वर्तमान में इस समयसार ग्रन्थ पर दो टीकायें उपलब्ध हैं। एक श्री अमृतचंद्रसूरि की, दूसरी श्री जयसेनाचार्य की । पहली टीका का नाम आत्मख्याति है और दूसरी का नाम ‘‘तात्पर्यवृत्ति’’ है। श्रीअमृतचंद्रसूरि ने जीवाजीवाधिकार को सम्मिलितरूप से लिया है। पुन: कर्तृकर्म अधिकार, पुण्यपाप अधिकार, आस्रव अधिकार, संवर अधिकार, निर्जरा अधिकार, बंध अधिकार, मोक्ष अधिकार और सर्वविशुद्धज्ञान—अधिकार ऐसे नव अधिकार किये हैं। आगे स्याद्वाद का विस्तार से वर्णन करके उसे स्याद्वाद अधिकार नाम दिया है किन्तु उसे ‘‘दशम’’द अधिकार नहीं कहा हैं अंतिम नौवें अधिकार की समाप्ति सूचक पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं—
‘‘इति श्रीअमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यामात्मख्यातौ
सर्वविशुद्धज्ञान—प्ररूपको नवमोंऽक:।’’
इस आत्मख्याति टीका में गाथाओं की ४१५ है। इस टीका में मध्य—मध्य में कुछ काव्य दिये हैं जिनमें समयसार की गाथाओं का सारभूत विवेचन बहुत ही मधुरता और सरलता से दिया गया है। इसीलिये इन्हें ‘‘कलशकाव्य’’ संज्ञा दी है। इनकी संख्या २७८ है। इन कलश काव्यों के ऊपर भी पृथक टीकायें हैं जिनका कि एक स्वतंत्र ग्रन्थ बन गया है। तात्पर्यवृत्ति टीका में मूल गाथाओं की संख्या ४३९ है। श्री जयोनाचार्य ने सर्वप्रथम पीठिका में १४ गाथाओं की टीका की है। पुन: जीवाधिकार में २४ गाथायें ली हैं, अजीवाधिकार में ३० गाथायें हैं, कर्तृकर्म अधिकार में ७८ हैं। इत्यादि श्रीजयसेनाचार्य ने जीव अधिकार और अजीव अधिकार इन दोनों को पृथक् कर दिया है जिससे इनकी टीका में दश अधिकार हो गये हैं तथा प्रत्येक अधिकार के प्रारंभ में और अन्त में गाथाओं की संख्या दी हुई है।
यथा— ‘‘प्रथमतस्तावदष्टाविंशतिगाथापर्यंतजीवाधिकार: कथ्यते।’’
ऐसे ही अन्त में—
‘‘ इति समयसारव्याख्यायां शुद्धात्मानुभूतिलक्षणायां
तात्पर्यवृत्तौ समुदायेनाष्टाविंशगतिगाथाभिर्जीवाधिकार: समाप्त:।’’
इन्होंने भी सर्वविशुद्धज्ञान नामक दशवां अधिकार समाप्त करके स्याद्वाद अधिकार लिया है। अन्त में कहते हैं—
‘‘इति श्रीकुन्दकुन्ददेवाचार्य विरचित समयसार प्राभृताभिधानग्रंथस्य संबंधिनी श्री जय—
सेनाचार्यकृता दशाधिकारैरेकोनचत्वारिंशदधिकगाथाशतचतुष्टयेन तात्पर्यवृत्ति: समाप्ता।’’
इस प्रकार से श्रीजयसेनाचार्य ने इस समयसार की ४३९ गाथाओं की टीका की है। इसी तरह प्रवचन और पंचास्तिकाय में भी श्री अमृतचंद्रसूरि की टीका में गाथायें कम हैं एवं श्रीजयसेनाचार्य की टीका में गाथायें अधिक हैं। प्रवचनसार में भी अमृतचंद्रसूरिकी टीका में गाथायें २७५ हैं। और श्रीजयसेनाचार्य की टीका में ३११ गाथायें हैं। जिन गाथाओं को श्री जयसेन ने कुन्दकुन्द की मानकर टीकायें की हैं उनका अन्यत्र ग्रन्थों में भी श्रीकुन्दकुन्द के नाम से उल्लेख मिलता है। जैसे कि— नयमसार की टीका में श्री पद्मप्रभमलधारी देव कहते हैं—
त्तथा चोत्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवै:—
तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढीसोक्खं तहेव ईसरियं।
तिहुवणपहाणदइयं माहप्पं जस्स सो अरिहो।।
यह गाथा प्रवचनसार में श्री जयसेनाचार्य ने ली है और इसकी टीका भी की है किन्तु अमृतचन्द्रसूरि की टीका में यह नहीं है। इस उद्धण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जनसेनाचार्य ने जिन अधिक गाथाओं को श्री कुन्दकुन्द की ही माना है, अन्य आचार्य भी उन्हें श्रीकुन्दकुन्द रचित मानते रहे हैं। श्री अमृतचंद्रसूरि ने उन गाथाओं को छोड़ा है ? यह विषय विचारणीय ही है। किन्तु श्री जयसेनाचार्य द्वारा मान्य गाथाओं में ये श्रीकुन्दकुन्ददेवकृत नहीं हैं या क्षेपक हैं, सहसा ऐसा नहीं कहा जा सकता। पंचास्तिकाय में श्रीअमृतचंद्रसूरि ने १७३ गाथाओं की टीका की है किन्तु श्रीजयसेनाचार्य ने
‘‘अधिकारत्रयसमुदायेनैकार्शीच्युत्तरशतगाथाभि:
पंचास्तिकायप्राभृत: समाप्त:।’’
अधिकार तीन के समूह से १८१ गाथाओं द्वारा पंचास्तिकाय प्राभृत ग्रन्थ समाप्त हुआ, ऐसा कहा है।
अमृतचन्द्र सूरि की टीका अतीव गूढ़ है। संस्कृत की पंक्तियाँ भी क्लिष्ट और समास बहुल हैं, किन्तु जयसेनाचार्य की टीका में जगह—जगह गुणस्थान व्यवस्था स्पष्ट की गई है। भाषा सरल है और भाव भी सरल हैं जिससे हम जैसे लोगों के लिए बहुत ही सरलता हो गई है जो विद्वान इस टीका की उपेक्षा कर देते हैं सचमुच में वे समयसार के रहस्य को सही रूप से न आप ही समझ सकते हैं न श्रोताओं को ही समझा सकते हैं। यही कारण है कि वे एकांत दुराग्रही बन जाते हैं। वास्तव में उन्हीं दुराग्रही लोगों के लिये यह समयसार शास्त्र न रहकर शस्त्र बन जाता है। उनके लिये श्रीगुणभद्रसूरि का एक श्लोक सामने आ जाता है—
शास्त्राग्नौ मणिवद् भव्यो विशुद्धोभाति निर्वृत: ।
अंगारवत् खलो दीप्तो मली वा भस्म वा भवेत् ।।
इस शास्त्र रूपी अग्नि में भवय जीव मणि के समान शुद्ध होकर निर्वृत्त— कृतकृत्य हो जाता है किन्तु खल— दुर्जन मनुष्य अंगारे के समान जलकर काला कोयला हो जाता है अथवा राख हो जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को समयसार पढ़ते समय श्री जयसेनाचार्य की टीका अवश्य पढ़नी चाहिये। श्री अमृतचन्द्रसूरि और श्रीजयसेनाचार्य के अभिप्राय— आज कुछ लोग ऐसा कहते हुये देखे जाते हैं कि श्री अमृतचन्द्रसूरि की टीका के आधार से चतुर्थ गुणस्थान में निश्चयसम्यक्तव, निश्चय चारित्र, शुद्धोपयोग आदि हो जाते हैं। किंतु जयसेनाचार्य नहीं मानते हैं। वे सप्तम गुणस्थान से ही इनको घटित करते हैं । वास्तव में अमृतचन्द्रसूरि के शब्दों से भी निश्चय सम्यक्तव आदि चौथे गुणस्थान में असंभव हैं। सो ही देखिये— गाथा १२ वीं की टीका में श्रीअमृतचन्द्रसूरि कहते हैं—
‘‘ये खलु पर्यंतपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानी परमं भावं अनुभवंति….।
जो अंतिम ताव से शुद्ध हुये सुवर्ण के समान परमभाव का अनुभव करते हैं उनके लिये शुद्धनय प्रयोजनीभूत है किन्तु जो एक, दो आदि ताव के समान ऐसे अपरम भाव का अनुभव करते हैं उनके लिये व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है क्योंकि तीर्थ और तीर्थ का फल इसी रूप से व्यवस्थित है। कहा भी है— ‘‘यदि आप जिन मत को प्राप्त करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चयनय में मोह को मत प्राप्त होवो, क्योंकि व्यवहार के बिना तीर्थ का और निश्चय के बिना तत्त्व का नाश हो जावेगा।’’ आगे कलश काव्य में भी कहा है कि— पहली पदवी पर पैर रखने वालों के लिये यह व्यवहारनय हाथ का अवलंबन है। अब आप देखिये— ट्ठंतिम ताव से शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्धभाव का अनुभव तो मोह रहित मुनि के ११वें,१२वें, गुणस्थान में ही घटेगा उसके पहले सब अशुद्ध भाव में ही है। हाँ श्रेणी में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होने सं शुद्धोपयोगी मुनि के भी कथंचित् परमभाव का अनुभव कहा जाता है। किंतु छठे, सातवें गुणस्थान पर्यंत सराग अवस्था होने से शुभोपयोग ही है अत: वहाँ तक परमशुद्धभाव का अनुभव नहीं है। आगे के उद्धरण और कलश आदि से भी यह बात स्पष्ट है कि चतुर्थ, पंचम, छठे, सातवें गुणस्थान वर्तियों के लिए व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है। इसी प्रकरण को श्रीजयसेनाचार्य ने सरल शब्दों में कह दिया है कि निर्विकल्प समाधि में रत हैं उनके लिये निश्चयनय प्रयोजनीभूत है किन्तु जो असंयत सम्यग्दृष्टि हैं, श्रावक हैं, प्रमत्त मुनि हैं या अप्रमत्तमुनि हैं ये सराग सम्यग्दृष्टि हैं, शुभोपयोगी हैं। ये छठे, सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि भी भेदरत्नत्रय में स्थित हैं अत: इनके लिये व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है। ऐसे ही गाथा १४२ की टीका में श्रीअमृतचन्द्रसूरि के अभिप्राय को देखिये— य एवैनमतिक्रामति स एव सकलविकल्पातिक्रांत: स्वयं निर्विकल्पैकविज्ञान— घनस्वभावों भूत्वा साक्षात्समयसार: संभवति। जो दोनों नयों के विकल्प को उल्लंधन कर देता है वह ही संपूर्ण विकल्प से रहित स्वयं निर्विकल्प एक विज्ञान घनरूप होकर साक्षात् समयसार हो जाता है : उसी टीका के ६९ वें कलश में भी कहा है कि—
य एव मुक्ता नयपक्षपातं, स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यम् ।
विकल्पजालच्युतशांतचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबंति।।६९।।
जो दोनों नयों के पक्ष को छोड़कर नित्य ही स्वरूप में गुप्त होकर निवास करते हैं वे विकल्प समूहों से रहित शांतचित्त हो जाते हैं वे साक्षात् अमृत का पान करते हैं। यहाँ ‘‘स्वरूपगुप्ता’’ शब्द त्रिगुप्ति से सहित निर्विकल्प मुनियों के लिये ही है। श्रीजयसेनास्वामी ने भी इसी को सरल शब्दों में कहा है कि आगम के व्याख्यान के समय बुद्धि दोनों नयों का अवलंबन लेती है किन्तु तत्त्वज्ञानी स्वस्थ—आत्मा के ध्यान में लीन हुए मुनियों के वह विकल्प बुद्धि नहीं रहती है। आगे गाथा १७९,१८० की टीका में भी कहा है कि जब यह ज्ञानी जीव शुद्धनय से च्युत हो जाता है तब उसके पूर्वबद्ध प्रत्यय पुद्गलकर्मों से बंध करा देते हैं। इन्हीं गाथा की टीका में जयसेनाचार्य ने कहा है कि परमसमाधि लक्षण भेदज्ञानरूप शुद्धनय से च्युत होने पर पूर्वबद्ध प्रत्ययों से कर्मबंध होता है। ऐसा ही गाथा १५० की टीका के कलश काव्य १०४ में कहा है— ‘‘जिन्होंन पुण्य और पापरूप संपूर्ण कर्मों का निरोध कर दिया है और निष्कर्मरूप—शुद्धोपयोग में प्रवृत्त हैं ऐसे मुनि अशरण नहीं हैं।’’ इसी गाथा की टीका में जयसेनाचार्य ने कहा है कि— ‘‘शुभ—अशुभ संकल्प—विकल्प से रहित होने से अपने शुद्ध—आत्मा की भावना से उत्पन्न निर्विकार सुख अमृत रस के आस्वाद से तृप्त होकर शुभ—अशुभ कर्म से रग मत करो।’’ ऐसे ही आगे गाथा ३०६,३०७ की टीका में भी श्री अमृतचन्द्रसूरि ने अप्रतिक्रमण आदि को अमृतकुम्भ कहा है सो तृतीय भूमि में अर्थात् शुद्धोपयोग में कहा है— ‘‘तृतीयभूमिस्तु स्वयं शुद्धात्सिद्धिपत्वेन’’ अर्थात् अप्रतिक्रम— प्रतिक्रमण से परे जो अप्रतिक्रमणरूप तृतीय भूमि है वह स्वयं शुद्धात्मा की सिद्धिरूप है। इसी टीका के १९ वें कलश में ‘‘मुनि’’ शब्द है जो कि अप्रमत्त मुनि की बात कह रहा है। इसी प्रकरण को श्रीजयसेनाचार्य ने सरल शब्दों में कहा है कि ‘‘सरागचारित्र लक्षण शुभोपयोग की अपेक्षा से इन्हें अप्रतिक्रमण आदि संज्ञा’’दी है। फिर भी वीतराग चारित्र की अपेक्षा से ये ही निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रतिसरण आदि कहलायेंगे। क्योंकि प्रतिक्रमण आदि शुभोपयोग हैं ये सब सविकल्प अवस्था में अमृतकुम्भ हैं किन्तु परमोपेक्षा संयमरूप निर्विकल्प अवस्था में विषकुम्भ हैं। वहाँ तो अप्रतिक्रमण अर्थात् निश्चय प्रतिक्रमण आदि ही अमृतकुम्भ हैं। ऐसे ही सर्वत्र श्रीजयसेनाचार्य ने श्रीअमृतचन्द्रसूरि के अभिप्रायानुसार ही टीका की है। केवल गूढ़ अर्थ को न समझ सकने से ही कुछ दुराग्रही लोग अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। समयसार की गाथाओं में जहाँ कहीं भी सम्यग्दृष्टि लोग अथवा ज्ञानी शब्द हैं वहाँ पर प्राय: श्री अमृतचन्द्रसूरि को वीतराग सम्यग्दृष्टि ही विवक्षित है। इसका एक उदाहरण देखिये— ‘‘णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो’’ सम्यग्दृष्टि के आस्रव—बंध नहीं हैं प्रत्युत् आस्रव का निरोध है। इसी संदर्भ में आगे चलकर कहते हैं—
‘‘तेण अबंधोत्ति णाणी दु।’’
जम्हा दु जहण्णादो, णाणगुणदो पुणोवि परिणमदि।
अण्णत्तं णाणगुणो, तेण दु सो बंधगो भणिदो।।१७१।।
आत्मा का ज्ञानगुण जब तक जघन्य अवस्था में रहता है तब तक वह अन्यत्व को अर्थात् अंतर्मुहूर्त में अन्यपने को प्राप्त होता रहता है,इसलिये वह कर्मों का बन्ध करने वाला होता है। इसी की टीका में अमृतचन्द्रसूरि के वाक्य विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं— ‘‘ज्ञानगुणस्य हि यावज्जघन्यो भाव: तावत् तस्यांतर्मूहूर्त—
वपरिणामित्वात् पुन: पुनरन्यतयाति परिणाम:।
स तु यथाख्यात्—चारित्रावस्थाया
अधस्तादवश्यंभाविराग—सद्भावात् बंधहेतुरेव स्यात् ।’’
ज्ञानगुण का जबतक जघन्य भाव है। अर्थात् क्षयोपशम भाव है तब तक वह अन्तर्मुहूर्त—अन्तर्मुहूर्त में अन्यरूप परिणत होता रहता है। इसलिये उस ज्ञानगुण में यथाख्यात चारित्र के पहले राग का सद्भाव अवश्यंभावी है अत: वह बंध का हेतु है ही है। यह यथाख्यात चारित्र दशवें गुणस्थान के बाद ११ से ही शुरू होता है। सिद्धान्त ग्रन्थों में वहीं से ही ‘‘वीतराग’’ शब्द का प्रयोग होता है। उसके पहले दसवें तक सराग चारित्र माना है। अत: श्रीअमृतचन्द्रसूरि की दृष्टि में वीतराग चारित्र वाला मुनि ही समयसार की गाथा में कहा हुआ सम्यग्दृष्टि है और वही समयसार की गाथाओं में कहा हुआ ‘‘ज्ञानी’’ है। यही बात श्री जयसेनस्वामी ने कही है। ऐसे ही सर्वत्र समझना चाहिये।
आचार्य श्री कुंदकुंददेव ने सर्वप्रथम गाथा ७ में ही कहा है कि ‘‘व्यवहारनय से ही ज्ञानी के चारित्र , दर्शन और ज्ञान कहे जाते हैं किन्तु निश्चयनय से न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र ही है, यह आत्मा का ज्ञायकमात्र शुद्ध है। पुन: कहते हैं— जिस प्रकार से किसी म्लेच्छ को उसकी भाषा में बोले बिना उसे समझानाद शक्य नहीं है उसी प्रकार से व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश ही अशक्य है। आगे पुन: गाथा १३ वीं में व्यवहार को अभूतार्थं कहकर तत्क्षण ही अगली गाथा में कहते हैं— ‘‘परमभावदर्शी—परम शुद्ध आत्मा का अनुभव करने वाले ऐसे महामुनियों के लिये शुद्ध्रद्रव्य का कथन करने वाला ऐससा शुद्धाय ही ज्ञातव्य है, अनुभव करने योग्य है किन्तु जो अपरमभाव में स्ािित हैं अर्थात् चतुर्थ, पंचम, छठे अथवा सातवें गुणस्थान में स्थित हैं उनके लिये व्यवहारनय का उपदेश दिया गया है।’’ इसकी टीका में श्रीअमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है कि जो अंतिम सोलहवें ताव से शुद्ध हुये सुवर्ण के समान परमशुद्ध भाव का अनुभव करते हैं उनके लिये ही शुद्धनय प्रयोजनीभूत है किन्तु जो एक दो आदि ताव शुद्ध सुवर्ण के समान अपरमभाव का अनुभव करते हैं उनके लिये व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है क्योंकि तीर्थ और तीर्थ का फल व्यवहारनय से ही चलता है। कलश काव्य में भी कहते हैं— ‘‘पहली पदवी पर पैर रखने वालों के लिये यद्यपि यह व्यवहारनय हाथ का अवलम्बन स्वरूप है फिर भी पर से चित्— चमत्कार मात्र परम अर्थ—शुद्ध आत्मा को अंतरंग में देखने वालों के लिये वह व्यवहार कुछ भी नहीं है।’’ इस कथन से भी स्पष्ट है कि पहली सीढ़ी पर पैर रखने वाले ऐसे चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थानवर्ती जीवों के लिये व्यवहारनय सहारा है, हाथ का अवलम्बन है। गाथा २२ वीं में यह कहा है कि कर्म — नोकर्म रूप में हूँ अथवा ये मेरे हैं ऐसा समझने वाला अज्ञानी है । पुन: तत्काल अनेकांत की व्यवस्था करते हुये करते हैं कि ‘‘ यह आत्मा जिन भावों को करता है उन्हीं का कर्ता होता है यह निश्चयनय का कथन है और व्यवहारनय की अपेक्षा यह पुद्गल कर्मों का कर्ता होता है। आगे चलकर शंका होती है कि ‘‘यदि जीव और शरीर एक नहीं हैं तो तीर्थंकरों और आचार्यों की स्तुति मिथ्या हो जावेगी ? ’’ इस पर समाधान यह है कि ‘‘ व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव और शरीर एक हैं और निश्चयनय की अपेक्षा से कथमपि एक नहीं हैं। तथा तीर्थंकर आदि के शरीर आदि की स्तुति व्यवहारनय की अपेक्षा से होती है।’’ आगे आचार्यदेव आठ प्रकार के कर्म और उनके फल आदि को पुद्गलमय कहते हैं पुन: समाधान रूप में गाथा ५१ में कहते हैं— ‘‘रागादि भाव आदि जो भी अध्यवसान— फरिणाम हैं वे सब जीव हैं यह व्यवहारनय का उपदेश है ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेव ने कहा है। ’’
इसी गथा की टीका में श्रीअमृतचन्द्रसूरि कहते हैं— ‘‘व्यवहारनय अपरमार्थ होते हुये भी परमार्थ का प्रतिपालक है और तीर्थ प्रवृत्ति का निमित्त है अत: उसको दिखलाना न्याय ही है। व्यवहारनय को माने बिना शरीर से जीव में परमार्थ से भेद होने से त्रस और स्थावर जीवों की व्यवस्था नहीं होगी पुन: कोई भी उन त्रस—स्थावरों को राख के समान मर्दित कर देगा और ऐसा करने पर भी हिंसा नहीं होगी, तब उसके कर्मबंध नहीं होगा। पुन: रागद्वेष मोह से जीव में सर्वथा भेद रहने से मोक्ष के उपाय को ग्रहण करना वैâसे हो सकेगा ? और तब तो मोक्ष का ही अभाव हो जावेगा। उपर्युक्त गाथा में तथा टीका में व्यवहारनय की उपयोगिता विशेष रीति से ध्यान देने योग्य है। ’’ गाथा ५५ में यह बतलाया है कि जीव के वर्ण, रस, गंध, स्पर्श आदि तथा गुणस्थान आदि कुछ भी नहीं है। पुन: नय विवक्षा खोलते हुए कहते हैं— ‘‘व्यवहारनय की अपेक्षा से वर्ण आदि से लेकर गुणस्थानपर्यंत ये सभी भाव जीव के ही हैं किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा ये कुछ भी नहीं हैं। ’’ इस बात को सुनकर कोई शिष्य प्रश्न कर देता है कि हे भगवन् ! शास्त्र में तो जीव के एवेंâद्रिय, द्वीन्द्रिय, पर्याप्त—अपर्याप्त आदि नाना भेद माने हैं सो वैâसे ? तब पुन: आचार्य समाधान करते हैं— ‘‘पर्याप्त—अपर्याप्त, सूक्ष्म और बादर आदि जो भी जीव के भेद परमागम से कहे गये हैं वे सभी व्यवहारनय की अपेक्षा से ही हैं ।’’ इस प्रकार से समयसार में अनेक गाथाओं में व्यवहारनय की उपयोगिता दिखलाई है । टीकाकार श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी व्यवहारनय की महत्ता पर जोर दिया है और यह स्पष्ट कर दिया है कि शुद्धोपयोग में पहुँचने के पहले — पहले व्यवहार प्रयोजनीभूत है। श्रीजयसेनाचार्य ने तो सरल शब्दों में ही कह दिया है कि निर्विकल्प समाधि में स्थित होने के पहले तक व्यवहारनय का ही अवलम्बन लेना होता है— जहाँ तक कि सरागचारित्र है। समयसार के अधिकारी कौन हैं ? समयसार ग्रन्थ में ‘‘मुनि, ‘‘साधु’’ और ‘‘यति’’ शब्द जिन—जिन गाथाओें में आयें हैं उनको यहाँ दे रहे हैं। जीवाधिकार में निम्नलिखित ६ गाथायें आई हैं—
जो आदभावणमिणं, णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि।
सो सव्वदुक्खमोक्खं, पावदि अचिरेण कालेण ।।१२।।
जो ‘मुनि’ नित्य ही उद्यमशील होते हुये इस आत्म भावना को करते हैं वे थोड़े ही काल में संपूर्ण दु:खों से छूट जाते हैं ।
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणिस साहुणा णिच्चं।
ताणि पुण जाण तिण्णिवि, अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।।१९।।
साधु को दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों को नित्य ही सेवन करना चाहिये। पुन: निश्चयनय से ये तीनों ही आत्मस्वरूप हैं अत: आत्मा की सेवा — आराधना करनी चाहिए।
भावार्थ— साधु को व्यवहारनय से भेदरत्नत्रय की उपासना करनी चाहिये और निश्चयनय से इन तीनोंरूप अपनी शुद्ध ाात्मा का आश्रय लेना चाहिये।
इणमण्णं जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणितु मुणी।
मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं।।३३।।
जीव से अन्य इस पुद्गलमय देह की स्तुति करके ‘मुनि’ ऐसा मानते है कि मैने केवली भगवान् की स्तुति व वंदना कर ली है।
भावार्थ — ‘‘द्वौ कुन्दोंदुतुषारहारधवलो’’ दो तीर्थंकर चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त कुन्दपुष्प, चन्द्रमा, बर्पâ या हार के समान धवल वर्ण वाले हैं। इत्यादि रूप से तीर्थंकरों के वर्ण, शरीर की अवगाहना , जन्म कल्याणक आदि दिवस अथवा निर्वाण भूमि की वंदना स्तुति करके मुनि भी ऐसा मान लेते हैं कि मैंने तीर्थंकर केवली भगवान् की स्तुति वंदना कर ली है। यह सब व्यवहारनय की अपेक्षा ठीक है।
जो इंदिए जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं।
तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू ।।३६।।
जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञान स्वभाव से परिपूर्ण आत्मा का अनुभव करते हैं, उन्हें निश्चयनय के ज्ञाता ‘साधु’ जितेन्द्रिय (मुनि) कहते हैं। वे जितेंद्रिय मुनि आठवें, नौवें गुणस्थानवर्ती शुल्क ध्यानी ही विवक्षित हैं क्योंकि वहीं पर निर्विकल्प समाधिरूप ध्यान है।
जो मोहं तु जिणित्ता, णाणसहावाहधयं मुणदि आदं।
तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया विंति ।।३७।।
जो मोह को जीतकर ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण अपनी आत्मा का अनुभव करते हैं परमार्थ के ज्ञाता— गणधर देव आदि उन्हें जितमोह साधु कहते हैं । ये जितमोह को पूर्णतया उपशांत कर देने वाले ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती ‘साधु’ ही होते हैं। ऐसा तात्पर्यवृत्तिकार ने कहा है।
जिदमोहस्स तु जइया, खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स।
तइया हु खीणमोहो, भण्णदि सो णिच्छयविद्वहिं ।।३८।।
जितमोह साधु का जब मोह नष्ट हो जाता है, निश्चयविद् ‘महामुनि’ तब उन्हें क्षीणमोह कहते हैं। यह कथन बारहवें गुणस्थानवर्ती महामुनियों की अपेक्षा है। अजीवाधिकार में दो गाथायें हैं—
जो संगं तु मुइत्ता, जाणदि उवओगमप्पंग सुद्धं। तं णिस्संग साहु परमद्ठवियाणया विंति।।३।।
जो अंतरंग—बहिरंग परिग्रह को छोड़कर ज्ञान—दर्शनोपयोगरूप अपनी शुद्धाात्मा का अनुभव करता है परमार्थ के ज्ञाता मुनि उसे ही नि:संग अपरिग्रही निग्र्रंथ ‘साधु’ कहते हैं।
जो मोंह तु मुइत्ता,णाणसहावाधियं मुणदि आदं ।
तं जिदमोहं साहुं, परमट्ठवियाणया विंति।।१३२।।
जो मोह को जीतकर ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण अपनी आत्मा का अनुभव करता है, परमार्थ के ज्ञाता मुनि उस ही जितमोह साधु कहते हैं। पुण्यपापाधिकार में दो गाथायें हैं—
परमट्ठो खलु समओ, सुद्धो जो केवली मुणी णाणी।
तहिमट्ठिदा सहावे, मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।।१५९।।
परमार्थ रूप जो समय है अर्थात् जो जीवात्मा है वह शुद्ध है, इन्द्रियों की सहायता से रहित होने से केवली है, ज्ञानी है ऐसे इस परमार्थ रूप अपने स्वभाव में स्थित हुये ‘मुनि’ ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं। यहाँ निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्ध आत्मा का स्वरूप केवलज्ञानरूप है उसमें एकाग्र परिणतिरूप निर्विकल्प ध्यानी ‘मुनि’ ही कर्मों को नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
मोत्तूण णिच्छयट्ठं, ववहारेण विदुसा पवट्ठंति ।
परमट् ठमस्सिददाण दु, जदीण कम्मक्खओ होदि ।।१६४।।
विद्वान साधु निश्चयनय के विषय को छोड़कर व्यवहार में प्रवृत्ति नहीं करते हैं। क्योंकि परमार्थ का आश्रय लेने वाले यतियों के ही कर्मक्षय होता है। भावार्थ— यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक या अव्रती निश्चयनय का आश्रय नहीं ले सकते हैं। सवंर अधिकार में गाथा आई है—
कोविदिदच्छो साहू, संपडिकाले भणिज्ज रूवमिणं।
पच्चक्खमेव टिट्ठं , परोक्खणाणे पवट् ठंतं।।१९९।।
कौन ऐसा बुद्धिमान ‘साधु’ है जो कहता हो कि वर्तमान काल में यह आत्मतत्व छद्मस्थ जीवों के प्रत्यक्ष हो जाता है अर्थात् इसका साक्षात् तो केवलज्ञान में होता है । हाँ, परोक्षरूप मानस ज्ञान के द्वारा छद्मस्थ जीव भी उसका अनुभव करके प्रत्यक्ष कर लेते हैं। निर्जरा अधिकार में गाथा है—
जो कुणदि वच्छलत्तं, तिण्हे साधूण मोक्खमग्गम्मि।
ते असुहेण सुहेणव, कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ।।२८८।।
उपर्युक्त अध्यवसान भाव और इसी प्रकार के अन्य भी भाव जिनके नहीं हैं ऐसे मुनि ही शुभ और अशुभ कर्म से लिप्त नहीं होते हैं।
विशेषार्थ— गाथा २६३ से लेकर हिंसा—अहिंसा आदि की व्याख्या की गई है। पुन: गाथा २७२, २७३, और २७४ में कहा है कि जीवों को दु:खी करने, मारने आदि के भाव हिंसा रूप हैं वे पाप बंध के कारण है और जीवों को सुखी करने तथा जिलाने आदि के भाव पुण्य बंध के कारण हैं । आगे २७६—२७७ कहते हैं कि ऐसे ही झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह पाप बंध के कारण हैं और सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पुण्य बंध के कारण हैं । पुन: इस २८८ गाथा में कहते हैं कि जिन शुद्धोपयोगी मुनि के ये व्रत—अव्रत के भाव नहीं हैं प्रत्युत जो निश्चय चारित्र में परिणत हो चुके हैं ऐसे निविकल्प मुनि ही शुभ—अशुभ कर्मो से नहीं बंधते हैं।
एवं ववहारणओ, पडिसिद्धों जाण णिच्छयणयेण।
णिच्छयणयसल्लीणा, मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।।२९१।।
इस प्रकार से निश्चयनय के द्वारा व्यवहार का प्रतिषेध हो गया है ऐसा जानो क्योंकि निश्चयनय का आश्रयलेने वाले मुनि ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं । भावार्थ— यहाँ पर भी स्पष्ट है कि जब तक सविकल्प अवस्था है तभी तक व्यवहारनय का आश्रय है। निर्विकल्प अवसथा में मुनि निश्चयनय का आश्रय लेकर निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं। अत: छठे सातवें गुणस्थान तक व्यवहारनय का ही आश्रय है। पुन: चतुर्थ पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक तो व्यवहार में ही है। इस प्रकार से इन गाथाओं में मुनि , साधु और यति शब्दों के उल्लेख से स्पष्टतया झलकता है कि यह ग्रन्थ महामुनियों की चर्या से संबंधित है। तात्पर्यवृत्तिकार श्रा जयसेनाचार्य ने लिखा है कि—
‘‘अत्र तु ग्रन्थे पंचमगुणस्थानादुपरितन— गुणस्थानवर्तिनां
वीतराग सम्यग्दृष्टीनां मुख्यवृत्या ग्रहणं सरागसम्यग्दृष्टीनां गौणवृत्येति। ’’
इस ग्रंथ में पंचमगुणस्थान से ऊपर के गुणस्थान वाले वीतराग सम्यग्दृष्टियों को ही मुख्यरूप से ग्रहण किया है सरागसम्यग्दृष्टियों को गौणरूप से ही लिया है। यही बात श्री अमृतचन्द्रसूरि की १७१ वीं गाथा की टीका में स्पष्ट है कि ‘‘ यथाख्यात चारित्र के पहले कर्मबन्ध होता है’’ और पहले कहा है कि सम्यग्दृष्टि के कर्मबन्ध नहीं होता है सो वहाँ पर उन्हें वीतराग सम्यग्दृष्टि की ही विवक्षा है ऐसा समझना । इस प्रकार यहाँ तक समयसार को पढ़ने के लिये भूमिका बनाई गई है । अब आगे समयसार का सार संग्रह करके लिखा गया है। जीव, अजीव, अधिकार—
नम: समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते।
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावांतरच्छिदे।।
‘सम्— एकत्वेन अयते—गच्छति जानाति इति आत्मा’ सम् सम्यक् प्रकार से या एकत्व स्वरूप से जो जानता है वह आत्मा है उसका सार—शुद्ध अवस्था विशेष का नाम ‘समयसार’ है, इस समयसार ग्रन्थ में शुद्धपरमात्मतत्व के प्रतिपादन की मुख्यता से व्याख्यान किया गया है । श्री वुंâदवुंâदस्वामी सर्वप्रथम सिद्धों को नमस्कार करते हुये कहते हैं कि—
वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गइं पत्ते।
वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभाणियं।।
मैं ध्रुव, अचल, और अनुपम गति को प्राप्त हुये ऐसे सिद्धों को नमस्कार कर, हे भव्य! श्रुतकेवलियों द्वारा कहे गये इस समयसार नामक प्राभृत को कहूँगा। टीकाकार श्री अमृतचन्द्रसूरि इस ग्रन्थ को ‘अर्हत्प्रवचनावयवस्य’ अर्हंत भगवान् के प्रवचन का अवयव बतलाते है, तथा केवली द्वारा प्रणीत एवं श्रुतकेवली द्वारा कथित कहते हैं। श्री जयसेनस्वामी इसके श्रुत—परमागम में सर्वज्ञकेवली द्वारा कथित अथवा श्रुतकेवली गणधरदेव कथित कहते हैं।
स्वसमय और परसमय के लक्षण में श्री जयसेनस्वामी कहते हैं कि निश्चयरत्नत्रय ‘से परिणत—जीवपदार्थ को हे शिष्य! तुम स्वसमय समझो।’ निश्चय रत्नत्रय का लक्षण एकाग्र किया है कि विशुद्धज्ञान दर्शन स्वभाव निज परमात्मा में रुचि सम्यग्दर्शन, उसी में रागादि रहित स्वसंवेदन ज्ञान और निश्चल अनुभूति रूप वीतराग चारित्र इन तीनों की एक समय मे एकाग्र अवस्था विशेष का नाम निश्चय रत्नत्रय है। पुद्गल कर्म के उदय से नर—नारकादि पर्यायों में यह जीव जब स्थित रहता है तब वह (जीव) परसमय है। आचार्य कहते हैं कि सभी जीवों ने स्पर्शन—रसना इन्द्रियों के विषयरूप काम कथा तथा घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इन्द्रियों के विषयरूप भोग कथा और कर्मबंध की कथा को अनादिकाल से सुना है, परिचय किया है और अनुभव किया है, किन्तु पर संबंध से रहित शुद्ध एक आत्मतत्व की कथा को प्राप्त नहीं किया है वह बहुत ही दुर्लभ है। यहां निश्चय और व्यवहार दोनों का समन्वय करके वस्तु तत्व को समझने के लिये आचार्य कहते हैं कि जैसे किसी अनार्य मनुष्य को अनार्य भाषा के बिना समझना अशक्य है वैसे ही व्यवहारनय के बिना परमार्थ का उपदेश करना अशक्य है।
श्रुतकेवली का लक्षण करते हुये आचार्य कहते हैं कि ‘द्रव्यश्रुताधारेणोत्पन्नं भावश्रुतज्ञानं आत्मा भवति’ द्रव्य श्रुत के आधार से उत्पन्न हुआ भावश्रुत ज्ञान आत्मा है। जो भावश्रुतरूप स्वसंवेदन ज्ञान के बल से शुद्धात्मा को जानते हैं वे निश्चय श्रुतकेवली हैं और जो स्वशुद्धात्मा का अनुभव नहीं कर रहें हैं बाह्य विषयभूत द्रव्यश्रुत के अर्थ को जानते हैं वे व्यवहार श्रुत—केवली होते हैं। ‘‘ननु तर्हि स्वसंवेदन ज्ञानबलेनास्मिन् कालेपि श्रुतकेवली भवति? तन्न ……..’’ शंकाकार कहता है कि तब तो स्वसंवेदनज्ञान के बल से इस काल में भी श्रुतकेवली हो सकते हैं ? इस पर आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं है क्योंकि जैसा पूर्व पुरुषों में शुक्लध्यानरूप स्वसंवेदन ज्ञान होता था वैसा इस समय नहीं है किंतु योग्य धर्मध्यान होता है। अर्थात् आज शुक्लध्यानी मुनि नहीं है किन्तु धर्म ध्यानी मुनि हैं ही हैं। निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थ है। जो भूतार्थ का आश्रय लेने वाले हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं । इस बात को ग्यारहवीं गाथा में कहकर आचार्य श्री वुंâदवुंâदस्वामी तत्काल ही बारहवीं गाथा में कहते हैं कि— नश्चयनय निर्विकल्प समाधि में रत हुये जीवों के लिये प्रयोजनवान् है किन्तु निर्विकल्प समाधि से रहित प्राथमिक शिष्यों के लिये सविकल्पावस्था में मिथ्यात्व, विषय, कषाय और दुध्र्यान को हटाने के लिये व्यवहारनय भी प्रयोजनवान् है। ‘परमभावदर्शियों द्वारा शुद्धनय का उपदेश करने वाला निश्चयनय जानने योग्य है। पुन: जो अपरमभाव में स्थित हैं उनके लिये व्यवहारनय प्रयोजनवान् है।’ इसमें अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि व्यवहारनय प्रयोजनवान् है क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इसी प्रकार से व्यवस्थित है। जयसेनस्वामी ने ‘अपरमे’ का अर्थ किया है कि ‘अशुद्धे’ असंयत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से अथवा श्रावक की अपेक्षा से अथवा सरागसम्यग्दृष्टि लक्षण शुभोपयोग में जो कि प्रमत्त और अप्रमत्त संयत की अपेक्षा से भेदरत्नत्रय स्वरूप है ऐसे अपरमभाव में जो स्थित है उन्हें व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है। इससे यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि चौथे से सातवें गुणस्थान तक व्यवहारनय का अवलंबन लेना पड़ता है। अत:—
जइ जिणमयं पवज्जइ ता मा व्यवहारणिच्छये मुणह।
एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं।।
यदि आप जिनवचन को प्राप्त करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चयनय में मोह को प्राप्त मत होवो क्योंकि व्यवहार के बिना तीर्थ का नाश हो जायेगा और निश्चयनय के बिना तत्व का नाश हो जावेगा। पुन: अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि — स्यात्पद से चिन्हित उभयनयन के विरोध को ध्वंस करने वाले जिनेंद्र भगवान् के वचनों में जो रमण करते हैं वे शीघ्र ही मोह रहित परम समयसार को प्राप्त कर लेते हैं।
अयि कथमपि मृत्वा तत्वकौतूहली सन् , अनुभव भव मूर्तें: पाश्र्ववर्ती मुहूर्तं।
पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन, त्यजसि झगिति मूत्र्या साकमेकत्वमोहं।।
हे भव्य! तू किसी भी तरह से मर—पच करके भी तत्वों का कौतूहली होता हुआ इस शरीरादि मूर्त द्रव्य को मुहूर्त (४८ मिनट) तक अपना पड़ौसी मानकर आत्मा का अनुभव कर ! जिससे कि अपने आत्मा के विलास रूप सर्व परद्रव्य से पृथक् देखकर इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के साथ एकतत्व के मोह को शीघ्र ही छोड़ सके। स्तुति शरीर की है या आत्मा की ? शिष्य— यदि जो जीव है वह शरीर नहीं है तो तीर्थंकर और आचार्यों की स्तुति करना मिथ्या हो जावेगा, इसलिये शरीर ही आत्मा है। आचार्य— नहीं । तुमने नयविवक्षा को समझना नहीं है। देखो! व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव और शरीर एक हैं किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा से दोनों एक नहीं हैं। जैसे सुवर्ण और चाँदी को गलाकर एक करने से एक पिंड का व्यवहार होता है। उसी तरह आत्मा और शरीर एक जगह रहते हैं। दूध और पानी के समान एकमेक हो रहे हैं इसलिये इन दोनों में एकत्व नहीं है। ऐसा नय विभाग है। इस कारण व्यवािरनय से शरीर की स्तुति हो जाती है। तथाहि—
द्वौ कुंदेंदुतुषारहारधवलौं द्वाविंद्रनीलप्रभौ।
द्वौ बंधूकसमप्रभौ जिनवृषौ द्वौ च प्रियंगुप्रभौ।।
शेषा: षोडशजन्ममृत्युरहिता: संतप्तहेमप्रभा: ।
ते सज्ज्ञानदिवाकरा: सुरनुता: सिद्धिं प्रयच्छंतु न:।
चन्द्रप्रभ और पुष्पदंत ये दो तीर्थंकर कुंद पुष्प के सदृशवर्ण वाले हैं। मुनिसुव्रत और नेमिनाथ दो तीर्थंकर इंद्रनील मणि सदृश वर्ण वाले हैं। पद्मप्रभ और वासुपूज्य ये दो तीर्थंकर लाल— कमल जैसे वर्ण वाले हैं। सुपाश्र्व और पाश्र्वनाथ दो तीर्थंकर प्रियंगु—हरित वर्ण वाले हैं एवं शेष सोलह तीर्थंकर तपाये हुये स्वर्ण वर्ण सदृश हैं। ये तीर्थंकर जन्म—मृत्यु से रहित, सम्यग्ज्ञान— पूर्ण— ज्ञानरूपी सूर्य हैं, देवों द्वारा नमस्कृत हैं। ये तीर्थंकर हमें सिद्धि प्रदान करें। इस तरह शरीर के आश्रित स्तुति तीर्थंकरों की स्तुति कहलाती है तथा पुण्यबंध में कारण है।
निश्चयनय से केवली भगवान् के गुणों की स्तुति करना ही केवली भगवान् की स्तुति है जब आत्मा सवपर का भेद विज्ञान कर लेता है तब पर को छोड़ने का प्रयत्न करता है। ज्ञानी आत्मा विचार करता है कि — मोह से मेरा कोई संबंधी नहीं है। एक उपयोग ही मैं हूँ— मैं टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव हूँ। अर्थात् मोह कर्म जड़ है, इसका उदय कलुषभाव रूप है सो इसका भाव भी पुद्गल का विकार है। यह जब चैतन्य के अनुभव में आता है तब उपयोग भी विकारी हुआ रागादि भावरूप मलिन दीखता है। जब इस जीव को इसका भेद विज्ञान हो जाता है तब यह जीव रागद्वेषादि भावों से अपने उपयोग को हटा कर अपने आप अपनी आत्मा में स्थिर होता है। यही पुरुषार्थ आत्मा को शुद्ध बना देता है। यह आतमा विचार करता है कि— मैं एक हूँ शुद्ध हूँ , निश्चय से सदा काल अरूपी हूँ , दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप से परिणत हूँ। अन्य परमाणु मात्र भी परद्रव्य मेरा कुछ भी नहीं है। इस अवस्था विशेष के प्राप्त हो जाने पर स्वरस से ऐसा महान् ज्ञान प्रगट होता है कि जिससे यह जीव मोह को जड़मूल से उखाड़ कर फैक देता है अर्थात् पुन: उसका अंकुर उत्पन्न न हो सके ऐसा नाश कर देता है। ऐसा कभी नहीं होता है कि इस जीव को भेद विज्ञान हो जावे फिर भी यह परवस्तु का त्याग कर सके , अर्थात् भेद विज्ञान के बाद विषय—कषायों का त्याग करके यह जीव अपनी आत्मा के आनंद का अनुभव कर लेता है।
शिष्य— हे भगवन् ! आत्मा के असाधारण लक्षण को न जानने वाले अज्ञानी जन पर को आत्मा मान लेते हैं तो उनकी क्या—क्या कल्पनायें होती है ? आचार्य— उन लोगों की अनेक प्रकार की कल्पनाये हैं। सुनो ! कोई तो रागादि से मलिन—विभाव परिणाम को ही जीव कहते हैं। कोई कर्म को ही जीव कहते हैं । कोई परिणामों में होने वाले तीव्र मंद आदि अनुभाग परंपरा को ही जीव कहते हैं। कोई नवीन, पुरानी अवस्था आदि से प्रवर्तमान शरीरादि नोकर्म को ही जीव कहते हैं। कोई पुण्य—पाप के उदय को ही जीव कहते हैं कोई तीव्र मंदादि रूप से सुख दु:ख के अनुभव को ही जीव कहते हैं । कोई आत्मा और कर्म की मिश्रित अवस्था को ही जीव कहते हैं। और भी अनेक प्रकार से पर को आत्मा कहने वाले लोग हैं जो मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। शिष्य — हे गुरुदेव! इन सभी मान्यताओं में जीव का वास्तविक स्वरूप क्या है ? आचार्य — हे भव्य! जीव और अजीव दोनों ही अनादिकाल से एक क्षेत्रावगाह रूप मिल रहे हैं और अनादि से ही पुद्गल के संयोग से जीव की विकार सहित अनेक अवस्थायें हो रही हैं । यदि परमार्थ से देखा जाय तो जीव अपने चैतन्य भाव को नहीं छोड़ता है और पुद् गल अपने मूर्तिक जड़भाव को नहीं छोड़ता है। परमार्थ को न जानकर संयोग जन्य भावों को ही जीव मान लेना गलत है। इन आठ प्रकारों में जो भी रागादि परिणाम हैं और जो भी कर्म नोकर्म आदि अवस्थाये हैं । कुछ जीव के विभाव भावरूप वर्णरसादि तथा गुणस्थान, मार्गणा आदि जीव के हैं और निश्चयनय की अपेक्षा से वर्णरसादि तथा गुणस्थान, मार्गणा आदि जीव के हैं और निश्चयनय से ये भाव जीव के नहीं हैं जीव का वास्तविक स्वभाव ज्ञान—दर्शनमय है। ऐसा समझो।
जीव और अजीव दोनों ही यद्यपि शुद्ध निश्चयनय से कर्ताकर्म भाव से रहित हैं तथापि व्यवहारनय से कर्ताकर्म भाव से संसार में भ्रमण कर रहे है। श्रीकुन्दकुन्द आचार्य कहते हैं कि— जब तक यह जीव आत्मा और आश्रव इन दोनों के भेद को — भिन्न—भिन्न लक्षण को नहीं जानता है तब तक वह अज्ञानी हुआ क्रोधादि आस्रवों में प्रवृत्ति करता है। क्रोधादि रूप परिणमन करने से कर्मों का संचय हुआ करता है। अर्थात् यह आत्मा जैसे अपने ज्ञानस्वभाव रूप परिणमन करता है उसी प्रकार क्रोधादि रूप भी परिणमन करता है। क्रोधादिरूप परिणमन करता हुआ आप तो कर्ता है और वे क्रोधादि इसके कर्म हैं। अनादि अज्ञान से कर्ता—कर्म की प्रवृत्ति है और कर्ता—कर्म की प्रवृत्ति से बंध होता है। शिष्य — ज्ञान मात्र से ही बंध का निरोध हो जाता है सो कैसे ? आचार्य — आश्रव अशुचि हैं, जड़ हैं, दु:ख के कारण हैं और आत्मा पवित्र है, ज्ञाता है, सुख स्वरूप है। ऐसे दोनों को लक्षण के भेद से भिन्न जानकर आत्मा आस्रवों से निवृत हो जाता है। तब उसके कर्म का बंध नहीं होता है। जब यह जीव स्वसंवेदन ज्ञान के अनंतर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकाग्र परिणतिरूप परमसामायिक में स्थित होकर क्रोधादि आस्रवों से निवृत्त हो जाता है। अर्थात् ज्ञानमात्र से ही बंध का निरोध होता है ऐसा कहने से एकांत से सांख्यादि मत का प्रवेश नहीं होता है क्योंकि ज्ञान के साथ सम्यक्त्व और चारित्र मौजूद हैं। देखो प्रश्न यह होता है कि आत्मा और आस्रव संबंधि जो भेदज्ञान है वह रागादि से रहित है या नहीं ? यदि रहित है तब तो उस भेदज्ञान में अभेदनय से वीतराग चारित्र और वीतराग सम्यक्तव आ जाते हैं इसलिये सम्यग्ज्ञान से ही बंध निरोध की सिद्धि है ऐसा कह देते हैं । यदि आप कहें कि वह भेदज्ञान रागादि से रहित नहीं है तब तो वह सम्यग्ज्ञान ही नहीं है । सारांश यह निकलता है कि यदि आत्मा और आस्रव का भेदज्ञान आस्रव से निवृत्त नहीं है तो वह ज्ञान ही नहीं कहलाता है। ज्ञान से बंध का अभाव होता है मतलब मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव हो जाने पर जब वीतराग चारित्र के साथ अविनाभूत भेदज्ञान प्रगट होता है तभी बंध का अभाव होता है। यह अवस्था दसवें गुणस्थान के बाद प्रगट होती है। उसके पहले जितने—ाqजतने अंशों में रागादि का अभाव होता जाता है उतने—उतने अंशों में बंध का भी अभाव होता जाता है ऐसा समझना चाहिये । शिष्य — कस विधि से यह आस्रव से निवृत होता है ?
आचार्य— अहमिक्को खलु सुद्धो णिम्मओ णाणदंसणसमग्गो।
तम्हि ठिदो तच्चित्तो सव्वे एए खयं णेमि।।७३।।
ज्ञानी विचारता है कि मैं निश्चय से एक हूँ , शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ, ज्ञान दर्शन से पूर्ण हूँ, ऐसे स्वभाव में स्थित, उसी चैतन्य अनुभव में लीन हुआ इन क्रोधादि आस्रवों का क्षय कर देता है।
शिष्य— हे गुरुदेव ! आपने पहले जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन पदार्थों का वर्णन किया है। पुन: यदि आप जीव, अजीव पदार्थ को नित्य और अपरिणामी मानोगे तो दो ही पदार्थ सिद्ध होंगे और यदि दोनों को परिणामी मानोगे तो दोनों के तन्मय हो जाने से एक ही पदार्थ सिद्ध होगा ? आचार्य— ऐसी बात नहीं है। देखो ! जैन— सद्धांत में ये दोनों द्रव्य कथंचित् परिणामी हैं और तभी नव पदार्थ की व्यवस्था बनती है अन्यथा नहीं बन सकती। शिष्य— हे भगवन् ! सज्ञानी और अज्ञानी जीवों का लक्षण क्या है ?
आचार्य— यद्यपि यह जीव शुद्ध निश्चयनय से अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता है फिर भी व्यवहार से कर्म के उदय से रागादि रूप औपाधिक परिणाम को ग्रहण करता है इसलिये यह कथंचित् परिणामी भी है। कभी यह जीव बहिरात्मा होकर विषय—कषाय रूप अशुभ उपयोग को करता है। उस समय यह द्रव्यभावरूप पुण्य, पाप, आस्रव, बंधपदार्थों का कर्ता होता है। उसमें भावरूप पुण्यादि जीव के परिणाम हैं और द्रव्यरूप पुण्यादि अजीव के परिणाम हैं। यही जीव कभी सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा होकर निश्चय रत्नत्रय लक्षण शुद्धोपयोग के बल से निश्चय चारित्र के साथ अविनाभावी वीतराग सम्यग्दृष्टि होता हुआ निर्विकल्प समाधिरूप परिणाम परिणति को करता है, तब उस परिणाम में संवर, निर्जरा और मोक्ष पदार्थों का कर्ता होता है। कदाचित् पुन: निर्विकल्प समाधि के अभाव में विषय—कषाय को दूर करने के लिये अथवा शुद्धात्म भावना की सिद्धि के लिये ख्याति, पूजा, लाभ भोगाकांक्षा, निदान बंध से रहित होता हुआ शुद्धात्मलक्षण अर्हंत, सिद्ध, और शुद्धात्मा के आराधक, प्रतिपादक तथा साधक आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पंचपरमेष्ठिाो के गुण स्मरण आदि रूप शुभोपयोग परिणाम को करता है। अर्थात जैसे कोई पुरुष अपनी स्त्री के निमित्त से बाहर से आये हुये व्यक्ति से उसकी बात पूछता है, उसका सम्मान आदि भी करता है वैसे ही सम्यग्दृष्टिजीव शुद्धत्मा की उपलब्धि के लिये शुद्धात्मा के आराधक — आचार्य, उपाध्याय, साधुओं की भी भक्ति , पूजा आदि करता है। इस प्रकार ज्ञानी जीव भी कथंचित कर्ता माना गया है सर्वथा नहीं । ऐसे यहां ज्ञानी, अज्ञानी का संक्षिप्त वर्णन किया है। जीव अपने भावों का कर्ता है—
जं कुणइ भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स।
कम्मत्तं परिणमदे तह्यि सयं पुग्गलं दव्वं।।९१।।
आत्मा जिस भाव को करता है उस भाव का कर्ता आप होता है । उसके कर्ता होने पर पुद्गल द्रव्य अपने आप कर्म रूप परिणमन कर जाते हैं। अर्थात् जब यह आत्मा रागद्वेष और मोहरूप से परिणत होता है तब आप उन भावो का कर्ता होता है और उसके रागादि भावों का निमित्त पाकर पुदृगल द्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणत हो जाते हैं। कर्म का उपादान पुद्गल द्रव्य ही है और रागादि भावों का उपादान आत्मा है। इसलिये जब यह आत्मा रागद्वेष, मोह परिणामों को नहीं करता है तब कर्मों का बंध नहीं होता है। कोई जीव बीतराग परमसामायिक परिणत शुद्धोपयोग लक्षण भेदज्ञान को प्राप्त न होने से क्रोधादि भाव और शुद्धात्मा में भेद को नहीं समझता हुआ कर्मों का कर्ता होता है तथा वही जीव सुख—दु:ख आदि में परमसमताभावना रूप शुद्धोपयोग लक्षण भेद—ज्ञान के अभाव से धर्म— अधर्म आदि ज्ञेय पदार्थ और शुद्धात्मा में भेद को नहीं जानता हुआ ‘धर्मास्तिकाय मैं हूँ’ इत्यादि विकल्प को करता है और उस विकल्प से द्रवय कर्मों का बंध हो जाता है। शिष्य — हे भगवन् ! यदि ‘यह धर्मास्तिकाय है, यह जीव है’ इत्यादि ज्ञेय का विचार करने पर कर्मबंध होता है तब तो ज्ञेय तत्व का विचार व्यर्थ ही है उसका विचार नहीं करना चाहिए ? आचार्य — ऐसी बात नहीं है। तीन गुप्ति से परिणत निर्विकल्प समाधि के समय में यद्यपि ज्ञेयतत्व का विचार नहीं करना चाहिये। फिर भी त्रिगुप्तिरूप निर्विकल्प ध्यान के अभाव में शुद्धात्मा को उपादेय करके तथा आगम भाषा में मोक्ष को उपादेय करके सराग सम्यक्तव में विषयकषाय को छोड़ने के लिये ज्ञेयतत्त्व का विचार अवश्य करना चाहिये। क्योंकि इस ज्ञेयतत्त्व के विचार से मुख्यतया पुण्य बंध होता है और परम्परा से मोक्ष प्राप्ति होती है इसलिये कोई दोष नहीं है। किन्तु तत्व का विचार करते समय वीतराग स्वंसवेदनज्ञान से परिणत शुद्धात्मा ही उपादेय है ऐसा समझना। शिष्य — हे गुरुदेव! वीतराग स्वसंवेदनज्ञान के विचार से समय में वीतराग विशेषण आप बार—बार क्यों देते हैं क्या सराग भी स्वसंवेदन ज्ञान होता है ? आचार्य — हँ ! विषय सुखों के अनुभव से उत्पन्न हुआ आनन्दरूप स्वसंवेदनज्ञान सराग भी है जो कि सर्वजन सुप्रसिद्ध है। और शुद्धात्मा की अनुभूतिरूप स्वसंवेदनज्ञान वीतराग है। ऐसा सर्वत्र समझना चाहिये। इस शुद्धात्मानुभूति लक्षण सम्यग्ज्ञान से कर्तृकर्मत्व भाव समाप्त हो जाता है। सार यह निकला कि जब यह जीव मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत होता है। तब अज्ञान भाव (भावकर्म) का कर्ता होता है और उससे कर्मों का बंध होता है। और जब यह जीव वीतराग परमसामायिक रूप अभेदरत्नत्रय से परिणत होता है तब उसके भावकर्म का बंध न होने से द्रव्य कर्म का बंध भी नहीं होता है। और—
‘एवं खलु जो जाणदि सो मुंचदि सव्वकत्तितं ।’
इस प्रकार से जो वस्तु स्वरूप को जानता है वह सराग सम्यग्दृष्टि होता हुआ पहले अशुभ कर्म के कर्तृत्व को छोड़ता है। अनंतर निश्चय चारित्र के साथ अविनाभावी वीतरागसम्यग्दृष्टि होता हुआ शुभ—अशुभरूप समस्त कर्म के कर्तृव्य से छूट जाता है। आज हम अशुभ कर्म के कर्तापने को छोड़ सकते हैं । शुभकर्म के कर्तापने से अलग नहीं हो सकते हैं । अत: सबसे पहले अशुभ से निवृत्त होकर शुभ में प्रवृत्ति करना ही श्रेयस्कर है। आत्मा क्रोधादि भावकर्म से कथंचित् भिन्न है— शुद्ध निश्चयनय से जीव कर्मों का कर्ता— भोक्ता नहीं है और क्रोधादि से भिन्न है। व्यवहारनय से कर्मों का कर्ता—भोक्ता भी है और क्रोधादि से अभिन्न है। जो परस्पर सापेक्षनय विभाग को नहीं मानते हैं वे सांख्यादि मत का अनुसरण करते हैं उनके मत से जिस प्रकार यह जीव शुद्ध निश्चयनय से अकर्ता आदि है वैसे ही व्यवहारनय से भी अकर्ता आदि है तब तो क्रोधादि रूप परिणमन न करने से सिद्धों के समान इस जीव के भी कर्मों का भी बंध नहीं होगा। कर्मबंध के अभाव में संसार का अभाव हो जावेगा और संसार के अभाव में यह जीव हमेशा मुक्त (सदा शिव) ही बना रहेगा, किन्तु यह बात तो प्रत्यक्ष में विरुद्ध है संसार तो प्रत्यक्ष से ही दिख रहा है। भगवान् कुन्द कुन्द देव स्वयं कह रहे हैं—
अपरिणमंतम्हि संय जीवे कोहादिएहिं भावेहिं।
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमहो वा ।।१२२।।
जीव द्रव्य को सर्वथा अपरिणामी मानने वालों के प्रति आचार्य कहते हैं कि ‘तेरी बुद्धि में यदि यह जीव कर्मों ’ से आप तो बंधा नहीं है और क्रोधादि भावों से आप परिणमन नहीं करता है तो यह जीव अपरिणामी हो जावेगा। यदि आप कहें कि पुद्गल कर्म क्रोध है वह जीव को क्रोध भावरूप परिमाता है तो आप स्वयं न परिणत हुये जीव को क्रोध वैâसे परिणमा सकता है ? यदि आप कहें कि आत्मा अपने आप क्रोध भाव से परिणमन करता है तो क्रोध जीव को भावरूप परिणमाता है। अर्थात् जीव और पुद्गल दोनों ही परिणमनशील द्रव्य हैं और एक दूसरे के निमित्त—नैमित्तिक संबंध से दोनों ही विभावरूप परिणमन भी कर रहे हैं तभी संसार बन रहा है। यदि दोनों द्रव्य सदा स्वभाव रूप ही परिणमन करें विभावरूप न करें तो संसार का अभाव हो जावेगा। और यदि सर्वथा ये द्रव्य अपरिणामी ही होवें तो सांख्यमत आ जाता है । इसलिये आचार्य ने जीव और पुद्गल इन दोनों को कथंचित् परिणामी सिद्ध करते हुये कथंचित् निमित्त नैमित्तिक संबंध से जीव को कर्मों का कर्ता भी माना है। इन्हीं गाथाओं की टीका में श्रीजयसेनाचार्य ने भी कहा है कि जब यह ज्ञानी जीव शुद्धोपयोग भाव से परिणत अभेदरत्नत्रयलक्षण अभेदज्ञान से परिणमन करता है तब निश्चय चारित्र से अविनाभूत वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों का कर्ता होता है। निश्चय सम्यक्तव के अभाव में जब सराग सम्यक्त्वरूप से परिणमन करता है तब शुद्धात्मा को उपादेय करके परम्परा से मोक्ष के लिये कारणभूत तीर्थंकर प्रकृति आदि का कर्ता होता है। (पुद्गल द्रव्य कर्म का कर्ता उपादान रूप से न होकर निमित्त मात्र से होता है।) जीव और पुद्गल को वंâथचित् परिणामी मानने से ही यह व्यवस्था बनती है। जीव कर्म से बंधते हैं, स्पर्शते हैं यह व्यवहार नय का पक्ष है। जीव में कर्म न बंधता है न स्पर्शता है न स्पर्शता है, यह शुद्धनय का वचन है जीवेकम्मंबद्धं— गाथा १४१ ।। जीव में कर्म बंधे हुये अथवा नहीं बंधे हुये हैं इस प्रकार तो नय पक्ष है और जो इन दोनों पक्षों से दूरवर्ती है— उलंघन कर चुका है वही समयसार है। कम्मंबद्धमबद्धं जीवे— गाथा १४२ समयसार।
य एव मुक्तवा नयपक्षपातं, स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यं ।
विकल्पजालच्युतशांतचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिवंति।।६९।।
समयसार कलश— अमृतचद्रसूरि।
जो पुरुषनय के पश्चात् को छोड़कर अपने स्वरूप में गुप्त होकर निरंतर स्थिर होते हैं, वे ही पुरुष विकल्प के जाल से रहित शान्तचित्त हुये साक्षात् अमृत को पीते हैं। अर्थात् जब तक नयों का पक्षपात रहता है तब तक वीतराग निर्विकल्प अवस्था नहीं होती है और वीतराग निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त करने के लिये प्रारम्भ में नय प्रमाण निक्षेप का पक्ष भी आवश्यक ही है। चतुर्थ, पंचम, छठे गुणस्थान तक तो सराग अवस्था में नयों के अवलंबन से वस्तु के स्वरूप को समझना चाहिये पुन: सासतवें आदि गुणस्थानों में निर्विकल्पध्यान में लीन होकर नयों के पक्षपात को छोड़कर पूर्ण वीतरागता को प्रगट करना चाहिये।
श्रीकुंदकुंद भगवान् कर्ताकर्म अधिकार द्वारा जीव की कत्र्तव्य बुद्धि को हटाकर अब बताते हैं कि बंध की अपेक्षा पुण्य और पाप दोनों ही कर्म एक रूप हैं क्योंकि ये दोनों ही कर्म एक रूप हैं क्योंकि ये दोनों ही कर्म आत्मा को बाँधते ही हैं — जैसे सुवर्ण की बेड़ी और लोहे की बेड़ी में बंध की अपेक्षा भेद नहीं है। अभिप्राय यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थान तक शुद्धोपयोग रूप शुद्ध परिणाम में परिणत नहीं हो पाते हैं तब तक वे शुभोपयोगी, पंचगुरु भक्ति, दया, दान आदि में प्रवृत्ति करते हैं किन्तु उसके फलस्वरूप संसार के अभ्युदयों की कामना नहीं करते हैं यही सोचते हैं कि मेरा यह पुण्य शुद्धोपयोगरूप शुक्लध्यान को प्राप्त करने में सहकारी कारण होगा क्योंकि शुद्धोपयोग के बिना कर्मों की निर्जरा और मोक्ष नहीं है तथा अशुभ से हटकर शुभ में आये बिना शुद्धोपयोग भी संभव नहीं है। मुनिव्रत को धारण करके अंतरंग—बहिरंग तपश्चर्या के द्वारा शरीर से निर्मम होने वाले मुनिराज ही शुद्धोपयोगी बन सकते हैं। साधारण सम्यग्दृष्टि अथवा श्रावक कभी भी शुद्धोपयोगी को प्राप्त नहीं कर सकते हैं । हाँ ! इतना अवश्य है कि सम्यग्दृष्टि की सभी धर्म क्रियायें कर्मक्षय की भावना से होती हैं। इसलिये पुण्यबंध की तथा उसके फलों की इच्छा नहीं करता है फिर भी तीर्थंकर जैसे महान् पद को भी प्राप्त कर लेता है किन्तु इच्छा करने वाला व्यक्ति इन महान् पदों से वंचित ही रह जाता है।
१. जीवेकम्मंबद्धं — गाथा १४१ ।
२. कम्मंबद्धमबद्धं जीवे— गाथा १४२ समयसार।
३. समयसार कलश— अमृतचद्रसूरि।
‘‘रागी जीव तो कर्मों को बांधता है और जो विरक्त है वह कर्मों से छूट जाता है यह जिन भगवानों का उपदेश है इस कारण हे भव्य जीवों! तुम कर्मों के प्रीति मत करोरत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवों विराग संपत्तो। ऐसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।।१५०।। समयसार।’’ जो जीव व्रत और नियम को धारण करते हैं तथा शील और तप को भी करते हैं किन्तु परमार्थभूत, ज्ञान स्वरूप आत्मा से बाह्य हैं वे मोक्ष को नहीं पा सकते।
प्रश्न—व्रत, नियम आदि करने वाले के यदि आत्म ज्ञान नहीं है तो मोक्ष नहीं हो सकता और यदि आत्मज्ञान है तो व्रत, तपश्चरण आदि के बिना भी मोक्ष हो जाता है तो फिर संकल्प विकल्प से रहित जीव यदि विषयों में प्रवृत्ति करते हैं तो भी उन्हें पाप नहीं होता। तथा तपश्चरण आदि के बिना भी मोक्ष हो जाता है ऐसा जो सांख्य, शैवमतानुसारी कहते हैं उनका कहना भी सिद्ध ही हो जाता है।
उत्तर—ऐसा नहीं कहना, क्योंकि निर्विकलपरूप, त्रिगुप्ति समाधि लक्षण भेदज्ञान से सहित महामुनियों को ही मोक्ष होता है ऐसा बहुत बार कहा है और इस प्रकार के भेद—विज्ञान के समय शुभरूप जो मन वचन काय के व्यापार हैं जो कि परम्परा से मुक्ति के कारण हैं वे भी नहीं हैं पुन: अशुभ विषयकषायरूप व्यापार वैसे हो सकते हैं ? अर्थात् वे तो विशेष रूप से नहीं है न हि चित्तस्य रागभावे विनष्टे सति बहिरंगविषयव्यापारो दृश्यते । समयसार टीका पृ० २१७। । चित्त में स्थित रागभाव के विनष्ट हो जाने पर बहिरंग में विषय व्यापार नहीं दिख सकता है। जैसे तंदुल की अभ्यंतर ललाई के समाप्त हो जाने पर बहिरंग छिलका समाप्त ही हो गया है। अर्थात् चावल के ऊपर का छिलका पहले हटता है पुन: अन्दर की ललाई दूर होती है। क्योंकि निर्विकल्प लक्षण भेदविज्ञान और विषयकषाय व्यापार इनका परस्पर में विरोध है। यहां निष्कर्ष यह निकलता है कि आरम्भ में विषयकषायरूप प्रवृत्ति को छोड़कर मुनि पद धारण करना चाहिये पुन: व्रत तपश्चरण आदि को करते हुए सर्वथा रागभाव से रहित होते हुये निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर पुण्यबंध से भी छूअकर कर्मों का छय करना चाहिये। उसके पूर्व की अवस्था में अश्भ से हटकर शुभ में प्रवृत्त होते हुए भी आत्मा की शुद्धि का ही लक्ष्य रखना चाहिए। जीवादि पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्व है और उन जीवादि पदार्थों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है तथा रागादि का त्याग चारित्र है। यही मोक्ष का मार्ग है । यह व्यवहार रत्नत्रय निश्चय रत्नत्रय का साधक है और निश्चय रत्नत्रय के आश्रित महान् यतीश्वरों के ही कर्मों काक्षय होता है। अत: भेद रत्नत्रय को प्राप्त कर अभेद— नश्चय रत्नत्रय को प्राप्त करने की भावना करनी चाहिये।
१. रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवों विराग संपत्तो।
ऐसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।।१५०।। समयसार
२. न हि चित्तस्य रागभावे विनष्टे सति बहिरंगविषयव्यापारो दृश्यते । समयसार टीका पृ० २१७।
जीवादि पदार्थों का श्रद्धान तो सम्यक्त्व है और उन जीवादि पदार्थों का अधिगम वह ज्ञान है तथा रागादि का त्याग वह चारित्र है, यही मोक्ष का मार्ग है।
जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं ।
रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।।१५५।।
प्रश —रत्नत्रय को मोक्ष मार्ग कहा किंतु रत्नत्रय तो आतमा का स्वभाव ही है अत: वह सर्वदा ही विद्यमान है ?
उत्तर —सर्वथा ऐसा नहीं है क्योंकि रत्नत्रय के आच्छादक कर्म हैं उसी को स्वयं भगवान् कुन्दकुन्ददेव कहते हैं — सम्यक्तव को रोकने वाला मिथ्यात्व कर्म है ऐसा जिनवरदेव ने कहा है। उस मिथ्यात्व के उदय से यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है ऐसा जानना चाहिये। ज्ञान को रोकने वाला अज्ञान है ऐसा जिनवर ने कहा है उसके उदय से यह जीव अज्ञानी होता है चारित्र का प्रतिबंधक कषाय है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है उसके उदय से यह जीव अचारित्री हो जाता है ऐसा जानना चाहिये।
सम्मत्त पडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिण्वरेहिं परिकहियं।
तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिट्ठत्ति णायव्वो।।१६१।।
णाणस्स पडिणिबद्धं अण्णाणं जिणवरेहिं परिकहियं ।
तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णायव्वो।।१६२।।
चारित्तपडिणिबद्धं कसायं जिणवरेहिं परिकहियं ।
तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णायव्वो।।१६३।। समयसार।।
प्रश्न — हमने सुना है कि कर्म का उदय जीव का कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकता है क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं हो सकता ?
उत्तर —सर्वथा यह एकांत नहीं है इसी बात को भगवान् कुंदकुंददेव के शब्दों से ही स्पष्ट कर लीजिये, कि कर्म के उदय से ही जीव के मिथ्यात्वादि परिणाम होते हैं । एक द्रव्य उपादानरूप से अन्य द्रव्य का कर्ता नहीं किंतु निमित्तरूप से है ही, जैसे कुंभकार घट बनाने में उपादान कर्ता नहीं है किंतु निमित्तरूप से अवश्य है वैसे ही कर्म का उदय जीव को उपादानरूप से जड़ नहीं बनाता किंन्तु परिणामों को विकृत करने में निमित्त बन जाता है।
मग्ना: कर्मनयावलंबनपरा ज्ञानं न जानंति ये।
मग्ना ज्ञाननयैषिऽपि यदातिस्वच्छंद— मंदोद्यमा: ।।
विश्वस्योपरि ते तरंति सततं ज्ञानं भवंत: स्वयं ।
ये कुर्वंति ने कर्म जातु न वंश यांति प्रमादस्य च ।।१११।।
जो कोई कर्मनय के अवलंबन से तम्पर हैं अर्थात् एकांत से क्रिया कांड में ही लगे रहते हैं वे डूब जाते हैं क्योंकि ज्ञान से शून्य हैं और कोई जब ज्ञाननय के पक्षपाती हैं वे भी डूब जाते हैं क्योंकि क्रियाकांड को छोड़कर अत्यंत स्वच्छंद होते हुए प्रमादी हो जाते हैं । किन्तु आप निरंतर ज्ञानरूप हुए कर्म को तो करते नहीं तथा प्रमाद के वश में भी नहीं होते हैं , अपने स्वरूप में उत्साहवान् हैं वे सब लोक के ऊपर तैरते हैं अर्थात् जो पुण्य—पाप क्रियाओं से सर्वथा छूटकर ध्यान में लीन होते हैं और जब ध्यान से उतरते हैं तब शुभरूप आवश्यक क्रियाओं में जाग्रत रहते हैं, वे ही निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर कारणसमयसाररूप निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त करर कार्यसमयसाररूप केवली हो जाते हैं।
१. जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं ।
रागादीपरिररणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।।१५५।।
२. सम्मत्त पडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिण्वरेहिं ।
तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिट्ठित्ति णायव्वो।।१६१।।
णाणस्स पडिणिबद्धं अण्णाणं जिणवरेहिं परिकहियं ।
तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिट्ठत्ति णायव्वो।।१६२।।
चारित्तपडिणिबद्धं कसायं जिणवरेहिं परिकहियं ।
तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णायव्वो।।१६३।। समयसार।।
पुन: वे ही तीन लोक के अग्रभाग पर विराजमान हो जाते हैं । इसलिये एकांत से पुण्य का निषेध नहीं है किन्तु शुद्धोपयोग में पहुँचने तक पुण्यग्राह्य है। आस्रव अधिकार— सम्यग्दृष्टि के कर्मों का आस्रव नहीं होता है।
प्रश्न — हे भगवन् ! ज्ञानी के कर्मों का आस्रव होता है या नहीं ?
उत्तर — मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार आस्रव के भेद चेतन और अचेतन के भेद से दो—दो प्रकार के हो जाते हैं। रागद्वेषादि परिणाम जीव के विकार हैं और ज्ञानावरणादि कर्म पुद्गल के विकार हैं। द्रव्य कर्म का उदय होने पर जब यह जीव रागादि भाव से परिणमन करता है तब आस्रव बंध होता है , कर्म के उदय मात्र से ही बन्ध नहीं होता है यदि उदय मात्र से बंध माना जाये, तब तो संसारी जीवों के सदा ही कर्म का उदय विद्यमान है।
प्रश्न —तब तो कर्म का उदय बंध में कारण नहीं है, फिर क्या है ?
उत्तर —नर्विकल्प समाधि से रहित जीवों के मोह सहित कर्मों का उद्य व्यवहारनय से बंध में निमित्त है। निश्चयनय से अशुद्ध पादान कारणरूप अपने रागादि परिणाम ही बंध के कारण हैं। हां, इतना अवश्य है कि द्रव्य कर्म के बिना भाव कर्म (रागादि भाव)होना असंभव है अत: द्रव्य कर्मों का उदय निमित्त कारण माना गया है। आचार्य श्री स्वयं कहते हैं— सम्यग्दृष्टि के आस्रव — बंध नहीं है किंतु आस्रव का निरोध है और जो पहले के बांधे हुये कर्म सत्ता में मौजूद हैं उनको आगे नहीं बांधता हुआ वह जानता है।
‘‘जीव . भावों रागादिजुदो जीवेण कदा दु बंधगो भणिदो।
रागादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगोणवरिं ।।१६७।।
समयसार का जो भाव रागादि सहित है, वही नवीन कर्मों का बंध करने वाला कहा गया है और जो भाव रागादि रहित वीतराग है वह अबंधक है केवल ज्ञायक मात्र है’’ अर्थात् सम्यग्दृष्टि के दो भेद हैं — सराग और वीतराग । जो सराग सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थान में है वह मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा तेंतालीस प्रकृतियों का अबंधक है और सतत्तर प्रकृतियों के अल्प स्थिति, अनुभागरूप बंध को करने वाला होता हुआ संसार स्थिति का छेद करने वाला है अतएव वह इस दृष्टि से अबंधक है । उसी प्रकार आगे के गुणस्थानों में भी नीचे के गुणस्थान की अपेक्षा तरतमता से अबंधक है । ऊपर के गुणस्थान में साक्षात् अबंधक है क्योंकि वहां पर मोहनीय कर्म के अभाव में रागादि भाव नहीं हैं। इसलिये ‘‘मैं सम्यग्दृष्टि हूँ मुझे सर्वथा बंध नहीं होता है’’‘‘वयं सम्यग्दृष्टय: सर्वथा बंधो नास्तीति न वक्तव्यं ।’’(टीका तात्पर्यवृत्ति) ऐसा नहीं कहना चाहिये।
प्रश्न —ज्ञानी का ज्ञान गुण परिणाम बंध का कारण कैसे होगा ?
उत्तर —यथाख्यात चारित्र के पहले— पहले ज्ञान गुण कषाय सहित होने से जघन्यहीन कहलाता है ‘स तु यथाख्यातचारित्रवस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद् भावात् बंधहेतुरेव स्यात् ।’’ आत्मख्याति टीका, श्री अमृतचन्द्रसूरिकृत। गााथा १७१ में अत: यह जीव अंतर्मुहूर्त से अधिक निर्विकल्प समाधि ध्यान में स्थित नहीं हो सकता है। इसलिये वह ज्ञान गुण सविकल्प भावरूप से परिणम हुआ कषाय से सहित होने से बंधक होता है।
प्रश्न—संसार की स्थिति को घटाने वाले क्सा—क्या कारण हैं ?
१. भावों रागादिजुदो जीवेण कदा दु बंधगो भणिदो।
रागादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगोणवरिं ।।१६७।। समयसार
२. ‘‘वयं सम्यग्दृष्टय: सर्वथा बंधो नास्तीति न वक्तव्यं ।’’(टीका तात्पर्यवृत्ति)
३. ‘‘स तु यथाख्यातचारित्रवस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद् भावात् बंधहेतुरेव स्यात् ।’’
आत्मख्याति टीका, श्री अमृतचन्द्रसूरिकृत। गाथा १७१
उत्तर —द्वादशांगद्वादशांगावगमस्तीव्र भक्ति— समयसार टीका, जयसेनाचार्य । पृ० २४३। का ज्ञान, उनमें तीव्र भक्ति, अनिवृत्ति परिणाम और केवलीसमुद्घात ये संसार स्थिति के घात के कारण हैं। द्वादशांग श्रुत का ज्ञान व्यवहार से बाह्य विषयक है, और निश्चय से वीतराग स्वयंवेदन लक्षण रूप है। भक्ति को यहाँ सम्यक्तव कहा है वह व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टि के पंच परमेष्ठी की आराधना रूप है, और निश्चय से वीतराग सम्यग्दृष्टियों के शुद्धात्म तत्व की भावनारूप है, अनिवृत्ति— शुद्धात्म स्वरूप से च्युत न होना, एकाग्र परिणति रूप परिणाम है। यहाँ ‘द्वादशांग का ज्ञान’ से निश्चय व्यवहार ज्ञान हो गया, भक्ति से निश्चय व्यवहार सम्यक्तव हो गया, अनिवृत्ति परिणाम से सराग चारित्र के अनंतर का वीतराग चारित्र आ गया। इस प्रकार छद्मस्थ जीवों के सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र भेद—अभेद रत्नत्रय रूप से संसार की स्थिति का घात करने वाले माने गये हैं । तथा केवली भगवान् के दंड, कपाट, प्रतर, लोकपूरण रूप केवली समुद्घात संसार के नाश का कारण है और राग द्वेष मोह ही बंध के कारण हैं।
प्रश्न — सम्यग्दृष्टि के राग द्वेष मोह है या नहीं ?
उत्तर — सम्यग्दृष्टि के राग द्वेष मोह नहीं हैं , क्योंकि राग द्वेष मोह के अभाव के बिना सम्यग्दृष्टिपना बन नहीं सकता, अत: सम्यग्दृष्टि के द्रव्यास्रव बंध के कारण नहीं हैं।
रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स ।
तह्मा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति।।१७७।। समयसार अनंतानुबंधीसमयसार गाथा १७७,
क्रोध मान माया लोभ और मिथ्यात्व के उदय से होने वाले राग द्वेष मोह सम्यग्दृष्टि के नहीं हैं, क्योंकि केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप परमात्मा को उपादेय मानकर सप्ततत्त्वादि की श्रद्धारूप तथा शंकादि पच्चीस मल दोष रहित और संवेग, निर्वेद आदि आठ गुणसहित चतुर्थगुणस्थानवर्ती सराग सम्यक्तव अन्यथा हो नहीं सकता अर्थात् सप्ततत्त्वादि श्रद्धारूप सम्यक्त्व के होने पर अनंतानुबंधी आदि सात प्रकृतियों के निमित्त से होने वाला राग द्वेष मोह सम्यग्दृष्टि के नहीं है। ऐसे ही अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण कषायों से उत्पन्न हुये राग द्वेष मोह सम्यग्दृष्टि के नहीं हैं। क्योंकि पंचम गुणस्थान के योग्य देश चारित्र का अविनाभावि सराग सम्यक्त्व देशव्रती में देखा जाता है। अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषायों से होने वाला राग द्वेष मोह सम्यग्दृष्टि के नहीं है, क्योंकि छठे गुणस्थान रूप सरागचारित्र के साथ अविनाभावी सम्यक्त्व अन्यथा (अन्य प्रकार से ) हो नहीं सकता है। अनंतानुबंधी आदि बारह कषाय और संज्वलन क्रोध मान माया लोभ के तीव्र उदय से होने वाला तथा प्रमाद को उत्पन्न करने वाला राग द्वेष मोह सम्यग्दृष्टि के नहीं है, क्योंकि शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव परमात्मा को उपादेय मानकर उस योग्य स्वकीय शुद्धात्म समाधि से उत्पन्न सहजानंद एक लक्षण सुखानुभूति मात्र ही जिसका एक स्वरूप है ऐसे अप्रमत्त् आदि गुणस्थान में होने वाले वीतराग चारित्र का अविनाभूत वीतराग सम्यक्त्व अन्यथा (अन्य प्रकार से) हो नहीं सकता ।
१. द्वादशांगावगमस्तीव्र भक्ति— समयसार टीका, जयसेनाचार्य । पृ० २४३।
२. रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स ।
तह्मा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति।।१७७।। समयसार
३. समयसार गाथा १७७, १७८ की टीका , जयसेनाचार्यकृत । पृ० २४५।
यहाँ यह अर्थ है कि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक सराग सम्यक्तव है और चतुर्थ गुणस्थान में अनंतानुबंधी कषाय तथा मिथ्यात्व नहीं है। वहाँ उन कषायों से होने वाला राग द्वेष मोह भी असंभव है पुन: उस कषाय के निमित्त से होने वाला आस्रव भी नहीं है । ऐसे ही सातवें से लेकर दसवें तक वीतराग सम्यक्त्व के होने से वहाँ पर अनंतानुबंधी से लेकर बारह कषाय और संज्वलन का तीव्र उदय इन निमित्तक रागद्वेष मोह नहीं है, अत: उन—उन निमित्तक आस्रव भी नहीं है। आगे ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम या क्षय हो जाने से पूर्णवीतरागता हो जाने से रागद्वेष मोह है ही नहीं, अत: वहाँ आस्रव बंध भी नहीं है। क्योंकि प्रकृति और प्रदेश बंध तो योग से होते हैं तथा स्थिति, अनुभाग बंध कषाय से होते हैं। कषाय के अभाव में स्थिती अनुभाग बंध न होने से प्रकृति प्रदेश बंध होकर भी जीव का कुछ बिगाड़ नहीं कर पाते हैं।यों तो तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली भगवान् को भी ईर्यापथ आस्रव और एक समय की स्थिति वाला बंध माना है। किंतु उस आस्रव—बंध का कोई मूल्य नहीं है।
रागादीनां झगिति विगमाग् सर्वतोप्यास्रवाणां, नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु संपश्यतोऽत: ।
स्फारस्फारै: स्वरसविसरै: प्लावयत्सर्वभावना— लोकांतादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत् ।।१२४।।
अर्थ —रागादि आस्रवों के क्षणमात्र में दूर होने से नित्य उद्योत रूप कुछ एक अद्वितीय परम वस्तु को अंतरंग में अवलोकन करने वाले पुरुष का यह ज्ञान अति विस्तार रूप फैलता हुआ अपने निज रस के प्रवाह से सब लोक पर्यंत अन्य—अन्य भावों को अंतर्मग्न करता हुआ उदय रूप प्रगट हुआ। वैâसा है ज्ञान ? अचल है अर्थात् ज्योंं के त्यों सब पदार्थ जिसमें प्रतिभासित हैं फिर कैसा है ? जिसके बराबर दूसरा कोई नहीं है। तात्पर्य यह हुआ कि शुद्धनय का अवलंबन लेकर जो महापुरुष अपने अंतरंग में शुद्ध चैतन्य मात्र वस्तु का एकाग्रचित होकर अनुभव करते हैं। उनके सब रागादि भाव (आस्रव) दूर हो जाते हैं और सब पदार्थों को प्रकट करने वाला दिव्य केवलज्ञान प्रकट हो जाता है।
अनादि काल से संवर आस्रव का विरोधी है उसको आस्रव ने जीत लिया था, अब भेदविज्ञानरूप ज्योति अपने स्वरूप में निश्चल होती हुई आस्रव का तिरस्कार कर संवर को प्रगट करती है।
प्रश्न —भेदविज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर — उपयोग तो चैतन्य का परिणमन है वह ज्ञान स्वरूप है और क्रोधादि भाव– कर्म , ज्ञानवरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म ये सब पुद्गल द्रव्य के ही परिणाम हैं, जड़ हैं, इनके और ज्ञान के प्रदेश भिन्न —भिन्न हैं , इसलिये इन दोनों में अत्यन्त भेद है। इस भेद को जानना ही भेद विज्ञान है। और इस भेद विज्ञान से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। तथा शुद्धात्मा की प्राप्ति से ही संवर होता है। उसी का स्पष्टकरण — ‘शुद्ध आत्मा को जानता हुआ जीव शुद्ध ही आत्मा को पाता है और अशुद्ध आत्मा को जानता हुआ जीव अशुद्ध आत्मा को ही पाता है।’
प्रश्न —संवर कस प्रकार से होता है ?
उत्तर — ‘‘जो जीव अपनी आत्मा को अपने द्वारा पुण्य—पाप रूप , शुभाशुभ योगों से रोक करके— हटा करके अपने आपको दर्शन—ज्ञान में स्थित करता है। जो अन्य वस्तुओं से इच्छा रहित, और संपूर्ण परिग्रहों से रहित होता हुआ अपनी आत्मा के द्वारा ही अपनी आत्मा को ध्याता है तथा कर्म—नोकर्म को नहीं ध्याता है और आप चेतनारूप होने से अपने एकत्व स्वरूप का अनुभव करता है वह जीव अपने को अभिन्न दर्शन—ज्ञानमयी होता हुआ शीघ्र ही कर्मों से रहित शुद्ध आत्मा को प्राप्त कर लेता है गाथा नं० १८७, १८८, १८९, समयसार ।।’’
शुद्धात्मा को प्राप्त करने के लिये आते हुये कर्मों का संवर करना— रोकना बहुत जरूरी है। सो उसी का क्रम बताते हैं। ‘‘सर्वज्ञ भगवान् ने राग—द्बेष मोह रूप आस्रवों के चार हेतु बताते हैं — मथ्यात्व , अज्ञान, अविरति और योग । ज्ञानी के इन हेतुओं का अभाव होने से नियम से आस्रव का निरोध होता है और आस्रव के बिना कर्म का भी निरोध होता है और कर्मों के अभाव में नोकर्मों का निरोध हो जाता है तथा नोकर्मों के अभाव में संसार का निरोध हो जाता हैगाथा न० १९०, १९१, १९२, समयसार।’’इसलिये
भावयेद् भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया।
तावद्यावत् पराच्चयुत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते ।।१३०।।
इस भेद विज्ञान को निरंतर धारा प्रवाहरूप जिसमें कि विच्छेद न पड़े इस तरह तब तक भावे जब तक कि ज्ञान पर भावों से छूट कर अपने स्वरूप—ज्ञान में ही स्थित न हो जावे । क्योंकि
भेदविज्ञानत: सिद्धा: सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो बद्धा, बद्धा ये किल केचन ।।१३१।।
जो कोई सिद्ध हुये हैं वे सब इस भेद विज्ञान से ही हुये हैं और जो कर्मों से बँधे हैं वे सब इस भेद विज्ञान के अभाव में बंँधे हैं। श्री पूज्यपादस्वामी ने भी कहा है—
गुरुपदेशादभ्यासात्संवित्ते: स्वपरांतरं ।
जानाति य: स जानाति मोक्षसौख्यं निरंतरं।।
गुरु के उपदेश से , अभ्यास से तथा स्वयं के अनुभव से जो स्व और पर के भेद को जान लेता है वही निरंतर मोक्ष सौख्य को जानता है।
प्रश्न —आत्मा तो परोक्ष है पुन: उसका ध्यान कैसे हो सकता है ?
उत्तर —जैसे कोई व्यक्ति उपदेश से परोक्ष भी देवता के रूप को बनाकर देखता है, जानता है, वचन से कहता है और मन में निश्चित कर लेता है कि इस देवता का ऐसा रूप है। वैसे ही गुरु के
१. गाथा नं० १८७, १८८, १८९, समयसार ।
२. गाथा न० १९०, १९१, १९२, समयसार।
उपदेश से भव्य जीव भी अरहंत — सद्ध सदृश आत्मा के स्वरूप का निश्चय करके उसको ध्याता है और मन में निश्चित कर लेता है कि मैंने आत्मा के स्वरूप को जान लिया है। इसे ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा से रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन रूप भावश्रुत ज्ञान शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि से परोक्ष माना है । फिर भी इंद्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले सविकल्प ज्ञान की अपेक्षा वह स्वसंवेदन ज्ञान प्रत्यक्ष है। इस कारण से स्वसंवेदन ज्ञान की अपेक्षा आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव होता है किन्तु केवलज्ञान की अपेक्षा से आत्मा परोक्ष भी है। सर्वथा आत्मा परोक्ष ही है ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्याकिंतु चतुर्थकालेऽपि केवलिन: किमात्मानं हस्ते गृहीत्वा दर्शयंति ?— टी० जयसेनाचार्य— समयसार।
चतुर्थ काल में केवली भगवान् आत्मा को हाथ में लेकर दिखाते थे ? नहीं। वे केवली भगवान् भी तो दिव्यध्वनि के द्वारा ही कहते थे। फिर भी, दिव्यध्वनि के श्रवण काल में श्रोताओं को वह आत्मा परोक्ष ही रहती थी, पश्चात् उन्हीं को निग्र्रंथ अवस्था में परम समाधिरूप ध्यान के समय प्रत्यक्ष अनुभव में आती थी। उसी प्रकार इस काल में भी आत्मा का स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव हो सकता है।
उत्कृष्ट संवर रागादि आस्रवों के रोकने से अपनी सामथ्र्य द्वारा आगामी सभी कर्मों को मूल में दूर से ही रोकता हुआ ठहर रहा था, अब इस संवर के होने के पहले जो कर्म बंध रूप हुआ था उसे जलाने को निर्जरा रूप अग्नि फैलती है सो इस निर्जरा के प्रगट होने से ज्ञान ज्योति निरावरण होकर फिर रागादि भावों से मूर्छित नहीं होती। सम्यग्दृष्टि जीव जो इंन्द्रियों से चेतन और अचेतन द्रव्यों का उपभोग करता है, यह सब ही निर्जरा के निमित्त है। अर्थात् विरागी का उपभोग निर्जरा के लिये है। राग—द्वेष—मोह के सद्भाव में मिथ्यादृष्टि जो इंद्रियों से उपभोग करता है वह बंध के लिये ही है किन्तु राग द्वेषादि के अभाव में सम्यग्दृष्टि का उपभोग निर्जरा के लिये हो जाता है।
प्रश्न —इंद्रियों के उपभोग, राग—द्बेष—मोह के अभाव में निर्जरा के कारण कहे हैं और सम्यग्दृष्टि के रागादि मौजूद हैं पुन: उनके वे निर्जरा के निमित्त कैसे होंगे ? उत्तर —इस अत्र ग्रन्थे वस्तुवृत्या वीतरागसम्यग्दृष्टे ग्र्रहणं यस्तु चतुर्थगुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टिस्तस्य गौणवृत्या ग्रहणं। समयसार पृ० २६०, टीका जयसेनाचार्य कृत। ग्रंथ में वास्तव में वीतराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण है, किन्तु जो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सराग सम्यग्दृष्टि हैं उनका गौण रूप से ग्रहण हैं। तथा मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ जनित रागादि नहीं हैं । ऐसे ही आगे भी समझ लेना चाहिये। दूसरी बात यह है कि सम्यग्दृष्टि के संवरपूर्वक निर्जरा होती है, मिथ्यादृष्टि के गजस्नानवत् बंध पूर्वक निर्जरा होती है अर्थात् कर्म का उदय आने पर उसका फल सुख—दु:ख अनुभव करने के बाद पुन: उन कर्मों की निर्जरा हो जाती है और आगे के कर्मों का बंध हो जाता है। इस अपेक्षा से ही मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि को अबंधक कह दिया है।
तद् ज्ञानस्यैव सामथ्र्यं विरागस्यैव वा किल ।
यत्कोपि कर्मभि: कर्म भुंजानोऽपि न बध्यते ।।१३३।।
यह ज्ञान की ही कोई आश्चर्यकारी सामथ्र्य है अथवा विराग की ही है कि जो कर्म के फल को भोगता हुआ भी सम्यग्दृष्टि जीव कर्म से नहीं बंधता है । जैसे कुशल वैद्य विष का उपयोग करता हुआ मरण को प्राप्त नहीं होता है वैसे ही ज्ञानी, पुद्गल कर्म फल को भोगते हुये भी निर्विकल्प समाधि—लक्षण भेदज्ञानरूप अमोद मंत्र के बल से कर्म से नहीं बंधता है। तथा जैसे कोई पुरुष रोग के प्रतिकार के लिये मदिरा में उसके प्रतिपक्ष भूत औषधि को डालकर औषधि रूप से उसको पी लेता है। उसमे उसका प्रेम नहीं होता है। उसी प्रकार से संसार, शरीर और भोगों से विरक्त परमात्मतत्व का ज्ञानी पुरुष पंचेन्द्रिय के विषयभूत अशन पानादि द्रव्यों का उपयोग करते हुये भी जितने अंश में राग भाव नहीं करता है उतने अंश में कर्म से नहीं बंधता है और जब हर्ष विषादादि रूप समस्त विकल्प जाल रहित परम योग लक्षण भेदज्ञान के बल से सर्वथा वीतरागी हो जाता है तब सर्वथा कर्मों से नहीं बंधता है। इसी बात को श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं—
सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्ति:।
स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्तया ।।
यस्माद् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तप्वत: स्वं परं च।
स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात् सर्वतो रागयोगात् ।।१३६।।
सम्यग्दृष्टि के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है क्योंकि वह अपने यर्थात् स्वरूप का अभ्यास करने को अपने स्वरूप का ग्रहण और पर के त्याग की विधिकर दोनों परमार्थ से भेद जानकर अपने स्वरूप में ठहरता है और परद्रव्य से सर्वत: राग का योग छोड़ता है। सो यह रीति ज्ञान और वैराग्य के बिना नहीं होती है।
प्रश्न —तब तो सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता है यह बात सिद्ध हुई ?
उत्तर —ऐसा नहीं है, देखो—
‘सम्यग्दृष्टि: स्वयममहं जातु बंधो न मे स्यात् ।
इत्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरंतु।। ‘
आलंबंतां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा।
आत्मानात्मावगमविरहात्संति सम्यक्तवरिक्ता:।।१३७।।
जो पर द्रव्य में रागद्वेष मोह से सहित हैं और अपने को ऐसा मानते हैं कि मैं सम्यग्दृष्टि हूँ , मेरे कदाचित् कर्म का बंध नहीं होता , क्योंकि शास्त्रों में सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता है ऐसा कहा है। ऐसा मानकर जिनका मुख गर्व सहित ऊँचा है तथा हर्ष सहित रोमांच रूप हुआ है वे जीव भले ही व्रतादि का आचरण कर लें , किन्तु वे पापी मिथ्यादृष्टि ही हैं, क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित हैं, इसलिये सम्यक्त्व से शून्य हैं।
१. अत्र ग्रन्थे वस्तुवृत्या वीतरागसम्यग्दृष्टेग्र्रहणं यस्तु
चतुर्थगुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टिस्तस्य गौणवृत्या ग्रहणं । समयसार पृ० २६०, टीका जयसेनाचार्य कृत।
प्रश्न — तो क्या तो रागी हैं वे सम्यग्दृष्टि नहीं हैं ?
उत्तर — हाँ ! देखिये, ‘‘जिसके हृदय में परमाणु मात्र भी राग भाव मौजूद है वह संपूर्ण आगम का पाठी होने पर भी आत्मा को नहीं जानता है और जो आत्मा को नहीं जानता वह पर को नहीं जानता है पुन: इस प्रकार से तो जीव और अजीव दोनों को नहीं जानता हुआ वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है?’’गाथा २०१, २०२ श्री कुन्दकुन्ददेव (समयसार)
प्रश्न— यदि रागी सम्यग्दृष्टि नहीं है, तब तो चतुर्थ और पचंम गुणस्थानर्ती तीर्थंकर कुमार, भरत, सगर, राम, पांडव, आदि सम्यग्दृष्टि नहीं हो सवेंâगे ?
उत्तर— ऐसी बात नहीं है , देखो ! मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा तैंतालिस प्रकृतियों के बंध का अभाव होने से वे सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं क्योंकि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवों के अनंतानुबंधी क्रोध, मान, लोभ, और मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न होने वाले पाषाण रेखादि सदृश राग द्वेष आदिका अभाव है। पुन: पंचमगुणस्थानवर्ती जीवों के अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ के उदय से होने वाले भूमि रेखादि सदृश रागादि का अभाव है। और इस ग्रन्थ में
पंचमअत्र तु ग्रन्थे पंचमगुणस्थानादुपरिगुणस्थानवर्तिनां
वीतरागसम्यग्दृष्टिनां मुख्यवृत्या गृहणं — समयसार टीका, जयसेन— पृष्ठ २७९
गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थान वाले वीतराग सम्यग्दृष्टि का मुख्य रूप से ग्रहण किया गया है, सराग सम्यग्दृष्टि जीवों का गौण रूप से ग्रहण समझना चाहिये। अर्थात् सातवें गुणस्थान से लेकर दशवें तक बुद्धिपूर्वक रागादि का अभाव होने से वीतरागता है किन्तु आगे ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान में रागादि का अभाव ही हो जाने से साक्षात् वीतरागता है वे वीतराग सम्यग्दृष्टि ही साक्षात् अबंधक हैं। इसके नीचे कुछ न कुछ अंश में बंध है ही है।
‘श्री गुरुदेवआसंसारात् प्रतिपदमयी रागिणो नित्यमत्ता: — समयसार कलश, १३८ वां।
संसारी प्राणियों को संबोधन करते हुये कहते हैं कि—हे अंधे प्राणियों! जो रागी पुरुष हैं वे अनादि संसार से लेकर जिस पद में सोते हैं उस पद को तुम अपद समझो, यह तुम्हारा स्थान नहीं है। पुन: कहते हैं कि तुम्हारा ठिकाना ‘यह है, यह है ’ जहाँ चैतन्यधातु शुद्ध है, शुद्ध है। अपने स्वभाविक रस से स्थायी भाव को प्राप्त है। इस तरफ आवो,आवो, यहाँ निवास करो।’ यहाँ दो—दो बार कहने से आचार्य की अतिकरुणा और अनुराग भाव सूचित होता है। रागरहितमुनि ज्ञानी है— ज्ञानी सब द्रव्यों में राग को छोड़ने वाला है। वह कर्म के मध्य में प्राप्त हुआ तो भी कर्मरूपी रज से लिप्त नहीं होता जैसे कीचड़ में पड़ा हुआ सोना। और अज्ञानी सब द्रव्यों में रागी है इसलिये कर्म के मध्य को प्राप्त हुआ कर्मरज में लिप्त होता है। जैसे कि कीचड़ में पड़े हुये लोहे को काई लग जाती है। अर्थात् हर्ष—विषाद आदि विकल्प रूपी उपाधि से रहित स्वसंवेदन ज्ञानी पर द्रव्यों में रागद्वेष और मोह को नहीं करता है। इसलिये कर्मरज से लिप्त नहीं होता है किन्तु अज्ञानी संपूर्ण पंचद्रियों के विषयों में, पर द्र्रव्यों में आसक्त हुआ, उनकी आकांक्षा करता हुआ, उनमें मोहित होता हुआ कर्मरज से लिप्त होता रहता है। कहा भी है—
१.अत्र तु ग्रन्थे पंचमगुणस्थानादुपरिगुणस्थानवर्तिनां
वीतरागसम्यग्दृष्टिनां मुख्यवृत्या गृहणं — स्त्रमयसार टीका,
२. आसंसारात् प्रतिपदमयी रागिणो नित्यमत्ता: — समयसार कलश, १३८ वां।
संकल्पकल्पतरुसंश्रयणात्त्वदीयं ।
चेतो निमज्जति मनोरथसागरेऽस्मिन्।।
तत्रार्थतस्तव चकास्ति न किंचनापि।
पक्ष: परं भवति कल्मषसंश्रयस्य।।१।।
दौर्विध्यदग्धमनसोन्तरुपात्तमुत्ते— श्चत्तं यथोल्लसति ते स्पुरितांतरंगं ।।
धाम्नि स्पुâरेद्यदि तथा परमात्मसंज्ञे।
कौतुस्कुती तव भवेत् विफला प्रसूति:।।२।।
अर्थ — नाना प्रकार के संकल्परूपी कल्पवृक्ष का आश्रय लेने से तेरा मन नाना मनोरथ रूपी सागर में डूब रहा है किन्तु वास्तव में उसमें तुझे कुछ भी लाभ नहीं मिलता है। प्रत्युत पाप कर्मों का ही बंध हाथ लगता है। हे भाई! दुर्भाग्य से खाने—पीने आदि के विषय में लालायित होकर तेरा मन दौड़—धूप मचाता फिरता है, वैसे ही यदि वह परमात्मा नामक स्थान में स्पुâरायमान हो जावे तब तो आपका जन्म लेना निष्फल कैसे होवे ? अत: व्यर्थ की परद्रव्यों की आकांक्षा केवल पाप बंध का ही कारण है।
प्रश्न— सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती पुन: मोक्ष कैसे होगा ?
उत्तर— जस प्रकार नागफणी की जड़ , हस्तिनी का मूत्र, सिंदूर द्रव्य और सीसक इन को मिलाकर अग्नि योग में भस्त्रावायु से धमति करने पर सुवर्ण बन जाता है। यदि पुण्य का योग है तो, अन्यथा नहीं । उसी प्रकार वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप ध्यान तो अग्नि है, बारह प्रकार का तपचरण भस्त्रा है, आस्त्र भव्य जीव लोहा है और सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ये परम औषिध हैं। भव्य जीवरूप लोहे में कर्म— द्य्रव्यकर्म की किट्ट संज्ञा है और रागादि विभाव परिणामों को कालिमा कहते हैं । भव्यजीवरूपी लोहे के साळा सम्यक्तवादि औषधि और ध्यान अग्नि का संयोग करके बारह प्रकार की तपरूप भस्त्रा के द्वारा धोंकने से योगीजन अपनी आत्मा को सुवर्ण बना लेते हैं अर्थात् कर्मों से अलग कर शुद्ध सिद्ध कर लेते हैं । तात्पर्य यह निकला कि रत्नत्रयरूप औषधि ध्यानरूप अग्नि के द्वारा और तपश्चरणरूप वायु के प्रयोग द्वारा यह जीव अपनी आत्मा से संपूर्ण कर्मों को पृथक् कर देता है बस संपूर्ण कर्मों का अभाव हो जाने से मोक्ष हो जाता है।
प्रश्न— सम्यग्दृष्टि जीव जब तक निर्विकल्प समाधि को प्राप्त नहीं कर पाता है तब तका क्या करे ?
उत्तर— स्म्यग्दृष्टि जीव निर्विकल्प समाधि के अभाव में विषय कषायों से बचने के लिये व्रत, शील, दान, पूजादि शुभ कार्यों का अनुष्ठान करता है, उसको करते हुये भोगों की आकांक्षा रूप निदान बंध नहीं करता है। अत:उस पुण्यानुबंधि पुण्य से भवांतर में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव आदि के अभ्युदय को प्राप्त करके भी पूर्व भव में भावित भेदविाान की भावना के बल से भोगों में आसक्ति, आकांक्षा आदि नहीं करता है पुन: शीघ्र ही दीक्षा लेकर कर्मों का नाश कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जैसे कि भरत, राम, पांडव आदि ने भोगों को भोग कर उन्हें त्याग कर स्वात्मसिद्धि प्राप्त की है।
प्रश्न— सम्यग्दृष्टि जीव में क्या—क्या विशेषताएँ रहती हैं ?
उत्तर— सम्यग्दृष्टि में ही एक ऐसा साहस हो सकता है कि जिससे तीनों लोक चलायमान हो जावें ऐसे भयकारी वङ्का के पड़ने पर भी अपने ज्ञान से चलायमान नहीं होता है, और स्वभाव से ही निर्भय होता हुआ निर्भय होता हुआ संपूर्ण शंकाओं को छोड़कर अपने का बाधित न होने योग्य ज्ञानशरीर वाला समझते हुये अपने ज्ञान से च्युत नहीं होता है। उसे ही कहते हैं—‘‘सम्यग्दृष्टि जीव नि:शंक होते हैं। इसीलिये निर्भय हैं क्योंकि वे सातभयों से रहित होने से नि:शंक हैं।’’
सम्मादिट्ठी जीवा णिस्संका होंति णिब्भया तेण।
सत्तभय विप्पमुक्का जह्या तह्या दु णिस्संका ।।२२८।।
जो आत्मा कर्म बंध के कारण मोह को करने वाले मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चारों पदों को नि:शंक हुआ काटता है वह आत्मा नि:शंक सम्यग्दृष्टि है। जो आत्मा कर्मों के फलों में तथा सभी वस्तु के धर्मों में वांछा नहीं करता है वह आत्मा नि:कांक्षित सम्यग्दृष्टि है। जो जीव सभी वस्तु के धर्मों में ग्लानि नहीं करता है वह आत्मा नि:कांक्षित सम्यग्दृष्टि है। जो जीव सभी वस्तु के धर्मों में ग्लानि नहीं करता है वह जीव निश्चय कर विचिकित्सा दोष रहित सम्यग्दृष्टि है। जो जीव सब भावों में मूढ़ नहीं होता हुआ यथार्थ दृष्टि रखता है वह ज्ञानी जीव निश्चय कर अमूढ़दृष्टि सम्यग्दृष्टि है। जो जीव मोक्षमार्ग में स्थित आचार्य उपाध्याय साधु पद सहित आत्मा में अथवा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में वात्सल्य भाव करता है वह वत्सलभाव सहित सम्यग्दृष्टि है। जो जीव विद्यारूपी रथ पर चढ़कर मनरूपी रथ के मार्ग में भ्रमण करता है अथवा जो शुद्धात्मतत्व की उपलब्धिरूपी विद्यारथ पर चढ़कर संसार दु:ख के कारणभूत मनोरथ के वेग को, चित्त की चंचलता को दृढ़ ध्यान खड्ग के द्वारा नष्ट कर देता है वह ज्ञानी जिनेश्वर के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि है। इस प्रकार जो नि:शंकित आदि आठ अंगों से युक्त सम्यग्दर्शन के धारी हैं। तथा निश्चय रत्नत्रय के साधक व्यवहार रत्नत्रय में स्थित हैं। निश्चय रत्नत्रय प्राप्त करने में प्रयत्नशील हैं। अथवा प्राप्त कर चुके हैं उनके पूर्व संचित कर्मों की निश्चित ही निर्जरा हो जाती है।
प्रश्न— आपने व्यवहार रत्नत्रय को निश्चय रत्नत्रय का साधक क्यों कहा ?
उत्तर — वास्तव में निश्चय और व्यवहार में परस्पर में साध्य—साधक भाव कहा गया है। जिस प्रकार फल के लिये पूâल कारण है उसी प्रकार निश्चय के व्यवहार कारण माना गया है। व्यवहार के अभाव में निश्चय रत्नत्रय का होना असंभव है। यहाँ पर जो संवरपूर्वक निर्जरा कही गई है वह सम्यग्दृष्टि जीव के शुद्धात्मा का सम्यक् — श्रद्धान, ज्ञान और उसी में अनुचरणरूप निश्चय रत्नत्रय के होने पर ही होती है और वह निश्चय रत्नत्रय शुभ—अशुभ बाह्य द्रव्यों के अवलंबन से रहित वीतराग धर्मध्यान , शुक्लध्यान—रूप निर्विकलप समाधि में ही होती है और वह समाधि अतीव दुर्लभ है। क्यों? क्योंकि, एकेन्द्रिय से विकलत्रय होना दुर्लभ है : उसे पंचेन्द्रिय होना, संज्ञी होना, पर्याप्तक होना, मनुष्य पर्याय पाना, उत्तमदेश, कुल, रूप और इंद्रिय की पूर्णता प्राप्त करना, व्याधि रहित शरीर का पाना, श्रेष्ठ आयु, श्रेष्ठ बुद्धि का पाना, सद्धर्म का श्रवण, ग्रहण, धारण, श्रद्धान, संयम, विषय सुखों में व्यावृत्ति , क्रोधादि कषायों की निवृत्ति होना, तप की भावना करना और समाधि पूर्वक मरण करना ये सब उत्तरोत्तर दुर्लभ से दुर्लभ हैं। ऐसा क्यों ? क्योंकि इनके विरोधी मिथ्यात्व, विषय, कषाय आदि विभाव परिणामों की प्रबलता देखी जाती है। अत: इस दुर्लभ परंपरा को समझ करके सर्व प्रयत्न पूर्र्वक समाधि के लिये प्रयत्न करना चाहिये। कहा भी है—
इत्यतिदुर्लभरूपां बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात,
संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नर: सुचिरं ।।
इस प्रकार से अतिदुर्लभरूप बोधि (रत्नत्रय) को प्राप्त करके भी यदि कोई प्रमादी हो जावे तब वह बेचारा संसार रूपी भयंकर वन में चिरकाल तक भ्रमण करता है।
मिथ्यादृष्टि जीव अपनी आत्मा में राग आदि भावों को करता हुआ स्वभाव से ही कर्म के योग जो पुद्गल हैं उनसे भरे हुये लोक में मन वचन काय क्रिया को करता हुआ अनेक प्रकार के कारणों द्वारा वस्तुओं का घात करता हुआ कर्म रूपी रज से बंधता है। वहाँ विचार किया जाय कि बंध का कारण क्या है ? प्रथम तो कर्मयोग पुद्गलों से भरा हुआ लोक बंध का कारण नहीं है यदि उनसे बंध हो तो लोक में सिद्धों को भी बंध का प्रसंग आयेगा। कायादि की क्रिया को बंध का प्रसंग आ जायेगा । अनेक प्रकार के कारण यदि बंध के कारण हों तो केवलियों के भी बंध का प्रसंग आ जायेगा और यदि वस्तुओं का उपघात बंध का कारण हो तो समितिद में तत्पर साधु यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं कदाचित् उस समय भी उनसे सचित्तादि वस्तुओं का उपघात हो जाता है पुन: उनके भी कर्म का बंध होने लगेगा। इसलिये न्याय के बल से यह सिद्ध ुआ कि उपयोग में रागादि का करना बंध का कारण है। जैसे कि तैल का मर्दन कर कोई पुरुष रज से बहुल स्थान में व्यायाम करते हुये धूलि से लिप्त हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि प्राणी राग, द्वेष, मोह के द्वारा कर्मों से बंध जाते हैं। जैसे फिर वही मनुष्य तैलादि चिकनी वस्तु को दूर कर बहुत धूलि वाले स्थान में शस्त्रों के अभ्यास द्वारा व्यायाम करता है फिर भी उसके धूलि नहीं चिपकती है उसी प्रकार से वीतराग सम्यग्दृष्टि जीव के रागादि का अभाव होने से कर्मों का बंध नहीं होता है ।
प्रश्न— जसके रागादि नहीं हैं वह कुछ भी करे तो भी बंध नहीं होगा ?
उत्तर— ऐसा अर्थ नहीं करना, यद्यपि यहां लोक आदि कारणों से बंद नहीं कहा और रागादि से बंध कहा है तो भी ज्ञानियों को अमर्यात होकर स्वच्छंद प्रवर्तन करना योग्य नहीं है क्योंकि निरर्गल प्रवृत्ति करना ही बंध का स्थान है। ज्ञानियों के बिना वांछा के कार्य होता है वह बंध का कारण नहीं कहा , क्योंकि जानता भी हो और करता भी हो ये दोनों क्रियायें परस्पर में निश्चय से विरुद्ध हैं। अर्थात् यहां ‘ज्ञानी’ शब्द से निर्विकल्प समाधि में स्थिति जीवों को लेना क्योंकि वहां बुद्धिपूर्वक क्रिया नहीं होती है। कहा भी है— जो जानता है वह कर्ता नहीं है और जो करता है वह जानता नहीं है। जो करना है वह निश्चय से कर्म राग है और जो राग है उसे मुनिजन अज्ञानमय परिणाम कहते हैं । यही परिणाम निश्चय से बंध का कारण है।
प्रश्न— क्या अहिंसा आदि की भावना से भी कर्म बंध होता है ?
उत्तर— हां! देखों, मैं परजीवों को मानता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं ऐसा आशय अज्ञान है और इस आशय से सहित जीव मिथ्यादृष्टि हैं क्योंकि प्रत्येक जीवों का आयु के क्षय से ही मरण होता है। तथा जो जीव ऐसा मानता है कि मैं परजीवों को जीवित करता हूँ और अन्य जीव मुझे जीवित करते हैं वह मूढ़ है, अज्ञानी है परन्तु ज्ञानी इससे विपरीत है। अर्थात् यहां जो यह बात है वह नयविवक्षा से है। जो मुनिराज रागद्वेष रहित शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परमानन्द सुखास्वादरूप परमोपेक्षा संयम की भावना से परिणत अभेद रत्नत्रय में स्थित हैं, यानी निर्विकल्परूप त्रिगुप्तसमाधि में लीन हैं, उस समय जो ये हिंसा—अहिंसा के भाव विकल्परूप हैं, वे नहीं होते हैं उसी समय वह निश्चय सम्यग्दृष्टि और ज्ञानी कहा जाता है, यहां व्यवहारनय को गौण करके निश्चयनय की प्रधानता करके यह कथन किया है। आगे भगवान् श्री वुंâदवुंâददेव स्वयं उसी बात को स्पष्ट करते हैं—
यथा—मारिमि जीवावेमी य सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते।
तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि।।२३१।।
मैं किसी को मारता हूँ जीवित करता हूँ इस प्रकार के जो अभिप्राय हैं वे शुद्धात्मा के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रय से शून्य हैं अत: उन अभिप्रायों से क्रमश: पाप अथवा पुण्य का ही बंध होता है और कुछ भी नहीं होता है क्योंकि उन—उन जीवों के जीवन—मरण आदि उन—उन के द्वारा उपार्जित कर्मों के उदय के अधीन हैं। तथा दूसरी बात यह भी है कि अध्यवसान मात्र से (परिणाम से) बंध हो जाता है जीव मरे अथवा न मरे। ‘‘उसी प्रकार झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के परिणामों से पाप का बंध होता है। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप परिणामों से पुण्य का बंध होता है।’
एवमलिये अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव ।
कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झए पावं।।२६३।।
तहवि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव ।
कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झए पुण्णं।।२६४।।
टीकाकार श्री अमृतचन्द्रसूरि भी कहते हैं।
‘‘एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसाय:,
तथा असत्यादत्ताब्रह्मपरिग्रहेषु यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एवं पापबंधहेतु:।
यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते अध्यवसाय:
तथा स यश्च सत्यदत्तब्रह्मा परिग्रहेषु विधियते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबंध हेतु:’’
पूर्व कथित रीति से अज्ञान से हिंसा में अध्यवसाय के समान असत्य, चोर्य, अब्रह्म, परिग्रह में जो अध्यवसाय किया जाता है वह सभी केवल पापबंध के ही कारण हैं। तथा जैसे अहिंसा में अध्यवसाय किया जाता है उसी तरह सत्यव्रत, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन में भी अध्यवसाय (परिणाम) किया जाय वह सभी पुण्यबंध का ही कारण है।
१. एवमलिये अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव ।
कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झए पावं।।२६३।।
तहवि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव ।
कीरइ अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झए पुण्णं।।२६४।।
प्रश्न—कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि किसी पर दया करके बचाऊं यह दयाभाव भी हिंसा समान ही है सो क्या बात है ?
उत्तर—उन कहने वालों को श्री कुंदकुंददेव की गाथाओं और अमृतचन्द्रसूरि की टीका पर ध्यान देना चाहिये। यद्यपि किसी को जिलाने—मारने में सुखी दु:खी करने के भावों से पुण्य—पाप का बंध होता है फिर भी यदि कोई अहंकार भाव से यही मानता रहे कि मैंने ही ऐसा किया तो वहाँ पर मिथ्यात्व हो जाता है। क्योंकि पर के सुख—दु:खादि में उनका—उनका पुण्य—पाप कर्म का उदय ही खास कारण है अन्य जीव तो उसमें निमित्त मात्र पड़ जाते हैं। अत: अहंकार से कर्तृव्य बुद्धि को नहीं करना चाहिये। यहां इस कथन का यह भी अभिप्राय है और वास्तव में तो यह कथन वीतरागी सम्यग्दृष्टि निश्चयनय का अवलंबन लेने वाले ध्यान में स्थित साधुओं के लिये ही है जो कि शुभ—अशुभ क्रियाओं से हटकर पुण्य—पाप इन दोनों का संवर करते हुये शुद्धोपयोग में स्थिर रहकर आत्मा का आनंद ले रहें है। इस बात को भी स्वयं भगवान्दे कुंदकुंदेव कह रहे हैं।’
एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि।
ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिंप्पंति।। २७०।।
अर्थ — उपर्युक्त प्रकार के परिणाम जिनके नहीं होते हैं वे मुनिराज अशुभ अथवा शुभ कर्म से लिप्त नहीं होते हैं। देखिये ! अमृतचन्द्रसूरि की अमृतवाणी— ‘‘ ततो बंधनिमित्तान्येवेतानि समस्तान्यध्यवसानानि। येषामेवेतानि न विद्यंते त एव मुनिकुंजरा:।’’ अत: ये सभी परिणाम बंध के निमित्त हैं। जिनके ये अध्यवसान विद्यमान नहीं हैं वे ही मुनियों में प्रधान मुनिवुंजर कहलाते हैं।
वे ही शुभ—अशुभ् कर्मों से लिप्त नहीं होते हैं। इस कथन से यह समझना चाहिये ‘‘जो मैं किसी को मारता हूँ या किसी पर दया करता हूँ’’ ये परिणाम सम्यग्दृष्टि के नहीं होतें हैं। यह कथन मात्र महामुनियों के लिये ही है न कि सामान्य अव्रती श्रावकों के लिये , जैसा कि आज—कल कुछ लोग समयसार की गाथा नं० २४७ से २६६ तक के अर्थ का अनर्थ करवे इस बात का प्रचार कर रहे हैं कि ‘‘जीओ और जीने दो’’ यह सिद्धान्त ही मिथ्यात्व है उन्हें उसी समयसार ग्रन्थ की गाथा २७० और उसकी टीका का अच्छी तरह से मनन करना चाहिये । आगे और भी देखिये—
एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण।
णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं।।२७२।।
पूर्व कथित परिणामों का कथन करने वाला व्यवहारनय है, वह निश्चयनय के द्वारा निषिद्ध है। पुन: निश्चयनय का आश्रय लेने वाले मुनिगण ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं। सबसे पहले यहाँ यह समझना चाहिये कि मुनिगण ही निश्चयनय का आश्रय ले सकते हैं कि—‘‘ परद्रव्य का आश्रय लेने वाला व्यवहारनय, शुद्धात्मद्रव्य का आश्रय लेने वाले निश्चयनय के द्वारा प्रतिषिद्ध कया गया है। क्योंकि निश्चयनय में स्थित हुये मुनिराज ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं। यद्यपि प्राथमिक शिष्यों की अपेक्षा प्रारम्भ के प्रस्ताव में सविकल्प अवस्था में निश्चयनय का साधक होने से व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है। फिर भी अभेदरत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिरूप, विशुद्ध ज्ञान—दर्शनमय शुद्धात्मा में स्थित हुये मुनियों के लिये वह निष्प्रयोजन है। अर्थात् छठे गुणस्थान तक व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है।’’ क्या व्यवहार रत्नत्रय हेय है ?— व्रत, समिति, गुपित, शील, तप से ये व्यवहार चारित्र हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है, इनको पालन करता हुआ भी अभव्य—जीव, अज्ञानी मिथ्यात्वी ही है। अर्थात् अभव्य जीव के कभी भी सम्यक्तव प्रकट नहीं हो सकता है फिर भी वे मंदमिथ्यात्व और मंद कषाय के उदय से चारित्र को धारण कर लेते हैं तथापि वे अज्ञानी और मिथ्यात्वी ही है।
प्रश्न—जब अभव्य जीव भी चारित्र का पालन करते हुये ग्यारह अंग तक ज्ञानी हो जाते हैं पुन: वे अज्ञानी कैसे कहे गये हैं ?
उत्तर—
मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज।
पाठो ण करेदि गुणं असद्दहंतस्स णाणं तु ।।२७४।।
जो अभव्य जीव शास्त्र का पाठ भी पढ़ता है परन्तु मोक्ष तत्त्व का श्रद्धान नहीं करता है तो ज्ञान का श्रद्धान न करने वाले उस अभव्य का शास्त्र पढ़ना लाभा नहीं करता अर्थात् अशुद्ध आत्मा भी शुद्ध हो सकती है इस प्रकार का जिसको श्रद्धान नहीं है वह ख्याति पूजा आदि के निमित्त ग्यारह अंग का अध्ययन भी कर लेवे तो भी उसका वह शास्त्रों का पढ़ना शुद्धात्मा के परिज्ञानरूप गुण को करने वाला नहीं हो सकता है। क्योंकि उसके दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के उपवशम, क्षय और क्षयोपशम का होना अशक्य है इसका भी कारण यह है कि वह अभव्य है। यह अभवय जीव धर्म का श्रद्धान करता है, उसे प्रतीति में लाता है, उसमें रुचि रखता है एवं उसे धारण भी करता है, सो वह कर्मों को नष्ट करने के लिये नहीं किंतु भोगों को प्राप्त करने के लिये करता है। इस व्यवहार रत्नत्रय को अभव्य जीव भी मुनि बन कर धारण कर लेते हैं इस लिये यह हेय है, किन्तु निश्चय रत्नत्रय भव्य के ही होता है, निश्चय वाले नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं इसीलिये वह उपादेय हैं । इस पर भी यह निश्चित समझना चाहिये कि व्यवहार रत्नत्रय के बिना निश्चयरत्नत्रय हो नहीं सकता है अत: कथंचित् व्यवहार भी उपादेयभूत है। कहा भी है—
‘‘निर्विकल्प समाधिरूप निश्चय में स्थित होने पर व्यवहार त्याज्य है, मतलब उस त्रिगुप्त अवस्था में व्यवहार स्वयमेव नहीं रहता है’’ यहाँ यह तात्पर्य समझना । अर्थात् निश्चयरूप ध्यानावस्था में व्यवहार स्वयं ही छूट जाता है, रहता ही नहीं है। चिदानंदैकलक्षण स्वस्वभाव को टीका जयसेनाचार्य की गाथा २७७। . टीका जयसेनाचार्य की गाथा २७७। जानता हुआ मोह रागद्वूष आदि भावों को नहीं करता है। इस लिये नवीन कर्मों का बंध नहीं करता है।
प्रश्न—मोह रागद्वेष से सभी कषायों का ग्रहण कैसे होगा ?
उत्तर—यहाँ मोह शब्द से दर्शन मोह लेना और रागद्वेष शब्द से चारित्र मोह का ग्रहण करना। इसी चारित्र मोह में क्रोध, मान कषायें द्वेष रूप हैं क्योंकि वे द्वेष को उत्पन्न करने वाली हैं। और माया, लोभ राग के अंग हैं क्योंकि ये राग को उत्पन्न करने वाले हैं। ऐसे ही नव नोकषायों में स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद, हास्य और रति ये पांच रागरूप हैं क्योंकि ये रागोत्पादक हैं। तािा अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये चार द्वेष रूप हैं क्योंकि ये द्वेषोत्पादक हैं। ये रागादि भाव कर्मबंध के कारण हैं और रागादि परिणामों के लिये निश्चय से कर्म का उदय कारण है। ज्ञानी जीव कर्मबंध में कारण नहीं है।
प्रश्न—बंध के नाश के लिये क्या भावना करना ?
उत्तर—भेदाभेद रत्नत्रय को धारण करने वाले साधुओं को बंध का अभाव करने के लिये निम्न प्रकार भावना करनी चाहिये।
‘‘सहजशुद्ध ज्ञानानंदैकस्वभावोंऽहं, निर्विकल्पोऽहं, ’’.
मैं सहज शुद्ध ज्ञानानंदरूप एक स्वभाव वाला हूँ, मैं विकल्प रहित हूँ, मैं उदासीन हूँ, मैं निरंजन निज शुद्धात्मा का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, अनुष्ठानरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानंदरूप सुखनुभूतिमात्र लक्षण स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा संवेद्य, जानने योग्य, प्राप्त करने योग्य, भरित—संतृप्त अवस्था वाला हूँ, मैं रागद्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, पंचेंद्रिय के विषयों के व्यापार से रहित हूँ, मैं मन, वचन, काय, के व्यापार से रहित हूँ, मैं भावकर्म , द्रव्य कर्म, नोकर्म से रहित हूँ, मैं ख्याति, पूजा, लाभ, देखे, सूने, अनुभव में आये हुये भोगों की आकांक्षारूप निदान, माया, मिथ्या रूप तीन शल्यों से रहित हूँ, मैं संपूर्ण विभाव—परिणाम से रहित शून्य हूँ, मैं तीनों जगत् में, तीनों काल में मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा शुद्ध हूँ , मैं सिद्ध स्वरूप हूँ। और इसी प्रकार से सभी जीव शुद्ध हैं। निरंतर ऐसी भावना करते रहने से उसरूप तन्मय हो जाने की योग्यता आ जाती है तभी इस निश्चयनय की भावना में परिणत होने वाले महामुनि शुद्धात्मा के आनंद का अनुभव लेते हुये बंध का अभाव कर देते हैं। बंध के कारण रूप रागादि के उदय की निर्दयता पूर्वक प्रखर पुरुषार्थ से विदारण करती हुई, उस रागादि के कार्य रूप अनेक प्रकार के बंध को अब तत्काल ही दूर करके, यह ‘ज्ञानज्योति’ सम्यक् प्रकार से प्रकट हो जाती है, जिसने कि अज्ञान अंधकार का सर्वथा नाश कर दिया है। पुन: उस ज्ञान के विस्तार को कोई भी आवृत — ढक नहीं सकता है, अर्थात् वह लोकालोक में फैल जाता है।
मोक्ष अधिकार (भेद विज्ञान)— बंध पदार्थ के बाद पूर्ण ज्ञान, वो ही हुई प्रज्ञारूपी करोंत उससे वह ज्ञान बंध और पुरुष को पृथक् करके पुरुष को साक्षात् मोक्ष प्राप्त कराता हुआ जयवंत प्रवर्त रहा रहा है। वह पुरुष अपने स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर रहा है। ज्ञान अपने स्वाभाविक आनंद से सरस है, उत्कृष्ट है और उसने करने योग्य— समस्त कार्य कर लिये हैं अब कुछ करना शेष नहीं रहा। जैसे कोई पुरुष बंधन से बंधा हुआ बंध के स्वरूप को जानता है तो इतने मात्र से वह छूट नहीं सकता है उसी प्रकार से जो पुरुष कर्म के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग भेदों को जानता है तो भी वह कर्म से छूट नहीं सकता , जो स्वयं रागादि को दूर करके शुद्ध हो जाता है वही मोक्ष पाता है। अर्थात् आत्मा और बंध का पृथक् करना मोक्ष है। उसमें बंध के स्वरूप को जानने मात्र से मोक्ष नहीं होता है इसलिये ज्ञान मात्र से मोक्ष मानना गलत है।
प्रश्न—आत्मा और बंध को पृथक् करने का क्या उपाय है ?
उत्तर— आत्मा और बंध के पृथक् करने को यह प्रज्ञा तीक्ष्ण छैनी है। जो चतुर—पुरुष हैं वे सावधान हुये आतमा और कर्म इन दोनों का सूक्ष्म मध्य का संधी का बंधन उसमें किसी प्रकार यत्न से उस छैनी को ऐसा पटकते हैं कि वहाँ पड़ी हुई यह छैनी शीघ्र ही सब तरह से आत्मा और कर्म को भिन्न —भिन्न कर देती है। पुन: यह ज्ञान जीव और बंध को अपने—अपने लक्षणों से इस तरह भिन्न कर देता है किद बंध तो छिदकर अलग हो जाता है और शुद्ध आत्मा का ग्रहण हो जाता है।
प्रश्न— उस आत्मा को ग्रहण कैसे करना ?
उत्तर— जिस प्रकार प्रज्ञा के द्वारा उस आत्मा को और बंध को पृथक् किया जाता है उसी प्रकार प्रज्ञा के द्वारा ही स्वयं अपनी शुद्ध आत्मा को ग्रहण करना चाहिये। इसलिये— मैं ही, मेरे द्वारा ही, मेरे लिये ही , मुझमें ही, मुझको ही ग्रहण करता हूँ । जो मैं हूँ सो सर्वविशुद्ध चिन्मात्र स्वरूप हूँ, ज्ञानज्योति स्वरूप अनंत गुणों का पुंज हूँ। जो आत्मा सापराध है वह तो निरन्तर अनंत पुद्गल परमाणुरूप कर्मों से बन्धता है, और जो निरपराध है वह बन्धन को कभी नहीं छूता है । यह आत्मा अपराधी होने से अपनी आत्मा को नियम से अशुद्ध ही सेवन करता है और जो निरपराध है वह अच्छी तरह शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है। अर्थात् जो शुद्धोपयोग में स्थित हैं वे ही साधु निरपराधी हैं।
प्रश्न— यदि साधु निरपराणी है तो उसे प्रतिक्रमण आदि भी नहीं करना चाहिये ?
उत्तर—हाँ, समयसार में ही उसका स्पष्टीकरण करते हैं—
पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्तीय।
णिंदा गरहा सोही अट्टविहो होइ विसकुंभो ।।३०६।।
अप्पडिकमणं अप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव।
अणियत्ती य अणिंदा गरहा सोही अमयकुंभो।।३०७।।
प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा और शुद्धि ये आठ प्रकार तो विषकुंभ हैं और अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिंदा, अगर्हा और अशुद्धि इस तरह आठ प्रकार अमृतकुंभ हैं।
अमृतचंद्रसूरि की टीका— ‘‘यस्तावदज्ञानीजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादि:
स शुद्धात्मसिद्धयभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापरा—
धत्वाद् विषकुंभ एव किं तस्य विचारेण।
द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि अमृतकुंभत्व साधयति।’’
प्रथम तो अज्ञानी जनों को साधारण ऐसे अप्रतिक्रमण—प्रतिकमण न करना आदि हैं वे तो शुद्ध आत्मा की सिद्धि के अभावरूप स्वभाव वाले हैं उनका विचार करने से तो यहाँ कुछ प्रयोजन ही नही है। क्योंकि वे तो प्रथम ही त्यागने योग्य हैं। और जो द्रव्यरूप प्रतिक्रमण आदि हैं वे सब अपराधरूपी के विष के दोष को कम करने में समर्थ होने से अमृतकुंभ हैं। तथापि प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण इन दोनों से विलक्षण, ऐसी अप्रतिक्रमण आदि रूप तीसरी भूमिका (ध्यान) को प्राप्त करने वाले पुरूष को वे द्रव्यप्रतिक्रमणादि अपराध नष्ट करने रूप अपना कार्य करने में असमर्थ होने से विपक्ष अर्थात् बंध का कार्य रूप होने से विषकुंभ ही हैं। क्योंकि जो अतिक्रमण आदि रूप तीसरी भूमि है, वह स्वयं शुद्धात्मा की सिद्धिरूप होने से समस्त अपराधरूपी विष के दोषों को सर्वथा नष्ट करने वाली होने से साक्षात् स्वयं अमृतकुंभ है और इस प्रकार वह तीसरी भूमि व्यवहार से द्रव्य प्रतिक्रमण आदि को भी अमृतकुंभ सिद्ध कर देती है। ‘‘ततो मेति मंस्था यत्प्रतिक्रमणादीन् श्रुतिस्त्याजयति’’ इसलिये ऐसा नहीं मान लेना कि निश्चयनय द्रव्यप्रतिक्रमण आदि को छुड़वाता है। इसका अर्थ यह होता है कि महामुनि जब तक शुद्धोपयोग में स्थिर नहीं होतें हैं तब तक तो उन्हें प्रतिक्रमण आदि करने ही पड़ते हैं और वे तब तक अमृतकुंभ हैं, दोषों से छुड़वाने वाले हैं। उसके आगे पहुँचकर जब वे शुद्ध आत्मा का ध्यान करने में समर्थ हो जाते हैं तब वे प्रतिक्रमण आदि उनके लिये विषकुंभ हैं चूँकि वे उन्हें ध्यान में बाधक बनकर सराग चारित्र में ही रोके रहते हैं किन्तु इनसे पूर्व में यदि कोई साधु प्रमादी होकर प्रतिक्रमण आदि न करे तो उसका उन प्रतिक्रमण आदि का न करना ही उसके लिये विषकुंभ बन जाता है। इसी बात को और देखिये— जयसेनाचार्य कृत टीका— किये हुये दोषों का निराकरण करना प्रतिक्रमण है।
सम्यक्तवादि गुणों में प्रेरित करना प्रतिसरण है, मिथ्यात्व रागादि दोषों का निवारण करना प्रतिहरण है, पंचनमस्कारादि मंत्र और जिनप्रतिमा आदि बाह्य द्रव्यों का अवलंबन लेकर चित्त को स्थिर करना धारण है, बहिरंग विषय—कषायादि से मन को हटाना निवृत्ति है, अपनी साक्षी से दोष प्रगट करना निंदा है, गुरु की साक्षी में दोषों के लगने पर प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि करना शुद्धि है। ये आठ प्रकार के शुभोपयोग यद्यपि मिथ्यात्वादि विषय— कषाय परिणतिरूप अशुभोपयोग की अपेक्षा से सविकल्परूप सरागचारित्र अवस्था में अमृतकुंभ होता है। तथापि राग, द्वेष, मोह, ख्याति—पूजा, लाभादि समस्त परद्रव्य के अवलंबनरूप विभाव परिणाम से शून्य, चिदानंदैक स्वभाव विशुद्धात्मा के अवलंबन से पूर्ण, निर्विकल्परूप शुद्धोपयोग लक्षण जो तीसरी भूमि है उसकी अपेक्षा से वीतराग चारित्र में स्थित हुये पुरुषों के लिये विषकुंभ ही है। अर्थात् अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है— एक ज्ञानीजनों के आश्रित, दूसरा अज्ञानीजनों के आश्रित । अज्ञानीजनों के आश्रित तो विषयकषायरूप ही है और ज्ञानीजनों के आश्रित है वह त्रिगुप्तिमय परमसमाधिरूप— ध्यानरूप है। इसी का नाम निश्चय प्रतिक्रमण भी है। यह सम्पूर्ण शुभ और अशुभ रूप आस्रवों को रोकने वाला है। अत: निष्कर्ष यह निकला कि जो प्रतिक्रमण आदि आठ भेद रूप शुभोपयोग है वह सविकल्प अवस्था में अमृतकुंभ है और परमोपेक्षा संयम रूप निर्विकल्प अवस्था में विषकुंभ ही है। देखिये अमृतचन्द्रसूरि समयसार कलश में कितने मधुर शब्दों में कहते हैं—
‘हतो हता: प्रमादिनो गत: सुखसीनंता। प्रलीनं चापलमुन्मुलित— मालंबनं।
आत्मन्येवालानितं चित्तमासंपूर्णविज्ञानघनोपलब्धे:।।१८८।।
इस कथन से सुख से बैठे हुये प्रमादी जीवों की तो ताड़ना की ही है, किन्तु जो निश्चयनय का आश्रय लेकर प्रमादी होकर प्रर्वतन कर रहे हैं उनाके ताड़कर उद्यम में लगाया है, चपलता का नाश किया है। जो व्यवहार के पक्ष में द्रव्य प्रतिक्रमणादि में ही संतुष्ट हो रहे हैं उनका आलंबन छुड़ाकर जब तक संपूर्ण विज्ञानघन आत्मा की प्राप्ति न हो, तब तक चैतन्य मात्र आत्मा में चित्त लगा रहे, चित्त को इस तरह स्थिर किया है।
यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं, तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुत:स्यात् ।
तत्विं प्रमाद्यति जन: प्रपतन्नधोऽध: किं नोध्र्वमूध्र्वमधिरोहति निष्प्रमाद:।।१८९।।
हे भाई! जहाँ प्रतिक्रमण को ही विष कहा है वहाँ अप्रतिक्रमण वैâसे अमृत हो सकता है ? इसलिये यह मनुष्य नीचे—नीचे गिरता हुआ प्रमाद रूप क्यों होता है ? निष्प्रमादी होकर ऊँचा — ऊँचा क्यों नहीं चढ़ता ? कषाय के भार से भारी होने को आलस्य कहा है उसे ही प्रमाद कहते हैं। इसलिये प्रमाद युक्त आलस्य भाव शुद्ध भाव कैसे हो सकता है ? इसलिये आत्मीकरण से भरे स्वभाव में निश्चल हुआ मुनि परम शुद्धता को प्राप्त होता है और थोड़े समय में ही कर्मबंध से छूट जाता है। जो पुरुष निश्चय से शुद्धता को करने वाले संपूर्ण पर दव्यों को छोड़कर आप अपने निज द्रव्य में लीन होता है। वह पुरुष नियम से सब अपराधों से रहित होता हुआ बंध का नाश कर देता है। और नित्य ही उदय रूप तथा अपने स्वरूप की प्रकाश ज्योति से निर्मल उछलता हुआ चैतन्यरूप अमृत के प्रवाह से अपनी महिमा को पूर्ण करके परमशुद्ध हुआ कर्मों से छूट कर मुक्त हो जाता है। सर्वविशुद्ध —ज्ञान अधिकार— (ज्ञान सर्व विशुद्ध है) समस्त कर्ता—भोक्ता आदि भावों को सम्यक् प्रकार से नाश करके पद पद पर बंध मोक्ष की रचना से दूर पुंज प्रकट होता है जब तक यह जीव शुद्धात्मा के अनुभव से च्युत हुआ प्रकृतियों के उदय रूप रागादि भावों को नहीं छोड़ता है तब तक अज्ञानी कहलाता है और वही जीव मिथ्यादृष्टि है, असंयत है, मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है, किन्तु जब यह जीव मिथ्यात्वादि भावों को छोड़कर सम्यग्दर्शनादि के सद् भाव से अपनी आत्मा को सर्वथा परद्रव्यों से भिन्न अनुभव करता है तब यह जीव सम्यग्दृष्टि है, ज्ञानी है और संयत मुनि है।
ण मुयइ पयडिमभव्वो सुट् ठवि अज्झाइऊण सत्थाणि।
गुडदुद्धंपि पिवंता ण् पण्णया णिव्विसा हुंति ।।३१७।।
अभव्य जीव अच्छी तरह अभ्यास कर शास्त्रों को पढ़ता हुआ भी कर्म के उदय से हुये स्वभाव को नहीं छोड़ता है, जैसे कि सर्प गुड़ मिश्रित दुग्ध को पीते हुये भी निर्विष नहीं होते हैं।
कर्मैव प्रवितक्र्य कर्तृहतवै: क्षित्वासन: कर्तृतां । — समयसार कलश (२०४)।
ज्ञानी जीव बहुत प्रकार के कर्मों का न तो कर्ता है और न भोगता है परन्तु कर्म के बंध को और कर्म के फल पुण्य— पापों को जानता ही है। यहाँ यह कथन निर्विकल्प ध्यान में स्थित महामुनियों की अपेक्षा ही है। देखिये— ‘‘कोई आत्मघाती सर्वथा एकांतवादी जन कर्म को ही कर्ता मानकर आत्मा के कर्तृव्य को उड़ाकर ‘ यह आत्मा कथंचित् कर्ता है’ ऐसी जिनेन्द्र भगवान् की निर्बोध श्रुत रूप वाणी को कुपित करते हैं— वराधित करते हैं। ऐसे आत्मघातकों की बुद्धि तीव्र मोह से मुद्रित हो गई है। उनके ज्ञान की संशुद्धि के लिये स्याद्वाद से निर्बाधित वस्तु स्थिति कही जाती है।’’
पूर्वपक्ष— कर्मसमयसार गाथा, ३३२ से लेकर ३४४ गाथाओं का भाव है। ही आत्मा को अज्ञानी करता है क्योंकि ज्ञानावरण कर्म के उदय के बिना अज्ञान नहीं हो सकता । कर्म ही आत्मा को ज्ञानी करता है क्योंकि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम बिना ज्ञान नहीं हो सकता है। कर्म ही आत्मा को सुलाता है क्योंकि निद्रा कर्म के उदय बिना निद्रा नहीं हो सकती । कर्म ही आत्मा को जगाता है। क्योंकि निद्रा कर्म के क्षयोपशम बिना जागना नहीं हो सकता। कर्म ही आत्मा को सुखी—दु:खी करता है क्योंकि साता—असाता वेदनीय के उदय बिना सुख—दुख असंभव है। वैसे ही कर्म ही आत्मा को मिथ्यात्वी, असंयमी आदि करता है। इस लिये यह बात सिद्ध हो जाती है कि सभी जीव नित्य एकांत से अकत्र्ता ही हैं। देखो! जैन सिद्धांत भी इसी अभिप्राय का समर्थन करता है। पुरुषवेद कर्म स्त्री की और स्त्रीवेद कर्म ही पुरुष की अभिलाषा करता है । इस वाक्य से अभिलाषा रूप कर्म का कर्ता कर्म ही सिद्ध होता है। यहाँ जीव के द्वारा किये गये कुशील का समर्थन न होने से जीव कुशील का कत्र्ता सिद्ध नहीं होता है। इसी प्रकार ‘जो दूसरे को मारे और दूसरे को मारा जाये’ इस परघात कर्म की व्याख्या के अनुसार हिंसा कर्म का कर्ता परघात कर्म ही व्याख्या के है। “
१.कर्मैव प्रवितक्र्य कर्तृहतवै: क्षित्वासन: कर्तृतां । — समयसार कलश (२०४)
२. समयसार गाथा, ३३२ से लेकर ३४४ गाथाओं का भाव है।
अनुसार हिंसा कर्म का कर्ता परघात कर्म ही सिद्ध होता है, जीव नहीं क्योंकि कर्म को कर्ता मान लेने से जीव सदैव अकत्र्ता ही रहता है।
उत्तर—ऐसा कहने वाले श्रमणाभास हैं— जैनाभास हैं। वे अपनी बुद्धि के दोष से आगम के अभिप्राय को बिना ही समझे सांख्यमत का अनुसरण करते हैं । क्योंकि इस तरह एकांत से प्रकृति को कर्ता मान लेने पर तो सभी जीव सर्वथा अकर्ता ही सिद्ध हो जायेंगे पुन: ‘जीव कर्ता है’ ऐसा जो आगम से इस मान्यता में विरोध आता है उसे कैसे दूर करेंगे ? पूर्वपक्ष — कर्म आत्मा के पर्याय रूप अज्ञानादि भावों को करता है और आत्मा द्रव्य रूप मात्र आत्मा को ही करता है अत: आत्मा कत्र्ता सिद्ध हो जाता है। उत्तर— यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि जीव द्रव्यरूप से नित्य है, असंख्यात प्रदेशी है और लोक के बराबर है और जो नित्य होता है यह कार्यरूप नहीं हो सकता है, चूँकि कर्तृत्व और नित्यत्व में परस्पर विरोध है।
प्रश्न—मिथ्यात्व आदि भावों का कर्ता भी कर्म ही है आत्मा को ही करता है ऐसा माने तो क्या बाधा है ?
उत्तर—ऐसा कथन भी केवल मिथ्यात्व के संस्कार से ही हुआ है । अत: यह मानयता ठीक नहीं है। अत: वास्तविक मान्यता यह है कि सामान्य की अपेक्षा आत्मा ज्ञान स्वभाव में स्थित है, परन्तु मिथ्यात्व आदि भावों को जानते समय अनादि काल से भेद—विज्ञान के अभाव से ज्ञेय—रूप परपदार्थों को, मिथ्यात्वादि भावों को आत्मा के रूप में जानता है अत: विशेष की अपेक्षा अज्ञानमयी परिणामों के करने से ‘कर्ता’ होता है। और जब भेदविज्ञान की पूर्णता के हो जाने से आत्मा जान लेता है। तब विशेष रूप से भी ज्ञानमयी परिणामों से परिणमन करता है उस समय मात्र ज्ञाता रहने से वह जीव साक्षात् ‘अकत्र्ता’ होता है। अर्थात् कितने ही जैन मुनि आत्मा को एकांत से अकर्ता कह देते हैं और कर्म—प्रकृत्ति को कर्ता मान लेते हैं तब तो प्रकृत्ति ही परस्त्री का सेवन करती है और प्रकृति ही हिंसा करती है अत: उनके मत से तो
व्यभिचारतह्या ण कोवि जीवो अबंभचारी उ अह्म उवएसे—।।३३७।।
पाप और हिंसातह्या ण कोवि जीवो वधायओ अस्थि अह्म उवदेसो— ।।३३९।।
पाप प्रकृति कर्म ही करते हैं तब पुन: जीव को पाप बंध भी कैसे हो सकेगा ? तथा अनर्गलता बढ़ती ही चली जायेगी अत: स्याद्वाद की व्यवस्था को समझना बहुत जरुरी है।
एकांत से जीव को अकर्ताएवं संसुवएसं जे उ परुविंति एरिंस समणा।
तेसिं पयडी कुववइ अप्पा य अकारया सव्वे।।३४०।।
समयसार मानना सांख्य की मान्यता है। इन्हीं गाथाओं के अर्थ को स्पष्ट करते हुये श्री जयसेनाचार्य कहते हैं— यह जीव कर्मों के द्वारा ही ज्ञानी और अज्ञानी होता है, कर्मों के द्वारा ही सुखी—दु:खी होता है और कर्मों के द्वारा ही तीनों लोकों में भ्रमण करता है जो कुछ भी शुभ —अशुभ आदि हैं वे एकांत में कर्मकृत ही हैं। ऐसा मानने पर तो जीव अकर्ता हो गया, तब जीव के कर्मों का अभाव हुआ, कर्म के
१. तह्या ण कोवि जीवो अबंभचारी उ अह्म उवएसे—।।३३७।।
२. तह्या ण कोवि जीवो वधायओ अस्थि अह्म उवदेसो— ।।३३९।।
३. एवं संसुवएसं जे उ परुविंति एरिंस समणा। तेसिं पयडी कुववइ अप्पा य अकारया सव्वे।।३४०।।
समयसार अभाव में संसार का भी अभाव हो गया, यह दूषण आता है। कर्म ही कर्ता है यह उपर्युक्त सिद्धांत सांख्यमतानुयाइयों का है ऐसा बताकर श्री वुंâदवुंâददेव फिर भी इस प्रकार कहते हैं कि हम यह बात केवल द्वेष के वश कहते हैं किन्तु आप सांख्यों के मत में ही ऐसा लिखा है कि ‘पुरुषवेद स्त्री की और स्त्रीवेद पुरुष की अभिलाषा करता है, जीव ऐसी अभिलाषा नहीं करता है, पुन: आप सांख्य के मत में कोई भी जीव व्यभिचारी नहीं ठहरेगा किन्तु जैसे शुद्ध निश्चयनय से सभी जीव ब्रह्मचारी हैं वैसे अशुद्ध निश्चयनय से भी सभी जीव ब्रह्मचारी ही ठहरेंगे, किन्तु ये बातें प्रत्यक्ष विरुद्ध हैं। सांख्य— किसी दूसरे के कर्म के स्वरूप को प्रकृति—कर्म नष्ट करता है वह प्रकृति भी किसी दूसरे कर्म द्वारा नष्ट की जाती है अपितु जीव नष्ट नहीं किया जाता है। ऐसे अर्थ को लिये हुये ही आप जैन के मत में परघात नामकर्म कहा गया है।
जैन— हमारे यहाँ घात करने वाला परघात कर्म कहने पर भी जीव ही हिंसा के रूप में परिणमन करता है, परघात कर्म तो उसमें सहकारी कारण मात्र ही होता है। यद्यपि हम जैनों के यहाँ शुद्ध पारिणामिक रूप परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से जीव को हिंसा परिणाम से रहित अपरिणामी माना गया है। फिर भी व्यवहारनय से वही जीव परिणामी भी माना गया है । किन्तु आपके यहाँ तो जैसे शुद्धाय से कोई जीव हिंसक नहीं है वैसे ही अशुद्धनय से भी हिंसक नहीं है। इस प्रकार सांख्य मत का आरय लेकर जो द्रव्यलिंगी श्रमणाभास परमागम में कहे हुये नय विभाग को नहीं समझकर एकांत हठ पकड़कर प्रकृति (कर्म) को ही सब कुछ करने वाला मान लेते हैं उनके यहाँ आत्मा के कत्र्तापने का अभाव हो जाने से कर्म का भी अभाव हो जाता है और कर्म के अभाव में संसार का अभाव हो जाता है, तब मोक्ष भी सिद्ध नहीं होता है। और इन सबका न होना तो प्रत्यक्ष से विरुद्ध है, किन्तु हमारे जैनमत मेंउ परस्पर सापेक्ष निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों के द्वारा सब बातें सुघटित हैं।
प्रश्न— जीव से प्राण भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि अभिन्न हैं तो जैसे जीव का नाश नहीं होता वैसे प्राणों का भी नाश नहीं होना चाहिये तो फिर हिंसा कैसे ? यदि प्राण जीव से भिन्न है तब तो प्राणों के घात होने पर भी आत्मा का क्या बिगाड़ हुआ अत: फिर भी वहाँ हिंसा नहीं हुई ?
उत्तर— ऐसी बात नहीं है। क्योंकि काय आदि रूप प्राणों के साथ इस जीव का कथंचित् भेद है कथंचित् अभेद है।
प्रश्न—सो कैसे ?
उत्तर—जैसे तपे हुये लोहे के गोले में से उसी समय अग्नि को पृथ्क् नहीं किया जा सकता उसी प्रकार वर्तमान काल में कायादि प्राणों को जीव से पृथक् नहीं किया जा सकता। अत: व्यवहारनय से कायादि प्राणों का जीव के साथ अभेद है। किन्तु निश्चयनय से मरण काल में परलोक जाते समय कायादि प्राण इस जीव के साथ नहीं जाते इसलिये कायादि प्राणों का जीव के साथ भेद भी है यदि एकांत से भेद ही मान लिया जाये तो फिर दूसरे के शरीर के छिन्न—भिन्न होने पर भी दु:ख नहीं होना चाहिये, किन्तु ऐसा तो होता नहीं है इसमें तो प्रत्यक्ष से विरोध आता है।
प्रश्न— फिर जो हिंसा हुई वह व्यवहार से ही हुई, निश्चय से नहीं ।
उत्तर—तुमने ठीक ही कहा है, कि व्यवहार से हिंसा होती है और पाप भी व्यवहार से ही होता है, नरक आदि का दु:ख भी व्यवहार से ही होता है यह बात तो हमको मान्य ही है। हाँ, वह नारक आदिकों का दु:ख तुम्हें इष्ट है तो हिंसा करते रहो और यदि नरकादि से तुम्हें डर लगता है तो हिंसा करना छोड़ दो। ‘‘ ननु तथापि व्यवहारेण हिंसा जाता न तु निश्चयेनेति ? सत्यमुक्मतं भवता व्यवहारेण हिंसा तथा पापमपि नारकादि दु:खमपि व्यवहारेणेत्यस्माकं सम्मतमेव । तन्नारकादिदु:खं भवताभिष्टं चेत्तर्हि हिंसा कुरुत। भीतिरस्ति ? इति चेत तर्हि त्यज्यतामिति।’’ बस, इस सारे विवेचन से यह बात सिद्ध हुई कि सांख्यमत के समान जैनमत में आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं है अवशेष काल में वह कर्मों का कर्ता होता है। अत: सर्व विशुद्ध ज्ञान ही आत्मा के कर्तृव्य को समाप्त करके सर्वत: पूर्णकेवलज्ञान बन जाता है।
निश्चय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना में परिणत साधु ही तपोधन कहलाते हैं । इहलोक—परलोकाकांक्षा रूप समस्त शुभ समस्त शुभ—अशुभ संकल्प—विकल्प से रहित, विशुद्ध ज्ञान—दर्शन स्वभाव निज परमात्मतत्व का ही सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और अनुभव रूप अभेद रत्नत्रयात्मक जो निर्विकल्प समाधि है उस परम समाधि में स्थित होकर वीतराग सहज परमानंद स्वभाव सुखसुधारस के आस्वाद रूप और कार्य समयसार को उत्पन्न करने वाले कारण समयसार में जो स्थित हैं वे ही साधु अभेद नय से निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान और निश्चय आलोचना रूप से परिणत हुये महातपोधन कहलाते हैं। उसी का स्पष्टिकरण— अतीतकर्म से ममत्व छोड़ना प्रतिक्रमण है, आगामी न करने की प्रतिक्रमण है, आगामी न करने की प्रतिज्ञा प्रत्याख्यान है और वर्तमान में जो कर्म उदय में आया है उसका ममत्व छोड़ना वह आलोचना है। ऐसा चरित्र का विधान है— ‘‘अतीत काल में किये हुये जो शुभ—अशुभ ज्ञानावरण आदि अनेक प्रकार के कर्म हैं उनसे जो अपनी आत्मा को छुड़ाता है वह आत्मा प्रतिक्रमण स्वरूप है और जो आगामी काल में शुभ—अशुभ कर्म जिस भाव से जो ज्ञानी छूटे वह आत्मा प्रत्याख्यान स्वरूप है तथा जो वर्तमान काल में शुभ—अशुभ अनेक प्रकार के कर्म उदय में आ रहे हैं उसको जानता मात्र है (तन्मय होकर अनुभव नहीं करता है) वह प्रत्याख्यान और आलोचना करता है वही निश्चय से चारित्र स्वरूप हैगाथा— ३८३द्ध३८४,३८५,३८६। समयसार। ।’’अभिप्राय यह हुआ कि जो साधु अभेदरत्नत्रयात्मक परमोपेक्षासंयम को धारण करने वाला है निर्विकल्प ध्यान रूप समाधि में स्थित है उसीह के यह निश्चय चारित्र होता है। १. गाथा— ३८३द्ध३८४,३८५,३८६। समयसार।
ज्ञास्य संचेतनयैव नित्यं, प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धं।
अज्ञानसंचेतनया तु धावन्, बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बंध:२।।२२४।।
ज्ञान की चेतना से ही ज्ञान अत्यन्त शुद्ध निरन्तर प्रकाशित होता है और अज्ञान की चेतना से बंध उौड़ता हुआ ज्ञान की शुद्धता को रोक देता है । अर्थात् चेतना के दो भेद हैं— ज्ञान चेतना और अज्ञान चेतना। इस अज्ञान चेतना के भी दो भेद हैं— कर्मचेतना और कर्मफलचेतना। किसी वस्तु के प्रति एकाग्र होकर अनुभवरूप स्वाद लेना संचेतन है। ज्ञान के तरफ ही एकाग्र होकर उसी का अनुभव करना ज्ञान चेतना है इससे ज्ञान अत्यन्त शुद्ध होकर प्रकाशित होता है तब संपूर्ण ज्ञान चेतना नाम पाता है और अज्ञानरूप — कर्मरूप, कर्मफलरूप उपयोग को करना , उसी तरफ एकाग्र होकर अनुभव करना अज्ञान चेतना है । इससे क्रम का बंध होता है और यह ज्ञान की शुद्धता को रोक देती है। इसी बात को श्री अमृतचन्द्रसूरि अपने शब्दों में स्पष्ट करते हैं— ज्ञान से अन्यत्र— भन्न भावों में ‘यह मैं हूँ’ ऐसा अनुभव करना अज्ञान चेतना है उसके दो भेद हैं कर्मचेतना, कर्मफलचेतना। ज्ञान से भिन्न अन्यत्र ऐसा अनुभव करना कि ‘ मैं इसको भोगता हूँ’ यह कर्मफलचेतना है। ये दोनों ही अज्ञान चेतना संसार के बीज हैं क्योंकि संसार का बीज आठ विध कर्म हैं। और कर्म का बीज अज्ञान चेतना है। चूँकि इसी से कर्म बंधते हैं। इसलिये मोक्षार्थी भव्यों को अज्ञान चेतना का नाश करने के लिये सब कर्मों को छोड़ देने की भावना भाना चाहिये, फिर कर्मफल के त्याग की भावना करते हुये अपनी स्वभावभूत जो ज्ञानवती—भगवती एक ज्ञान चेतना है उसी का निरन्तर अनुभव करना चाहिये। उसमें सबसे प्रथम कर्मों के त्याग की भावना को भाना चाहिये—
कृतकारितानुस्त्रिकालविषयं मनोवचनकाय: ।
परिहत्य कर्म सर्व परमं नैष्वम्र्यमवलंबे ।।२२५।।
अतीत, अनागत, वर्तमानकाल सम्बन्धी सभी कर्मों को कृत, कारित, अनुमोदना और मन, वचन, काय से छोड़ करके उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्था का मैं अवलंबन करता हूँ । इस प्रकार सब कर्मों के त्याग करने वाला ज्ञानी प्रतिज्ञा करता है। इसी बात को श्रीजयसेनाचार्य स्पष्ट करते हैं— मथ्यात्व रागादि से परिणत हुये जीव के अज्ञान चेतना होती है वह कर्म को करती है। उदयागत शुभ—अशुभ का अनुभव करते हुये अज्ञानी जीव स्वस्थ भाव से भ्रष्ट होता हुआ‘मेरा यह कर्म किया है ऐसा कहता है’ यह कर्मचेतना है। इस चेतना के अनुभव वाला जीव आठ प्रकार के कर्मों को बांधता रहता है और उदयागत कर्मफल का अनुभव करते हुये तथा शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव न करते हुये इष्टानिष्ट इंद्रियों के विषयों के निमित्त से जो सुखी अथवा दु:खी होता है वह भी आठ कर्मों को बांध लेता है यह कर्मफलचेतना है। ये दोनों ही संसार के बीज हैं । कर्मचेतना का नाश करने के लिये साधु निश्चय प्रतिक्रमण आदि रूप से परिणत होकर शुद्ध चेतना के बल से आत्मा का ध्यान करने में समर्थ होते हैं। अत: कर्मचेतना के त्याग की भावना को बताते हैं—
प्रतिक्रमण— ‘‘यदहमकार्षं यदचीकरम् यत्कुर्वन्तमप्यन्यं
समन्वज्ञासं मनसा च वाचा च कायेन चेति तन्मिथ्या मे दुष्कृतं’’।
मैंने अतीतकाल में जो कर्म किया है, कराया है और करते हुये अन्य को अनुमोदना दी है, मन से, वचन से और काय से, यह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । यहाँ अतीत काल सम्बन्धी जो कर्म को कृत, कारित, अनुमोदना और मन, वचन, काय से किये गये हैं उनका त्याग करना (मिथ्या में दुष्कृतं कहना) प्रतिक्रमण है। सब कर्मों के त्याग करने में कृत, कारित, अनुमोदना और मन, वचन, काय के ४९ भेद हो जाते हैं। देखिये! कृत, कारित और अनुमत इस प्रकार प्रत्येक तीन भंग हुये, फिर कृत, कारित ये दोनों, कृत, अनुमत ये दोनों, कारित, अनुमत इन दोनों इस प्रकार दो—दो के संयोग से तीन भंग हुये। और कृत, कारित, अनुमत इन तीनों के संयोग से एक भंग हुआ। इस प्रकार सब मिलकर एक सप्तभंगी हुई। उसी प्रकार मन, वचन, काय से प्रत्येक को लेकर तीन भंग, मन वचन, मन काय और वचन काय इनके साथ कृत करने से तीन भंग तथा तीनों को साथ मिलाकर कृत करने से एक भंग ऐसे तीसरी सप्तभंगी हुई। ऐसे ही कारित पर, अनुमत पर तथा कृत कारित अनुमति इन तीनों पर भी प्रत्येक से इसी क्रम से सप्तभंगी लगा लेना चाहिये ये सभी मिलकर उनंचास भंग होते हैं । ‘‘मैंने जो मोह से अथवा अज्ञान से कर्म किये हैं । उन समस्त कर्मों का प्रतिक्रमण करके मैं निष्कर्म (समस्त कर्मों से रहित)चैतन्य स्वरूप आत्मा में ही निरन्तर वर्त रहा हूँ। ’’ यह प्रतिक्रमण विधि हुई ।
प्रत्याख्यान— जो मैं करूँगा, जो मैं कराऊँगा करते हुये किसी अन्य को भला मानूँगा, मन से, वचन से, काय से, किसी भी प्रकार से यह मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे। इसमें भी ४९ भंग लगाकर चिंतवन करने से प्रत्याख्यान होता है। ‘‘ मैं भविष्य के समस्त कर्मों का प्रत्याख्यान करके, मोह रहित होता हुआ निष्कर्म चैतन्य स्वरूप आत्मा में आत्मा से ही निरन्तर वर्त रहा हूँ ।’’ यह प्रत्याख्यान विधि हुई।
आलोचना— जो मैं करता हूँ , कराता हूँ, करते हुये अन्य को अच्छा मानता हूँ, मन से, वचन से, काय से, यहसब मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे। पूर्वोक्त उनंचास भंग पूर्वक यह आलोचना करना चाहिये। ‘‘ मोह के विलास से फैला हुआ जो यह उदय में आता हुआ कर्म है उन सबकी आलोचना करके मैं निष्कर्म चैतन्य स्वरूप आत्मा में आत्मा से ही निरन्तर वर्त रहा हूँ ’’। इस प्रकार निश्चय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना रूप से, तीनों कालों के समस्त कर्मों को दूर करके शुद्धनयावलम्बी, मिथ्यात्व रहित हुआ मैं अब सर्व विकारों से रहित शुद्ध आत्मा का अवलंबनद लेता हूँ। इस तरह कर्मचेतना के त्याग की भावना हुई है। अब कर्मफलचेतना की भावना को स्पष्ट करते हैं—
वगलंतु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमतरेणैव ।
संचेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानं ।।२३०।।
कर्म रूपी विषवृक्ष के फल, मेरे द्वारा भोगे बिना ही खिर जावें , मैं अपने चैतन्य स्वरूप आत्मा का निश्चलतया अनुभव करता हूँ । कर्म फल के त्याग की भावना करने वाले तपोधन चिंतवन करते हैं कि मैं मतिज्ञानवरण कर्म के फल को नहीं भोगता हॅूं । तब फिर क्या करता हूँ ? मैं तो शुद्ध चैतन्य स्वभावमय आत्मा को ही भले प्रकार अनुभव करता हूँ । मैं श्रुतज्ञानावरणकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ । इत्यादि रूप से ज्ञानावरण के ५, दर्शनावरण के ९, वेदनीय के २, मोहनीय के २८, आयु के २८, आयु के ४, नाम के १३, गोत्र के २ और अंतराय के ५ ऐसे १४८ भेदों रूप सभी प्रकृतियों के फल के त्याग की भावना करनी चाहिये। यहाँ पर अभिप्राय यह है कि कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से जब तक यह आतमा दूर नहीं होता, तब तक ज्ञानचेतना पर नहीं पहुंच पाता है। क्योंकि ये दोनों चेतना अज्ञानरूप हैं। किन्तु ज्ञान चेतना शुद्ध ज्ञानरूप है तब तक यह प्राप्त नहीं हो पाती है तब तक नवीन कर्मों का बंध होता रहता है। अत: मुमुक्षु, को नूतन कर्म से बचने के लिये शुद्ध ज्ञान—दर्शन स्वरूप परम समाधि में लगे रहना चाहिये। सकल कर्मों के फल का त्याग करके ज्ञान चेतना की भावना करने वाला ज्ञानी सोचना है कि मैं सकल कर्मों के फल का त्याग करके चैतन्य लक्षण वाले आत्मतत्त्व के अनुभव में ही लगी रहे। उससे अन्य प्रवृत्ति में उपयोग ने जावे। तब ज्ञान चेतना का फल यह होता है कि यह मुमुक्षु आगामी काल में केवलज्ञान प्राप्त कर सब कर्मों से रहित मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
जो पुरुष राग की उत्पत्ति में परद्रव्य को ही निमित्त मानते हैं, अपना कुछ भी हेतु नहीं मानते हैं वे मोहरूपी नदी के पार नहीं उतरते हैं, क्योंकि शुद्धनय का विषयभूत जो आत्मा का स्वरूप उसके ज्ञान से रहित अंधबुद्धि वाले हैं। ‘‘बहुत से निंदा स्तुति के जो वचन हैं वे पौद्गलिक हैं उनको सुनकर अज्ञानी जीव ही रोष करता है और संतुष्ट होता है। वे शब्द यह नहीं करते हैं तुम मुझे सुनो , ऐसे ही पुद्गरूप से परिणत हुये शुभ—अशुभ वर्ण भी ऐसा नहीं कहते हैं कि तुम मूझको देखो, शुभ—अशुभ गंध भी ऐसा नहीं कहते हैं कि मुझको सूँघों , शुभ—अशुभ स्पर्श भी ऐसा नहीं कहते हैं कि मेरा स्पर्श करो। अज्ञानी जीव ही इन पंचेद्रियों के इष्ट—अनिष्ट विषयों में राग—द्बेष करता रहता है। किंतु जो परमतत्वज्ञानी हैं वे व्यवहार—निश्चय कारणसमयसाररूप बाह्य—अभ्यंतर रत्नत्रय से सहित होते हुये मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दादि विषयों में राग—द्बेष नहीं करते हैं किन्तु स्वस्थ भाव से अपने शुद्धात्मतत्व का अनुभव करते हैं वे ही कर्मबंधन से छूट सकते हैं। यह ज्ञान सभी वस्तुओं में पृथक् है, इसका स्पष्टीकरण— ‘‘ शास्त्र ज्ञान नहीं है क्योंकि शास्त्र कुछ नहीं जानता है, जड़ है इसलिये ज्ञान अन्य है, शास्त्र अन्य है, ऐसा जिनेंद्र भगवान् ने कहा है । शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि शब्द कुछ नहीं जानता इसलिये ज्ञान अन्य है। ऐसे रूप, गंध, स्पर्श, कर्म, धर्म, अधर्म, काल, आकाश अध्यवसान ये सभी ज्ञान नहीं हैं, क्योंकि ये सब अचेतन हैं । ज्ञान इनसे भिन्न है, ऐसा जिनेंद्रदेव ने कहा है इसलिये जीव ज्ञायक है, वही ज्ञानी ही सम्यग्दृष्टि है, संयम है, अंग—पूर्व रूप सूत्र है और धर्म—अधर्म है तथा दीक्षा भी ज्ञान है ऐसा ज्ञानीजन स्वीकार करते हैं।’’ इसी बात को श्रीजयसेनस्वामी स्पष्ट करते हैं—
‘‘न श्रुतं ज्ञानं अचेतनत्वात् ततो ज्ञानश्रुतयोव्र्यतिरेक:’’
ज्ञान श्रुत— शास्त्र नहीं है क्योंकि वह अचेतन है इसलिये ज्ञान और श्रुत में भेद है। ऐसे ही रूप, वर्ण , गंध, रसादि से लेकर अध्यवसान पर्यंत सभी चीजें परद्रव्य हैं, अचेतन हैं। जीव ही एक ज्ञानरूप है क्योंकि वह चेतन है इसलिये ज्ञान और जीव में अभिन्नता है। इस प्रकार से अनादिकालीन विभ्रम के मूल रूप, धर्म—अधर्म रूप, परसमय को छोड़कर स्वयं ही दीक्षारूप को स्वीकार करके दर्शन ज्ञान चारित्र में स्थितिरूप स्वसमय को प्राप्त कर मोक्षमार्ग को आत्मा में ही परिणत करके संपूर्ण विज्ञानघन भावरूप हुआ, हानोपादान से शून्य साक्षात् समयसार भूत, परमार्थरूप एक शुद्ध ज्ञान ही अवस्थित हो जाता है अर्थात् परभावों से पृथक् होकर शुद्ध ज्ञान ही स्वयं में पूर्ण होकर केवलज्ञान बन जाता है।
एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते ।
ततो देहमयं लिंगं मोक्षकारणं।।२३८।।
इस पूर्वोक्त शुद्ध—ज्ञान के शरीर ही नहीं है, इसलिये ज्ञाता आत्मा का शरीरमय लिंग मोक्ष का कारण नहींद है। ‘‘ पाखंडीलिंग१ या गृहलिंग ऐसे बहुत प्रकार के लिंग— भेष हैं, उनको धारण करके अज्ञानी उन्हें ही मोक्ष—मार्ग कह देते हैं, किन्तु आचार्य कहते हैं कि लिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है क्योंकि अर्हंतदेव भी देह से निर्मम हुये लिंग को छोड़कर रत्नत्रय का सेवन करते हैं। तात्पर्य यह है कि ‘‘ग्रहण किये हुये सागर और अनगाररूप लिंग को छोड़कर, दर्शन ज्ञान चारित्ररूप मोक्षमार्ग में ही अपनी आत्मा को लगावों२। ’’अर्थात् द्रव्यलिंग मात्र ही मोक्ष का मार्ग नहीं है उसके आश्रय से हुआ भावलिंग जो रत्नत्रयरूप है वही मोक्ष का मार्ग है। पुन: आचार्य कहते हैं—
मोक्खपहे उप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय।
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ।।४१२।।
हे भव्य ! तू मोक्ष मार्ग में अपनी आत्मा को स्थापित कर, उसी का ध्यान कर, उसी का अनुभव कर और उसी आत्मा में ही निरंतर विहार कर, अन्य द्रव्यों में विहार मत कर। जो पुरुष बहुत प्रकार के पाखंडी लिंगों में और गृहस्थ लिंगों में मैं श्रमण हूँ, मैं श्रमणोपासक हूँ, इस प्रकार द्रव्यलिंग के ममकार से मिथ्या अहंकार करते हैं, उन पुरुषों ने भगवान् समयसार को नहीं जाना है। अर्थात् मुनिपद स्थान या गृहस्थावस्थारूप धर्म ये द्रव्यलिंग में ही सब कुछ समझते हैं ।
१. गाथा — ३९० से ४०४ तक का भाव है।
२. गाथा— ४०८, ४०९।
३. गाथा— ४११।
अपनी राग—द्वेष प्रवृत्ति को छोड़कर आत्मा का ध्यान नहीं करते हैं वे समयसारभूत आत्मा के ज्ञान से रहित हैं। अर्थ का अनर्थ न हो जाये, इसलिये स्वयं भगवान् श्री कुंदकुंद कहते हैं।
ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणइ मोक्खपहे।
णिच्छयणओ ण इच्छइ मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ।।४१४।।
व्यवहारनय तो मुनि, श्रावक के भेद से दोनों ही प्रकार के लिंगों को मोक्षमार्ग कहता है और निश्चयनय सभी लिंगों को मोक्षमार्ग में इष्ट नहीं करता । इसी बात को जयसेनाचार्य स्पष्ट करते हैं— ‘‘ द्रव्यलिंग निषिद्ध ही है ऐसा मत समझो…..यहाँ द्रव्यलिंग का आधारभूत जो शरीर है उसके ममत्व का निषेध किया है। क्योंकि पूर्व में दीक्षा के समय संपूर्ण परिग्रह का ही त्याग किया है किन्तु शरीर का त्याग नहीं किया है। क्यों? क्योंकि शरीर के आधार से ज्ञान और ध्यान का अनुष्ठान होता है इसलिये शेष परिग्रह के समान शरीर को पृथक् नहीं किया जा सकता। वीतराग ध्यान के समय‘‘ यह मेरा शरीर है, मैं क्षुल्लक, ऐलक या मुनि लिंगधारी हूँ’’ इत्यादि विकल्प व्यवहार से भी नहीं करना चाहिये। देखिये— शाालितंदुल के बहिरंगतुष के विद्यमान रहने पर अभ्यंतर तुष— ललाई दूर करना शक्य नहीं है और अभ्यंतर तुष का त्याग हो जाने पर बहिरंग तुष का त्याग नियम से होता ही है। इस न्याय से संपूर्ण परिग्रह के त्याग रूप बहिरंग द्रव्यलिंग के होने पर भावलिंग होता है अथवा नहीं भी होता है। देखिये भरतचक्रवर्ती आदि जो कि अंतर्मुहूर्त मात्र में केवली हुये हैं वे भी निग्र्रंथलिंग से ही हुये हैं।
अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पै—रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेक:।
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्पूâर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति ।।२४४।।
आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से और बहुत से दुर्विकल्पों से बस हो, बस हो। इस ग्रन्थ में एक परमार्थ का ही निरंतर अनुभव करना चाहिये। क्योंकि वास्तव में अपने रस के फैलाव से पूर्ण जो ज्ञान करके स्पुरायमान होने मात्र जो समयसार रूप शुद्ध आत्मा—परमात्मा, उसके सिवाय अन्य कुछ भी सार नहीं है।
इदमेकं जगाच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णतां ।
विज्ञानघनमानंदमयध्यक्षतां नयत् ।।२४५।।
यह समयप्राभृतग्रन्थ पूर्णता को प्राप्त हो रहा है। कैसा है ? जिसका विनाश न हो सके ऐसा जगत् में अद्वितीय नेत्र के समान है क्योंकि वह शुद्ध परमात्मा समयसार आनंदमय है उसको प्रत्यक्ष प्राप्त करता है। अर्थात् यह ग्रन्थ वचनरूप से तथा ज्ञानरूप से दोनों तरह से नेत्र के समान है क्योंकि शुद्ध आत्मा के स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव करता है।
जो समयपाहुडमिणं पडिदूण अत्थतच्चदो णाउं।
अत्थे ठाही चेया सो होही उत्तमं सोक्खं।।४१५।।
जो चेतयिता भव्य जीव इस समयप्राभृत को पढ़कर अर्थ से और तत्त्व से समझकर इसके अर्थ में स्थिर होगा वह उत्तम सुख स्वरूप होगा। जो भव्य जीव इस समयप्राभृतग्रन्थ को पहले पढ़कर तथा ग्रन्थ और अर्थ से उसे सम्यक्प्रकार समझकर अनंतर उपायभूत शुद्धात्मलक्षण निर्विकल्प समाधि में स्थिर होगें, वे भाविकाल में वीतरागसहज अपूर्व परमाह्लादारूप आत्मा से ही उत्पन्न अतिशयशाली और बाधारहित सिद्धों के सुख को प्राप्त कर लेंगे।
प्रश्न— वह सिद्धों का सुख कैसा है ?
उत्तर— देखो! कोई मनुष्य स्त्रीसेवन आदि पंचेद्रियों के विषयों के व्यापार से रहित निव्र्याकुलचित्त हुआ कहीं बैठा है। तब किसी ने पूछा कि हे भाई! सुख से तो हो। तब उसने कहा, हाँ! सुख से हूँ उस समय उसे निराकुलता में जो कुछ भी सुख हुआ है वह सुख आत्मा से ही उत्पन्न है। अत:— वर्तमान में जो पुण्याधिकारी देव और मनुष्य हैं वे सब निराबाधरूप से सभी इंद्रियों को प्रसन्न करने वाला इंद्रियजन्य और ऋद्धि आदि से प्राप्त सुख वर्तमान में भोग रहे हैं उन्हीं सभी के भूतकालीन और भविष्यत्कालीन ऐसे त्रेकालिक सभी सुखों को एकत्रित करिये। उन समस्त सुखों से भी अनंतगुणासुख अतींद्रियजन्य निजस्वभाव से उत्पन्न होने वाला सुख परमेश्वर सिद्ध भगवान् को एक समय में प्राप्त होता है। इस प्रकार अध्यात्म ग्रन्थ का स्वाध्याय करके राग—द्वेष करते हुये परमशांति का अनुभव करना चहिए।
‘ स्यात्कथंचित् विवक्षितप्रकारेणानेकांतरूपेण वदनं वादो जल्प:
कथनं प्रतिपादन इति स्याद्वाद: स च स्याद्वादो भगवतोऽर्हत: शासनं।
स्यात् , कथचित्, विवक्षित प्रकार से, अनेकांत रूप से कथन करना— प्रतिपादन करना स्याद्वाद है और वह स्याद्वाद अर्हंत भगवान् का शासन है। अथवा यह स्याद्वाद समस्त वस्तु तत्व को सिद्ध करने वाला अर्हंत सर्वज्ञ भगवान् का एक अस्खलित शासन है। यह स्याद्वाद सभी वस्तु को अनेकांतात्क कहता है क्योंकि सभी वस्तुयें अनेकांत स्वभाव वाली हैं ।
प्रश्न—अनेकांत किसे कहते हैं ?
उत्तर— एक ही वस्तु में वस्तुत्व को निष्पन्न करने वाली अस्तित्व—नास्तित्व सदृश दो परस्पर विरुद्ध सापेक्ष शक्तियों को प्रतिपादन करने वाला अनेकांत है। वह अनेकांत यह बताता है कि ज्ञानमात्र जो भाव है अर्थात् जीव पदार्थ है, शुद्धात्मा है, वह तद्रुप या अतद्रूप या एकानेकात्मक अथवा सत—असत् रूप विंâवा नित्य—अनित्य आदि स्वभाव वाला है। उसी का स्पष्टीकरण— आत्म ज्ञानरूप से तत् रूप है । तो वही आत्मा ज्ञेयरूप से अतत् रूप है, द्रव्यार्थिकनय से एक है तो पर्यायार्थिकनय से वही अनेक है। अपने द्रव्य क्षेत्र, काल, भावरूप स्वचतुष्टय के द्वारा वह आत्मा सत् रूप (आस्ति रूप) है तो वही परद्रव्य क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा असत् रूप है। द्रव्यार्थिकनय से नित्य है तो पर्यायार्थिकनय से अनित्य भी है। पर्यायार्थिकनय से भेदरूप है तो द्रव्यार्थिकनय से अभेदरूप है। इत्यादि अनेक धर्मवाला आत्मा है। श्री समंतभद्र स्वामी ने भी कहा है— सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नया। सर्वमेति प्रदुश्ंति पुष्यंति स्यादितीह ते।। अर्थात् सत्— असत् , नित्य—अनित्य, एक—अनेक और वक्तव्य—अवक्तव्य ये परस्पर विरुद्ध आठ नयों के चार जोड़े हैं। इनकों यदि सर्वथा रूप एकांत दृष्टि से मानें तो ये एक दूसरे के विरुद्ध हो जाने से दूषित हो जाते हैं । किंतु यदि स्यात् — कथंचित् रूप से इन्हें स्वीकार किया जाये तो ये एक दूसरे के पोषक (अनुकूल) बने रहते हैं। इस प्रकार अनेकांत के व्याख्यान से ज्ञान मात्र स्वभाव वाला जीव पदार्थ भी अनेकांतात्मक सिद्ध हुआ । इस प्रकार अज्ञान से मूढ़ प्राणियों को समझाने के लिये अनेकांत आत्मतत्त्व को ज्ञान मात्र सिद्ध करता हुआ स्वयं ही अनुभव गोचर होता है।
एवं तत्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयं ।
अलंघ्यं शासनं जैनमनेकांतो व्यवस्थित: ।।२६३।।
इस प्रकार वस्तु के यथार्थ स्वरूप की व्यवस्था करके अपने स्वरूप को आप ही स्थापित करता हुआ अलंघ्य जैन शासन रूप यह अनेकांत व्यवस्थित सिद्ध हो गया है।
प्रश्न—जब यह आत्मा अनेकांतात्मक है, तो यह अनंतधर्मात्मक सिद्ध हो गया, पुन: इस आत्मा को ज्ञान मात्र कैसे कहा ?
उत्तर—यहाँ लक्षण की प्रसिद्धि से लक्ष्य आत्मा की प्रसिद्धि हो जाती है अर्थात् यहाँ आत्मा का लक्षण जो ज्ञान मात्र किया है उसका अभिप्राय यही है कि वह ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है, वह आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में नहीं पाया जाता है। दूसरी बात यह है कि यह लक्षण सभी को मान्य है / प्रसिद्ध है। यह ज्ञान स्वसंवेदन रूप से सभी प्राणियों के अनुभव में आ रहा है अर्थात् मैं जानता हूँ, मैं देखता हूँ, इत्यादि रूप से सभी को ‘मै’ शब्द से स्वयं का वेदन— अनुभव हो रहा है। एक बात यह भी है कि आत्मा में अनंत धर्म हैं वे सभी ज्ञान के परिणमन स्वरूप हैं अर्थात् परस्पर भिन्न—भिन्न स्वरूप को धारण करने वाले अनंत धर्मों के समुदाय रूप परिणत हुई एक ज्ञान क्रिया, उस मात्र भावरूप करके अपने आप होने से आत्म ज्ञान मात्र है यह बात बन जाती है। यद्यपि सभी धर्मों में लक्षण भेद हैं तो भी प्रदेश भेद नहीं है अत: एक असाधारण ज्ञान के कहने से सभी धर्म उसमें आ गये। इसी से इस आत्मा में अनंत शक्तियाँ मानी गई है ज्ञान उन सबका अनुभव करने वाला होने से वे सब ज्ञान के अंतर्गत/लीन के सदृश कह दी जाती हैं। वास्तव में वे सब पृथक् —पृथक् हैं।
(१) आत्म द्रव्य का चैतन्य मात्र भाव वही हुआ भावप्राण उसको धारण करने वाली जीवत्व शक्ति है।
(२) जड़रहित चेतना स्वरूप चिति शक्ति है।
(३) अनाकारोपयोगमयी दर्शन शक्ति है।
(४) साकारोपयोगमयी ज्ञान शक्ति है।
(५) अनाकुलत्व लक्षण सुख शक्ति है।
(६) आत्मस्वरूप की रचना की सामथ्र्य रूर्प वीर्य शक्ति है।
(७) अखंडित प्रताप सहित स्वातंत्र्यशाली प्रभुत्व शक्ति है।
(८) सर्वभावों में व्यापक एक भावरूप विभुत्व शक्ति है।
(९) समस्त विश्व को देखने में समर्थ सर्वदर्शित्व शक्ति है।
(१०) समस्त विश्व को जानने में परिणतज्ञान रूप सर्वज्ञ शक्ति है।
(११) अमूर्तिक आत्म प्रदेशों में लोकालोक के आकार को झलकाने वाली स्वच्छत्व शक्ति है।
इत्यादिरूप से इस समयसार में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने ४७ शक्तियों के नाम गिनाये हैं। इनकों आदि लेकर अनंत शक्तियों से युक्त आत्मा है तो भी वह अपने ज्ञानमात्र स्वभाव को नहीं छोड़ता है।
नैकांतसंगदृशा स्वयमेव वस्तु, तत्त्वव्यवस्थितिरिति प्रविलोकर्यंत:।
स्याद्वादशुद्धिमाधिकामधिगम्य संतो, ज्ञानी भवंति जिननीतिलंघयंत:।।२६५।।
वस्तु अपने आप अनेकांतात्मक है। ऐसे वस्तु तत्व की व्यवस्था को अनेकांत से संगत दृष्टि से देखते हुये सत्पुरुष स्याद्वाद की अधिक से अधिक शुद्धि को स्वीकार करके और जिनेंद्र भगवान् की स्याद्वाद नीति का उलंघन नहीं करते हुये ज्ञानी होते हैं । अर्थात् जो महापुरुष वस्तु को अनेकांत रूप जानते हैं , श्रद्धान करते हैं और अनुभव करते हैं वे ही ज्ञानी कहलाते हैं।
भावार्थ—इस स्याद्वाद अधिकार में प्रत्येक वस्तु को अनंत धर्म वाली सिद्ध किया है। वैसे ही आत्मा में भी अनंत गुणों को माना है। वे अनन्त गुण संसार अवस्था में शक्ति रूप हैं तथा मुक्ति में व्यक्त रूप हैं। उस आत्मा के अनंत गुणों में से एक ज्ञानगुण को ही विशेष करके इस समयसार में कहा है। मतलब यदि ज्ञानगुण न होवे तो उन अनंतगुणों का ज्ञान या अनुभव कौन करावे ? अत: सभी गुणों में एक ज्ञानगुण ही महान है। नैत्र के समान प्रधान है। उसी ज्ञानगुण के सहारे यह जीव संसार का अन्त करता है।
शुद्ध आत्मा यद्यपि ज्ञानमात्र भावरूप एक है तो भी वह अनेकांत स्वरूप सिद्ध किया जा चुका है। अत: एक आत्मतत्व में स्याद्वाद से साधित उपाय और उपेय दोनों भाव घट जाते हैं। आत्मा में जो साधक रूपता है वह उपाय है और जो सिद्ध रूपता है वह उपेय है । आत्मा अनादिकालीन मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र के संस्कार से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। जब उसके विपक्षी सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय को प्राप्त कर लेता है तब वही आत्मा व्यवहार निश्चयरूप रत्नत्रय से परिणत होने के कारण स्वयं ही ‘उपाय’ कहलाता है और वही आत्मा रत्नत्रय को पूर्ण करके स्वयं मोक्ष पर्यायरूप/सिद्धपर्यायरूप परिणत होने से ‘उपेय’ कहलाता है। जिनका किसी तरह अज्ञान दूर हो गया है ऐस भव्य पुरुष ज्ञानमात्र निजभावमयी निश्चल भूमिका का आश्रय लेते हैं। वे पुरुष साधकपने को अंगीकार करके सिद्ध होते हैं और जो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि हैं वे इस भूमिका न पाकर संसार में भ्रमण करते हैं।
स्याद्वादकौशलसुनिश्चलसंयमाभ्यां, यो भावयत्यहरह: स्वमिहोपयुक्त:।
ज्ञानक्रियानयपरस्यपरतीव्रमैत्री—पात्रीकृत: श्रयतिभूमिमिमां स एक:।।२६७।।
जो भव्य जीव स्याद्वादनय कुशलता और सुनिश्चल व्रत—समिति आदि रूप संयम इन दोनों के द्वारा अपने ज्ञान स्वरूप आत्मा में उपयोग लगाता हुआ आत्मा को निरंतर भाता है, वही पुरुष ज्ञानमय और क्रियानय से उन दोनों में परस्पर में तीव्र मैत्री भाव का पात्र हुआ निज भावमयी भूमिका को प्राप्त हो जाता है । अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनों में परस्पर मैत्री भाव को प्राप्त हुआ संयमी साधु सिद्धमयी भूमि को प्राप्त कर लेता है। ‘एक तरफ देखिये तो कषायों का क्लेश दीखता है, एक तरफ देखिये तो कषायों का उपशम रूप शांत भाव है। एक तरफ देखिये तो संसार संम्बंधी पीड़ा दीखती है, एक तरफ देखिये तो संसार का अभावरूप मुक्ति भी स्पर्श करती है और एक तरफ देखिये तो केवल एक चैतन्यमात्र ही शोभता है। इस प्राकर आत्मा के स्वभाव की महिमा अद्भुत से भी अद्भुत विजय रूप होकर प्रवर्तती है।’ निश्चल चैतन्य स्वरूप आत्मा में अपने द्वारा, अपने आपको निरन्तर मग्न करती हुई, मोह रहित, प्रतिपक्षी कर्मों से रहित, निर्मल और पूर्ण ऐसी अमृतचन्द्र ज्योति—अमृतमयी चन्द्रमा के समान ज्योति—प्रकाश स्वरूप आत्मा सर्व क्षेत्रकाल में दैदीप्यमान—प्रकाशरूप होवे। जो कर्मों के मुक्त है और ज्ञानादि गुणों से अमुक्त है मैं उस अविनाशी ज्ञानमूर्ति स्वरूप परमात्मा को नमस्कार करता हूँ। अब यहाँ सप्तभंगी प्रक्रिया को अवतरित करते हैं— स्यादस्तिद्रव्यं , स्यान्नास्तिद्रव्यं, स्यादस्ति नास्ति च द्रव्यं, स्यादवक्तव्यं द्रव्यं, स्यदस्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं, स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं। यहाँ ‘स्यात् शब्द का अर्थ कथंचित् है जो एकांत का निषेध और अनेकांत का प्रकाश करता है। अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा द्रव्य अस्तिरूप है। अन्य द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा द्रव्य नास्ति रूप है।
स्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव और पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव की क्रम से अपेक्षा करने पर द्रव्य—अस्ति—नास्ति रूप है। स्वचतुष्टय द्रव्य और परचतुष्टय भावों की युगपत् स्वपर चतुष्टय भावों की अपेक्षा करने से द्रव्य अस्ति अवक्तव्य है। स्वद्रव्यादि चतुष्टय की और युगपत् स्वपर चतुष्टय भावों की अपेक्षा करने पर द्रव्य अस्ति अवक्तव्य है। स्वद्रव्यादि चतुष्टय की और युगपत् स्वपर चतुष्टय भावों की अपेक्षा करने से द्रव्य असित अवक्तव्य है। पर द्रव्यादि चतुष्टय की और युगपत् स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा करने से द्रव्य नास्ति अवक्तव्य है। स्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव और परद्रव्य क्षेत्र काल भाव तथा युगपत् स्वपर द्रव्य क्षेत्र काल भावों की अपेक्षा द्रव्य अस्ति नास्ति अवक्तव्य है। इस तरह प्रत्येक वस्तु में सप्तभंगी घटित करना चाहिये।
स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वैव्र्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दै: ।
स्वरूपपगुप्तस्य न किंचिदस्ति। कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरे: ।।२७८।।
यह समय आत्मवस्तु तथा समयप्राभृत नामक शास्त्र, उसका व्याख्यान या यह आत्मख्याति नामक टीका शब्दों के द्वारा की गई और ये शब्द अपनी शक्ति से ही अच्छी तरह वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करने वाले हैं । इनमें आत्मा—स्वरूप/ ज्ञानमात्र में गुप्त होने वाले (प्रवेश करने वाले) मुझ अमृतचन्द्रसूरि ने कुछ भी नहीं किया है। यहाँ आचार्य ने समयसार का आश्रय लेते हुये अपने को स्वरूप में रहने वाला बतलाते हुये यह स्पष्ट किया है कि इस समयप्राभृत ग्रन्थ , की आत्मख्याति नाम की टीका को वस्तु तत्व प्रतिपादक शब्दों ने रचा है। मैं अविंâचित्कर हूँ । इस कथन से आचार्य श्री ने अपनी कर्तृत्त्व बुद्धि को हटाते हुये अपने अहंकाररूप उद्धतपने का त्याग किया है। तथापि निमित्त— नैमितिक व्यवहार से यह टीका अमृतचन्द्रसूरि द्वारा ही विरचित है। आतमा की ख्याति / प्राप्ति के लिये प्रत्येक भव्य जीवों को इसका निरंतर अभ्यास करना चाहिये। अब देखिये— श्री जयसेनाचार्य इस ग्रन्थ की तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका को समाप्त करते हुये क्या कहते हैं ? अब प्राभृत और अध्यात्म शब्द का अर्थ कहते हैं। जैसे कोई मनुष्य राजा के दर्शन के लिये जाता है तब कोई सारभूत वस्तु भेंट में देता है उसे ही प्राभृत कहते हैं। उसी प्रकार से परमात्मा के आराधक पुरुषों को निर्दोंष परमात्मा के दर्शननार्थ यह शास्त्र प्राभृत सदृश है। क्योंकि यह सारभूत ग्रन्थ है इसीलिये इसे ‘प्राभृत’ कहते हैं वैसे ही रागादि पर द्रव्यों के अवलंबन से रहित होकर विशुद्धि का आधारभूत निज शुद्धात्मा में स्थित होना ‘अध्यात्म’ है।
प्रश्न— इस अध्यात्म रूप प्राभृत शास्त्र को जानकर क्या करना चाहिये ?
उत्तर—इस प्रकार विचार करना चाहिये कि ‘मैं सहज शुद्धज्ञानानंदैक स्वभाव हूँ, मैं निर्विकल्प हूँ, उदासीन हूँ, नित्यनिरंजन शुद्धात्मा का सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान रूप निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानंद रूप सुखानुभूति मात्र लक्षण स्वसंवेदन से अनुभव के योग्य हूँ , मैं रागद्वेष, मोह, क्रोधादिकषाय, पंचेंद्रिय विषय व्यापारादि विभाव परिणामों से शुन्य हूँ तथा संसार के सभी जीव शुद्ध निश्चयनय से इस प्रकार ही शुद्धबुद्ध निरंजन सिद्ध समान हैं। निरंतर ऐसी भावना करते रहना चाहिये।
जयउ रिसि पउमणंदी जेण महातच्चपाहुडसेलो।
बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ भव्वलोयस्स ।।१।।
जं अल्लीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं ।
तं सव्वजीवसरणं णंदउ जिण्सासणं सुइरं।।२।।
जिन महर्षि पद्मनंदी ने अपनी बुद्धिरूपी सिर से महातत्त्वपाहुड़/समयसार पाहुड़रूप पर्वत को उठाकर भव्य जीवों के लिये अर्पण कर दिया है वे पद्मनंदी महर्षि श्री कुंदकुंददेव जयवंत होवें। जिनका आश्रय लेकर भव्य लोग अनंत संसार सागर को पार कर जाते हैं, वह सब जीवों के लिये शरणभूत होकर रहने वाला जिन शासन चिरकाल तक जयवंत रहे।
यश्चाभ्यस्याति संशृणोति पठति प्रख्यापयात्यादरात् ।
तात्पर्याख्यामिदं स्वरूपरसिवैक: संवर्णितं प्राभृतं ।।
शश्वतद्रूपमलं विचित्रसकलं ज्ञानात्मकं केवलं।
संप्राप्याग्रपदेऽपि मुक्तिललनारक्त सदा वर्तते ।।
आतमरस के रसिकों द्वारा वर्णन किया हुआ यह तात्पर्य नाम की टीका सहित प्राभृत शास्त्र है इसको जो कोई आदर पूर्वक सुनेगा, पढ़ेगा, अभ्यास करेगा और इसे प्रसिद्ध करेगा, वह जीव शाश्वत अद्भुत सकलज्ञानस्वरूप केवलज्ञान को प्राप्त करके उसके आगे मुक्तिललना में आसक्त हुआ सदा ही अग्रपद—लोग के अग्रभाग में सदाकाल निवास करेगा।