समतारहित श्रमण का वनवास, कायक्लेश, विचित्र उपवास, अध्ययन और मौन व्यर्थ है। एक्कु करे मं विण्णिकरि, मं करि वण्ण विसेसु। इक्कइँ देवइं जे वसइ, तिहुयणु एहु असेसु।।
हे जीव ! तू जाति की अपेक्षा सभी जीवों को एक समान समझ। उनसे राग और द्वेष मत कर। त्रिलोकवर्ती सकल जीव—राशि शुद्धात्म स्वरूप होने के कारण समान है। ऋषभ जिनेसर प्रीतम माहरो, और न चाहू रे कंत। रीझ्यो साहब संग न परिहरे, मांगे सादि अनंत।।
आनन्दघन ने शुद्ध चेतना रूप समता नगरी को एक पतिव्रता आदर्श भारतीय नगरी के रूप में चित्रित किया है। समता नारी स्पष्ट शब्दों में कहती है कि एकमात्र ऋषभ जिनेश्वर ही मेरे प्रियतम हैं। मैं अन्य किसी को पति रूप में वरण नहीं करती। सन्नारी होने के नाते उसे आशा है कि जब प्रियतम प्रसन्न हो जाएंगे तो फिर वे कभी भी मेरा साथ नहीं छोड़ेंगे। एवं ससंकप्पविकप्पणासुं संजायई समयमुवट्ठियस्स। अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तण्हा।।
इन्द्रिय—विषयों की बजाय राग—द्वेष से परिपूर्ण अपने संकल्प-विकल्प ही सभी दोषों के मूल कारण हैं—इस प्रकार का संकल्प करने वाले को समता प्राप्त हुआ करती है। समता मिल जाने पर काम—गुणों में उसकी तृष्णा क्षीण हो जाया करती है। चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो।।
चारित्र ही वास्तव में धर्म है और जो धर्म है, वह समत्व है। मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का अपना शुद्ध परिणमन ही समत्व है। कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो, सकीयपरिणामो।
कर्मवृक्ष के मूल को काटने वाला आत्मा का अपना ही निजभाव (समत्व) है।