पासंडिय लिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु …………. ४१३।।
उक्त सन्दर्भों में आचार्य कुन्दकुन्द बताना चाहते हैं कि ‘बहुत प्रकार के मुनि लिंग एवं गृहस्थलिंग हैं, मात्र इन बाह्य लिंगों (वेषों) को धारण करके अपने आपकों मोक्षमार्गी मानने वाले जीव-मूढ़-अज्ञानी हैं, क्योंकि बाह्यलिंग (बाह्य मुनि या श्रावक वेष) का मोक्षमार्ग से सीध कोई सम्बन्ध नहीं है।’ इनमें प्रयुक्त ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’शब्द को मूल शौरसेनी प्राकृत भाषा का शब्द है। इसकी व्याकरण, शाब्दिक प्रकृति एवं व्युत्पत्ति आदि समझे बिना प्राय: सभी आधुनिक सम्पादकों ने इसके स्थान पर ‘पाखडिय’ एवं ‘पाखंडी’शब्द का प्रयोग कर दिया है। यह एक अविचारित प्रयोग है, जिसके लोकरूढ़ अर्थ के कारण इसका अर्थ-विपर्यय भी पर्याप्त मात्रा में हुआ है। आज लोक में ‘पाखंडी’ शब्द ‘ढोंगी’ या ‘नकली’ साधु के अर्थ में रूढ़ हो चुका है। जबकि आज से दो हजार वर्ष पूर्व इसका अर्थ भी अलग था, तथा शौरसेनी प्राकृत में इसका शाब्दिक रूप भी ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’था- ‘पाखंडी’ कदापि नहीं। इसकी शब्द-परम्परा एवं अर्थ परम्परा का परिचय-निम्नानुसार है-
१.‘‘देवानां पिये पियदरसि राजा सव पासंडानि’’ (समस्त मुनिलिंग) (सम्राट् अशोक, गिरनार शिलालेख)‘‘तेसु-तेसु निगण्ठेसु नानापासंडेसु’’(सम्राट् अशोक, फिरोजशाह कोटला, दिल्ली में स्थित शिलालेख) अर्थात् ‘उन-उन निर्ग्रन्थों के विभिन्न मुनिलिंगों में।’
२.‘‘गुणविसेस-कुसलो सब पासंड-पूजको’’ (सम्राट् ऐल खारबेल, खण्डगिरि शिलालेख) (मैं) सभी (निर्ग्रन्थ-दिगम्बर) मुनिलिंगों की पूजा करता हूँ।
५.पासंडि – अट्टविध-कम्मपासातो डीणों पासंडी, पाशाड्डीन: पाषण्डी (निरुक्तकोश, पृ. २०) जो अष्टविध कर्मपाश से दूर है, वह पासण्डी (मुनि) है। ‘पाश’शब्द से ‘डीन’ प्रत्यय का विधान करके ‘पाषण्डी’ या ‘पासंडी’शब्द निष्पन्न हुआ है।
६.पापं खण्डयति-इति पाखण्डी-सत्साधु: । जो पाप का खण्डन करे, वही ‘पाखण्डी’ है, जिसका अर्थ ‘सच्चा साधु’ है।
७. पाखण्डं व्रतमित्याहुस्तद् यस्यास्त्यमलं भुवि । स पाखण्डी वदन्त्यन्यें कर्मपाशाद् विनिर्गत: ।।‘पाखण्ड’ नाम व्रत का है, वह निर्मल व्रत इस भूमण्डल पर जिसके है, उसे ही ‘पाखण्डी’ कहते हैं। वह कर्मबन्धन से विनिर्गत है।
८.सग्रंथारंभ-हिंसानां, संसारावत्र्तवर्तिनाम् । पाखंडिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखंडिमोहनम् ।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, २४)परिग्रह आरम्भ, हिंसा से युक्त संसार के चक्कर में पड़े हुए पाखंडियों (खोटे गुरुओं) की विनय/सम्मान करना गुरुमूढ़ता जानना चाहिए।
९.पातीति पा: (पा + क्विप् प्रत्यय), पा: त्रयीधर्मस्तं खण्डयतीति पाखण्डी । यदुक्तम् –‘‘पालनाच्च त्रयीधर्मा: ‘पा’ शब्देन निगद्यते । तं खण्डयन्ति ते यस्मात् पाखण्डास्तेन हेतुना ।।(शब्दकल्पद्रुम, भाग ३, पृ.) अर्थात् जो त्रयीधर्म (वेदत्रयी) का खण्डन करे, वह ‘पाखंडी’ है।
१०.नानाव्रताधरा: नानावेशा: पाखण्डिनो मता:- पाषण्ड: –(अमरकोष टीका, भानुदीक्षित) अनेक प्रकार के व्रतों के धारक, नानावेशधारी ‘पाखण्डी’ माने गये हैं।
११.वेदादि-शास्त्रं खण्डयतीति पाखण्डी – (पद्मचन्द्रकोश, ३०९) श्रमण यतियों के अनेकों पर्यायवाची नामों में ‘पाखण्डी’ नाम भी है। उक्त समस्त विश्लेषण का समग्रावलोकन करें तो निम्न निष्कर्ष निषेचित होते हैं-
(क)प्राकृत शिलालेखों एवं ग्रन्थों में ‘पासंडिय’ एवं ‘पासंडी’शब्द मिलते हैं, जबकि संस्कृत में ‘पाखंडी’ प्रयोग है।
(ख) ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’शब्द का मूल अभिप्राय निग्र्रन्थ दिगम्बर वेशधारी समस्त महाव्रती जैन श्रमण है। इन्हें वैदिकों, बौद्धों और श्वेताम्बरों ने ही प्रमुखत: मिथ्यादृष्टि या नास्तिक माना है, क्योंकि निग्र्रन्थ दिगम्बर जैन साधु-परम्परा इन तीनों को कभी इष्ट नहीं रही। तथा यह दुष्प्रचार इतना अधिक जोर पकड़ा कि ‘पाखण्डी’ शब्द ढोंगी, कुलिंगी, मिथ्यादृष्टि साधु के अर्थ में लोकजीवन में रूढ़िगत प्रचलित हो गया। जैसे कि ‘नंगा-लुच्चा’ शब्द ‘नग्न दिगम्बर, केशलोंच करने वाले’- इन पवित्र अर्थों के वाहक शब्द हैं, किंतु लोकजीवन में ये अपमानसूचक बन गये हैं। प्राय: संस्कृत-साहित्य एवं कोश-ग्रन्थों में ‘पाखण्डी’शब्द गलत अर्थों में प्रचलित/व्याख्यायित हो जाने से आचार्य समन्तभद्र ने भी लोकरूढ़ि के अर्थ के अनुसार ‘पाखंडी विनय’ को ‘गुरुमूढ़ता’ कहा है।
३. अर्थ चाहे सत्साधु हो या कुसाधु- किन्तु इतना निश्चित है कि कुन्दकुन्द ने समयसार में उक्त तीनों गाथाओं में इसे मुनियों का पर्याय माना है। और शास्त्रों में मुनियों के जो अनेकों भेद किये गये हैं, उन्हें वे ‘पासंडिय लिंगाणि’ शब्द से सूचित करना चाहते हैं। यहाँ ‘मात्र बाह्य नग्नवेष को मुक्तिमार्ग न मानने’ से उनका तात्पर्य मोक्षमार्ग में भावलिंग की प्रधानता सूचित करना है। साथ ही उक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट है कि समयसार शौरसेनी प्राकृत की रचना है, और प्राकृत में ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ का प्रयोग तो बनते हैं, किन्तु ‘पाखण्डी’ प्रयोग प्राकृत में कदापि नहीं हो सकता। ‘‘पापं खण्डयतीति पाषण्डी’’ – इस निरुक्ति के अनुसार भी मूल शब्द ‘पाषण्डी’ है, और चूंकि संस्कृत में मूर्धन्य ‘षकार’ को ‘ख’कार उच्चारण करने की वैदिकों की परम्परा रही हैं, अत: संस्कृत में प्रचलित ‘पाखण्डी’ रूप भी मूलरूप नहीं है। तथा प्राकृत भाषा में तो स,श,ष- इन तीनों के स्थान पर मात्र दन्त्य ‘स’कार का ही प्रयोग होता है, अत: मूलशब्द ‘पाषण्डी’ भी लें, तो उसका प्राकृत रूप ‘पासंडी’ बनेगा, ‘पाखंडी’ नहीं। परन्तु शब्दशास्त्र के प्रति उपेक्षाभाव रखने वाले मात्र छपने की रूचि-सम्पन्न प्राय: आधुनिक सम्पादकों ने ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ का जो ‘पाखण्डी’ रूप समयसार में बना दिया है, उसका निदर्शन निम्नानुसार प्रस्तुत करते हुए निर्णय को विज्ञपाठकों की नीर-क्षीर-विवेकिनी प्रज्ञा के लिए छोड़ता हूँ।