मंगलाचरण
ॐ नम: मंगलं कुयात्, ह्रीं नमश्चापि मंगलम्।
मोक्षबीजं महामन्त्रं, अर्हं नम: सुमंगलम्।।१।।
मंगलं भगवान्नर्हन्, मंगलं ऋषभेश्वर:।
मंगलं सर्वतीर्थेशा: जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।२।।
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुन्दाद्या:, जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।३।।
-दोहा-
समवसरण में राजते, तीर्थंकर भगवंत।
नमूँ अनंतों बार मैं, पाऊँ सौख्य अनंत।।१।।
भगवान को केवलज्ञान प्रगट होते ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर अर्धनिमिष में समवसरण की रचना कर देता है। उस समय भगवान तीनों लोकों को और उनकी भूत, भावी, वर्तमान समस्त पर्यायों को युगपत् एक समय में जान लेते हैं।भगवान ऋषभदेव का समवसरण पृथ्वी से ५००० धनुष (२०००० हाथ) ऊपर आकाश में अधर है। पृथ्वी से एक हाथ ऊपर से एक-एक हाथ ऊँची बीस हजार सीढ़ियाँ हैं। इनसे चढ़कर मनुष्य और तिर्यंच आदि सभी भव्य जीव-बाल, वृद्ध, अंधे, लूले, लंगड़े, रोगी आदि अंतर्मुहूर्त (४८ मिनट) में ऊपर पहुँच जाते हैं। भगवान ऋषभदेव का समवसरण १२ योजन (९६ मील) का है। आगे घटते-घटते महावीर स्वामी का समवसरण एक योजन (८ मील) का है।इसमें चार परकोटे और पाँच वेदियाँ हैं। इनके आठ भूमियाँ हैं। चारों दिशाओं में बहुत ही विस्तृत वीथी बड़ी-बड़ी गलियाँ हैं।इस समवसरण में क्रम से पहले धूलिसाल परकोटा, चैत्यप्रासाद भूमि, वेदी, खातिकाभूमि, वेदी, लताभूमि, परकोटा, उपवनभूमि, वेदी, ध्वजभूमि, परकोटा, कल्पभूमि, वेदी, भवनभूमि, परकोटा, श्रीमण्डपभूमि और वेदी है। आगे १६ सीढ़ी ऊपर चढ़कर पहली कटनी, ८ सीढ़ी चढ़कर दूसरी कटनी, पुन: ८ सीढ़ी चढ़कर तीसरी कटनी है। इसी पर भगवान विराजमान हैं।प्रत्येक परकोटे और वेदियों में चारों दिशाओं में एक-एक गोपुर द्वार हैं। जिनमें से पूर्वदिशा में ‘‘विजय’’, दक्षिण में ‘‘वैजयंत’’ पश्चिम में ‘‘जयंत’’ और उत्तर में ‘‘अपराजित’’ ऐसे नाम हैं। इन चारों के उभय पार्श्व में दो-दो नाट्यशालाएं हैंं, जिनमें देवांगनाएं भगवान की भक्ति में विभोर हो नृत्य-गान करती रहती हैं। वहाँ द्वारों के दोनों और नवनिधि, मंगलघट और घूपघट आदि स्थित हैं। प्रत्येक परकोटे के द्वारों पर देवगण हाथ में दण्ड, मुद्गर आदि लेकर रक्षक बनकर खड़े हुए हैं।