कुछ लोग सगाई—विवाह आदि आयोजनों में सजावट, खान—पान एवं तड़क—भड़क पर लाखों रूपये पानी की भांति बहाकर पूरे समाज को अन्य समाज के लोगों की नजर में घृणा का पात्र बनाते हैं। क्या यह उचित है ? धार्मिक जुलूस, बारात आदि में औरतें गहनों से लदकर निकलती हैं। सोने—चांदी के रथ निकाले जाते हैं। क्या यह सब दिखावा करना आवश्यक है ? इससे भी दूसरे लोगों के मन में ईष्र्या पैदा होती है जो पूरे समाज के लिए घातक है। झूठे दिखावे, आडम्बर, अपव्यय एवं शान—ओ—शौकत के कारण ही समाज गर्त की ओर जा रहा है । इसी कारण लोग हमें हेय दृष्टि से देखते हैं। घृणा करते हैं। किसी प्रकार का अपव्यय न करके धन को बचाकर गरीबों के लिए ऐसे स्कूल, औषधालय, कुएं, धर्मशालाएं आदि का निर्माण करावें जो नि:शुल्क हों या नाममात्र का शुल्क हो। इससे समाज की कीर्ति पताका पुन: फहरा सकती है तथा पूर्वजों के नाम एवं यश की सौरभगाथा चारों ओर फैलाई जा सकती है। सादगीपूर्ण आयोजन करने से कोई नीचा नहीं हो जाता। नीचा तो नीयत खराब करने , दूसरे को नीचा दिखाने की भावना रखने तथा झूठी शान दिखाने से होता है। हमारे पूर्वज समाज के कमजोर व्यक्ति को सहारा देकर उठाने की प्रवृत्ति रखते थे। एक दूसरे के सुख दु:ख में काम आते थे। इससे उनकी कीर्ति फैलती थी। लोग आदर करते थे। आजकल बिल्कुल उल्टा हो रहा है । समाज के प्रबुद्ध ही नहीं, सभी लोगों को चिंतन करना है।