इस अधिकार में सर्व आगम का सार अथवा स्व समय और पर समय का सार है। टीकाकार कहते हैं-
‘‘समयसारं द्वादशांगचतुर्दशपूर्वाणां सारं परमतत्त्वं मूलोत्तरगुणानां च
दर्शनज्ञानचारित्राणां शुद्धिविधानस्य च भिक्षाशुद्धेश्च सारभूतं स्तोकं वक्ष्ये।’’
यह समयसार द्वादशांग और चौदह पूर्वों का सार-परम तत्त्व है। मूलगुण, उत्तरगुण, दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धि और भिक्षाशुद्धि का सारभूत है, ऐसे इस समयसार को संक्षेप से मैं कहूँगा। चूँकि इस आचारांग के अंतर्गत मूलाचार में मुनियों का आचार ही प्रधान है। उसी से स्वात्मतत्त्व की सिद्धि निश्चित है। क्योंकि-
हे मुने! तुम भिक्षावृत्ति से आहार लो, वन में रहो, थोड़ा सा भोजन करो, बहुत मत बोलो, दु:ख-परीषह सहन करो, निद्रा को जीतो, मैत्री भाव को भावो और अच्छी तरह वैराग्य का चिंतवन करो। और भी कहते हैं-
थोवम्हि सिक्खिदे जिणइ बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरित्तहीणो विं तस्स सुदेण बहुएण।।८९९।।
थोड़ा पढ़े हुए भी मुनि चारित्र को परिपूर्ण कर बहुत ज्ञानी को जीत लेते हैं क्योंकि जो चारित्र से हीन हैं उनके बहुत श्रुतज्ञान से क्या लाभ ?
आचेक्य-वस्त्र का त्याग-नग्नमुद्रा, लोच, व्युत्सृष्टशरीरता-शरीर के स्नान आदि संस्कार का त्याग और प्रतिलेखन-पिच्छिका ग्रहण ये चार लिंग दिगम्बर मुनि के चिन्ह हैं। अचेलकत्व आदि दश स्थितिकल्प-
अचेलकत्व, औद्देशिक, शय्यागृह, राजपिंड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मास और पर्या ये दश मुनियों के स्थितिकल्प होते हैं। अचेलकत्व – वस्त्र आदि परिग्रह का त्याग। औद्देशिक – अपने उद्देश्य से बनाया हुआ आहार औद्देशिक है, उसका त्याग अनौद्देशिक है।
शय्यागृह त्याग –जो मेरी वसतिका में ठहरेगा, उसे ही मैं आहार दूँगा, ऐसे संकल्प करने वाले वसतिका के स्वामी के यहाँ आहार नहीं लेना।
राजपिंडत्याग –गरिष्ठ भोजन का त्याग या दानशाला के भोजन का त्याग।
कृतिकर्म –विधिवत् कृतिकर्मपूर्वक वंदना आदि करना। व्रत – पाँच महाव्रत आदि का पालन।
ज्येष्ठ – श्रावक आदि में श्रेष्ठ होने से ज्येष्ठता-पूजनीयता। यह मुनि पद इन्द्र, चक्रवर्ती से भी श्रेष्ठ होने से ज्येष्ठ है।
प्रतिक्रमण – सात प्रकार के प्रतिक्रमणों से आत्मा की भावना।
मासस्थितिकल्प –वर्षायोग से पूर्व एक माह और पश्चात् भी एक माह उस ग्राम में रहना। अथवा प्रत्येक ऋतु में एक माह एक ग्राम में रहना, एक माह विहार करना।
पर्या – निषद्यका और तीर्थंकरों के पंचकल्याण स्थानों की वंदना पर्या स्थितिकल्प है। ये दश श्रमणकल्प कहलाते हैं। मयूर पंख की पिच्छिका में पाँच गुण होते हैं-
यह पिच्छिका धूलि और पसीने से खराब नहीं होती, मृदु है, सुकुमार है और लघु है। ये पाँच गुण मयूर पंख से बनी पिच्छी में ही होते हैं अन्य में नहीं। मुनि अपने मूलगुणों की रक्षा करते हुए योग आदि उत्तर गुणों का पालन करें-
जो मुनि मूलगुणों की विराधना कर बाह्य-आतापन आदि योग धारण करता है उसके वे योग मूलरहित होने से निष्फल हैं।
जो जत्थ जहा लद्धं गेण्हदि आहारमुवधिमादीयं। समणगुणमुक्कजोगी संसारपवड्ढओ होइ।।९३२।।
जो साधु जिस किसी शुद्ध या अशुद्ध देश में जो कुछ भी प्राप्त हुआ शुद्ध या अशुद्ध आहार, उपकरण आदि ले लेता है, वह मुनि के गुण से रहित संसार को बढ़ाने वाला ही है अर्थात् आगम के अनुकूल ही आहार आदि लेना चाहिए।
फासुगदाणं फासुगउवधिं तह दो वि अत्तसोधीए। जो देदि जो य गिण्हदि दोण्हं पि महप्फलं होई।।९३८।।
प्रासुक आहार और प्रासुक उपकरण-वसतिका आदि ये दोनों आत्मशुद्धि के लिए होते हैं। जो गृहस्थ प्रासुक आहार आदि देते हैं वे तथा जो ऐसा प्रासुक ही लेते हैं वे मुनि, इन दोनों को महाफल होता है क्योंकि आचार्य वैद्य हैं, विरक्त मुनि रोगी हैं, निर्दोष आहार चर्या ही औषधि है। आचार्यदेव क्षेत्र, बल, काल और पुरुष को जानकर शिष्य को स्वस्थ कर देते हैं। आगे कहते हैं-
आयरियकुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उवदेसं पावस्समणोत्ति वुच्चदि दु।।९६१।।
जो श्रमण आचार्यकुल-गुरुसंघ को छोड़कर एकाकी विहार करता है और गुरु का उपदेश नहीं ग्रहण करता है वह पापश्रमण-पापयुक्त साधु है क्योंकि स्वैर विहार में अनेक दोष आ जाते हैं-
चार अंगुल प्रमाण जिह्वा अशुभ है और चार अंगुल प्रमाण ही उपस्थ-पुरुष का लिंग है। इन आठ अंगुल के दोष से यह जीव अनंत संसार में दु:ख भोग रहा है। अत: हे मुने! तुम रसना इन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के कामजन्य विषय को जीतो क्योंकि जितेन्द्रिय मुनि चलते-फिरते भगवान हैं-
भिक्खं वक्वं हिययं सोधिय जो चरदि णिच्च सो साहू। एसो सुट्ठिद साहू भणिओ जिणसासणे भयवं।।१००६।।
जो मुनि भिक्षा, वचन और हृदय को शुद्ध करके अर्थात् आहार शुद्धि, वचनशुद्धि और मन:शुद्धि को करके नित्य ही विचरण करते हैं, ऐसे साधु सुस्थित-सच्चे साधु हैं उन्हें जिनशासन में ‘भगवान्’ कहा है। श्री गणधर देव ने तीर्थंकर परमदेव से पूछा-
हे भगवन्! मैं कैसे आचरण करूँ ? कैसे ठहरूं ? कैसे बैठूं ? कैसे सोऊं ? वैâसे भोजन करूँ ? और कैसे बोलूं ? कि जिससे पाप का बंध न होवे। तब भगवान् उत्तर देते हैं-
यत्नपूर्वक-सावधानीपूर्वक आचरण करते हुए, दयालु मुनि के नवीन कर्म नहीं बंधते हैं और पुराने कर्म झड़ जाते हैं। यहाँ पर समयसार अधिकार में मुनियों की उत्कृष्ट चर्या को दिखाया है।