जिस प्रकार गृद्धपिच्छाचार्य संस्कृत के प्रथम सूत्रकार हैं, उसी प्रकार जैन वाङ्मय में स्वामी समन्तभद्र प्रथम संस्कृत कवि और प्रथम स्तुतिकार हैं। ये कवि होने के साथ-साथ प्रकाण्ड दार्शनिक और गम्भीर चिंतक भी हैं। स्तोत्रकाव्य का सूत्रपात आचार्य समंतभद्र से ही होता है। इनकी स्तुतिरूप दार्शनिक रचनाओं पर अकलंक और विद्यानन्द जैसे उद्भट आचार्यों ने टीका और विवृत्तियाँ लिखकर मौलिक ग्रन्थ रचयिता का यश प्राप्त किया है। वीतरागी तीर्थंकर की स्तुतियों में दार्शनिक मान्यताओं का समावेश करना असाधारण प्रतिभा का द्योतक है।
आदिपुराण में आचार्य जिनसेन इन्हें कवियों के विधाता कहते हैं और उन्हें गमक आदि चार विशेषणों से विशिष्ट बतलाते हैं। यथा-
नम: समंतभद्राय महते कविवेधसे, यद्वचोवज्रपातेन निर्भिन्ना: कुमताद्रय:।।४३।।
कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि। यश: सामन्तभद्रीयं मूध्र्नि चूडामणीयते।।४४।।
मैं कवि समंतभद्र को नमस्कार करता हूँ जो कि कवियों के लिए ब्रह्मा हैं और जिनके वचनरूपी वज्रपात से मिथ्यामत रूपी पर्वत चूर-चूर हो जाते हैं। कविगण, गमकगण, वादीगण और वाग्मीगण-इन सभी के मस्तक पर श्री समंतभद्र स्वामी का यश चूड़ामणि के समान शोभित होता है।
स्वतन्त्र कविता करने वाले ‘‘कवि’’ कहलाते हैं, शिष्यों को मर्म तक पहुँचा देने वाले ‘‘गमक’’ शास्त्रार्थ करने वाले ‘‘वादी’’ और मनोहर व्याख्यान देने वाले ‘‘वाग्मी’’ कहलाते हैं।
श्री शुभचन्द्र आचार्य, श्री वर्धमान सूरि, श्री जिनसेनाचार्य और श्री वादीभसूरि आदि ने अपने-अपने ग्रन्थ ज्ञानार्णव, वरांगचरित, अलंंकार चिंतामणि और गद्यचिंतामणि आदि में श्री समंतभद्र स्वामी की सुन्दर-सुन्दर श्लोकों में स्तुति की है।
ये जैनधर्म और जैन सिद्धान्त के मर्मज्ञ विद्वान होने के साथ-साथ तर्वक़, व्याकरण, छन्द, अलंकार एवं काव्य, कोष आदि विषयों में पूर्णतया अधिकार रखते थे। सो ही इनके ग्रन्थों से स्पष्ट झलक जाता है। इन्होंने जैन विद्या के क्षेत्र में एक नया आलोक विकीर्ण किया है। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में तो इन्हें जिनशासन के प्रणेता और भद्रमूर्ति कहा गया है।
इनका जीवन परिचय, मुनिपद, गुरु शिष्य परम्परा, समय और इनके रचित ग्रन्थ इन पाँच बातों पर यहां संक्षेप में प्रकाश डाला जाएगा-
जीवन परिचय-इनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। इन्हें चोल राजवंश का राजकुमार अनुमानित किया जाता है। इनके पिता उरगपुर (उरैपुर) के क्षत्रिय राजा थे। यह स्थान कावेरी नदी के तट पर फणिमण्डल के अन्तर्गत अत्यन्त समृद्धिशाली माना गया है। श्रवणबेलगोला के दोरवली जिनदास शास्त्री के भण्डार में पाई जाने वाली आप्तमीमांसा की प्रति के अन्त में लिखा है-‘‘इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिप सूनो: श्री स्वामी समंतभद्रमुने: कृतौ आप्तमीमांसायाम्’’-इस प्रशस्तिवाक्य से स्पष्ट है कि समंतभद्र स्वामी का जन्म क्षत्रियवंश में हुआ था और उनका जन्मस्थान उरगपुर है।
इनका जन्म नाम शांतिवर्मा बताया जाता है। ‘‘स्तुतिविद्या’’ अपरनाम ‘‘जिनस्तुतिशतक’’ में ११६ वें पद्य में कवि और काव्य का नाम चित्रबद्धरूप में अंकित है। इस काव्य के छह आरे और नववलय वाली चित्र रचना पर से ‘‘शांतिवर्मकृतम्’’ और ‘‘जिनस्तुतिशतम्’’ ये दो पद निकलते हैं। सम्भव है यह नाम माता-पिता के द्वारा रखा गया हो और ‘‘समंतभद्र’’ मुनि अवस्था का हो।
मुनिदीक्षा और भस्मकव्याधि-मुनिदीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् जब वे मणुवकहल्ली स्थान में विचरण कर रहे थे कि उन्हें भस्मक व्याधि नामक भयानक रोग हो गया जिससे दिगम्बर मुनिचर्या का निर्वाह उन्हें अशक्य प्रतीत हुआ। तब उन्होंने गुरु से समाधिमरण धारण करने की इच्छा व्यक्त की। गुरु ने भावी होनहार शिष्य को आदेश देते हुए कहा-
‘‘आपसे धर्मप्रभावना की बड़ी-बड़ी आशायें हैं अत: आप दीक्षा छोड़कर रोग शमन का उपाय करें, रोग दूर होने पर पुन: मुनिदीक्षा ग्रहण करके स्व-पर कल्याण करें।’’ गुरु की आज्ञानुसार समंतभद्र रोगोपचार हेतु जिनमुद्रा छोड़कर सन्यासी बन गए और इधर-उधर विचरण करने लगे। एक समय वाराणसी में शिवकोटि राजा के शिवालय में जाकर राजा को आशीर्वाद दिया और ‘‘शिवजी को मैं खिला सकता हूँ’’ ऐसी घोषणा की। राजा की अनुमति प्राप्त कर समंतभद्र शिवालय के किवाड़ बंद कर उस नैवेद्य को स्वयं ही भक्षण कर रोग को शांत करने लगे। शनै:-शनै: उनकी व्याधि का उपशम होने लगा अत: भोग की सामग्री बचने लगी तब राजा को संदेह हो गया अत: गुप्तरूप से उसने इस रहस्य का पता लगा लिया। तब समंतभद्र से उन्होंने शिवजी को नमस्कार करने के लिए प्रेरित किया। समंतभद्र ने इसे उपसर्ग समझकर चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति प्रारम्भ की। जब वे चन्द्रप्रभ की स्तुति कर रहे थे कि शिव की पिंडी से भगवान चन्द्रप्रभ की प्रतिमा प्रकट हो गई। समंतभद्र के इस माहात्म्य को देखकर शिवकोटि राजा अपने भाई शिवायन सहित उनके शिष्य बन गए। यह कथानक ‘‘राजाबलिकाथे’’ में उपलब्ध है।
श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में लिखा है-
वंद्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटु: पद्मावतीदेवता-
दत्तोदात्तपदस्वमंत्रवचनव्याहूतचन्द्रप्रभ:।
आचार्यस्स समंतभद्र गणभृद्येनेह काले कलौ,
जैनं वत्र्म समंतभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहु:।।
अर्थात् जो अपने भस्मक रोग को भस्मसात् करने में चतुर हैं, पद्मावती नामक देवी की दिव्य शक्ति के द्वारा जिन्हें उदात्त पद की प्राप्ति होने से मंत्रवचनों द्वारा जिन्होंने चन्द्रप्रभ को प्रकट किया है और जिनके द्वारा यह कल्याणकारी जैनमार्ग इस कलिकाल में सब ओर से भद्ररूप हुआ है, वे गणनायक आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी बार-बार हम सभी के द्वारा वंद्य हैं।
आराधना कथाकोष में मूर्ति प्रकट होने के अनंतर ऐसा प्रकरण आया है कि चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रकट होने के इस चमत्कार को देखकर उनकी स्तोत्र रचना पूरी होने के बाद राजा शिवकोटि ने उनसे उनका परिचय पूछा। तब समन्तभद्र ने उत्तर देते हुए कहा-
कांच्याँ नग्नाटकोऽहं, मलमलिनतनुलम्बिशे पांडुपिण्ड:।
पुण्ड्रेण्डे शाक्यभिक्षुर्दशपुर नगरे, मिष्टभोजी परिव्राट्।
वाराणस्यामभूवं शशकरधवल: पाण्डुरांगस्तपस्वी।
राजन् यस्यास्ति शक्ति: स, वदतु पुरतो जैन निग्र्रन्थवादी।।
मैं कांची में नग्न दिगम्बर यति के रूप में रहा, शरीर में रोग होने पर पुण्ड्र नगरी में बौद्ध भिक्षु बनकर मैंने निवास किया। पश्चात् दशपुर नगर में मिष्ठान्न भोजी परिव्राजक बनकर रहा। अनंतर वाराणसी में आकर शैव तपस्वी बना। हे राजन्! मैं जैन निग्र्रन्थवादी हूँ। यहाँ जिसकी शक्ति वाद करने की हो, वह मेरे सम्मुख आकर वाद करे। पुनश्च-
पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे, भेरी मया ताडिता।
पश्चान्मालव सिन्धु ठक्क विषये, कांचीपुरे वैदिशे।
प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं।
वादार्थी विचराम्यहं नरपते, शार्दूलविक्रीडितम्।।
मैंने पहले पटना नगर में वाद की भेरी बजाईं, पुन: मालवा, सिन्धु देश, ढ-ढाका, बंगाल, कांचीपुर और वैदिश-विदिशा-भेलसा के आस-पास के प्रदेशों में भेरी बजाई। अब बड़े-बड़े वीरों से युक्त इस करहाटक नगर को प्राप्त हुआ हूँ। इस प्रकार हे राजन्! मैं वाद करने के लिए सिंह के समान इतस्तत: क्रीड़ा करता हुआ विचरण कर रहा हूँ।
राजा शिवकोटि समन्तभद्र के इस आख्यान को सुनकर भोगों से विरक्त हो दीक्षित हो गए, ऐसा वर्णन है।
गुरु शिष्य परम्परा-यद्यपि समन्तभद्र की गुरु शिष्य परम्परा के विषय में बहुत कुछ अनिर्णीत ही है। फिर भी इन्हें किन्हीं प्रशस्तियों में उमास्वामी के शिष्य बलाकपिच्छ का पट्टाचार्य माना है। श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में भी आया है-श्री गृद्धपिच्छमुनिपस्य बलाकपिच्छ:। शिष्यो जनिष्ट……………। एवं महाचार्य परम्परायां……………, समन्तभद्रो जनि वादिसिंह:।
अर्थात् भद्रबाहुश्रुतकेवली के शिष्य चन्द्रगुप्त, चंद्रगुप्त के वंशज पद्मनन्दि अपरनाम श्री कुन्दकुन्दाचार्य, उनके वंशज गृद्धपिच्छाचार्य, उनके शिष्य बलाकपिच्छ और उनके पट्टाचार्य श्री समन्तभद्र हुए हैं।
‘श्रुतमुनि-पट्टावली’ में कहा है-
तस्मादभूद्-योगिकुलप्रदीपो, बलाकपिच्छ: स तपोमहद्र्धि:।
यदंगसंस्पर्शनमात्रतोऽपि, वायुर्विषादीनमृतीचकार।।१३।।
समंतभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्तत: प्रणेता जिनशासनस्य।
यदीयवाग्वज्रकठोरपातश्चूर्णीचकार प्रतिवादिशैलान्।।१४।।
चन्नदायपट्टण ताल्लुके के अभिलेख नं. १४९ में इन्हें ऋद्धि मानी है और इन्हें वर्धमान जिन के शासन की सहस्रगुणी वृद्धि करने वाला कहा है।
समय निर्धारण-आचार्य समन्तभद्र के समय के संबंध में विद्वानों ने पर्याप्त ऊहापोह किया है। मि. लेविस राईस का अनुमान है कि ये आचार्य ई. की प्रथम या द्वितीय शताब्दी में हुए हैं। डॉ. ज्योतिप्रसाद जी आदि ने भी सन् १२० में राजकुमार के रूप में, सन् १३८ में मुनि पद में, सन् १८५ के लगभग स्वर्गस्थ हुए ऐसे ईस्वी सन् की द्वितीय शती को ही स्वीकार किया है अतएव संक्षेप में समंतभद्र का समय ईस्वी सन् द्वितीय शताब्दी ही प्रतीत होता है।
समंतभद्र की रचनायें-१. वृहत्स्वयंभूस्तोत्र, २. स्तुतिविद्या-जिनशतक ३. देवागमस्तोत्र-आप्तमीमांसा, ४. युक्त्यनुशासन, ५. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६. जीवसिद्धि, ७. तत्त्वानुशासन, ८. प्राकृतव्याकरण,९. प्रमाण पदार्थ, १०. कर्मप्राभृत टीका, ११. गन्धहस्ति महाभाष्य।
१. ‘‘स्वयंभुवा भूतहितेन भूतले’’ आदि रूप से स्वयंभूस्तोत्र, धर्मध्यानदीपक आदि पुस्तकों में प्रकाशित हो चुका है। यह सटीक भी छप चुका है।
२. ‘‘स्तुतिविद्या’’ इसमें भी चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है जो कि एक अक्षर, दो अक्षर आदि के श्लोकों में अथवा मुरजबंध, हारबंध आदि चित्रकाव्यरूप श्लोकों में एक अपूर्व ही रचना है।
३. इस देवागमस्तोत्र में सर्वज्ञदेव को तर्वक़ की कसौटी पर कसकर सच्चा आप्त सिद्ध किया गया है। तत्कालीन नैरात्म्यवाद, क्षणिकवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, पुरुष-प्रकृतिवाद आदि की समीक्षा करते हुए स्याद्वाद सिद्धान्त की प्रतिष्ठा जैसी इस ग्रन्थ में उपलब्ध है, वैसी सप्तभंगी की सुन्दर व्याख्या अन्यत्र जैन वाङ्मय में आपको कहीं नहीं मिलेगी। यह स्तोत्र ग्रन्थ केवल तत्त्वार्थसूत्र के ‘‘मोक्षमार्गस्य’’ मंगलाचरण को आधार करके बना है। इसी स्तोत्र पर अकलंक देव ने अष्टशती नाम का भाष्य ग्रंथ बनाया है और विद्यानन्द आचार्य ने अष्टसहस्री नाम का जैनदर्शन का सर्वोच्च ग्रन्थ निर्मित किया है।
४. युक्त्यनुशासन में भी परमत का खण्डन करते हुए आचार्यदेव ने वीर के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ घोषित किया है।
५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार में तो १५० श्लोकों में ही आचार्यदेव ने श्रावकों के सम्पूर्ण व्रतों का वर्णन कर दिया है। इसमें अतिथिसंविभाग व्रत के स्थान पर वैयावृत्य का सुन्दर स्वरूप बतलाकर इसी व्रत में देव पूजा को भी ले लिया है।
आगे की ७ रचनायें आज उपलब्ध नहीं हैं।
इस प्रकार से श्री समंतभद्राचार्य अपने समय में एक महान आचार्य हुए हैं। इनकी गौरवगाथा गाने के लिए हम और आप जैसे साधारण लोग समर्थ नहीं हो सकते हैं। कहीं-कहीं इन्हें भावी तीर्थंकर माना गया है।