बहुगुणसम्पद्सकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम्।
नयभक्त्यवतंसकलं तवदेव मतं समन्तभद्रं सकलम्।।
उक्त कारिका में उन्होंने अपना नाम समन्तभद्र दिया है। स्तुतिविद्या ग्रंथ के ११६वें काव्य से एक अर्थ निकलता है ‘‘समन्तवर्म कृतं’’। व्याख्याकार इसका अर्थ शान्ति वर्मान्त का लिखा मानते हैं परन्तु अन्य किसी मुनिराज के नाम में वर्मान्त शब्द का प्रयोग न होने से ऐसा विचार किया जाता है कि यह उनके गृहस्थावस्था का नाम हो सकता है और इस तथ्य की पृष्टि इस बात से होती है कि मदम्ब, गंग और पल्लव आदि वंशों में उत्पन्न अनेक क्षत्रिय राजाओं का नाम वर्मान्त पाया जाता है। इस प्रकार वे चोल राजवंश के राजपुत्र थे, क्षत्रिय थे, दक्षिण के फणि मंडल अंतर्गत उरगपुर के राजा थे जो कावेरी के तट पर बसा हुआ बन्दरगाह था एवं उस समय विशाल जनपद था। (आप्तमीमांसा की ताड़ प्रति के आधार से)। सारस्वताचार्यो में सर्वप्रमुख आचार्य समन्तभद्र स्वामी थे। इनकी समकक्षता श्रुतधराचार्यो से भी की जा सकती है। जिस प्रकार आचार्य उमास्वामी संस्कृत के प्रथम सूत्रकार हैं, उसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र प्रथम संस्कृत कवि और प्रथम स्तुतिकार हैं। मणुवकहल्ली स्थान में उन्हें कर्मोदय से भस्मक व्याधि हो गयी थी, जिसका निराकरण काशी में हुआ था। वाराणसी में आचार्य समन्तभद्र की स्तुति से पिण्डी फट जाने पर भगवान चन्द्रप्रभु की चतुर्मुखी प्रतिमा प्रकट होने पर जब राजा शिवकोटि ने उनका परिचय पूछा तो उन्होंने कहा—
आचार्योऽहं कविरहं वादिशट्पण्डितोऽहं। देवज्ञोऽहं भिषणहमहं मांत्रिकस्तान्त्रिकोऽहं।।
राजन्नस्या जलधिविलयामेखलायामिलाया—माज्ञासिद्ध: किमित बहुना सिद्धसरास्वतोहम्।।३।।
मैं आचार्य हूँ कवि हूँ, पण्डित हूँ, वैद्य हूँ, मात्रिक हूँ, तांत्रिक हॅूँ, इस संपूर्ण पृथ्वी पर मुझ वचन सिद्धि है अधिक क्या कहूँ मैं सिद्ध सारस्वत हूँ। किसी को यह गर्वोक्ति प्रतीत हो सकती है किन्तु वास्तविकता व तथ्योक्ति यही है। श्रवणवेलगोला के विंध्यगिरि पर्वत पर मल्लिषेण रचित एक शिलालेख में कहा गया है–मैं काची नगरी में दिगम्बर साधु था, उस समय मेरा शरीर मलिनता पूर्ण था, लांतुश नगर में मैंने अपने शरीर में भस्म लगाई थी, उस समय मैं पांडुरंग था। पुण्ड्र नगर में मैंने बौद्ध भिक्षु का रूप धारण किया था। दशपुर नगर में मैं मिष्ठान भोजी परिव्राजक बना। वाराणसी में आकर मैंने चन्द्र समान धवल कान्ति युक्त शैव तपस्वी का वेश धारण किया। हे राजन्! मैं जैन निग्र्रन्थ मुनि हूँ जिसकी शक्ति हो वह मेरे समझ आकर शास्त्रार्थ करे। दक्षिण के होते हुए भी उन्होंने देश में भ्रमण किया, जिसका पुष्टि श्रवणवेलगोला के शिलालेख नं. ५४ से होती है। पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता। पश्चान्मालव सिन्धु ठक्क विषयो कांचीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटक बहुभटं विद्योत्कटं संकटम्। वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं।।
पहिले मैंने पाटलिपुत्र नगर में वादि के हेतु भेरी बजाई, पश्चात् मालवा, सिन्धु ठक्क (पंजाब), कांचीपुर, विदिशा में भेरीताड़न किया, इसके पश्चात् मैं विद्वानों तथा शूरवीरों से समलंकृत करहाटक देश में गया। हे नरपति ! मैं शास्त्रार्थ का इच्छुक हूँ। मैं शार्दूल के समान निर्भय होकर विचरण करता हूँ। अनेक शिलालेखों में आचार्य समन्तभद्र का उल्लेख व प्रशंसा की गई है। ईसा की पहली व दूसरी तथा विक्रम की दूसरी, तीसरी शताब्दी में आचार्य समन्तभद्र का समय माना जाता है। कन्नड़ ग्रंथ ‘कर्नाटक कवि चरिते’ में आर. नरिंसहाचार्य ने इनका शक संवत् ६० ईस्वी संवत् १२८ माना है। आचार्य जिनसेन, आचार्य विद्यानन्दि, आचार्य शुभचन्द्र, आचार्य वादीभ सिंह, भट्टारक प्रभाचन्द्र, हस्तिमल्लि आदि अनेकों आचार्यो व विद्वानों ने आचार्य समन्तभद्र की बहुत बहुत प्रशंसा की है व अनेक उपाधियों से विभूषित किया है। विक्रान्त कौरव हस्तिमल्ल ने उन्हें श्रुतकेवली ऋद्धि प्राप्त थी, उनके वचन भगवान महावीर के समान थे, प्रकाण्ड दार्शनिक, गम्भीर चिंतक, स्तुति काव्य के सूत्रपात, तर्क कुशल मनीषी, वादी, वाग्मी, कवि, गमक, कवि वेधा, कवीन्द्र भास्करण, कविकुन्जर, मुनिवन्द्य, जनानन्द आदि अनेक विभूषणों से युक्त संस्कृत, प्राकृत एवं विभिनन भाषाओं के पारंगत विद्वान थे। पद्मावती देवी की दिव्य शक्ति के द्वारा उन्हें विशेष शक्ति प्राप्त हुई थी। आचार्य परम्परा में भद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्त, इनके वंशज पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द), इनके वंशज गृद्धपिच्छाचार्य, इनके शिष्य बलाक पिच्छाचार्य व उनके वंशज आचार्य समन्तभद्र स्वामी थे। उनके दो शिष्यों आचार्य शिवकोटि व शिवायन का उल्लेख मिलता है। आचार्य समन्तभद्र की निम्न रचनायें मानी जाती हैं— १. वृहद् स्वयंभू स्तोत्र, २. स्तुतिविद्या—जिनशतक, ३. देवागम स्तोत्र आप्तमीमांसा, ४. युक्त्यानुशासन, ५. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ६. जीवसिद्धि, ७. प्रमाण पदार्थ, ८. तत्वानुशासन, ९. प्राकृत व्याकरण, १०.कर्मप्राभृत टीका, ११. गन्धहस्ति महाभाष्य—तत्त्वार्थसूत्र की टीका। वृहत् स्वयंभू स्तोत्र में भगवान मल्लिनाथ की स्तुति करते हुये आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने उनके तीर्थ को जन्म—मरण रूप समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये तरण पथ—पार होने का उपाय बताया है।
तीर्थमपिस्वं जननसमुद्दत्रासितसत्वोतरणपथोऽगम।।१०९।।
तीर्थ शब्द ‘तृ’ धातु से निष्पन्न हुआ है। इस शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरण की दृष्टि से देखें तो ‘तीर्यन्ते अनेन वा’ तृप्लवन्तरणयो’ पातृतुदि इति थक। अर्थात् तृ धातु के साथ थक प्रत्यय लगकर तीर्थ शब्द की निष्पत्ति होती है, इसका अर्थ है जिसके द्वारा अथवा जिसके आधार से तरा जाय, उसे तीर्थ कहते हैं। आचार्य जिनसेन स्वामी आदिपुराण में लिखते हैं—
संसारब्धे पारस्य तरणेतीर्थमिष्यते। चेरितं जिननाथानां तरयोक्तितीर्थसंकथा।।
यहाँ जिनेन्द्र भगवान के चरित्र को तीर्थ कहा है। जिन भगवान का चरित्र प्राणीमात्र के लिये तारने वाला है, सभी के लिये शरणागत है, अत: उसे सर्वोदय तीर्थ कहा है। सर्वोदय शब्द सर्व एवं उदय दो शब्दों से मिलकर बना है। अर्थात् सभी उदय अर्थात् उन्नति कल्याण। जिस स्थान से या जिनके द्वारा या जिनके माध्यम से, जिनके अवलम्बन से जीव का कल्याण हो, उसे सर्वोदय तीर्थ कहते हैं।
जे त्रिभुवन में जीव अनन्त सुख चाहें दुख में भयवन्त।
संसार के सभी चराचर प्राणी दुखी हैं तथा शाश्वत सुख चाहते हैं। इस हेतु जो मार्गदर्शन देता है, वह हमारे लिये कल्पवृक्ष और चिन्तामणि रत्न के समान प्रतीत होता है और इस शाश्वत् निराकुल सुख की प्राप्ति हमें धर्म से ही होती हैं
याचें सुरतरु देय सुख चिंतत चिंता रैन। बिन याचें बिन चितये धर्म सकल सुख देन।।
जिन या जैन तीर्थंकरों ने इन विपरीत परिस्थितियों से मानव को तारने हेतु या शाश्वत सुख की प्राप्ति हेतु स्वयं शाश्वत सुख एवं अभ्युदय मार्ग का अवलम्बन लेते हुये पहले तो स्वयं उसको प्राप्त किया और फिर एक कुशल वैज्ञानिक की भाँति जब उसको स्वयं प्राप्त कर लिया तो उसका उपदेश दिव्यध्वनि के द्वारा लोगों के हितार्थ दिया। प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता। यह एक ऐसा सर्वोदय तीर्थ है जिस पर कोई भी प्राणी आकर तदनुकूल प्रयास/पुरुषार्थ करता है तो वह मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार यह शाश्वत सुख का मार्ग संसार के सभी प्राणियों के लिये खुला हुआ है। इस प्रकार यह जो सर्वोदय के उपाय दिये गये, इसमें मानव मात्र ही नहीं अपितु प्राणी मात्र को, चारों गतियों के जीवों को, चौरासी लाख योनियों के लोगों को, त्रस स्थावर सभी का हित निहित था। अत: यह जनोपयोगी सर्वोदय तीर्थ कहलाया जिसमें बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी धर्म, संप्रदाय, जाति, योनि, वर्ण आदि किसी भी पक्षपात से रहित प्राणी मात्र के उद्धार का मार्ग था। यह सर्वोदयी धर्म प्राणी के मन—वचन—काय को सुखमय बनाने का श्रेष्ठ आधार है। और रहेगा। यहाँ आकर यदि ‘‘श्रेणिक’’ तिरता है तो उसके हाथी के पैर के नीचे आने वाले मेढक जैसे तुच्छ तिर्यंच प्राणी के लिये भी उद्धार का मार्ग खुला है। सर्वोदय तीर्थ का लक्ष्य सर्वतोन्मुखी, सर्वदुखहारा, सर्वजनहिताय, सत्वेषु मैत्री की भावना से युक्त, परस्पर विचारों की ऐक्यता कायम कर जीव मात्र को समता की अनुभूति कराने वाला है। मानव जाति के लिये यह अस्तित्त्व की भावना सर्वोदय तीर्थ से प्राप्त होती है। सर्वोदय तीर्थ में सबका आदर है, सबकी मंगल कामना है। होवे सारी प्रजा को सुख की भावना से प्राणीमात्र का कल्याण है। Sarvodaya is a term means universal uplift and progress of all. Economic and social development and improvement of a community as a whole. नेट व सोशल मीडिया पर देखें तो सर्वोदय शब्द का प्रयोग महात्मा गाँधी ने प्रारंभ किया, ऐसी उनकी अवधारणा है परन्तु यह सही नहीं है। आचार्य समन्तभद्र की ११ रचनाओं में युक्त्यानुशासन ६४ पदों की रचना है। भगवान महावीर के सर्वोदय तीर्थ का महत्व प्रतिपादित करने के लिये उनकी स्तुति की गई हैं इसमें युक्ति पूर्वक भगवान महावीर के शासन का मण्डन और विरुद्ध मतों का खण्डन किया गया है। जिनशासन की वृहत् भावना को इन पदों में समाविष्ट करके आचार्य समन्तभद्र स्वामी में गागर में सागर भर देने की कहावत को चरितार्थ किया है। यह एक बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसके ६२वें श्लोक में आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं—
सर्वान्तवत्तद् गुणमुख्य कल्पं सर्वस्व शून्य च मिथोऽनपेक्षम्
सर्वपदामत्नकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।
अर्थात् आपका यह तीर्थ सर्वोदय सबका कल्याण करने वाला है, जिसमें सामान्य—विशेष, द्रव्र्यािथक—पर्यार्यािथक, अस्ति—नास्ति रूप सभी धर्म गौण मुख्य रूप से रहते हैं। यह सभी धर्म परस्पर सापेक्ष हैं अन्यथा द्रव्य में कोई धर्म या गुण नहीं रह पायेगा तथा यह सभी की आपत्तियों को दूर करने वाला है और किसी मिथ्यावाद से उसका खण्डन नहीं हो सकता, अत: आपका यह तीर्थ सर्वोदय तीर्थ कहलाता है। इस कारिका में सर्वान्तवत, सर्वान्त शून्य मिथ्यात्व, सर्वपदामन्तकर विशेषणों के प्रयोग से सर्वोदय शासन तीर्थ को बताया गया है। यह आचार्य समन्तभद्र ही थे जिन्होंने सर्वोदय तीर्थ की भावना अनुसार चाण्डाल को भी महत्व दिया।
सम्यग्दर्शनसम्पन्नपि मातङगदेहजम् देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ गारान्तरौजसम्।।२८ र. श्रा.
गणधरादि देव मातंग देहज चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुये भी सम्यग्दर्शन से युक्त जीव को भस्म से आच्छादित अंगार के भीतरी भाग के समान तेज से युक्त जानते हैं। इससे अगली २९ वीं कारिका में—
श्वापिदेवाऽपि देव: श्वा: जायते धर्मकिल्विषात्।। २९ र. श्रा.
यदि कुत्ता भी इस धर्मतीर्थ सर्वोदय तीर्थ का पालन करता है तो देव हो जाता है, कहकर कुत्ते को तिर्यंच जाति के जीव को भी धर्म धारण करने का अधिकारी बनाकर सर्वोदय तीर्थ की स्थापना की है। अन्धविश्वास एवं पाखण्ड से रहित, अहिंसा, सत्य, यथार्थ विश्वास की स्वच्छ वायु में विचरण करने वाले शूद्र को भी देवपूज्यता से विभूषित किया। भिन्न विचारधारा वालों में भी समता एवं माध्यस्थ भाव का उद्घोष अर्थात् एक साथ रहने की कला का प्रकाश इस सर्वोदय तीर्थ का प्राण है। विरोध में अवरोध, मतभेद में अभेद भाव ही समस्त संघर्षो का समाप्त कर विश्वशान्ति व सह अस्तित्त्व स्थापित करने वाला है। खम्मामि सव्व जीवाणं—में सव्व शब्द का प्रयोग प्रकट करता है कि धर्म प्रवर्तन सर्वोदय सभी के हित के लिये ही है, किसी विशेष के लिये नहीं। आ. समन्तभद्र कहते हैं कि जगत में जितने प्राणी हैं, सबको, सबके भाग्य को, सबके भाग्य को, सबके पुण्य को आपके पादमूल में उदय मिलता है, अत: आपका तीर्थ सर्वोदय तीर्थ है। जगत के सभी प्राणी आपके पादमूल में रह सकते हैं। इन दो कारिकाओं के द्वारा आचार्यो ने कुछ अन्य दर्शनों से विचारों को भी नष्ट करने की कोशिश की है कि हम नित्यवादी नहीं, नित्य एकान्तवादी नहीं कि जो होगा, देव देव ही रहेंगे कुत्ता कुत्ता ही रहेगा, यह स्याद्वाद दर्शन नहीं मानता। स्याद्वाद दर्शन में या सर्वोदय तीर्थ में अगर कुत्ता पुरुषार्थ करता है तो देव हो सकता है और यदि देव पाप करता है तो कुत्ता हो सकता है। द्रव्य कूटस्थ नहीं है, द्रव्य नित्यानित्य है, द्रव्य दृष्टि से नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य है। यह आचार्य समन्तभद्र की गरिमा ही थी कि उन्होंने कहा संसार में कण—कण स्वतंत्र है। जिसको अपनी स्वतंत्रता का ही बोध नहीं, वह कैसे तिर पायेगा ? कोई भगवान या कोई शक्ति आपको भगवान बनने से नहीं रोक सकती तथा न ही कोई कृपा करके आपको मोक्ष पहुँचा सकती है, यह तो आपका ही पुरुषार्थ है जो आपको फल देगा और यह पुरुषार्थ सभी कर सकते हैं, इसीलिए इसे सर्वोदय तीर्थ कहा है।
आचार्य समन्तभद्र दूरदर्शी एवं लोकहितैषी आचार्य थे। सभी श्रावकाचारों में रत्नकरण्डक श्रावकाचार प्रथम श्रावकाचार है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनके पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द ने जहाँ निश्चय शैली को प्राथमिकता दी वहाँ आचार्य समन्तभद्र ने व्यवहार शैली को अपनाया। आचार्य कुन्दकुन्द ने जहाँ अपने श्रमणों को ही सन्मार्ग पर लाने तथा आगम युक्त चर्या का पालन करने पर जोर लगाया, वहाँ आचार्य समन्तभद्र के समक्ष सबसे प्रमुख कार्यक्षेत्र था ‘पर मत परिहार’ एवं भगवान महावीर के अनेकान्त दर्शन की स्थापना, जैन न्याय की रचना एवं प्रसार। अन्य दर्शनों की एकान्तिक, भ्रमपूर्ण, विभिन्न गलत मान्यताओं का निरसन कर स्याद्वाद, अनेकान्त, न्याय, प्रमाण, नयनिक्षेप की सम्यक्ता को स्थापित कर जिनधर्म की प्रभावना का महत्वपूर्ण कार्य आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने किया। उनको सार्वजनिक क्षेत्र में प्रमाणविद्या, हेतुविद्या, तर्कविद्या का सूत्रधार कहा जाना सम्मत ही है। उनके गंभीर, तर्कपूर्ण, अकाट्य प्रमाणों का ही यह परिणाम था कि अन्य मतों को मानने वाले अनेक राजाओं ने जैनधर्म और दर्शन को स्वीकार किया। उनके प्रभाव से ही राजा शिवकोटि ने संपूर्ण साम्राज्य के साथ जैन धर्म स्वीकार किया तथा बाद में निग्र्रन्थ दिगम्बर मुनि दीक्षा अंगीकार कर बाद में आचार्य पद प्राप्त कर मूलाराधना—भगवती आराधना ग्रंथ की रचा की। आचार्य समन्तभद्र अत्यन्त उत्कृष्ट सिंह वृत्ति के निशंक तथा शास्त्रार्थ करने में अग्रणी थे। स्वयंभू स्तोत्र में आचार्य श्री कहते हैं—
न पूजयार्थस्त्वपि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त वैरे।
तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्न: पुनातुचित्तंदुरिताञ्जनेभ्य।।
हे भगवन् ! आप वीतराग हैं, अत: आपको पूजा—स्तुति से कोई प्रयोजन नहीं है, आप वैर—विरोध से रहित हैं, अत: आपको निंदा से भी कोई प्रयोजन नहीं है फिर भी हे प्रभो ! जो आपके गुणों का स्मरण करता है, उसका मन पाप रूपों से रहित हो जाता है। स्तुति विद्या के ११४ वें श्लोक में एवं स्वयंभूस्तोत्र के ६९वें पद में आचार्य कहते हैं जो एकाग्रचित्त होकर स्तुति करता है वह आपके गुणानुवाद, प्रेम व भक्तिभाव, के द्वारा विशिष्ट सौभाग्य को प्राप्त होता है। यहाँ दोनों में ही जो भी कर्ता है, वह पाप से रहित हो जाता है, ऐसा कहकर सभी प्राणियों के कल्याण की संभावना व्यक्त की है। आचार्य समन्तभद्र प्रथम साधक आचार्य हैं जिन्होंने एक ओर एकान्तवादियों की संकीर्ण मानसिकता की उग्रता को शिथिल कर समन्वय एवं सर्वोदयी संदेश देकर विश्वबन्धुत्व की कामना की तो दूसरी ओर रत्नकरण्डक श्रावकाचार जैसे सरल और संस्कृत भाषा शैली में श्रावकों के लिए आदर्श आचार संहिता के लेखन से आने वाली पीढ़ी को धर्म से जुड़ने हेतु प्रोत्साहित किया। उन्होंने जीवन और आचारों की मीमांसा तपे तुले शब्दों में करते हुये मानव मात्र के नैतिक जीवन का मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश की। रत्नकरण्डक श्रावकाचार के १९वीं व २०वीं कारिका में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने सम्यक् दर्शन के आठ अंगों में प्रसिद्ध आठ लोगों का नामोल्लेख किया है—
तावदंजनचौरोड़ गे, ततोऽनन्तमति: स्मृता। उद्दायनस्तृतीयेऽपि, तुरीये रेवतीमता।।१९।।
ततो जिनेन्द्र भक्तोऽन्यो, वारिषेणस्तत: पर:। विष्णुश्च वङ्कानामा च, शेषयोर्लस्यातांगतौ।।२० र. श्रा.
प्रथम अंग में अंजन चोर, द्वितीय अंग में अनन्तमती, तृतीय अंग में उद्दायन राजा, चौथे अंग में रेवती रानी, पांचवे अंग में जिनेन्द्र भक्त सेठ, छठे अंग में वारिषेण राजकुमार, सातवें अंग में विष्णु कुमार मुनि एवं आठवें अंग में वङ्काकुमार मुनि प्रसिद्ध हुए हैं। ये दो कारिकायें आचार्य समन्तभद्र की सर्वोदयी भावना का बहुत बड़ा प्रमाण है। वह चाहते तो आठों अंगों में आठ मुनिराज या राजाओं का नामोल्लेख कर सकते थे पर उन्होंने सर्वोदयी भावना को दृष्टिगत रखते हुये इसमें मुनि हैं तो श्रावक भी हैं, राजा हैं तो रानी भी हैं, सेठ भी हैं तो चोर भी हैं, पुरुष भी हैं तो महिलायें भी हैं। आठों अंगों में सभी प्रकार के नामोल्लेख कर अपनी सर्वोदयी भावना का श्रेष्ठतम प्रमाण दिया है। इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने अनेक दार्शनिकों के एकान्तवाद की मीमांसा कर और उनका समन्वय कर उन्हें यथार्थ स्थिति का बोध कराया, वहीं अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगी नय, प्रमाण आदि के विकास हेतु अपने चिन्तन द्वारा अनेक नयी उद्भावनायें प्रस्तुत कीं। साथ ही समाज के बीच जाकर समन्वय, सौहार्द, विश्वबन्धुत्व तथा प्राणीमात्र के प्रति हित एवं सुख की मंगल कामना के प्रतीक ‘‘सर्वोदय’’ को प्रथम संदेश द्वारा सर्वोदयी भावना से युक्त सुखी, समृद्ध और शान्तिप्रिय समाज की राह निर्माण का संदेश दिया।