भगवान के समवसरण में आठ प्रातिहार्य होते हैं-अशोक वृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, छत्रत्रय, चामर, देवदुंदुभि, भामंडल, सिंहासन और दिव्यध्वनि।
१. जिस वृक्ष के नीचे भगवान को केवलज्ञान होता है, वही वृक्ष अशोक वृक्ष कहलाता है। भगवान ऋषभदेव का यह वृक्ष वटवृक्ष है।
२. देवों द्वारा कल्पवृक्षों के सुंदर-सुंदर पुष्प बरसाये जाते हैं।
३. भगवान के मस्तक के ऊपर तीन छत्र फिरते हैं ये भगवान के तीन लोक की प्रभुता बतलाते हैं।
४. भगवान के आजू-बाजू यक्षेन्द्र चौंसठ चंवर ढोरते हैं। तीर्थंकरों के सिवाय अन्य चक्रवर्ती आदि के चंवरों की संख्या उनके-उनके राजदरबार में आधी-आधी मानी गई है।
५. देवगण आकाश में स्थित होकर जो पणव, शंख, नगाड़े आदि करोड़ों प्रकार के वाद्य बजाते हैं, वह ‘देवदुंदुभि’ है।
६. भगवान के पीछे कांति के समूह से निर्मित, करोड़ों देवों के तेज को फीका करता हुआ भामंडल देदीप्यमान होता है, इसमें भव्यजीव अपने सात भव देख लेते हैं।
७. रत्नों से निर्मित सिंहासन होता है जिस पर भगवान विराजमान रहते हैं।
८. भगवान के मुख से दिव्यध्वनि प्रगट होती है। यह एक प्रकार की होकर भी समस्त मनुष्यों की भाषाओं में श्रोताओं के भेद से अनेक प्रकार की हो जाती है। यह दिव्यध्वनि अक्षररूप ही है।
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में इस दिव्यध्वनि को केवलज्ञान के अतिशय में लिया है और प्रातिहार्य में इस स्थान पर कहा है-‘‘गाढ़ भक्ति में आसक्त देव मनुष्य आदि द्वादशगण के भव्यजीव, हाथ जोड़े हुए, प्रसन्नमुख होकर तीर्थंकर भगवान को घेरकर स्थित रहते हैं, यह एक प्रातिहार्य है।’’
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में चौंतीस अतिशयों का वर्णन बहुत ही सुंदर है-
जन्म के अतिशय-तीर्थंकर भगवान के जन्म से ही दश अतिशय विशेष माने हैं-१. स्वेद रहित होना-पसीना नहीं होना २. मल-मूत्र रहितशरीर ३. दूध के समान श्वेत रुधिर ४. वङ्काऋषभनाराच संहनन ५. समचतुरस्र संस्थान ६. अनुपम रूप ७. नवचंपक के समान उत्तम अतिशय सुगंधित शरीर ८. शरीर में एक हजार आठ उत्तम लक्षण ९. अनंत बल १० और हित-मित-प्रियवचन।
केवलज्ञान के १० अतिशय-तीर्थंकर भगवान को जब केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है, तब दश अतिशय प्रगट हो जाते हैं-
१. अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन-आठ सौ मील तक सुभिक्ष रहता है।
२. भगवान का आकाश में गमन होता है।
३. वहाँ हिंसा नहीं होती-किसी जीव को कोई मार नहीं सकता है।
४. भगवान भोजन-आहार नहीं करते हैं।
५. भगवान के ऊपर कोई उपसर्ग नहीं कर सकता है।
६. भगवान का पूर्व या उत्तर में एक ही मुख रहता है फिर भी चारों तरफ मुख दीखने से सभी ऐसा समझते हैं कि भगवान का मुख मेरी ओर है। यह चतुर्मुख हो जाना भी एक अतिशय है।
७. भगवान के शरीर की छाया नहीं पड़ती है।
८. भगवान की पलकें नहीं झपकती हैं।
९. भगवान सर्व विद्याओं के ईश्वर होते हैं-तीन लोक की सर्वविद्याओं के स्वामी होते हैं।
१०. भगवान के केवलज्ञान के बाद नख और केश नहीं बढ़ते हैं।
११. भगवान की दिव्यध्वनि सात सौ लघु भाषा और अठारह महाभाषारूप से खिरती है तथा और भी जो संज्ञी-मनसहित जीवों की अक्षर-अनक्षर भाषाएँ हैं उन सबमें भगवान की दिव्यध्वनि परिणत हो जाती है इसलिए यह ‘सर्वभाषामय’ मानी गई है।
भगवान की दिव्यध्वनि जिस समय खिरती है, उस समय भगवान के तालु, दांत, कंठ और ओष्ठ नहीं हिलते हैं। भगवान की वह ध्वनि अस्खलित और अनुपम है, तीनों संध्या कालों में नव मुहूर्तों तक खिरती है-एक-एक बार तीन-तीन मुहूर्त तक खिरती है और एक योजन-आठ मीलपर्यन्त जाती है।
कहीं-कहीं चार बार मानने से अर्धरात्रि में भी तीन मुहूर्त तक खिरती है, ऐसा माना है। वहाँ समवसरण में दिन-रात्रि का भेद नहीं रहता है। वहाँ भगवान के प्रभामंडल के प्रकाश में व दिव्य रत्नों के प्रकाश में अनेक सूर्यों के प्रकाश भी फीके पड़ जाते हैं।
यह दिव्यध्वनि स्वभाव से तीन या चार बात तो खिरती ही है इससे अतिरिक्त समय में श्रीगणधर देव, इन्द्र या चक्रवर्ती के प्रश्नों के निमित्त से असमय में भी खिर जाती है।
भगवान को केवलज्ञान होने के बाद उनकी इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं अतएव भगवान की दिव्यध्वनि बिना इच्छा के स्वयमेव भव्यजीवों के पुण्य के निमित्त से खिर जाती है, यह ऐसा स्वभाविक ही है। कहा भी है-
अनात्मार्थं बिना रागै:, शास्ता शास्ति सतो हितम्।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्-मुरज: किमपेक्षते।।
किसी के प्रति किंचित् भी राग-प्रेम के बिना और अपने किसी भी प्रयोजन के बिना भी शास्ता-सच्चे उपदेशक भगवान सज्जन पुरुषों के हित के लिए उपदेश देते हैं जैसे कि शिल्पी के हाथ से ताड़ित हुआ मृदंग स्वयं कुछ भी अपेक्षा नहीं करता है।
यह दिव्यध्वनि भव्यजीवों को छह द्रव्य, नव पदार्थ, सात तत्त्व आदि का उपदेश देती है, स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग का उपदेश देती है श्रावक और मुनिधर्म का कथन करती है, भव्यजीवों के लिए उनके पूर्व भव-भविष्यकाल आदि का वर्णन करती है स्वर्ग, नरक, मध्यलोक, जम्बूद्वीप, कर्मभूमि, भोगभूमि आदि समस्त तीनलोक का कथन करती है।
भगवान को जब केवलज्ञान हो जाता है, उस काल में एक समय मात्र में भगवान तीनों लोकों और तीनों कालों को युगपत् जान लेते है।
इस प्रकार तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में केवलज्ञान के ग्यारह अतिशय माने हैं और अन्यत्र ग्रंथों में दश अतिशय माने हैं अत: तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में भगवान के केवलज्ञान के अनन्तर देवों द्वारा किए गए तेरह अतिशय ही माने हैं।
देवकृत तेरह अतिशय-
१. तीर्थंकर भगवान के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन-उद्यान असमय में पत्ते, फूल और फलों से वृद्धिंगत हो जाते हैं।
२. सुखदायक हवा चलने लगती है जो कि धूलि, कंटक आदि को दूर कर देती है।
३. सभी जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्रीभाव धारण कर लेते हैं।
४. भूमि दर्पण के समान स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है।
५. सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगंधित जल की वर्षा करते हैं।
६. देवगण विक्रिया से फलों के भार से झुकी हुई शालि, जौ आदि की खेती को बना देते हैं।
७. सर्व जीवों को नित्य ही आनंद उत्पन्न होता रहता है।
८. वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलाते हैं।
९. कुएँ, तालाब, सरोवर आदि निर्मल जल से परिपूर्ण हो जाते हैं।
१०. आकाश धुएँ आदि से रहित निर्मल हो जाता है।
११. सभी जीवों को रोगादि की बाधाएँ नहीं होती हैं।
१२. यक्षेन्द्र मस्तक पर किरणों से देदीप्यमान हजार आरों वाले धर्मचक्र को धारण करते हैं।
१३. तीर्थंकर के चारों दिशाओं व विदिशाओं में छप्पन सुवर्णकमल, एक पादपीठ एवं विविध प्रकार के पूजन द्रव्य होते हैं।
अन्यत्र-नंदीश्वर भक्ति में चौदह अतिशय निम्न प्रकार से हैं-
अर्द्ध्रमागधी भाषा होती, सब जन मैत्री भाव सदा।
सब ऋतु के फल-फूल खिले, तरुलता सुशोभित हुए मुदा।।४२।।
पृथ्वी रत्नमयी दर्पणवत्, शोभित हुई चमकशाली।
परमानन्द करें सब जन को, मंद सुगंधित पवन चली।।४३।।
वायुकुमार सुगंधित वायु, से योजन तक पृथ्वी को।
धूलि-कंटक-तृण-पत्थर से, रहित स्वच्छ कर दिया अहो।।४४।।
मेघकुमार देव भी विद्युन्माला की बहु शोभा से।
इन्द्राज्ञा से सुरभि सुगंधित, गंधोदक वृष्टि करते।।४५।।
जहाँ चरण प्रभु धरें वहाँ है, उत्तम स्वर्ण कमल खिलते।
आगे पीछे सात-सात, सौगंधित अतुल सुखद होते।।४६।।
शालि आदिक खेती के फल, भारों से झुकती पृथ्वी।
त्रिभुवनपति का वैभव लखकर, हर्षित हो रोमांच हुई।।४७।।
शरद ऋतु सम विमल सरोवर, सम निर्मल आकाश अहो।
सभी दिशाएँ तत्क्षण ही, तमरहित प्रकाशें सब थल को।।४८।।
आओ!आओ! देव! भवन-व्यंतर-ज्योतिष-वैमानिक सब।
इंद्राज्ञा से सभी तरफ से, त्वरित बुलावें सुरगण तब।।४९।।
हजार आरों से सुंदर बहु, रत्न किरणयुत अति चमके।
रविमंडल को हंसने वाला, धर्मचक्र चलता आगे।।५०।।
इस विधि मंगल आठ कहें, दर्पण आदिक अनुपम सुविशेष।
भक्तिराग युत देवेन्द्रों से, कल्पित बहुविध महा विशेष।।५१।।
भगवान के समवसरण में भगवान के सान्निध्य में यक्ष-यक्षिणी विद्यमान रहते हैं इन्हें शासन देव-देवी भी कहते हैं-
उनके नाम तिलोयपण्णत्ति में कहे हैं-
‘
‘गोवदणमहाजक्खा……..१. गोवदन २. महायक्ष ३. त्रिमुख ४. यक्षेश्वर ५. तुंबुरव ६. मातंग ७. विजय ८. अजित ९. ब्रह्म १०. ब्रह्मेश्वर ११. कुमार १२. षण्मुख १३. पाताल १४. किन्नर १५. किंपुरुष १६. गरुड़ १७. गंधर्व १८. कुबेर १९. वरुण २०. भ्रकुटि २१. गोमेध २२. पार्श्व २३. मातंग-धरणेन्द्र २४. गुह्यक।
इस प्रकार ये भक्ति से संयुक्त चौबीस यक्ष हैं। ये ऋषभ आदि तीर्थंकरों के पास में स्थित रहते हैं। १. चक्रेश्वरी २. रोहिणी ३. प्रज्ञप्ति ४. वङ्काशृंखला ५. वङ्काांकुशा ६. अप्रतिचक्रेश्वरी ७. पुरुषदत्ता ८. मनोवेगा ९. काली १०. ज्वालामालिनी ११. महाकाली १२. गौरी १३. गांधारी १४. वैरोटी १५. सोलसा १६. मानसी १७. महामानसी १८. जया १९. विजया २०. अपराजिता २१. बहुरूपिणी २२. कूष्मांडी-अम्बिका २३. पद्मावती और २४. सिद्धायिनी, ये यक्षिणियाँ भी क्रमश: ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरों के समीप रहा करती हैं।
यद्यपि समवसरण का क्षेत्र और वहाँ बने हुए बारह कोठों का स्थान सीमा में रहता है फिर भी वहाँ असंख्यातोें देव, देवियाँ, संख्यातों मनुष्य और संख्यातों तिर्यंच समा जाते हैं। ये सभी भव्यजीव जिनेन्द्र भगवान के माहात्म्य से ही एक-दूसरे से अस्पृष्ट-अबाधित रहते हैं।
जिनेन्द्रदेव की महिमा ही ऐसी है कि वहाँ अवगाहनशक्ति विशेष हो जाती है।
एक अक्षीणमहालय ऋद्धिधारी मुनि जहाँ बैठते हैं, उनके चारों ओर छोटे से स्थान में भी असंख्यातों जीव बैठकर उपदेश सुन सकते हैं तो पुन: अर्हंत देव तीर्थंकर की महिमा से यह सब अतिशय हो जावे, तो आश्चर्य ही क्या है ?
समवसरण के माहात्म्य से बालक, वृद्ध आदि सभी जीव वहाँ प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर ही संख्यात योजन चले जाते हैं और उन्हें थकान नहीं होती है।
वहाँ कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और मनरहित असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते हैं तथा संदेह आदि से सहित व विपरीत बुद्धि वाले जीव नहीं रहते हैं तथा वहाँ पर जिनेन्द्र भगवान के प्रभाव से आतंक, रोग, मरण, उत्पत्ति, वैर, कामबाधा, क्षुधा, तृषा और तृष्णा आदि नहीं होते हैं।
हरिवंशपुराण में भी कहा है-
वहाँ समवसरण में पापी, विरोधी, विरुद्ध कार्य करने वाले, शुद्र, पाखंडी, नपुंसक, विकलांग, दो इन्द्रिय, तीन इंद्रिय, चार इन्द्रिय जीव तथा भ्रान्तचित्त के धारक मनुष्य बाहर ही घूमते रहते हैं, ये अन्दर प्रवेश नहीं कर पाते हैं।
वहाँ समवसरण के भीतर भगवान के प्रभाव से न मोह रहता है, न राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, न उत्कंठा, रति एवं मात्सर्य रहते हैं, न अंगड़ाई और जमुहाई आती है, न नींद आती है, न तन्द्रा सताती है, न क्लेश होता है, न भूख लगती है, न प्यास लगती है और न सदा समस्त दिन कभी अन्य समस्त प्रकार के अमंगल ही होते हैं।
इधर भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान प्रगट हुआ, उधर अयोध्या में भरत को तीन समाचार एक साथ प्राप्त हुए-पिता को केवलज्ञान, आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति और अन्त:पुर में पुत्ररत्न की प्राप्ति। भरत महाराज ने निर्णय किया कि पहले पिता श्री ऋषभदेव भगवान के केवलज्ञान की पूजा करना है अत: वे तत्क्षण ही समवसरण में आ गये और विधिवत् भगवान की वंदना-पूजा की।
इधर पुरिमताल नगर के स्वामी भरत के छोटे भाई ऋषभसेन समवसरण में आये, भगवान के दर्शन कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये। उसी समय हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ, श्रेयांसकुमार भी दीक्षित हो गणधर हो गये।
भरत की छोटी बहन ब्राह्मी एवं बाहुबली की छोटी बहन सुंदरी ने भी आर्यिका दीक्षा ले ली, तभी ‘‘प्रथम पुत्री’’ ब्राह्मी सर्व आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गईं। उस समय अनेक राजाओं ने एवं राजकन्याओं ने-महिलाओं ने दीक्षा ली थी। भरत के भाई अनंतवीर्य ने भी दीक्षा ले ली। वे इस अवसर्पिणी में सर्वप्रथम मोक्ष गये हैं। भगवान की दीक्षा के समय जो चार हजार राजा दीक्षित होकर तप से भ्रष्ट हो गये थे, उनमें से ‘मरीचिकुमार’ को छोड़कर सभी ने वहाँ समवसरण में दीक्षा ले ली।
३.४.१ दिव्यध्वनि-भगवान की दिव्यध्वनि से असंख्य भव्यप्राणियों ने धर्मामृत का पान किया। वहीं पर ‘श्रुतकीर्ति’ नाम के पुरुष ने श्रावक के उत्तम व्रत ग्रहण कर श्रावकों में प्रमुख कहलाये। प्रियव्रता नाम की श्राविका, श्रावक के उत्तम व्रतों को धारण करके श्राविकाओं में प्रमुख हुईं एवं उस समवसरण के मुख्य श्रोता भरतचक्रवर्ती प्रसिद्ध हुए हैं।
३.४.२ सहस्रनामस्तोत्र-वहाँ इन्द्रराज ने भगवान की स्तुति करते हुए एक हजार आठ नामों से भगवान की स्तुति की थी। महापुराण में वर्णित स्तुति ही ‘सहस्रनाम स्तोत्र’ नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त है।
भगवान का श्रीविहार-जब भगवान ऋषभदेव के श्रीविहार का समय आया तब सौधर्मेन्द्र ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की-
‘‘हे भगवन्! भव्यजीवरूप धान्य पापरूपी अनावृष्टि से सूख रहे हैं, सो हे प्रभो! आप ‘तीर्थविहार’ करके धर्मरूपी अमृत से उन्हें सींचकर उनके लिए आप ही शरण होइये।’’ हे त्रैलोक्यनाथ! आपकी विजय के उद्योग को सिद्ध करने वाला यह ‘धर्मचक्र’ तैयार है।
इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद भगवान का ‘तीर्थविहार’ प्रारंभ हुआ।
वास्तव में भगवान न तो इच्छापूर्वक विहार करते हैं और न इन्द्र की प्रार्थना से भी करते हैं, उनका श्रीविहार निसर्गत: होता है फिर भी यह सब व्यवस्था नियोगरूप ही है।
जैसे ही भगवान तीर्थविहार के लिए खड़े हुए, वैसे ही करोड़ों देव इधर-उधर व्यवस्था में लग गए। इंद्रगण भी भगवान के दिग्विजय के समय आगे-आगे हो गए।
उस समय आगे-आगे की पृथिवी दर्पण के समान स्वच्छ हो गई। पवनकुमार जाति के देवों ने एक योजन तक की भूमि को धूलि आदि से साफ कर दिया। मेघकुमार देवों ने सुगंधित जल की कण-कणरूप से वर्षा कर पृथ्वी को रजरहित सुगंधित कर दिया।
शालि आदि खेत लहलहाने लगे। सभी वृक्षों व लताओं में एक साथ छहों ऋतुओं के फल, फूल आ गए। सभी मनुष्य व पशु-पक्षीगण भी आपस में मैत्री भाव को प्राप्त हो गए। भगवान के माहात्म्य से चार सौ कोश तक पृथ्वी पर सुभिक्ष हो गया, सब प्रकार से कल्याण व आरोग्य हो गया। पृथ्वी प्राणियों की हिंसा से रहित हो गई, करोड़ों ध्वजाएं फहराने लगीं। देवों ने गंभीर दुुंदुभि बजाना प्रारंभ कर दिया। आकाशरूपी रंगभूमि में देवांगनाएँ नृत्य करने लगीं। किन्नर जाति के देव मनोहर गीत गा रहे थे और गंधर्व आदि देव वीणा बजा रहे थे।
धर्मचक्र-उस समय हजार आरों से सहित करोड़ों सूर्यों की प्रभा को लज्जित करने वाला धर्मचक्र भगवान के आगे-आगे चल रहा था।
भगवान के चरण कमलों के नीचे सुगंधित सुवर्णमयी कमल खिलते जा रहे थे। देवों के जय-जयकारों से आकाश भी व्याप्त हो गया था।
हरिवंशपुराण में लिखा है-
भगवान के श्रीविहार के समय कुबेर ने घोषणा शुरू कर दी कि-‘जिसको जिस वस्तु की इच्छा हो, यहाँ आकर ले ले।’ उस समय कामधेनु के समान इच्छित फल देने वाली भूमि मणिमयी बनाई गई।
आकाश से धन की बड़ी मोटी धारा मेघ के जल के समान बरसने लगी, जिससे वसुंधरा अपने सार्थक नाम को प्राप्त हो गई।
प्रावृषेण्याम्बुधारेव, वसुधारा वसुंधरां।
दिवोऽन्वर्थाभिधानत्वं, नयतीन्यपतत्पथि।।५।।
सभी लोकपाल देव समस्त दिग्भागों के साथ सबकी रक्षा कर रहे थे। कितने ही देव समस्त हिंसक जीवों को दूर से ही भगा रहे थे।
जिनके परिवार की देवियों ने मंगलद्रव्य धारण किए हुए थे तथा जिन्होंने अपने हाथों में कमल लिए हुए थे, ऐसी पद्मा और सरस्वती देवी भगवान की प्रदक्षिणा देकर उनके आगे-आगे चल रही थीं।
इन्द्र हाथ जोड़कर वहाँ-वहाँ के राजाओं के साथ आगे-आगे चल रहे थे। उस समय कुबेर मार्ग को सुशोभित करता हुआ आगे चल रहा था।
आकाशमार्ग में धर्मचक्र भगवान के आगे-आगे चल रहा था। ऋषिगण भगवान के पीछे चल रहे थे। इन्द्र प्रतीहार बनकर आठ वसुदेवों के साथ भगवान्ा के आगे-आगे चलते थे। इन्द्र के आगे तीन लोक की उत्कृष्ट विभूति से युक्त ‘लक्ष्मी’ नामक देवी, मंगलद्रव्य लिए शची देवी के साथ-साथ जा रही थी। तदनंतर श्री देवी से सहित समस्त एवं परिपूर्ण मंगलद्रव्य विद्यमान थे, क्योंकि मंगलमय भगवान की मंगलमय यात्रा मंगलद्रव्यों से युक्त ही होती है। उनके आगे जिन पर देदीप्यमान मुकुट के धारक प्रमुख देव बैठे थे, ऐसी शंख और पद्म नाम की दो निधियाँ चलती थीं। ये निधियाँ समस्त जीवों को इच्छित वस्तुएँ प्रदान करने वाली थीं तथा सुवर्ण और रत्नों की वर्षा करती जाती थीं। उनके आगे फणाओं पर चमकते हुए मणियों की किरणरूप दीपकों से युक्त नागकुमार जाति के देव चलते थे। उनके आगे धूपघटों को धारण करने वाले समस्त अग्निकुमार देव चल रहे थे। धूपघटों में खेयी गई सुगंधित धूप की सुगंधि लोक के अन्त तक पैâल रही थी। वह जिनेन्द्रदेव के यश की सुगंधि को ही पैâला रही थी। तदनंतर शांत और तेज गुण को धारण करने वाले, भगवान के भक्त चन्द्र और सूर्य जाति के देव अपनी प्रभा के समूहरूप मंगलमय दर्पण को धारण करते हुए चल रहे थे।
धर्मचक्र का माहात्म्य-जहाँ-जहाँ भगवान का धर्मचक्र चल रहा था, वहाँ-वहाँ किसी का असमय में मरण नहीं होता था। भगवान के विहार क्षेत्र में स्थित समस्त त्रस और स्थावर जीव सुख को प्राप्त हो रहे थे। जो जीव भगवान की इस दिव्ययात्रा में साथ-साथ जाते थे, पृथ्वी पर उन्हें धन आदि समस्त आश्चर्यों की प्राप्ति हो जाती थी। जिस देश में भगवान का श्रीविहार होता था, उस देश में भगवान की आज्ञा न होने से ही मानों किसी को न तो मानसिक और शारीरिक पीड़ाएँ होती थीं और न अतिवृष्टि आदि ईतियाँ ही होती थीं। वहाँ अंधे रूप देखने लगते थे, बहरे शब्द सुनने लगते थे, गूंगे स्पष्ट बोलने लगते थे और लंगड़े चलने लगते थे। वहाँ न अत्यधिक गर्मी होती थी, न अत्यधिक ठंड पड़ती थी, न दिन-रात का विभाग होता था और न अन्य अशुभ कार्य अपनी अधिकता दिखला सकते थे। सब ओर शुभ ही शुभ कार्यों की वृद्धि होती थी।
भगवान जिस-जिस दिशा में पहुँचते थे, उसी-उसी दिशा के दिक्पाल पूजन की सामग्री लेकर भगवान के स्वागत के लिए आ पहुँचते थे। भगवान जिस-जिस दिशा से वापस जाते थे, उस-उस दिशा के दिक्पाल मंगलद्रव्य लिये अपनी-अपनी सीमा तक पहुँचाने आते थे, क्योंकि भगवान तीनलोक के सार्वभौम स्वामी थे।
सो ठीक ही है क्योंकि-‘‘तित्थयरस्स विहारो लोयसुहो।’’
तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव का श्रीविहार सम्पूर्ण लोक के सुख के लिए ही होता है। हरिवंशपुराण में लिखा है-
आसंवत्सर-मात्मांगै:, प्रथयन्प्राभवीं गतिं।
भासते रत्नवृष्ट्याध्वा-भरोत्यैरावतो यथा।।१०५।।
विहारानुगृहीतायां, भूमौ न डमरादय:।
दशाभ्यस्तयुगं भर्तुरहोऽत्र महिमा महान्।।१०८।।
अर्थात् जिस मार्ग से भगवान का विहार हो जाता है वह मार्ग, अपने चिन्हों से एक वर्ष तक यह प्रगट करता था कि यहाँ भगवान का विहार हुआ है तथा रत्नवृष्टि से वह मार्ग ऐसा सुशोभित होता था जैसे नक्षत्रों के समूह से ऐरावत हाथी सुशोभित होता है। उस समय मंद बुद्धि के धारक मनुष्य तीक्ष्ण बुद्धि के धारक हो गये थे। समस्त िंहसक जीव प्रभावहीन हो गये थे और भगवान के समीप रहने वालों को खेद, पसीना, पीड़ा और चिंता आदि कुछ भी उपद्रव नहीं होते थे। भगवान से अनुगृहीत भूमि में दो सौ योजन तक विप्लव आदि नहीं होते थे। अथवा दश से गुणित युग अर्थात् पचास वर्ष तक उस भूमि में कोई भी उपद्रव आदि नहीं होते थे। यह भगवान की बहुत ही महान महिमा समझनी चाहिए।१
एक बार भगवान के समवसरण में विवर्द्धनकुमार आदि नव सौ तेईस राजकुमार, जो कि चक्रवर्ती भरत के पुत्र थे, यह वहाँ पहुँचकर दर्शन कर बोल पड़े और भगवान की स्तुति कर दीक्षा ग्रहण कर ली। ये निगोद से आये थे, इन्होंने इसके पूर्व कभी त्रसपर्याय पाई ही नहीं थी। समवसरण के प्रभाव से वे प्रतिबोध को प्राप्त हो गये और एकदम दीक्षा ले ली, ये उसी भव से मोक्ष गये हैं।
सूर्यवंश-भगवान ऋषभदेव इच्छ्वाकुवंशी थे। भरत के पुत्र अर्ककीर्ति के नाम से इसी वंश को सूर्यवंश नाम से भी जाना जाने लगा।
भगवान के भरत चक्रवर्ती, कामदेव बाहुबली, वृषभसेन गणधर आदि सभी एक सौ पुत्रों ने दीक्षा ली है और मोक्षपद प्राप्त किया है।
इस वंश में भरत को आदि लेकर चौदह लाख राजा लगातार मोक्ष गये हैं। इसके बाद एक राजा दीक्षा लेकर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ, फिर अस्सी राजा मोक्ष गये, इत्यादिरूप से स्वर्ग-मोक्ष की परम्परा चलती रही है।
जिनप्रतिमा के दर्शन का फल अचिन्त्य है—
यदि कोई कहे कि साक्षात् भगवान के समवसरण की जो महिमा है, सो आज पंचमकाल में जिनप्रतिमा के दर्शन से नहीं हो सकती है ?
यद्यपि यह सत्य है, फिर भी जिनप्रतिमा के दर्शन का फल भी अचिन्त्य है। उदाहरण के लिए देखिए—‘षट्खण्डागम’ महान ग्रंथराज की ‘धवला’ टीका में लिखा है-
जिणबिंबदंसणेण, णिधत्तणिकाचिदस्स वि।
मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो।।
जिनप्रतिमा के दर्शन से निधत्त और निकाचित भी मिथ्यात्वादि कर्मसमूह का विनाश देखा जाता है, अतएव जिनबिम्बदर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में बहिरंग कारण म्ााना गया है।
दर्शनेन जिनेन्द्राणां, पापसंघातकुंजरम्।
शतधा भेदमायाति, गिरिर्वङ्काहतो यथा।।
जिनेन्द्रदेव के दर्शन से पापों के समूह के सौ-सौ खंड हो जाते हैं जैसे कि वङ्का के प्रहार से पर्वत के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।
द्युति नाम के महान् आचार्य अयोध्या में श्रीरामचन्द्र के वन में चले जाने के बाद खिन्नमना ‘भरत’ को समझाते हुए कहते हैं कि-
हे भरत! जब रामचंद्र वन से लौटकर आयेंगे, तब तुम दीक्षा ले लोगे तुमने यह प्रतिज्ञा की है, सो तो ठीक ही है फिर उनके आने तक तुम गृहस्थ धर्म का पालन करो क्योंकि यह गृहस्थधर्म-श्रावक धर्म भी मुनिधर्म का छोटा भाई है। उसी के अन्तर्गत वे आचार्यदेव जिनदर्शन की महिमा का फल बतलाते हुए कहते हैं-
फलं ध्यानाच्चतुर्थस्य, षष्ठस्योद्यानमात्रत:।
अष्टमस्य तदारम्भे, गमने दशमस्य तु।।
द्वादशस्य तत: किंचिन्मध्ये पक्षोपवासजम्।
फलं मासोपवासस्य, लभते चैत्यदर्शनात्।।
चैत्यांगणं समासाद्य, याति षाण्मासिकं फलम्।
फलं वर्षोपवासस्य, प्रविश्य द्वारमश्नुते।।
फलं प्रदक्षिणीकृत्य, भुक्ते वर्षशतस्य तु।
दृष्ट्वा जिनबिम्बमाप्नोति, फलं वर्षसहस्रजम्।।
अनन्तफलमाप्नोति, स्तुतिं कुर्वन् स्वभावत:।
नहि भक्तेजिनेन्द्राणां, विद्यते परमुत्तमम्।।
कर्म भक्त्या जिनेन्द्राणां, क्षयं भरत गच्छति।
क्षीणकर्मा पदं याति, यस्मिन्ननुपमं सुखं।।’’
‘‘जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चिंतवन करता है वह बेला का, जो गमन का अभिलाषी होता है वह तेला का, जो जाने का आरंभ करता है वह चौला का, जो जाने लगता है वह पाँच उपवास का, जो कुछ दूर पहुँच जाता है वह बारह उपवास का, जो बीच में पहुँच जाता है, वह पन्द्रह उपवास का, जो मंदिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मंदिर के आँगन में प्रवेश करता है वह छह मास के उपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्ष के उपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के उपवास का, जो जिनेन्द्रदेव के मुख का दर्शन करता है वह हजार वर्ष के उपवास का, और जो स्वभाव से स्तुति करता है वह अनन्त उपवास का फल प्राप्त करता है। यथार्थ में जिनभक्ति से बढ़कर उत्तम पुण्य नहीं है। आचार्य कहते हैं कि हे भरत! जिनेन्द्रदेव की भक्ति से कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो जाते हैं, वह अनुपम सुख से सम्पन्न परम पद को प्राप्त कर लेता है।’’
जिनमंदिर की व जिनप्रतिमा की पूजा के फल में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं-
जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में वत्सकावती देश में ‘सुसीमा’ नगरी है। उसके राजा चक्रवर्ती वरदत्त थे। एक समय नगर के बाहर ‘‘गंधमादन’’ पर्वत पर ‘शिवघोष’ तीर्थंकर भगवान के समवसरण में चक्रवर्ती आदि भव्य जीव दर्शन करने लगे। वहाँ पहुँचकर वंदना-पूजा करके अपने-अपने कोठे में बैठ गए। उसी समय स्वर्ग से प्रधान देवों ने ‘दो देवियों’ को साथ में लाकर सौधर्मेन्द्र से कहा-हे इन्द्रराज! ये आपकी देवियाँ हैं। ऐसा कहकर उन्हें समर्पित कर दिया। यह देख चक्रवर्ती ने पूछा-
भगवन्! इन देवियों को पीछे से क्यों लाया गया है ? तभी तीर्थंकर की दिव्यध्वनि सुनकर गणधर देव ने कहा-सम्राट्! सुनो, इनका चरित मैं सुनाता हूँ। इसी नगर में कुसुमावती और पुष्पलता नाम की दो बहनें एक माली की कन्याएँ थीं। वे प्रतिदिन ‘पुष्पकरंडक’ वन से पुष्पों को चुनकर ले जाते समय मार्ग में स्थित जिनमंदिर की देहली पर एक-एक पुष्प चढ़ाकर दर्शन करके घर जाती थीं। आज उस वन में पहुँचने पर उन दोनों को सर्प ने काट दिया, इससे मरकर वे अन्तर्मुहूर्त में ही प्रथम स्वर्ग में देवियाँ उत्पन्न हुई हैं।
दूसरी कथा इस प्रकार है-इसी आर्यखंड में कुंतलपुर देश में एक ‘तेरपुर’ नगर था। वहाँ वसुमित्र सेठ के ग्वाले ने एक बार एक तालाब से एक ‘सहस्रदल-हजार पांखुडी वाला कमल तोड़ दिया। तभी एक देवी ने प्रगट होकर कहा-जो सबसे अधिक पूज्य हो, उसे ही यह कमल देना। ग्वाले ने आकर अपने सेठ से कहा, सेठ ने राजा से कहा-राजा सेठ और ग्वाले को साथ लेकर ‘सहस्रकूट’ जिनमंदिर पहुँचे, वहाँ विराजमान ‘सुगुप्त’ मुनि से पूछा-भगवन्! लोक में सर्वश्रेष्ठ कौन हैं ? मुनि ने कहा-सर्वश्रेष्ठ जिनेन्द्र भगवान हैंं जिनकी प्रतिमाएँ यहाँ मंदिर में विराजमान हैं। तभी ग्वाले ने जिनेन्द्र भगवान के सामने वह कमल चढ़ा दिया और नमस्कार करके घर आ गया। कालान्तर में यह ग्वाला इस पुण्य के फल से राजा ‘करकण्डु’ हुआ है।
इसकी कथा ‘पुण्यास्रव’ कथाकोश से पढ़ना चाहिए।
जिनेन्द्र प्रतिमा के अपमान का कुफल—
ऐसे ही जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा के अपमान से कितने कटुकर्म बंधते हैं। उसकी संक्षिप्त कथा सुनो-जब अंजना ने गर्भवती अवस्था में वसंतमाला सखी के साथ घोर जंगल में एक गुफा में विराजमान मुनिराज के दर्शन करके अपने पूर्वभव पूछे, तब महामुनि ने अपने अवधिज्ञान से कहा-पुत्रि! पूर्व भव में तू महारानी ‘कनकोदरी’ थी। लक्ष्मीमती नामक अपनी सौत से क्रोध करके अभिमानवश हो उसके घर चैत्यालय में विराजमान जिनप्रतिमा को उठवाकर घर के बाहर फिकवा दिया। इसी बीच वहाँ ‘संयमश्री’ आर्यिका आहार के लिए आई थीं। इस घटना को जानकर उन्होंने मौन छोड़कर आहार का त्यागकर दिया और रानी कनकोदरी को समझाया और कहा-
हे रानी! तू इस पाप से नरकों में जाकर घोर कष्ट को भोगेगी अत: मेरे कहने से तू इस पाप का प्रायश्चित्त कर और धर्म में चिता लगा। आर्यिकाश्री के सम्बोधन से रानी नरक जाने से डर गई और ‘जिनप्रतिमा’ को वापस मँगाकर यथास्थान विराजमान करा दिया पुन: आर्यिकाश्री से धर्मश्रवण कर अपनी शक्ति के अनुसार व्रत-तप आदि स्वीकार किये। इस पुण्य के फल से वह आयु के अंत में मरकर स्वर्ग में देवी हुई पुन: वहाँ से च्युत हो महेन्द्रनगर के राजा महेन्द्र की रानी मनोयोगा से पुत्री अंजना हुई है। पूर्वभव के जिनप्रतिमा के अपमान से इसने बाईस वर्ष तक पति के वियोग का दु:ख सहा है। पुनरपि पाप शेष रहने से यह झूठा कलंक लगाकर सास के द्वारा निकाली गई है अब इसके पुत्र रत्न के जन्म के पश्चात् सर्वसुख प्राप्त होंगे। इत्यादि।
इस प्रकार जिनप्रतिमा के दर्शन, पूजन की महिमा को जानकर व उनके अपमान का महान दु:खदायी फल जानकर संसार के दु:ख से डरने वालों को भगवान की भक्ति करके मनुष्यपर्याय को सफल करना चाहिए।