार-मारकर खाने लगा और वह सचमुच में भेषधारी राक्षस ही बन गया था। गांव व२ालों ने पुनः इस पर विचार करके प्रतिदिन एक-एक मनुष्य को बक राक्षस के भोजन हेतु भेजना स्वीकार किया। फिर एक बार पांचों पांडव सहित माता कुन्ती वनवास के मध्य उस नगर में आए। वे लोग एक वैश्य के घर में ठहर गए, संध्या होते ही घर की स्त्री जोर-जोर से रोने लगी। कुन्ती के पूछने पर उसने सारा वृत्तान्त सुनाते हुए कहा कि कल प्रातः मेरा पुत्र उस राक्षस का भोजन बनकर जाएगा। अपने इकलौते पुत्र को मरने हेतु भेजने के नाम से ही मेरा कलेजा फटा जा रहा है।
एक माँ की करुण व्यथा कुन्ती को समझते देर न लगी और उसने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि तुम्हारे पुत्र की जगह कल मेरा भीम उस राक्षस के पास जाएगा और उसे समाप्त कर समस्त ग्रामवासियों को भयमुक्त करेगा। पुनः कुन्ती ने भीम को सारी बात बताई और अगले दिन उसे बक राक्षस के पास भेज दिया। वहां पहुंचकर भीम ने अपने बाहुबल से राक्षस को समाप्त कर दिया तथा समस्त नगरवासियों के समक्ष वीरत्व दिखाया।
इस प्रकार से उस नरभक्षी राक्षस का आतंक नगर से दूर हो गया और वे लोग सुखपूर्वक रहने लगे। देखो! मांसाहार करने वाला राजा भी राक्षस बन गया एवं जिह्वालोलुपता के कारण उसे कितना दुःख, अपमान सहना पड़ा।
वर्तमान में मांसाहार आधुनिक पैâशन का एक अंग-सा बन गया है अतः मांसाहारियों को दूसरों के सुख-दुख का कोई अनुभव ही नहीं होता है। प्रकृति ने हमें इतनी सारी सब्जियां, अनाज, फल, मेवा प्रदान किए हैं कि मांसाहार के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती है फिर भी न जाने क्यों मानव मांसाहार की ओर बढ़ रहा है ? मांसाहार के त्यागने में केवल मन के दृढ़ निश्चय की आवश्यकता है। इसको छोड़ने में कोई भी असुविधा नहीं होती है प्रत्युत् छोड़ने वालों को मानसिक शान्ति का ही अनुभव होता है। नित्यप्रति मांसाहार करने वालों ने भी एक क्षण के सत्संग से जीवन भर के लिए मांसाहार का त्याग किया है। इसके जीवन्त उदाहरण प्रत्यक्ष में देखे जाते हैं।
परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती मााताजी अप्रैल १९९५ में अयोध्या से हस्तिनापुर की ओर विहार कर रही थीं उस मध्य सैकड़ों भव्य प्राणियों ने आजीवन मांसाहार का त्याग किया। अंडा, शराब, मछली आदि का सेवन करना तो मांसाहार है ही, केक-पेस्टी, चाकलेट तथा उच्चकोटि की आइसक्रीम आदि भी मांसाहार की ही कोटि में आते हैं।
वर्तमान वैज्ञानिक युग में मानव भौतिक पदार्थों की चकाचौंध में फंसकर सामाजिक, आर्थिक, नैतिक जीवन मूल्यों में परिवर्तन करता जा रहा है। अिंहसा को मानने वाले भी आज अपने आपको दूसरों से कुछ पृथव्â सा दिखाने के लिए प्रयासरत रहते हैं और इसी होड़ में वे विवाह, जन्मदिन आदि की पार्टियों में ऐसे कुछ खाद्य पदार्थ बनवाते हैं जिनसे मांसाहार का दोष लगता है। आपको ज्ञान कराने के लिए ऐसे ही कुछ खाद्य पदार्थ जो मांसाहारियों की नकल करके बनाए जा रहे हैं यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं। शाकाहारी नर—नारी इन पर ध्यान दें और संकल्पी िंहसा के पाप से अपने का बचाएं। जैसे—
शाकाहारी अण्डे—मावे (खोये) को भूनकर हल्का पीला रंग लगाकर पीला कर लेते हैं तथा गोल करके चारों ओर मावे की सफेत पर्त चढ़ाकर तथा तलकर चाशनी में पका लेते हैं। खाते समय अण्डे के स्वाद का आभास करते हैं। यह है अिंहसक धर्मावलम्बियों का शाकाहारी अण्डा जो राजा यशोधर के द्वारा किये गए आटे के मुर्गे की बलि के समान ही संकल्पी िंहसा है।
इसी प्रकार शाकाहारी सींक कबाब, शाकाहारी मुर्गा आदि अनेक भोज्य पदार्थ शाकाहारी वस्तुओं से तैयार करने पर भी मांसाहार का दोष उत्पन्न कराते हैं इसलिए अिंहसक समाज को अपने बच्चों में भी संकल्पी िंहसा के त्याग के संस्कार डालकर उन्हें इस पाप से दूर रखना चाहिए, फलों से बनने वाली सलाद और बर्थडे केक पर भी कई बार लोग विभिन्न पशुओं की आकृतियाँ बना कर खाते हैं। दीपावली की मिठाइयों में भी पशुओं के आकार बनाने की परम्परा है यह सब संकल्पी हिंसा के द्योतक हैं अतः िंहसाजनित पापों से बचने के लिए इन्हें दूर से ही त्याग कर देना चाहिए।
भारत की इस शस्यश्यामला भूमि के इतिहास को पढ़कर हृदय प्रसन्नता से फूला नहीं समाता परन्तु जब इस देश की वर्तमान दुर्दशा को देखते हैं तो दिल पीड़ा से व्यथित हो उठता है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरणगुप्त ने देश की इस दशा का वर्णन करते हुए लिखा है—
हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी।।
यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं।
हम कौन थे इस ज्ञान से फिर भी अधूरे हैं नहीं।।
राम-कृष्ण, महावीर, कबीर, गौतम और गांधी के इस देश में सूर्य की प्रथम किरण उगते ही २५ लाख मुर्गों को, ५ लाख बकरों को और २५ गोवंश को मौत के घाट उतार दिया जाता है। बम्बई, दिल्ली, हैदराबाद, कलकत्ता तथा मद्रास में बड़े-बड़े यांत्रिक कत्लखाने प्रतिदिन हजारों मूक प्राणियों का खून कर रहे हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि अिंहसा प्रधान हमारे देश में स्वतंत्रता के पश्चात् िंहसा का तांडव नृत्य चरम सीमा तक पहुंच गया है। जिसे आंकड़े बताते हैं कि अंग्रेजों के राज्य में यहां ३०० कत्लखाने थे, वर्तमान में ३६०० बड़े एवं ३६००० छोटे-बड़े कत्लखाने दिन-रात बेजुबान प्राणियों का खून बहा रहे हैं।
विश्व में कुल ५३० करोड़ लोग हैं, जिनमें से ८० प्रतिशत लोग मांसाहार करते हैं। भारत जैसे अिंहसा प्रधान देश में ६५ प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं। इनमें से ५ प्रतिशत लोग रोजाना मांसाहार करते हैं, २५ प्रतिशत लोग सप्ताह में एक बार करते हैं, २५ प्रतिशत महीने में एक बार तथा १० प्रतिशत कभी-कभी होटल आदि में मांस खाते हैं। राजस्थान में २० प्रतिशत, मध्यप्रदेश में २५ प्रतिशत, महाराष्ट्र में ६५ प्रतिशत, तमिलनाडु में ८५ प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में ३५ प्रतिशत तथा बिहार में ४० प्रतिशत लोग मांसाहार करते हैं।’
जिस शरीर को हृष्ट-पुष्ट करने के लिए व्यक्ति अनेक पशु-प्राणियों की हिंसा से प्राप्त मांस को खाता है, वास्तव में वह शरीर सबसे बड़ा दगाबाज है। यह हमारा साथ कब देगा इसका कोई पता नहीं है। सब कुछ सोचने के बाद निष्कर्ष यही निकलता है कि शाकाहार पौष्टिकता, बौद्धिकता एवं सभी दृष्टियों से लाभप्रद आहार है अतः इसे ही अपनाना चाहिए।
कहा भी है—
तुम्हें पालने में असमर्थ, धरती माँ की धूल नहीं है।
अतः अन्न फल मेवे रहते, मांस तुम्हें अनुकूल नहीं है।।
भगवान महावीर के ‘‘जिओ और जीने दो’’ सिद्धान्त पर ही हमारा अिंहसा प्रधान देश टिका हुआ है। इस विषय में अंग्रेजी की यह लघु कविता निश्चित ही आपको प्रेरणा प्रदान करेगी—
Think Once
Live and let live,
It is the main principle of lord Mahavira,
The soul is in every creatures,
and
They also feel happiness and suffering
O ! holimen of the world !
Think you once,
If any body gives pain to you,
Then you feel very bad.
So that it may be posible for you
That give happiness every little or big creature
The creatures of forest also want a peacefull life.
Let them live into the forest.
Think you secondly.
You are human, humanity is your necessary work,
Voilence is not work,
Today, in also India,
Where Lord Mahavira, Gautam Buddha, Mahatma Gandhi and many other great souls have borned.
The earth is weeping today, seeing the nacked dance of voilence and saying to you.
Oh, my child.
Why are you doing voilence to your brothers ?
The creatures of forest are also your relatives.
Because they are saving of Enviroment.
O my friend” Listen the instruction of Lord Mahavira—
Non-violence is your main principle.
Non-violence is the truth of soul.
Non-violence is the first aspect of Lord.
Non-violence is the very holy love.
So that, all of you should accept the nonviolence.
तृतीय व्यसन
(मदिरापान दुःख का कारण है !)
सात व्यसनों में ‘‘मदिरापान’’ तृतीय व्यसन है जो कि प्रत्यक्ष में ही दुःख का कारण दिखाई देता है। पं. दौलतराम जी ने छहढाला में कहा है—
‘‘जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुखतें भयवन्त’’
किन्तु दुःख से डरने वाले प्राणी जब स्वयं दुःखोत्पादक सामग्री एकत्रित करने में लगे हों तो भला उन्हें सुख की प्राप्ति कौन करा सकता है ? कोई नहीं। आज हम प्रत्यक्ष में देखते हैं कि सिगरेट के पैकेट पर संवैधानिक चेतावनी लिखी होती है—‘‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’’ किन्तु सिगरेट के शौकीन व्यक्ति उस डिब्बी को फाड़कर फेंक देते हैं और धुँआ छोड़ते हुए अपना शौक पूरा करते हैं। इसी प्रकार से पान मसाला के पैकेट, शराब के पाउच आदि पर भी भारत सरकार द्वारा चेतावनीपूर्ण शब्द लिखे जाने पर भी जिव्हालोलुपी जन उसकी कोई परवाह न कर उन वस्तुओं का अहर्निश सेवन करने में लगे हैं। इससे स्पष्ट है कि व्यसन में फंसा मानव सामने आने वाले दुःखों को भी सुख मानकर उसमें पँâसा रहता है।
मदिरापान के व्यसनी न धर्म का साधन कर सकते हैं और न अर्थ का, वे अत्यन्त निर्लज्ज होकर केवल काम का सेवन ही अपना मुख्य कार्य समझते हैं। उन्हें माता और पत्नी का भी विवेक नहीं रहता है। शराबीजन मार्ग में बेहोश होकर गिर जाते हैं तथा कुत्ता उनके मुँह में पेशाब भी कर देता है किन्तु उन्हें कुछ भान नहीं रहता है। अधिक शराब पीने से कभी-कभी दुर्घटनाएँ भी घट जाती हैं जो निम्न पौराणिक कथानक से स्पष्ट हैं—
द्वारिकापुरी में राजकुमारों ने वनक्रीड़ा को जाते हुए अत्यधिक प्यास से पीड़ित होने पर पहाड़ की कन्दराओं में सड़ रही शराब को पानी समझ कर पी लिया। जिससे उन्मत्त होकर वे नाचते-गाते हुए नगर की ओर आ रहे थे कि मार्ग में द्वीपायन मुनि को देखकर उनके ऊपर पत्थरों और खोटे, अश्लील, भण्ड वचनों की वर्षा करने लगे। इससे उन तपस्वी मुनिराज को क्रोध आ गया अतः उनके बाएं कन्धे से तेजस पुतला निकल पड़ा और समस्त द्वारिका नगरी भस्म हो गई। सभी यादव उसमें जलकर मर गए।
देखो ! मात्र एक शराब के व्यसन से इतना बड़ा अग्निकांड हो गया। ऐसे न जाने कितने कांड प्रतिदिन दुनिया में घटित हो रहे हैं, कितने घर-परिवार इस व्यसन से बर्बाद हो रहे हैं किन्तु पीने वालों का ध्यान कभी इस ओर नहीं जाता।
बहुत लोगों का विचार है कि शराब पीने से बल प्राप्त होता है और भोजन पच जाता है किन्तु यह ाfवचार युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जितने मद्यपायी हैं उनको मदिरापान करने के पश्चात् कुछ समय के लिए अंगों में पुष्टता मालूम होती है और शरीर में कुछ बल भी महसूस होता है परन्तु वह आन्तरिक और असली नहीं होता इसलिए उनका बल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार क्रोध के आवेश के समय मनुष्य में एक प्रकार की शक्ति आ जाती है और वह उस अवस्था में कुछ विशेष बल का काम कर लेता है पर नशा या क्रोध हट जाने पर कुछ नहीं रहता, वरन् उस समय असली बल भी कम हो जाता है। उसी प्रकार मद्यपान द्वारा प्राप्त बल की दशा भी है। जिस समय शराब का नशा उतर जाता है उस समय वे अपने मुंह से ही अपनी खराब दशा बताते हैं कि मेरा शरीर टूट रहा है, बिना शराब के मुझसे कोई काम नहीं हो सकता है और वह उस समय बिल्कुल निकम्मा होकर बैठ जाता है।
मद्यपान से मूर्च्छा, कम्पन, भय, क्रोध, काम, अभिमान, नेत्रों में रक्त वर्ण हो जाने आदि के सिवाय अनेक रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं तथा यह व्यसन मानसिक एवं आत्मिक उन्नति में अत्यन्त बाधक होता है। कहा भी है—
यावन्न मद्यमांसादि जनस्तावदलोलुपः।
भुक्ते तस्मिन्तन्मनाः स्यात् क्व जपः क्व च देवता।।
अर्थात् जब तक पुरुष मांस और शराब को नहीं ग्रहण करता है तब तक उसका मन चंचल नहीं होता किन्तु जब वह इनका सेवन कर लेता है तब मन तो चंचल हो ही जाता है, फिर देवता का ध्यान और जप उससे कहाँ बन सकता है ? अर्थात् नहीं बन सकता। अतएव जो मनुष्य अपने को धार्मिकोन्नति के पथ पर लगाकर मोखसुख के प्राप्त होने की कामना रखता है उसे मद्य—मांसादि के परिहारपूर्वक अिंहसा धर्म का प्रतिपादन करने वाले जिनधर्म को स्वीकार कर आत्मकल्याण करना चाहिये।
इंग्लैण्ड के भूतपूर्व प्रधानमंत्री उत्द्ेूदहा ने शराब के बारे में कहा है—‘‘युद्ध, अकाल और प्लेग की तीनों इकट्ठी महा-आपत्तियाँ भी इतनी बाधा नहीं पहुँचा सकतीं, जितनी अकेली शराब पहँुचाती है।’’
इसी प्रकार से प्रâांस के र्Eेज्ीूे ने अपनी खोज के आधार पर विचार व्यक्त किए हैं—
‘‘शराब पीने से बीबी-बच्चों तक से प्रेमभाव नष्ट हो जाते हैं, मनुष्य अपने कर्तव्य को भूल जाता है, चोरी-डवैâती आदि की आदत पड़ जाती है। देश का कानून भंग करने में भी उन्हें कोई डर नहीं लगता। इसके अतिरिक्त शराब पीने वालों को पेट, जिगर, तपेदिक आदि अनेक बीमारियाँ लग जाती हैं जिनसे जीवन भर छुटकारा नहीं मिल पाता।’’
जैन सिद्धान्त के अनुसार शराब की एक बूँद में असंख्य जीव पाए जाते हैं और उसको पीने से मनुष्य हेयोपादेय के विवेक से शून्य हो जाता है जिससे उसके दोनों लोक भ्रष्ट हो जाते हैं अर्थात् इस लोक में अविश्वास का, निन्दा का पात्र बनता है एवं परलोक में नरकादि दुर्गति को प्राप्त होता है।
शराब से होने वाली बुराइयों के विषय में एक लघु कथानक यहाँ प्रस्तुत है—
एकचक्र नाम के नगर में विष्णु के चरण कमलों की सेवा करने के लिए भ्रमर के समान रत वेद—वेदांग का पारगामी ‘‘एकपाद’’ नाम का सन्यासी रहता था। एक दिन उस सन्यासी के मन में सम्पूर्ण पापों को नाश करने वाली गंगा में स्नान करने की इच्छा उत्पन्न हुई इसलिए वह गंगा स्नान करने के लिए अपने नगर से बाहर निकला। मार्ग में एक भयानक गहन अटवी पड़ी, उसी अटवी में भीलों का एक बड़ा भारी झुण्ड यौनमद के साथ शराब पीकर मस्त हुई विलासिनी तरुणियों के साथ माँस और सुरा का सेवन कर रहा था। वह सन्यासी उस झुण्ड में जा पँâसा, तब शराब के नशे में मस्त हुए भीलों ने उसे पकड़ लिया और उससे बोले—
‘‘तुझे मद्य, माँस और स्त्री में से किसी एक का सेवन करना होगा, नहीं तो तू जीते जी गंगा का दर्शन नहीं कर सकता।’’
यह सुनकर सन्यासी सोचने लगा कि स्मृतियों में एक तिल या सरसों बराबर भी माँस खाने पर बड़ी-बड़ी विपत्तियों का आना सुना जाता है। भीलनी के साथ सम्बन्ध करने पर प्रायश्चित लेना पड़ता है, जो मृत्यु का घर है किन्तु समस्त यज्ञों के सिरमौर सौत्रामणि नाम के यज्ञ में शराब पीने की अनुमति है और लिखा है कि जो इस विधि से मदिरापान करता है उसका मदिरापान करना पाप नहीं है तथा पीढ़ी, जल, गुड, धतूरा आदि जिन वस्तुओं से शराब बनती है वे भी शुद्ध ही होती हैं। इस सब बातों का चिरकाल तक मन में विचार कर उसने शराब पी लिया, उसके पीते ही मन चंचल हो उठा। नशे में मस्त होकर उसने अपनी लंगोटी खोल डाली और मदोन्मत्त भीलनियों के साथ तालियाँ बजा-बजाकर कूदने लगा। उस समय उसकी दशा ऐसी हो गई मानो उसके शरीर में कोई भूत घुस गया है। उसने अनेक विकृत चेष्टाएं की और फिर भूख से पीड़ित होकर माँस भी खा लिया, जिससे उसे असह्य कामोद्रेक उठा और उसने भीलनियों के साथ रति क्रिया की।
देखो ! एकपाद सन्यासी ने ‘‘सौत्रामणि नामक यज्ञ में मदिरापान को दोष नहीं बतलाया’’ ऐसा समझकर मदिरापान किया जिससे दुर्गति को प्राप्त हुआ। एक व्यसन के कारण उसमें अन्य दो व्यसन स्वयमेव आ गये अतः अपने को दुर्गति से बचाने की इच्छा रखने वाले प्राणियों को शराब का दूर से ही त्याग कर देना चाहिये।
लोक में प्रायः देखा जाता है कि अंग्रेजी या देशी शराब पीने वाले लोग किसी न किसी रूप में उसका समर्थन ही करते हैं और धर्मगुरुओं के पास जाने में उन्हें इस्ाीलिए डर लगा करता है।
एक घ्हेग् Aेग्a नामक पुस्तक के पृ. नं. ४८५ पर व्दप्ह उल्हूप्ी ने लिखा है कि खोजा मुसलमानों के धर्मगुरु आगा खान शराब पीकर कहा करते थे—
`Ah, he replied, you forget that wine turns to water as soon as it touches my mouth.’
अर्थात् वे अपने समर्थन में कहते थे—‘‘आह ! तुम भूल जाते हो, जिस समय शराब मेरे कण्ठ में आती है तो वह जल रूप में परिवर्तित हो जाती है।’’
किन्तु व्यसन तो व्यसन ही है। उसे सेवन करने वाले महापुरुष भी पतित की कोटि में गिने गए हैं इसीलिए जैनधर्म संयम के क्षेत्र में युक्ति और सद्विचार समर्थित कथन ही करता है। वह औषधि के रूप में भी शराब पीने की अनुमति नहीं प्रदान करता है। होम्योपैथिक की अधिकांश दवाइयों में अल्कोहल की प्रधानता होने से वे अशुद्ध कहलाती हैं तथा उनमें हिंसाजन्य वस्तुएं होने से वे मांसाहार की कोटि में भी आती हैं।
मनुष्यों के जीवन में सर्वप्रथम मद्य-माँस-मधु इन तीन मकारों के त्याग की प्रेरणा प्रदान की गई है जिसके बल पर ही जीवन में सदाचार का प्रवेश होता है। आज भौतिकता की चकाचौंध में मानव भले ही इन सूत्रों का मूल्यांकन करना भूल गया है फिर भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में उसे मानसिक शान्ति तो दुष्प्रवृत्ति के त्याग से ही प्राप्त होती है। अमेरिका की सेना के प्रमुख अधिकारी जनरल ब्राडले ने कहा था—‘‘हमारे यहाँ वैज्ञानिक तो बहुत हो गये हैं किन्तु धार्मिक लोगों की बहुत कमी हो गई है। हमने अणु के रहस्य को तो जान लिया है किन्तु आत्मा के रहस्य को नहीं जाना है। हम शान्ति की अपेक्षा युद्ध की बातें अधिक करते हैं। जीवन के स्थान पर प्राणहरण की विद्या में हम अधिक निपुण हो गये हैंं।’’
तात्पर्य यह है कि पश्चिम देश का मानव भी यह अनुभव कर रहा है कि हम निज अस्तित्व को खोकर व्यसनी बन गए हैं इसीलिए सुख शान्ति हमसे दूर हो गई है, उसे प्राप्त करने हेतु जिनवाणी का स्वाध्याय एवं गुरुओं का सत्संग अत्यन्त आवश्यक है। पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के संघ विहार से सैकड़ों— हजारों आदिवासी मदिरापान का त्याग कर सदाचारी जीवन बिताने का संकल्प ले चुके हैं। इसी प्रकार से अन्य साधु संघों के समागम से जन-जन तक अिंहसावाणी पहँुचती है जो भारतदेश की प्राचीन संस्कृति का सर्वोत्तम उदाहरण है।
उपर्युक्त अनेक उदाहरणों के माध्यम से हमारी बाल और युवा पीढ़ी को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि कभी बुरी संगति के कारण, मित्रों की जबर्दस्ती से अथवा आधुनिक पार्टी आदि में जाने पर भी व्हिस्की, इंग्लिश वाइन, देशी शराब आदि का सेवन न करें ताकि धन हानि, स्वास्थ्य हानि, पारिवारिक कलह, भ्रष्टाचार आदि से दूर रहकर संयमित, सात्विक जीवन व्यतीत कर धर्मरक्षा में तत्पर हो सकें। इसी के द्वारा परिवार, समाज एवं देश का उत्थान संभव है।
वेश्यासेवन चरित्र हनन है !
चतुर्थ व्यसन ‘‘वेश्या सेवन’’ है, यह परभव से पूर्व इसी जन्म में नरक का द्वार दिखा देता है। स्त्री जाति का सबसे बड़ा अभिशाप वेश्यावृत्ति है, ऐसी कुल्टा स्त्रियों को ही विष की बेल कहा गया है। उन्हें गणिका, लज्जिका, विलासिनी, वेश्या आदि नामों से संबोधित किया गया है।
जिन ग्राम-नगर और शहर की गलियों में वेश्यालय (कोठा) होते हैं वहाँ गाँव के प्रतिष्ठित पुरुष समाज का आवागमन भी निन्दा का कारण बनता है। नारी की परतन्त्रता, उसके अबलापने का दुरुपयोग करके आज भी अनेक स्थानों पर, होटलों में ये कोठे धन्धे के रूप में चलाए जा रहे हैं, जो कि अवैधानिक होते हुए रिश्वतखोरी के बल पर धड़ल्ले से चल रहे हैं। नारियों को सरकारी स्तर पर अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु सबल कार्यवाही करनी चाहिये क्योंकि वर्तमान में ग्रामपंचायत, नगरपालिका, कलेक्टे्रट, शासन और प्रशासन आदि प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं को सरकार समान रूप से अधिकार प्रदान कर रही है अतः पढ़ी—लिखी महिलाओं को इस ओर सक्रिय कदम उठाकर अपने नगर-शहरों के वेश्यालय बन्द कराना चाहिये।
अंगीकार करती हैं और अपने कौमार्य को, सामाजिक प्रतिष्ठा एवं लज्जा को तथा अपने अमूल्य शीलव्रत को पैसे के कारण नीच-भोगी-दरिन्दों के हाथ बेच देती हैं ऐसी स्त्रियाँ तो असंख्य भवों में नरक-निगोदों के दुःख भोगती हैं, इनका सेवन करने वाले पुरुष भी निंद्य बन जाते हैं। जो पुरुष एक बार भी इनके जाल में फंस जाता है उसका निकलना अत्यन्त दुर्लभ हो जाता है।
इस विषय में एक कवि ने कहा भी है—
दर्शनात् हरते चित्तं, स्पर्शात् हरते बलम्।
भोगात् हरते वीर्यं, वेश्या साक्षात् राक्षसी।।
अर्थात् इनको देखने मात्र से चित्त का हरण होता है (मन उन पर मोहित हो जाता है), इनके स्पर्श से बल का हरण होता है (पुरुष निर्बल होकर उसी के वश में हो जाता है) और इनके साथ कामसेवन करने से वीर्य का हरण होता है अतएव वेश्या साक्षात् राक्षसी है क्योंकि यह अपने आधीन हुए पुरुषों का सम्पूर्ण धन चूस कर उन्हें मृत्यु तक की स्थिति में पहुँचा देती है।
ये अपवित्रता की भूमि और विष की बेल हैं। जैसा कि कहा भी है—
दृष्टि विषा यह नागिनी, देखत विष चढ़ जाय।
जीवत काढ़े प्राण को, मरे नरक ले जाय।।
हीन दीन में लीन हैं, लेती अंग मिलाय।
लेती सरवस सम्पदा, देती रोग लगाय।।
इनका अज्ञात अवस्था में भी सेवन करने वाले ‘‘चारुदत्त सेठ’’ का कथानक पुराणों में बहुत प्रसिद्ध है इसे पढ़कर इस व्यसन को दूर से तजकर शीलव्रत का आश्रय प्राप्त करना चाहिये।
जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र की चम्पानगरी का यह कथानक है। वहाँ के राजा विमलवाहन थे, उनके राज्य में ‘‘भानुदत्त’’ नाम का एक सेठ अपनी पत्नी ‘‘देविला’’ के साथ धर्मध्यानपूर्वक निवास करता था। बहुत दिनों तक प्रतीक्षा के पश्चात् उन श्रेष्ठी के यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया—‘‘चारुदत्त’’। भानुदत्त ने पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में बहुत उत्सव किया, दान दिया और अपने को धन्य समझा। पुत्र अपने समय के अनुसार बड़ा होने लगा और बाललीलाओं से माता-पिता को हर्षित करने लगा।
चारुदत्त की बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी तथा गुरु की कृपा से ७-८ वर्ष की अवस्था में ही इसने अच्छी विद्वत्ता प्राप्त कर ली। युवावस्था प्राप्त होते-होते इसमें शास्त्र, अध्ययन का अपूर्व व्यसन लग गया अतः वह रात दिन पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त रहने लगा तदनन्तर उसकी बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न होकर चम्पानगरी के दूसरे सेठ ‘‘सिद्धार्थ’’ ने अपनी पुत्री ‘‘मित्रावती’’ का विवाह चारुदत्त के साथ कर दिया। यद्यपि चारुदत्त ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर लिया फिर भी वह पत्नी के प्रति आसक्त न होकर पढ़ने-लिखने में ही सारा समय व्यतीत करने लगा किन्तु मित्रावती ने कभी अपनी माता या सासू से इस विषय में कुछ नहीं कहा, न उसने अपने पति को कभी उलाहना दिया। वह तो पतिव्रता-सहनशील नारी थी अतः पति के अध्ययन में बाधक बनना अपना धर्म न समझा।
एक दिन वह अपने पीहर आई हुई थी तब माता ने उसकी वेशभूषा देखकर पुत्री से प्रश्न किया कि ‘‘बेटी! क्या तेरा पति तुझसे नाराज रहता है ? क्योंकि तेरी कल की वेशभूषा में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा है।’’ यह सुनकर बेटी कहने लगी—
माता! ऐसी कोई बात नहीं है किन्तु आपके जमाई जी पढ़ने में इतने व्यस्त रहते हैं कि मेरा उनसे समागम नहीं होने पाता है। खैर ! मुझे इस बात की कोई चिन्ता नहीं है, धीरे-धीरे उनमें परिवर्तन होगा तब दाम्पत्य जीवन सुखी बन जाएगा।
पुत्री के वचन सुनकर माँ को बड़ा क्रोध आया, वह उसी क्षण चारुदत्त के घर जाकर उसकी माता पर बरस पड़ी और बेटी पर बीत रही सम्पूर्ण स्थिति से उन्हें अवगत कराते हुये कहने लगी—तुम्हें अपने इस बेटे का विवाह ही नहीं करना चाहिये था। जो पत्नी को भी कुछ समय नहीं दे सकता उसे तो वैरागी बनकर साधुओं के पास रहना चाहिये। मेरी बेटी के साथ ऐसा खिलवाड़ क्यों कर रहा है ?
चारुदत्त की माँ ने उसे तो किसी तरह समझा—बुझाकर वापस कर दिया पुनः चिन्तित होकर अपने देवर ‘‘रुद्रदत्त’’ से कुछ प्रयत्न करने को कहने लगी। रुद्रदत्त ने भाभी को आश्वासन देकर चारुदत्त को विषयासक्त करने हेतु एक षडयंत्र रचा। उसने चम्पानगरी में रहने वाली ‘‘बसन्ततिलका’’ नामक वेश्या को कुछ समझा बुझाकर एक दिन भतीजे चारुदत्त को नगर की शोभा दिखाने के बहाने घर से प्रस्थान किया और उसी वेश्या वाली गली में आकर दोनों रुके ही थे कि पूर्व नियोजित छल के अनुसार महावत ने दो हाथियों को आपस में लड़ा दिया अतः मार्ग अवरुद्ध हो जाने से चाचा रुद्रदत्त उसे पकड़कर वेश्या के घर में ऊपर ले आया और बोला कि जब तक हाथियों की लड़ाई शान्त न हो जाए, तब तक यहीं ठहरो।
चारुदत्त वहाँ मन्दिर जैसी शोभा देखकर चकित सा रह गया। वेश्या ने उनका खूब आदर-सत्कार किया और समय व्यतीत करने के छल से वह रुद्रदत्त के साथ चौपड़ खेलने बैठ गई। खेल में बार-बार रुद्रदत्त को हारते देखकर चारुदत्त भी खेलने लगा। यह देखकर बसन्ततिलका कहने लगी कि हे सेठ पुत्र! मैं तुम्हारी उम्र वाली अपनी पुत्री ‘‘बसन्तसेना’’ को तुम्हारे साथ चौपड़ खेलने भेज रही हूँ। मैं वृद्धा तुम्हारे साथ खेल खेलती शोभा नहीं देती हूँ। उसने बात-बात में बेटी को भेज दिया। खेलते-खेलते जब चारुदत्त को प्यास लगी तब बसन्तसेना जल में ‘‘मोहिनी’’ चूर्ण मिलाकर ले आई और चारुदत्त कामाग्नि से जलने लगा। उसने चाचा रुद्रदत्त को घर भेज दिया और बसन्तसेना के साथ विषयसुख का उपभोग करने लगा वहाँ उसे इतना आनन्द आने लगा कि घर से धन मंगा-मंगा कर वेश्या को समर्पित करने लगा और माता-पिता द्वारा बुलवाने पर भी किसी तरह घर जाने को तैयार नहीं हुआ। पिता की मृत्यु के समाचार आदि के बहाने से भी जब पुत्र घर न आया तब सभी लोग बड़े चिन्तित हुए।
अन्ततोगत्वा चारुदत्त के पिता भानुदत्त ने संसार की स्थिति का चिन्तन कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। अब चारुदत्त की बुरी दशा होने लगी। जब घर से पैसा आना बन्द हो गया तब उसने घर भी गिरवी रख दिया, उसकी माँ और पत्नी एक झोपड़ी में रहने लगीं किन्तु ज्यों ही बसन्ततिलका वेश्या को ज्ञात हुआ कि चारुदत्त का धन अब समाप्त हो गया है त्यों ही उसने अपनी पुत्री बसन्तसेना से कहा कि बेटी। अब तू चारुदत्त को छोड़ दे क्योंकि वह दरिद्र हो चुका है। वेश्याओं का यही कर्तव्य है कि वे पैसे से पे्रम करें न कि किसी पुरुष विशेष से। पुत्री के न मानने पर उसने कहा कि अभी तू नादान बच्ची है लेकिन तुझे अपनी वेश्या परम्परा से मैंने परिचित करा दिया है, अब तू स्वयं सोचकर कर्तव्य पालन कर।
बसन्तसेना की चारुदत्त के प्रति तीव्र आसक्ति देखकर उसकाr माँ बसन्ततिलका ने एक दिन अवसर पाकर दोनों के भोजन में कुछ नशीली वस्तु मिलाकर खिला दिया अतः भोजन करने के बाद दोनों गहरी निद्रा में सो गये। पुनः बसन्ततिलका ने चारुदत्त को एक कपड़े में बाँधकर विष्टागृह (पाखाने) में डाल दिया। कुछ देर बाद वहाँ एक शूकर आ गया, वह चारुदत्त को चाटने लगा। चारुदत्त नशे में चूर हुआ कहने लगा—प्यारी बसन्तसेना! मुझे इस समय बहुत नींद आ रही है, अभी जरा मुझे सोने दो।
वह बार-बार यही कह रहा था कि इतने में ही नगर का कोतवाल अपने नौकरों सहित इधर आ निकला। उसने पाखाने से आती इस आवाज को सुनकर चारुदत्त को वहाँ से निकलवाया और पूछा कि तू कौन है ? यहाँ इस पाखाने में वैâसे गिर पड़ा है ? अब तक चारुदत्त को कुछ होश आ गया था, अपनी यह दशा देखकर वह बड़ा शर्मिन्दा हुआ। कोतवाल ने उसे बहुत धिक्कारा तथा उसके व्यसन की घोर निन्दा की।
चारुदत्त वहाँ से निकलकर लज्जापूर्वक अपने घर चला गया किन्तु वहाँ भी अब दूसरों का साम्राज्य था अतः झोपड़ी में रहने वाली अपनी माँ और पत्नी के पास पहुँचकर उसने क्षमायाचना की। उसे वेश्यासेवन का कुफल प्राप्त हो चुका था अतः अब करनी पर पश्चात्ताप करते हुए सुचारू गृहस्थी के संचालन हेतु धन कमाने की भावना जागृत हुई। पुनः उसने परदेश जाकर खूब धन कमाया और वापस घर आकर जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति करते हुए जीवन का उत्थान किया।
भव्यात्माओं ! इतिहास प्रसिद्ध इस सत्य कथानक से आपको शिक्षा ग्रहण करनी है कि अज्ञात अवस्था में भी वेश्या के घर चले जाने मात्र से चारुदत्त की यह दुर्दशा हुई तब जो व्यक्ति जानबूझकर इन मायाचारिणी वेश्याओं के जाल में पँâसकर क्षणिक, इन्द्रिय सुखों को भोगते हुए धन, इज्जत आदि सभी कुछ न्योछावर करके भी संसार में निवास कर रहे हैं उनके लिए क्या कहा जाय ? अर्थात् वे नरकगति में अग्नि से तप्तायमान लोह पुत्तलिकाओं के साथ आलिंगन करने की तैयारी कर रहे हैं क्योंकि कर्म किसी प्राणी को दण्ड दिये बिना नहीं रहते, उन्हें तो उसका फल भोगना ही पड़ेगा।
धिक्कार है उन नारियों को, जो अपने कौमार्य एवं पातिव्रत्य धर्म को तिलांजलि देकर चांदी के चंद टुकड़ों पर शरीर को बेचती फिरती हैं। सीता, अंजना, द्रौपदी और चन्दनबाला जैसी सतियों के इस देश में वेश्यावृत्ति एक अभिशाप है। कोश में कहा है—
शुचि भूमिगतं तोयं, शुचिर्नारी पतिव्रता।
शुचिर्धर्मपरो राजा, ब्रह्मचारी सदा शुचिः।।
अर्थात् चार पवित्र वस्तुओं में पतिव्रता नारी को भी परम पवित्र माना गया है। देखो! सती सीता ने अपने शील धर्म के प्रभाव से अग्नि को जल बना दिया, चन्दनबाला के ब्रह्मचर्य के बल पर लोहे की बेड़ियाँ टूट गईं। इसके विपरीत द्रौपदी ने एक पर्याय में आर्यिका अवस्था में एक वेश्या के साथ पाँच यारों को देखकर क्षण भर के लिए उसके समान सुख को प्राप्त करने की कल्पना मात्र की थी पुनः गणिनी माता से प्रायश्चित्त लेने के बावजूद भी उस समय जो कर्मबन्ध हो गया उसका फल उसे द्रौपदी अवस्था में मिला जब एक अर्जुन का वरण करने पर भी लोगों ने उसका अपवाद पैâला दिया कि द्रौपदी पंचभर्तारी है। जबकि हरिवंश पुराण में कहा है कि द्रौपदी को पंचभर्तारी कहने वालों की जिह्वा के सौ-सौ टुकड़े हो जाना चाहिये क्योंकि वह सती पतिव्रता नारी थी।
सारांश यह है कि व्यसनों का त्याग कर जीवन में अणुव्रतों को धारण करना चाहिये और वेश्या का धन्धा करने वाली स्त्रियों को एवं वेश्यासेवन करने वाले पुरुषों को नरक के दुःखों से डरकर अपनी-अपनी पर्याय का मूल्यांकन करना चाहिये। एक कवि ने कहा भी है—
सच तो इस नारी की शक्ती नर ने पहचान न पाई है,
मन्दिर में मीरा है तो वह रण में भी लक्ष्मीबाई है।
है ज्ञानक्षेत्र में ज्ञानमती, नारी की कला निराली है,
सच पूछो नारी के कारण, यह धरती गौरवशाली है।।
पांचवां व्यसन
(शिकार खेलना प्रकृति के प्रति अपराध है)
अपनी रसना इन्द्रिय की लोलुपता से तथा अपने शौक पूरे करने के लिये अथवा कौतुकवश जंगल के निरपराधी, मूक प्राणियों को मारना शिकार कहलाता है। प्राचीनकाल से ही इस धरती पर शिकारी राजा आदि होते आए हैं जो अत्यन्त निष्ठुर बनकर पशु, पक्षियों को मारकर अपनी वीरता का प्रदर्शन करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं किन्तु उनका वह सुख मात्र सुखाभास है एवं भविष्य में दारुण दुःख का कारण है।
जो पशु-पक्षी जंगलों में रहकर पर्यावरण की रक्षा करते हैं, कृषि आदि कार्यों में मनुष्यों को सहयोग प्रदान करते हैं तथा पेड़—पौधों पर ही जिनका जीवन आधारित होता है, मनुष्यों से उन्हें किसी प्रकार की अपेक्षाएं नहीं होतीं, फिर भी निर्दयी मानव अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु उनका शिकार करता है और अपने नरक का द्वार खोलता है। वीरों का कर्तव्य है कि निस्सहाय, गरीब, अनाथ जीवों की कष्ट से रक्षा करें, वहीं सच्चा बलवान क्षत्रिय है। जो बलवान होकर इस िंनद्य दुष्कृत्य में अपने बल का प्रयोग करता है वह वीर नहीं किन्तु धर्महीन अविवेकी है। ऐसे प्राणी शिकार व्यसन के द्वारा इस लोक में िंनद्य और दुःखी तो होते ही हैं तथा परलोक में कुगति को प्राप्त होते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र महाग्रन्थ में आचार्य श्री उमास्वामी ने एक सूत्र कहा है—‘‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’’ अर्थात् प्रत्येक प्राणी परस्पर में एक दूसरे का उपकार करता है, इसी से संसार-मोक्ष की व्यवस्था चलती है। यद्यपि यह सूत्र मनुष्यों को जीव और पुद्गल का पारस्परिक उपकार बताने के लिए कहा गया है तथापि इसका पालन मानव कर नहीं पाता है। एकेन्द्रिय पेड़-पौधे तथा गाय-भैंस आदि तिर्यंच प्राणी तो मनुष्यों के ऊपर न जाने कितने अनुग्रह करते देखे जाते हैं किन्तु मनुष्य उनके प्रति अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करता है।
एक पौराणिक कथानक के अनुसार ब्रह्मदत्त नामक राजा ने शिकार व्यसन में प्रसिद्धि प्राप्त की और मरकर नरक में गया। उसकी कथा यहाँ प्रसंगानुसार दी जा रही है—
किसी समय जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की उज्जयिनी नगरी में ब्रह्मदत्त राजा राज्य करता था। उसे शिकार खेलने में बड़ी रुचि थी तथा धर्मसेवन में उसकी तीव्र अरुचि थी क्योंकि िंहसा का धर्म के साथ क्या सम्बन्ध ? वह प्रतिदिन शिकार खेलने जाया करता था जब उसे शिकार मिल जाता तो बहुत प्रसन्न होता और जब नहीं मिलता तो अत्यधिक दुःखी होता। इस प्रकार राज्य करते-करते बहुत दिन व्यतीत हो गए।
एक दिन की बात है कि जिस वन में वह शिकार के लिए गया उसी वन में एक मुनिराज के दर्शन हो गए। मुनिराज एक पाषाण की शिला पर ध्यानारूढ़ थे, उनके प्रभाव से उस दिन राजा ब्रह्मदत्त को कोई शिकार नहीं मिला। यह देखकर राजा बड़ा क्रोधित हुआ, उसने मुनि से बदला लेने की ठान ली। संयोगवश एक दिन जब वे महामुनि आहार के लिए शहर में गए थे उस समय ब्रह्मदत्त ने जंगल में जाकर उनके ध्यान करने की शिला को अग्नि की तरह गरम करवा दिया। मुनिराज आहार करने के पश्चात् आकर उसी शिला पर निःशंक होकर बैठ गए। बैठते ही मुनिराज का शरीर जलने लगा, असह्य वेदना होने लगी परन्तु मुनिराज निश्चल रूप से वह उपसर्ग सहन करते रहे। अन्त में बारह भावना का चिन्तन करते-करते शुक्ल ध्यानरूपी अग्नि से कर्म का नाश कर वे अन्तकृत केवली बन गए और अक्षय अविनश्वर मोक्षसुख को प्राप्त कर लिया।
इधर सात दिन भी नहीं बीत पाये थे कि पापकर्म के तीव्र उदय से ब्रह्मदत्त राजा के सारे शरीर में कुष्ट रोग उत्पन्न हो गया जिसके कारण उसे मनुष्य पर्याय में ही नरक के दुःख भोगना पड़ा। जब वह इस असह्य वेदना को सहन नहीं कर सका तब व्याकुलता के कारण जलती अग्नि में कूद कर अपने प्राण गंवा दिए , पुनः आर्त्तध्यान से मरकर नरक में चला गया। वहाँ तेंतीस सागर तक भीषण दुःख भोगकर तिर्यंचगति में चला गया, पुनः जन्म मरण करता हुआ नरक में चला गया।
देखो! एक शिकार व्यसन के कारण उस ब्रह्मदत्त राजा ने बेकसूर मुनिराज के ऊपर उपसर्ग किया और भव-भव में भयंकर कष्ट भोगे। शिकारी व्यक्ति की बुद्धि अत्यन्त क्रूर हो जाती है, उनके हृदय में निरन्तर छल, छिद्र और विश्वासघात रूप पाप वासनाएं जागृत रहती हैं। अपनी मौज—मस्ती के लिए मानव निरीह पशुओं का शिकार करके अपनी अमानवीयता का परिचय देता है। कवियों ने कहा भी है—
यदि भला किसा का कर न सको, तो बुरा किसी का मत करना।
अमृत न पिलाने को घर में, तो जहर पिलाने से डरना।।
इन पंक्तियों को ध्यान में रखते हुए प्राणी मात्र के प्रति मैत्री और करुणा की भावना रखनी चाहिये तथा इस निर्दयी व्यसन को अति निंद्य, दुर्गति एवं दुःखों का पात्र जानकर उसे सर्वथा त्याग करना चाहिये।
छठा व्यसन
(चोरी करना गरीबी को आमंत्रण देता है)
बिना दिये किसी की वस्तु लेने को चोरी कहते हैं। चोरी को ही अपनी आजीविका का साधन बना लेना चोरी व्यसन है। जिस मनुष्य को इस िंनदनीय कर्म को करने की आदत पड़ जाती है वह धन संपत्तियुक्त होते हुए भी तीव्र लोभ अथवा अन्य व्यसनों में पँâसकर इसे महान् कष्ट—आपदा का कारण जानते हुए भी चोरी करता है। जैसे—राजपुत्र होकर भी ललितांग ने चोरों के सरदार बनकर अंजन चोर की प्रसिद्धि प्राप्त कर ली।
चोर से संसारीजन भी भयभीत रहते हैं एवं चोर स्वयं राजदंड आदि के भय से व्याकुल रहता है। उसे कोई अपने पास बैठने भी नहीं देता है क्योंकि यदि वह चोरी नहीं भी करे तो भी दूसरे जन उसके प्रति सदैव शंकित ही रहते हैं। कभी-कभी यह आदत बच्चों में बचपन से ही पड़ जाती है पुनः आगे चलकर वह आदत व्यसन का रूप धारण कर परिवार की बदनामी का कारण बन जाती है अतः शालीन माता-पिताओं को अपने बच्चों के प्रति सदा सजग रहना चाहिए कि यदि वे स्कूल से दूसरे बच्चों की छोटी-छोटी चीजें भी चुरा कर ले आते हैं तो उन्हें समझाकर, चोरी के अवगुण बतलाकर उससे ही वस्तु वापस करावें ताकि भविष्य में पुनः बालक को चोरी करने की हिम्मत न पड़े एवं वह अपने दोस्तों को भी चोरी न करने की शिक्षा देगा।
कुछ लोगों की ऐसी धारण बन जाती है कि चोरी करके हम धनाढ्य सेठ बन जाएंगे किन्तु प्रायः देखा जाता है कि चोरी करने वाला धनिक नहीं बन पाता है क्योंकि जो माल वह दूसरों का दिल दुखाकर हड़प कर जाता है वह बीमारी आदि किसी न किसी माध्यम से शीघ्र समाप्त हो जाता है और वह दरिद्री का दरिद्री ही बना रहता है। ईमानदारी अथवा परिश्रम से कमाया हुआ अल्प धन भी शरीर एवं मन को पुष्ट करता है तथा चोरी से लाया धन कभी भी आत्मशान्ति प्रदान नहीं कराता, प्रत्युत पारिवारिक कलह का ही कारण बनता है।
एक पौराणिक सत्य कथानक है कि एक बार बनारस नगरी में शिवभूति नामक राजपुरोहित ने अपने सत्यवादित्व का ढिंढोरा पीटकर अपना नाम ‘‘सत्यघोष’’ प्रसिद्ध कर दिया था। उसके चंगुल में पँâसकर धनपाल श्रेष्ठी ने अपने चार कीमती रत्न उसके पास रख दिये और विदेश में धन कमाने चला गया। वहाँ से कई वर्षों बाद वापस आने पर उसका सारा माल रास्ते में जहाज फट जाने से डूब गया, किसी तरह अपनी जान बचाकर वापस अपने नगर आकर उसने जब पुरोहित से अपने रत्न मांगे तो उसने साफ मना कर दिया कि मेरे पास तो तुम्हारे कोई रत्न नहीं हैं, तुम मुझे झूठमूठ चोर बनाना चाह रहे हो।
वह बेचारा धनपाल जब बहुत दुःखी हुआ तब एक दिन महारानी ने युक्ति से उसके रत्नों का पता लगा दिया कि वे रत्न तो सत्यघोष के पास ही हैं। उन्हें उसके घर से मंगाकर राजा ने धनपाल को वापस दिये एवं सत्यघोष को कठोर दंड देकर देश से निकाल दिया। देखो ! चोरी कितनी बुरी आदत है, इस एक व्यसन से मनुष्य के अनेक गुण भी मिट्टी में मिल जाते हैं, धन का नाश हो जाता है, कुल भी कलंकित होता है तथा परलोक में नरक आदि दुःख भोगने पड़ते हैं।
इसीलिए तीर्थंकरों ने अिंहसा, सत्य, अचौर्य आदि सिद्धान्तों को श्रावकों-गृहस्थों के लिए भी अणुव्रत रूप में पालन करने का विधान बताया है किन्तु आज वे सिद्धान्त शास्त्रों एवं मंदिरों तक ही सीमित रह गए हैं तथा मनुष्य दोहरी जिन्दगी जीने का शौकीन हो गया है। वह मंदिर के सिद्धान्तों को मंदिर में तो पुकार-पुकार कर भगवान को सुनाता है और मंडी में जाकर वहाँ झूठ और चोरी का आश्रय लेकर अपनी पेटी भरने में लग जाता है। लोग कहते हैं कि पापी पेट के लिए मनुष्यों को न जाने कितने पाप कमाने पड़ते हैं किन्तु मुझे यह कथन नितान्त असत्य प्रतीत होता है क्योंकि पेट भरने के लिए व्यक्ति को कभी पाप करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, हाँ! पेटी भरने के लिए संसार में सभी पाप हो रहे हैं। नीतिकारों ने एक सूक्ति कही है कि पिछले जन्म के पुण्य कर्म के कारण यदि इस भव में खूब धन सम्पत्ति भी मिली है तो उसे दान एवं परोपकार में लगाने वाले व्यक्ति का धन सार्थक समझना चाहिए।
लोग अपने परिवारजनों के पोषण हेतु झूठ-चोरी आदि पापों का सहारा लेते हैं किन्तु उन्हें यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि कर्म करने वाले को उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है, गृह-कुटुम्ब के लोग कभी उसमें सहभागी नहीं बन सकते हैं।
प्रिय बन्धुओ ! कर्म सिद्धान्त अटल है अतः उसके रहस्य को समझकर चोरी व्यसन का पूर्णरूप से त्याग करके अपने परिश्रम के द्वारा धन कमाना चाहिए । चोरी का धन कभी स्थाई नहीं रहता है और न ही शारीरिक-आत्मिक पुष्टता को प्रदान करता है इसलिए व्यसन तजकर निर्व्यसनी बनना चाहिए एवं अचौर्याणुव्रत का पालन करना चाहिए।
सातवां व्यसन
(‘‘परस्त्री सेवन नरक का द्वार है’’)
धर्मानुकूल अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय दूसरी स्त्रियों के साथ रमण करना—व्यभिचार करना ‘‘परस्त्री सेवन’’ नाम का व्यसन है। परस्त्री की अभिलाषा मात्र से ही पाप लगता है, तो फिर उसके सेवन करने से तो महापाप का ही बन्ध होता है। इस व्यसन में ‘‘रावण’’ का नाम पौराणिक प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुका है कि वह परस्त्री की अभिलाषा मात्र से नरक में चला गया और आज भी वहाँ भीषण दुःखों को भोग रहा है।
रावण के पापाचार का विस्तार आप लोगों ने विभिन्न रामायणों के माध्यम से देखा और सुना है, उसका अत्यन्त संक्षिप्त रूपक यहाँ जैन रामायण के आधार से दिया जा रहा है—
एक समय श्री रामचन्द्र जी, सीता और लक्ष्मण के साथ दण्डक वन में ठहरे हुए थे। वहाँ पर खरदूषण के युद्ध में रावण गया था तब उसने सीता को देखा, उसके रूप पर मुग्ध होकर युक्ति से उसने सीता सती का अपहरण कर लिया। सभी के समझाने पर भी जब रावण नहीं माना तब रामचन्द्र ने लक्ष्मण को साथ में लेकर अनेकों विद्याधरों की सहायता से रावण के साथ युद्ध ठान लिया पुनः दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ।
अन्त में रावण ने अपने चक्ररत्न को लक्ष्मण पर चला दिया किन्तु चक्र लक्ष्मण को मार न सका प्रत्युत लक्ष्मण की तीन प्रदक्षिणा देकर उनके हाथ में आ गया। लक्ष्मण ने उस समय भी रावण से कहा कि तुम सीताजी को वापस कर दो किन्तु रावण नहीं माना तब लक्ष्मण ने चक्ररत्न से रावण का मस्तक काट डाला, जिससे वह मरकर नरक में चला गया एवं रावण का नाम भी सदा के लिए बदनाम हो गया।
पाँच अणुव्रतों में ब्रह्मचर्य अणुव्रत का पालन करने वाले महानुभाव तो इस व्यसन के त्यागी होते ही हैं तब वे गृहस्थ में रहकर भी मुक्तिपथ के पथिक बने रहते हैं। देखो! सेठ सुदर्शन को परस्त्री सेवन का त्याग था अतः उसके ऊपर रानी द्वारा उपसर्ग किये जाने पर शूली भी उनके शील के प्रभाव से िंसहासन रूप में परिवर्तित हो गई थी।
परस्त्री सेवन करने वाले पुरुषों को इहलोक-परलोक की निन्दा का किंचित् भय नहीं रह जाता है तथा इस व्यसन में पँâसकर अपने माता-पिता, भाई-बन्धु एवं कुल की इज्जत का भी भान नहीं रहता है जैसा कि त्रिखंडाधिपती रावण का कथानक बतलाता है कि माता केकसी और पिता रत्नश्रवा का रोम-रोम, अस्थि-मज्जा सभी जिनधर्म से ओतप्रोत थे फिर भी उनकी कुक्षि से नरकगामी पुत्र ने जन्म लेकर कुल को भी अपमानित कर दिया।
इस पापाचार से होने वाली हानियों का विचार कर बुद्धिमानों को इसका शुद्ध हृदय से परित्याग कर देना चाहिए। जो परस्त्री संसर्ग का त्याग कर देते हैं वे संसार में निर्भय हो जाते हैं, उनकी उज्ज्वल कीर्तिपताका सब दिशाओं में विस्तृत हो जाती है।
भगवान् पार्श्वनाथ का चरित्र पढ़ने से भी ज्ञात होता है कि उनके ऊपर उपसर्ग करने वाला कमठ का जीव भी इसी व्यसन के कारण पतित हुआ था। उसका भी लघु कथानक यहाँ प्रस्तुत है—
पोदनपुर के राजा अरविन्द के कमठ और मरुभूति नामक दो मन्त्री थे। ये दोनों सगे भाई होकर भी विष और अमृत से बने हुए के समान थे। एक बार राज्यकार्य से मरुभूति बाहर गया था उस समय कमठ ने मरुभूति की पत्नी के साथ व्यभिचार किया। राजा अरविन्द ने इस बात को जानकर कमठ को दण्डित करके देश से निकाल दिया। वह कमठ अपमान से दुःखी होकर एक तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की शिला उठाकर कुतप करने लगा।
कुछ दिन बात मरुभूति जब वापस घर आया और भाई का दुष्चरित्र समाचार सुना तब वह भाई को मनाकर घर लाने हेतु भ्रातृ प्रेमवश उसके पास पहुँचा। उसे देखते ही क्रोधावेश में आकर कमठ ने वह पत्थर की शिला मरुभूति के सिर पर पटक दी। मरुभूति का जीव आर्तध्यान से मरकर हाथी हो गया। एक दिन अरविन्द महाराज दिगम्बर मुनिराज के रूप में अपने संघ सहित विहार करते हुए उस जंगल में पहँुचे, जहाँ हाथी उपद्रव करता हुआ भाग रहा था, हाथी ने जब अरविन्द महाराज को देखा तब उसे पूर्व भव का जातिस्मरण हो गया। उसने परम शान्तिपूर्वक मुनिराज के उपदेश से सम्यग्दर्शन एवं अणुव्रत ग्रहण कर लिया। उधर कमठ का जीव मरकर सर्प पर्याय में चला गया।
एक दिन वह हाथी जंगल के सूखे प्रासुक पत्ते खाकर नदी में पानी पीने गया, वहाँ कीचड़ में पँâस गया। उसी समय कमठ के जीव सर्प ने उसे डस लिया और हाथी मन में महामन्त्र का स्मरण करते हुए मरकर देव हो गया तथा सर्प मरकर नरक में गया।
देव का जीव वहाँ से आकर रश्मिवेग राजा हुआ, वहाँ वह वैराग्यभाव से दीक्षा धारण कर मुनि बन गया और तपश्चरण करके स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से आकर मरुभूति का देव पर्यायी जीव वङ्कानाभि चक्रवर्ती हुआ, वहाँ भी मुनिदीक्षा लेकर घोर तपस्या की, तब कमठ के नारकी जीव ने भील पर्याय में आकर मुनिराज पर पूर्वभव के वैर के कारण घोर उपसर्ग किया। पुनः चक्रवर्ती मुनिराज ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हो गये और वहाँ से निकलकर आनन्द नाम के मंडलेश्वर राजा हुए, उन्होंने उस राजवैभव का सदुपयोग कर सूर्य विमान बनवाकर उसमें अनेकों जिनप्रतिमाएँ विराजमान कीं। चतुर्मुख, सर्वतोभद्र, कल्पवृक्ष नाम वाली अनेक महामह पूजाएँ आनन्द महाराज के द्वारा सम्पन्न हुईं, पुनः दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं का चिन्तन करके उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया तथा अन्त में मरकर सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र हो गये।
इसके पश्चात् कमठ का जीव ही भवान्तर में मनुष्य पर्याय में जन्मा एवं जब मरुभूति का जीव इन्द्र पर्याय से च्युत होकर तीर्थंकर पार्श्वनाथ बना तब वह उनके नाना के रूप में मिथ्या तापसी बनकर एक बार पंचाग्नि तप कर रहा था और पार्श्वनाथ के सम्बोधन से उसने अपने समक्ष जलती लकड़ी को चीरकर मरणासन्न नागयुगल को देखा तब तापसी पूर्व भवों के वैर संस्कार के कारण पार्श्वनाथ से और भी अधिक द्वेष करने लगा, जिसके कारण मरकर वह शंवर नाम का ज्योतिषी देव हो गया।
बालब्रह्मचारी तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली तब शंवर देव उधर से निकला और क्रोध के संस्कार से प्रभु पर महाभयंकर उपसर्ग करने लगा किन्तु पार्श्वनाथ उससे रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए और उनकी तपोशक्ति से धरणेन्द्र-पद्मावती जो पूर्व भव की सर्प पर्याय से णमोकार मन्त्र सुनते हुए मरकर देव-देवी हुए थे, उन्होंने प्रगट होकर पार्श्वनाथ का उपसर्ग दूर किया। भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई पुनः उन्होंने समस्त कर्मों को नष्ट करके सम्मेदशिखर पर्वत से निर्वाण धाम प्राप्त कर लिया।
उपर्युक्त कथानक का मूल देखने पर ज्ञात होता है कि कमठ ने परस्त्री सेवन करके अपना भव-भवान्तर बिगाड़ा तथा व्यर्थ में ही मरुभूति के जीव को तीर्थकर बनने तक कष्ट देता रहा। इस एक व्यसन ने उसकी आत्मा को इतना विकृत कर दिया कि वह भाई के निश्छल प्रेम को भी नहीं पहचान सका और वैर संस्कार बनाकर जन्म-जन्मान्तर में दुःख भोगता रहा।
आज भी प्रतिदिन अखबारों में अनेक बलात्कार के किस्से पढ़ने को मिलते हैं जो हमारी भारतीय संस्कृति के विरुद्ध हैं। यहाँ अपनी विवाहिता धर्मपत्नी के अतिरिक्त सभी महिलाओं को माता और बहन के रूप में देखने की बात महापुरुषों ने बताई है उसी सिद्धान्त पर सभी को अमल करना चाहिए ।
इस प्रकार क्रम-क्रम से आपने सातों व्यसन से होने वाली हानियों पर दृष्टिपात किया है। इसके द्वारा देशवासियों को व्यसन मुक्ति की प्रेरणा प्राप्त हो यही मंगल भावना है।
देव शास्त्र गुरु तीन रत्न, इस जग में पूज्य कहे जाते,
इनके वंदन से मानव जीवन ज्योतिर्मय हो जाते।
हे माता! तव ज्ञानसरोवर में मैं अवगाहन कर लूँ,
अपने अन्तर्मन से मैं, अज्ञान तिमिर का क्षय कर लूँ।।१।।
है कमजोर और कोमल काया पर दृढ़ता अद्भुत है,
धर्मजाति पर बलि-बलि जाऊँ, भाव सदा ये निर्मल हैं।
धन्य हो गया मेरा जीवन, तुम जैसी गुरु माँ पाया,
जब तक मोक्ष नहीं मिलता, चाहूँ मैं बस तेरी छाया।।२।।
गुणरूपी आभूषण से हो, सदा सुसज्जित, तुम माता,
श्वेत साटिकाधारी तुम, लगती हो जिनवाणी माता।
दिव्य वचन अमृत का झरना, जब भी मुख से बहता है,
भवि प्राणी को नूतन दिशि दे, आत्मरमण वह करता है।।३।।
धन्य हो गई धरा मात, जहाँ तुम सम पुण्यात्मा जन्मीं,
धन्य हुए वे मात-पिता, जिनकी गोदी में तुम खेलीं।
धन्य अवध का कण-कण माता, तुम जैसे गुरु को पाया,
धन्य हो गया मेरा जीवन, ऐसे गुरुवर की छाया।।४।।
गुरु ने निज सांचे में ढाला, जैनधर्म रत तुम्हें किया,
रोम-रोम में धर्मसंस्कृति का भी बीजारोपण था।
धरती माता सम उर में, करुणा का अनुपम स्रोत बहे,
जिनसंस्कृति की हे अनुपम निधि, तुम चरणों में नित्य नमें।।५।।
अरे, जग जा रे चेतन! नींद से,
तुझे सतगुरु आये जगावन को।।टेक.।।
काल अनादी से इस जग में-२
भ्रमण करे तू चारों गति में-२।
अरे, मोह नींद को दूर भगा,
तुझे सतगुरु आये जगावन को।।१।।
मानुष तन दुर्लभ है जग में-२,
सदुपयोग इसका तू कर ले-२।
अरे, विषय कषाय को त्याग दे,
तुझे सतगुरु आये जगावन को।।२।।
पर का कुछ उपकार भी कर ले-२,
सज्जन का सत्कार भी कर ले-२।
अरे, कर ले आतम ध्यान भी,
तुझे सतगुरु आये जगावन को।।३।।
सात व्यसन का त्याग तू कर दे-२,
पाँच पाप भी मन से तज दे-२।
अरे, धर्म में कर अनुराग रे,
तुझे सतगुरु आये जगावन को।।४।।
कहे ‘‘चन्दनामती’’ सभी से-२,
कर लो मैत्री भाव सभी से-२।
अरे, भज ले प्रभु का नाम रे,
तुझे सतगुरु आये जगावन को।।५।।