जिस साधक का किसी भी द्रव्य के प्रति राग, द्वेष और मोह नहीं है, जो सुख—दु:ख में समभाव रखता है, उसे न पुण्य का आस्रव होता है और न पाप का। समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो त्ति।
जो सुख—दु:ख में समान भाव रखता है, वहीं वीतराग श्रमण शुद्धोपयोगी कहा गया है। सम्मं मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झ ण केणइ।
सब प्राणियों के प्रति मेरा एक जैसा समभाव है, किसी से मेरा वैर नहीं है।