-कर्मयोगी डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन
मानसिक और शारीरिक दुःख निवारणार्थ जिनवचन रूपी सुधा का पान करना अत्यावश्यक है क्योंकि मानसिक और शारीरिक दुःख-दावानल में संतप्त प्राणियों के लिए एक धर्म ही शांतिदायक है “धर्म आहिंसा पर आधारित है ” वैराग्य सम्पन्न संसारके भोगों मे अनासक्त अहिंसक मानव ही आदर का पात्र है । इसमें कोई संशय नहीं है । संसार असार है यह भी एकांगी कथन है जिन्हें संसार में रहते हुए संसार विसर्जन की भावना सदैव रहती है जो संसार से मुक्ति की चाह और राह ग्रहण करते हैं उनके लिए संसार भी सारभूत हो जाता है क्योंकि वे मनुष्य शरीर रूपी साधन से आत्महित रूपी लक्ष्य को प्राप्त करते हैं । संसार में विषय-वासना रूपी विपरीत एवं कण्टकाकीर्ण पथ में ले जाने वाले मनरूपी घोड़े को वश में करने के लिए श्रुत ज्ञान रूपी लगाम लगाने वाला पुरुष ही सन्मार्ग पर आ सकता है । वह देव की शरण में आता है, वह शास की शरण में आता है, वह गुरु की शरण में आता है, वह केवली प्रणीत धर्म की शरण में आता है । इन चार की शरण में आ जाने से उसके चिर संचित पाप अंजुली के छिद्र में से बूंद-बूंद कर रिसते जल की तरह धीरे-धीरे रिसने पर भी कालान्तर में समाप्त हो जाते हैं । दर्शनपाठ में हम पढ़ते हैं कि-
दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधूनां वन्दनेन च। न चिरं विद्यते पाप छिद्रहस्ते यथोदकन् । ।
धर्मात्माओं ने संसार से मुक्ति हेतु शास्त्रानुसार चलने की प्रेरणा दी । शास मौन प्रवचन करते हैं क्योंकि वे शब्द और अर्थरूप है । गुरु शास्त्रों में विद्यमान तात्त्विक रहस्यों का उद्घाटन हैं क्योंकि वे सच्चे अर्थों में रहस्योद्घाटक हैं । उनकी भावना होती है कि
सर्वेषु जीवेषु दयां कुरु त्वं, सत्यं वचो ब्रूहि धन परेषाम् ।
अब्रह्म सेवा त्यज सर्वकालं, परिग्रहं मुञ्चकुयोनि बीजन् । ।
अर्थात् तुम सभी जीवों पर दया करो, सत्य वचन बोलो, दूसरों के धन को तथा कुशील सेवन को सदा के लिए छोड़ो । नरकादि गतियों के कारणभूत परिग्रह को छोड़ो । अपना परमात्मा अपनी ही आत्मा में है उसे खोजने अन्यत्र नहीं जाना है; हाँ प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ अवश्य करना है-
मैं कहीं हूँ वह कहीं है, यह गुमां था मुझको ।
मैं जहाँ था, वह वहीं था, मुझे मालूम न था ”। ।
जो परदुःखकातर होता है वही सज्जन कहलाता है ।
परिणामों में सरलता, निस्पृहता से आत्मसत्य को जाना जा सकता है ।
हमें धर्म की शरण में जाने की आवश्यकता है क्योंकि-
जिसकी आँखों में करुणा है, मुख पर है मुस्कान।’
जिसके उर में कोमलता है प्राणों में बलिदान । ।
धर्म प्रेम विश्वास दया है और साधना त्याग।
वही सका है जान सत्य को वही सकेगा जान । ।
सहज भाषा और सहज मनुष्य के विषय में श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि- ‘ ‘सीधी लकीर खींचना टेढ़ा काम है । सहज भाषा पाने के लिए कठोर तप आवश्यक है । जब तक आदमी सहज नहीं होता तब तक भाषा का सहज होना असम्भव है । ४९९४ हर आदमी क्या बोलता है या क्या नहीं बोलता है इस बात से सहज भाषा का अर्थ स्थिर नहीं किया जा सकता । क्या कहने या क्या न कहने से मनुष्य उस उच्चतर आदर्श तक पहुँच सकेगा, जिसे संक्षेप में ‘मनुष्यता कहा जाता है’; यही मुख्य बात है । सहज मनुष्य ही सहज भाषा बोल सकता है । दाता महान होने से दान भी महान होता है । ” आज समाज में दानियों की कमी नहीं है किन्तु दान बिना मान के दो तभी सार्थक है । आज समाज को संकीर्णता के वातावरण से ऊपर प्रकाश की आवश्यकता है ।
किसी कवि ने ठीक ही कहा है-
”अँधेरे में कब तक भटकते रहोगे, दिये तो जलाओ बहुत हो चुका ।
हुई खिड़कियों पर उजाले की दस्तक, ये पर्दे उठाओ बहुत हो चुका ‘। ।
हमे आज तक वह सूत्र ही नहीं मिला जो हमें परमार्थ सिद्धि करा दे । उस ‘सूत्र’ के विषय में आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने कहा हे कि-
अरहंतभासियत्थं गणहरदेवेहि गंथिय सम्मं ।
सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहंति परमर्श । ।
जिसका अर्थ अरहन्त भगवान के द्वारा प्रतिपादित है; गणधर देवों ने जिसका अच्छी तरह गुझन किया है तथा शास्त्र के अर्थ का खोजना ही जिसका प्रयोजन है; उसे सूत्र कहते हैं । ऐसे सूत्र के द्वारा श्रमण (सम्यग्दृष्टि दिगम्बर मुनि) अपने परमार्थ को साधते हैं ।
जीवन में अहिंसा-
अहिंसा हमारी आस्था, विश्वास, निष्ठा एवं श्रद्धा का विषय है । एक आचार्य ने कहा है कि-
यं लोका अससूरन्नमन्ति ददते यस्मै विनणखर्लि ।
मार्गस्तीर्थकृतां स विश्वजगतां धर्मोऽस्लहिंसाभिध: । ।
नित्य चामरधारणमिव बुधायस्वैक पार्थ महान् ।
स्याद्वाद: परतो बभूवतु स्थानैकान्तकल्पडुम: । ।
अर्थात् जिसे संसार निरन्तर नमस्कार करता है, विनम्र अझलि प्रदान करता है, वह तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट सम्पूर्ण संसार का मान्य धर्म अहिंसा है । इस अहिंसा धर्म के एक पार्श्व में स्याद्वाद और दूसरे पार्श्व में अनेकान्त रूप कल्पदुम स्थित है, मानो किसी सम्राट् के दोनों ओर दो चामरधारी स्थित हों । नीति भी कहती है कि-
प्राणा यथात्मनो भीष्टाः भूतानामाक् ते तथा ।
आत्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्तु साधव: । ।
अर्थात् जिस प्रकार हमें हमारे प्राण अभीष्ट (प्रिय) हैं, उसीप्रकार दूसरे प्राणियों को भी अपने प्राण अभीष्ट हैं अतएव सत्युरुषों का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने ही समान सभी जीवों पर दया करें । -किसी कवि ने ठीक ही कहा हैं- बनाने की सोचिए बिगाड़ने की नहीं, बसाने की सोचिए उजाड़ने की नहीं । नया नक्याा बनाना है दुनिया का अगर, जोड़ने की सोचिए तोड़ने वरी नहीं । । – जैनागम में हिंसा और अहिंसा का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है-
अप्रादुर्भाव: खलु रागादीनां भवत्यहिसेति।
तेषामेवोत्पत्ति हिसेतिजिनागमस्य संक्षेप: । ।
आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है । यही जिनागम का सार है । किसी को दुःख देने का विचार मात्र भी हिंसा की कोटि में आता है-
महावीर स्वामी की वाणी, प्राणी मात्र को है कल्याणी ।
दुःख देने का किया विचार, हिंसा में हो गया शुमार । ।
हिंसा में कभी धर्म नहीं हो सकता । जसहरचरिउ (2, 17, 19 – 2०) में लिखा है कि- पसुणासइँ जइ हिंसइँ परम धम्मु उप्पज्जइ। तो बहुगुणि मेल्लि विमुणि पारद्धि उ पणविज्जइ । । अर्थात् यदि पशु वध रूपी हिंसा से परम धर्म की उत्पत्ति हो सकती है तो गुणसमुद्र साधु को छोड्कर पारधी (शिकारी) को प्रणाम क्यों न किया जाय?
जिन पूजा– जिन पूजा के विषय में आचार्य कहते हैं कि-
यो नित्य न विलोक्यते जिनपति: न स्मर्यते नार्च्चते ।
ना स्तूयते ना दीयते मुनिजने दानं च भक्ला परम् । ।
सामर्थ सति तद् गृहाश्रमपद पाषाणनावासयन् तत्रस्या भवसागरेटुति विषमे मज्जन्ति नश्यन्ति च । । अर्थात् जो नित्य भगवान् जिनेन्द्रदेव के दर्शन नहीं करता है, उनके गुणों का स्मरण नहीं करता है, उनकी अर्चना (पूजा) नहीं करता है, स्तुति नहीं करता है तथा भक्ति भाव से जो मुनिजनों को दान नहीं देता है; ऐसे व्यक्तियों का गृहस्थाश्रम पद सामर्थ्य होते हुए भी पत्थर की नौका के समान है । निश्चित रूप से ऐसे लोग अत्यन्त विषय संसार रूपी सागर में डूबते हैं और नष्ट हो जाते हैं ।
आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि-
अव्याबाधमचिज्यसारमतुल त्योक्तोपत्रमं शाश्वतं ।
सीर्ख्य त्वच्चरणारविंदयुगलस्तुल्यैव सम्प्राप्यते । ।
हे जिनेन्द्र! आपके चरणयुगल की स्तुति से ही अव्याबाध, अर्चित्वसार, पूर्ण अतुलनीय, उपमातीत तथा अविनाशी सुख की उपलब्धि होती है ।
गृहस्थों के षट् कर्मों में देवपूजा को प्रथम स्थान पर रखा है- ???
देवपूजा गुरुपास्ति स्वाध्याय संयमस्तघः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने-दिने । ।
देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान; ये छह कर्म गृहस्थों को प्रतिदिन करना चाहिए । -पूजा पीठिका में पढ़ते भी हैं- द्रव्टास्टा श्पुद्धिमाइD दाथानरूप भावस्वा शुद्धिमाइD ?? : आलम्बनानि विविधान्यवलम्बवलार भूतार्थ चलपुरुषस्स करोमि यलए । । -वृहत्वतुष्टयी ‘जयोदय’ महाकाव्य (2775) में लिखा है कि-
भावनमिय तु सदावनाय ना किन्तुभोग विनियोग भून्मना: ।
आचरेत् सदिह देशना कृता श्रीमता प्रथम धर्मता मता । ।
अर्थात् भावना की पवित्रता सदा कल्याण के लिए कही है फिर भी भोगाधीन मन वाले गृहस्थ को चाहिए कि वह कम से कम सदाचार का अवश्य ध्यान रखे । देशना करने वाले भगवान् सर्वज्ञ ने सदाचार को ही प्रथम धर्म बताया है ।
किसी कवि ने लिखा है कि-
महावीर ने काँटों को भी नरमाई से छुआ ।
लोग बेदर्द हैं कि फूलों को भी मसल देते हैं। ।
अहिंसा के लिए मैत्री भाव आवश्यक है । पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने ‘मेरी भावना’ में लिखा है कि-
मैत्रीभाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे ।
दीन दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे। ।
दुर्जन कूर कुमार्ग रतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे साम्यभाव रर्क्य मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे । ।
आज तो स्थिति यह है कि- इन्सानियत की रोशनी, गुम हो गयी कहाँ? साये हैं आदमी के, मगर आदमी कहाँ? जैनाचार्य कहते है कि-
स्वयं कृत कर्म यदात्मना पुरा, फल तदीयं लभते शुभाशुभ ।
परेण दत्त यदि लभ्यते स्कुट, स्वयं कृत कर्म निरर्थकं तदा। ।
अर्थात् जीव के स्वयं किये गये कर्म जैसे उसके अपने हैं वैसे ही उसे शुभ और अशुभ फल मिलते हैं । यदि दूसरे के किये गये कर्मों का फल हमें प्राप्त होने लगे तो स्वयं के कर्म निरर्थक हो जायेंगे । जयोदय महाकाव्य (2769) में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने लिखा है कि-
बोधवृत्त सुवय: समन्वयेध्वाश्रयन्ति गुरुता जनाक्ष ये ।
तार प्रमाणयतु ना यथोचित लोकबर्त्मनिसमाश्रयर हितम् ।
अर्थात् जो लोग ज्ञान, चारित्र, आयु और कुल परम्परा में बड़े हों, उन लोगों का भी लौकिक मार्ग में हित चाहने वाला पुरुष यथायोग्य रीति से आदर करता रहे । संसार की दशा बड़ी विचित्र हैं-
चार दिन की चाँदनी, फिर अँधेरी रात है।
सारे ठिकाने जायेंगे, रहने की झूठी बात है। ।
किसी ने कहा कि- ” जिन्दगी है चार दिन की ” तो एक बुद्धिमान ने विचलित हुए बिना कहा कि- ” बहुत होते हैं चार दिन भी । ”
रहीम ने कहा है- बड़े बड़ाई न करें, बड़े न बोले बोल ।
रहिमन हीरा कब कहे, लाख टका मेरा मोल । ।
कहा भी है-
ज्यों फूलों में बास, काष्ठ में अग्नि समानी ।
खोदे बिना नहीं मिले, रहे धरती में पानी । ।
आज जिन्दगी के मायने बदल रहे हैं स्वार्थ की पूर्ति में लगा हुआ मनुष्य अन्धाधुन्ध श्रम कर रहा है । इस श्रम का बत्रडा कारण विलासिता है या विलासिता के साधनों की चाह है । वह प्रकृतिप्रदत्त रोशनी को परदों से ढककर विद्युत प्रकाश में जीना पसन्द करने लगा है । टीवी. ने आँखों की नींद, अनिद्रा क्कैग्न भूख ईचु?रा ली ए, । ऐसी स्थिति में कौन सुखी और सफल रह जैन धर्म किसका है, जो माने सो उसका है । नदी पहले उद्गम पर छोटी होती है, बाद में विशालता धारण करती है । उपादान की मुख्यता लेकर लिखा गया अध्यात्म __ है तथा कारण क?ईा मुख्यतहा ले।कर लिखा