आठ भूमियाँ समवसरण में-१. चैत्यप्रासाद भूमि २. खातिका भूमि ३. लताभूमि ४. उपवनभूमि ५. ध्वजाभूमि ६. कल्पभूमि ७. भवनभूमि ८. श्रीमंडपभूमि ये आठ भूमियाँ मानी हैं।
धूलिसाल के अभ्यंतर भाग में चारों तरफ से वेष्टित ऐसी प्रथम चैत्यप्रासादभूमि है। इसमें एक-एक जिनमंदिर ऊँचे-ऊँचे बने थे और एक-एक मंदिर के अन्तराल में पाँच-पाँच प्रासाद बने थे। ये नाना प्रकार के उद्यान, बावड़ी, कूप आदि से मनोहर थे। इन जिनमंदिरों की और देवप्रासादों की ऊँचाई तीर्थंकर ऋषभदेव की ऊँचाई से बारहगुनी मानी है।
नाट्यशालाएँ-इस प्रथमभूमि में चारों तरफ गलियों में दोनों पार्श्वभागों में सुवर्ण-रत्नों से निर्मित दो-दो नाट्यशालाएँ बनी रहती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में बत्तीस रंगभूमियाँ हैं और एक-एक रंगभूमि में बत्तीस-बत्तीस भवनवासिनी देवांगनाएँ तीर्थंकरों के विजयगीत गाती हुई नृत्य करती रहती हैं और पुष्पांजलि क्षेपण करती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में नाना प्रकार की सुगंधि से युक्त दो-दो धूपघट रहते हैं।
मानस्तंभ-प्रथम पृथिवी के बहुमध्यभाग में चारों गलियों के बीचों-बीच मानस्तंभ भूमियाँ हैं। इन मानस्तंभ भूमि के चारों तरफ गोपुर द्वारों से सहित परकोटा है। इसके मध्य वनखंड हैं। इनके मध्य पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से ‘सोम, यम, वरुण और कुबेर’ इन लोकपालों से सुंदर क्रीड़ानगर बने रहते हैं। इसके अभ्यंतर भाग में ‘कोट’ है उसके आगे वन वापिकाएँ हैं जिनमें कमल खिले रहते हैं। उनके बीच में अपनी-अपनी दिशा और विदिशाओं में भी दिव्य क्रीड़नपुर बने रहते हैं। उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुरों से सहित तीसरा ‘कोट’ है।
इसके बीच में अर्थात् तीन परकोटों में से अभ्यंतर कोट के बीच में मानस्तंभ के लिए प्रथम, द्वितीय और तृतीय पीठ अर्थात् तीन कटनी बनी हुई हैं।
प्रथम कटनी वैडूर्यमणिमय, द्वितीय कटनी सुवर्णमय और तृतीय कटनी नाना रत्नों से निर्मित नानावर्णमय होती है। प्रथम कटनी में आठ सीढ़ियाँ हैं, दूसरी में चार एवं तीसरी पर चढ़ने के लिए भी चार ही सीढ़ियाँ हैं। तीसरी कटनी पर बीचों बीच में ‘मानस्तंभ’ खड़े हुए हैं। ये मानस्तंभ अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारह गुने ऊँचे रहते हैं। भगवान ऋषभदेव के शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष-दो हजार हाथ थी अत: ये मानस्तंभ छह हजार धनुष ऊँचे-चौबीस हजार हाथ ऊँचे थे अर्थात् तीन कोश ऊँचे थे।
प्रत्येक मानस्तंभ के मूलभाग का विस्तार दो हजार धनुष है, वङ्कामय द्वारों से युक्त है और मध्यभाग स्फटिकमणि से निर्मित है और गोलाकार है। मानस्तंभ के उपरिम भाग वैडूर्यमणिमय हैं इनमें चंवर, घंटा, किंकणी, रत्नहार एवं ध्वजाएँ शोभा बढ़ाती रहती हैं।
इन मानस्तंभों में ऊपरी भाग में प्रत्येक दिशा में एक-एक जिनेन्द्र प्रतिमाएँ विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं में आठ-आठ प्रातिहार्य रहते हैं। ऊपर में शिखर बने हुए हैं जिनमें ध्वजाएँ फहरा रही हैं।
इन मानस्तंभों के देखने मात्र से मिथ्यादृष्टी एवं महामानियों का भी मान गलित हो जाता है इसीलिए इनका ‘मानस्तंभ’ यह सार्थक नाम है।
अन्यत्र ग्रंथ में लिखा है-
‘‘ये मानस्तंभ बारह योजन की दूरी से (९६ मील से) दिखाई देते हैं। पालिका के अग्रभाग पर जो कमल हैं उन्हीं पर स्थित हैं। इनका मूल भाग हीरे का, मध्यभाग स्फटिक मणि का और अग्रभाग वैडूर्यमणि का है। ये मानस्तंभ दो-दो हजार कोणों से दो-दो हजार पहलू वाले हैं। चारों दिशाओं में ऊपर में सिद्धों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं तथा उनकी रत्नमयी बड़ी-बड़ी पालिकाएँ हैं। पालिकाओं के अग्रभाग पर जो कमल हैं उन पर सुवर्ण के देदीप्यमान घट हैं, उन घटों के अग्रभाग से लगी हुई सीढ़ियाँ हैं तथा उन सीढ़ियों पर लक्ष्मी देवी के अभिषेक की शोभा दिखलाई गई है। वे मानस्तंभ लक्ष्मी देवी के चूड़ारत्न के समान अपनी कांति से ‘बीस योजन’ तक का क्षेत्र प्रकाशमान करते हैं तथा जिनका मन अहंकार से युक्त है ऐसे देव और मनुष्यों को वहीं रोक देने वाले हैं।’’
सोलह सरोवर-पूर्वदिशा के मानस्तंभ की चारों दिशाओं में तीनों परकोटों के बाहर क्रम से नन्दोत्तरा, नंदा, नंदिमती और नंदिघोषा ये चार द्रह (वापिकाएँ) हैं। दक्षिण दिशा के मानस्तंभ में चारों दिशाओं में विजया, वैजयंता, जयंता और अपराजिता नाम की बावड़ियाँ हैं। पश्चिम दिशा के मानस्तंभ के चारों तरफ अशोका, सुप्रबुद्धा, कुमुदा और पुण्डरीका नाम की वापिकाएँ हैं। उत्तर के मानस्तंभ में चारों दिशाओं में क्रम से हृदयानंदा, महानंदा, सुप्रतिबुद्धा और प्रभंकरा ये चार द्रह हैं।
ये सभी द्रह समचतुष्कोण हैं, वेदिका और तोरण द्वारों से सहित हैं। इसमें कमल आदि फूल खिल रहे हैं और हंस आदि क्रीड़ा कर रहे हैं।
प्रत्येक द्रहों में तटों पर जलक्रीड़ा के योग्य मणिमयी सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इन द्रहों में भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी देव क्रीड़ा किया करते हैं और मनुष्यों के लिए भी वे क्रीड़ा के लिए हैं। प्रत्येक द्रह के आश्रित निर्मल जल से परिपूर्ण दो-दो कुंड होते हैं जिसमें देव, मनुष्य और तिर्यंच अपने पैरों की धूलि धोकर आगे जाते हैं।
आदिपुराण में वर्णित मानस्तंभ-इन मानस्तंभों के ऊपर तीन छत्र फिर रहे थे, इन्द्र के द्वारा बनाये जाने के कारण उनका (मानस्तंभों का) ‘इन्द्रध्वज’ यह नाम भी रूढ़ हो गया था। उनके दर्शन से मिथ्यादृष्टी जीवों का सब मान नष्ट हो जाता है, वे बहुत ऊँचे प्रमाण वाले थे और तीनों लोकों के जीव उनका सम्मान करते थे इसलिए उनका ‘मानस्तंभ’ यह नाम सार्थक था।
कहा भी है-
हिरण्मयांगा: प्रोत्तुंगा मूधर््िनच्छत्रत्रयांकिता:।
सुरेन्द्रनिर्मितत्त्वाच्च प्राप्तेन्द्रध्वजरूढिका:।।१०१।।
मानस्तंभान्महामान-योगात्त्रैलोक्यमाननात्।
अन्वर्थसंज्ञया तज्ज्ञैर्मानस्तंभा: प्रकीर्तिता:।।१०२।।
प्रथम वेदी-इस चैत्यप्रासादभूमि को वेढ़कर प्रथम वेदी है। इसमें भी रत्नमय ध्वजाएँ हैं, तोरण द्वार हैं। उन पर तोरण बंधे हुए हैं और घंटे लटक रहे हैं। इस वेदी के भी चार गोपुर द्वार हैं, द्वारों के आजू-बाजू १०८-१०८ मंगलद्रव्य व नवनिधियाँ शोभित हो रही हैं, पुत्तलिकाओं के मस्तक पर धूपघट शोभायमान हैं। इसके मूल और उपरिम भाग का विस्तार धूलिसाल के मूल विस्तार के समान है और ऊँचाई तीर्थंकर देव की ऊँचाई से चौगुनी-धूलिसाल के समान है।
इस प्रथम वेदी के आगे स्वच्छजल से भरी खातिका-खाई है। यह अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से चतुर्थ भाग प्रमाण गहरी है। इसमें मणिमय सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। कुमुद, कुवलय आदि फूल खिल रहे हैं और हंस आदि पक्षी कलरव ध्वनि कर रहे हैं।
चैत्यप्रासादभूमि के विस्तार के समान ही इस भूमि का विस्तार है।
कोई-कोई आचार्य ‘चैत्यप्रासाद’ भूमि नहीं स्वीकार करते। उनके आदेशानुसार भगवान ऋषभदेव के समवसरण में खातिका भूमि का विस्तार एक योजन प्रमाण था और शेष तीर्थंकरोें का क्रम से हीन था।
महापुराण में श्रीजिनसेनस्वामी ने भी चैत्यप्रासादभूमि नहीं मानी है।
द्वितीयवेदी-दूसरी वेदी इस खातिकाभूमि को वेष्टित किये है यह प्रथम वेदी के समान ही है, मात्र इसका विस्तार प्रथम वेदी से दुगुना है।
इस वेदी के आगे लताभूमि है इसमें पुन्नाग, नाग, कुम्बक, शतपत्र आदि की बेलें पुष्पों से सुंदर दिखती हैं। इसमें अनेक क्रीड़ा पर्वत बने हुए हैं और जलभरी बावड़ियाँ भी बनी हुई हैं इनमें भी फूल खिले हुए हैं तथा मणियों की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।
द्वितीय कोट-इस लतावन को घेरकर आगे दूसरा कोट-परकोटा है। यह सुवर्णमयी है और ऊँचाई, गोपुरद्वार आदि में धूलिसाल के समान है। परन्तु इतना विशेष है कि इसका विस्तार दुगुना है एवं द्वार रजतमयी है। इनके रक्षक यक्षजाति के देव हैं।
हरिवंशपुराण में कहा है-
इस कोट के गोपुर द्वारों के रक्षक व्यन्तर जाति के देव द्वारपाल हैं जो कटक आदि आभूषणों से सुंदर हैं, हाथ में मुद्गर लिये रहते हैं और अपने प्रभाव से अयोग्य व्यक्तियों को दूर हटाते रहते हैं।
इस परकोटे के गोपुर द्वारों के मणिमय तोरणों के दोनों ओर १०८-१०८ मंगल द्रव्य आदि हैं। इस कोट के आगे गली के दोनों ओर तीन-तीन खण्ड की दो-दो नाट्यशालाएँ हैं, जिसमें बत्तीस-बत्तीस देवांगनाएँ नृत्य करती रहती हैं।
इसके आगे चौथी उपवन भूमि है इसमें पूर्व आदि के क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चंपा और आम के बगीचे हैं। इन चारों वनों-बगीचों में छोटी-छोटी नदियाँ हैं, उन पर पुल बने हुए हैं, कहीं क्रीड़ा पर्वत हैं तो कहीं पर बावड़ियाँ बनी हुई हैं और कहीं-कहीं सुंदर हिंडोले लगे हुए हैं।
चैत्यवृक्ष-इन चारों वनों के बीच-बीच में एक-एक चैत्यवृक्ष हैं। ये तीर्थंकर देव की ऊँचाई से बारहगुने ऊँचे हैं। इन चैत्यवृक्षों में एक-एक में चारों दिशाओं में एक-एक अर्हंत देव की मणिमय प्रतिमाएँ विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं के आश्रित आठ महाप्रातिहार्य बने हुए हैं।
एक-एक चैत्यवृक्ष के आश्रित-प्रतिमाओं के सामने एक-एक मानस्तंभ बने हुए हैं, ये मानस्तंभ तीन परकोटे से वेष्टित व तीन कटनी के ऊपर रहते हैं। एक-एक मानस्तंभ में भी चार-चार प्रतिमाएँ विराजमान हैं अर्थात् एक चैत्यवृक्ष में चार प्रतिमाएँ और चार मानस्तंभ हो गये हैं।
ये चैत्यवृक्ष वनस्पतिकायिक नहीं हैं प्रत्युत् पृथिवीकायिक रत्नों से निर्मित होते हैं। इन मानस्तंभों के आश्रित भी वापियाँ होती हैं। वहाँ कहीं पर रमणीय भवन, कहीं क्रीड़नशाला और कहीं नाट्यशालाएँ बनी हुई हैं। अनेक रत्नों से निर्मित भवनों में देव-मनुष्य आदि विचरण करते हैं।
उपवनभूमि में बनी वापिकाओं में स्नान करने से मनुष्य अपना एक भव देख लेते हैं और उन वापिकाओं के जल में अपना मुख देखने से वे अपने पूर्व के तीन, वर्तमान का एक और भविष्यत् के तीन ऐसे सात भव देख लेते हैं।
हरिवंश पुराण में बाबड़ियों का वर्णन—
हरिवंशपुराण में बावड़ियों का वर्णन बहुत ही सुन्दर है-
उपवनभूमि में पूर्व दिशा के अशोक वन में नन्दा, नन्दोत्तरा, आनन्दा, नन्दवती, अभिनंदिनी और नंदिघोषा ये छह बावड़ियाँ हैं। दक्षिण के सप्तपर्ण वन में विजया, अभिजया, जैत्री, वैजयंती, अपराजिता और जयोत्तरा ये छह वापिकाएँ हैं। पश्चिम में चंपकवन में कुमुदा, नलिनी, पद्मा, पुष्करा, विश्वोत्पला और कमला ये छह वापिकाएँ हैं। उत्तर में आम्रवन में प्रभासा, भास्वती, भासा, सुप्रभा, भानुमालिनी और स्वयंप्रभा ये छह वापिकाएँ हैं। पूर्व दिशा की वापिकाएँ अपनी पूजा करने वाले मनुष्यों को उदयफल प्रदान करती हैं। दक्षिण दिशा की वापियाँ विजय फल को, पश्चिम दिशा की वापियाँ प्रीति फल को एवं उत्तर दिशा की वापियाँ ख्याति फल को देती हैं। इन-इन फलों के इच्छुक मनुष्य इन वापिकाओं की पूजा करते हैं। अर्थात् इनके जल का आदरपूर्वक सेवन करते हैं।
क्रम के जानने वाले भक्तजन उन बावड़ियों से फूलों को लेकर क्रम-क्रम से स्तूपों तक जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाओं की पूजा करते हुए आगे प्रवेश करते हैं।
उदय और प्रीतिरूप फल को देने वाली वापिकाओं के बीच के मार्ग के दोनों ओर तीन खंड वाली सुवर्णमय बत्तीस नाट्यशालाएँ हैं। ये डेढ़ कोश चौड़ी हैं, इनकी भूमियाँ रत्नों से निर्मित हैं और दीवालें स्फटिक की हैं। उनमें ज्योतिषी देवों की बत्तीस-बत्तीस देवांगनाएँ नृत्य करती रहती हैं।
महापुराण में लिखा है कि अशोक चैत्यवृक्ष में नीलमणियों के पत्ते हैं और पद्मरागमणियों से निर्मित फूलों के गुच्छे शोभित हो रहे हैं एवं सुवर्ण से बनी हुई ऊँची-ऊँची शाखाएँ हैं, ये हवा के झकोरे से हिलते हैं, इस चैत्यवृक्ष के मूलभाग में चारों दिशाओं में जिनेन्द्रदेव की चार प्रतिमाएँ हैं, जिनका इन्द्र स्वयं अभिषेक-पूजन करते हैं।
इस वृक्ष के ऊपर घंटे लटक रहे हैं, ध्वजाएँ फहरा रही हैं और मोतियों की झालरों से सहित छत्रत्रय लगे हुए हैं।
नाट्यशालाएँ-इन चारों वनों के आश्रित चारों गलियों के दोनों पार्श्वभागों में दो-दो नाट्यशालाएँ हैं ऐसे सोलह नाट्यशालाएँ हो गईं। इनमें से आदि की आठ नाट्यशालाओं में भवनवासिनी देवांगनाएँ एवं आगे की आठ नाट्यशालाओं में कल्पवासिनी देवकन्याएँ (देवांगनाएँ) नृत्य किया करती हैं।
इस उपवनभूमि का विस्तार प्रथम चैत्यप्रासाद भूमि से दूना माना गया है।
तृतीय वेदी-यह तीसरी वेदी इस चतुर्थ उपवनभूमि को घेरकर स्थित है। इसका भी पूरा वर्णन दूसरी वेदी के समान है।
यहाँ पर द्वाररक्षक यक्षेन्द्र देव हैं।
इस तृतीयवेदी के आगे ‘ध्वजाभूमि’ है, इसमें दिव्यध्वजाएँ हैं। ये दश प्रकार के चिन्हों से चिन्हित हैं। सिंह, गज, बैल, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र ये दश चिन्ह माने गये हैं। चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में इन दश प्रकार की ध्वजाओं में से एक-एक प्रकार की एक सौ आठ-एक सौ आठ रहती हैं। इनमें से भी प्रत्येक ध्वजा अपनी एक सौ आठ क्षुद्रध्वजाओं से सहित होती हैं।
इस प्रकार भगवान ऋषभदेव के समवसरण में (महाध्वजा १०x१०८x४=४३२०। क्षुद्रध्वजा १०x१०८x१०x४=४६६५६०। समस्त ध्वजा ४३२०+४६६५६०=४७०८८०) कुल चार लाख सत्तर हजार आठ सौ अस्सी हैं।
ये ध्वजाएँ रत्नों से निर्मित होकर भी हवा से हिलती हैं, नाना प्रकार के रत्नों से सुंदर हैं। ये ध्वजाएँ रत्नों से खचित सुवर्णमय स्तंभों में लगी हुई हैं। इन स्तंभों की ऊँचाई भी तीर्थंकर ऋषभदेव की ऊँचाई से बारह गुणी है।
यहाँ पर लताभूमि के विस्तार से दूना ध्वजाभूमि का विस्तार समझना चाहिए।
तृतीयकोट-इस ध्वजाभूमि के आगे चांदी के समान तीसरा कोट-परकोटा है। यह कोट धूलिसाल से दूना है और गोपुरद्वार, मंगलद्रव्य, नवनिधि, धूपघट, नाट्यशाला आदि की व्यवस्था पूर्ववत् हैं। इसके द्वाररक्षक भवनवासी देव हैं।
इस तृतीय रजत परकोटे के बाद कल्पभूमि है। इसमें दश प्रकार के कल्पवृक्ष लगे हुए हैं।
यह भूमि अपनी ध्वजभूमि के सदृश विस्तार वाली है। इसमें भी उत्तम वापिकाएँ हैं जिनमें कमल फूल रहे हैं। कहीं पर सुंदर प्रासाद हैं, कहीं पर क्रीड़नशालाएँ, कहीं प्रेक्षणशालाएँ-चित्रशालाएँ आदि बनी हुई हैं। इस भूमि में पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग नाम के कल्पवृक्ष हैं। ये अपने-अपने नाम के अनुसार ही वस्तुएँ प्रदान करते रहते हैं।
इस भूमि में भी चारों दिशाओं में क्रम से एक-एक सिद्धार्थ वृक्ष हैं। उनके नाम क्रम से नमेरू, मंदार, संतानक और पारिजात हैं। ये सिद्धार्थवृक्ष तीन कोटों के अंदर हैं और तीन मेखलाओं के ऊपर स्थित हैं।
इनमें से प्रत्येक वृक्ष के मूलभाग में चारों दिशाओं में एक-एक, ऐसी चार सिद्धों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं जो कि वंदना करने वालों के समस्त पाप नष्ट करने वाली हैं। एक-एक सिद्धार्थवृक्ष के आश्रित तीन कोटों से सहित व तीन कटनी के ऊपर चार-चार मानस्तंभ बने हुए हैं अर्थात् एक-एक सिद्धप्रतिमा के सामने एक-एक मानस्तंभ हैं। ये सिद्धार्थ वृक्ष भी भगवान ऋषभदेव की ऊँचाई से बारहगुने ऊँचे हैं।
नाट्यशालाएँ-कल्पतरुभूमि के पार्श्व भागों में प्रत्येक वीथी-गली के आश्रित चार-चार नाट्यशालाएँ हैं। ये चैत्यवृक्षों के सदृश ऊँची हैं, पाँच खण्ड वाली हैं, बत्तीस रंगभूमियों से सहित हैं। इनमें ज्योतिषी देवियाँ नृत्य करती रहती हैं।
चतुर्थ वेदी-इस छठी भूमि को घेरकर चौथी वेदी बनी हुई है। यह अपनी प्रथम वेदी के सदृश ही है।
यहाँ भवनवासी देव द्वारों की रक्षा करते हैं।
इस चतुर्थवेदी के आगे भवनभूमि है। इसमें ऊँचे-ऊँचे भवन बने हुए हैं जो कि रत्नों से निर्मित हैं, ध्वजाओं से सहित हैं और तोरणों से युक्त हैं। इन भवनों में जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं, देवगण जिनका नित्य अभिषेक करते रहते हैं। इस भूमि में भी उपवन, लताएँ, क्रीड़ाग्रह, क्रीड़ापर्वत आदि बने हुए हैं।
स्तूपरचना-भवनभूमि के पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी-गली के मध्य में जिन और सिद्धों की अनुपम प्रतिमाओं से सहित नौ-नौ स्तूप हैं। इन स्तूपों पर छत्र फिर रहे हैं, ध्वजाएँ फहरा रही हैं और आठ मंगल द्रव्य रखे हुए हैं। ये स्तूप रत्नों से निर्मित हैं।
एक-एक स्तूप के बीच में मकर के आकार के सौ-सौ तोरण होते हैं। इन स्तूपों की ऊँचाई अपने चैत्यवृक्षों के बराबर है। इन स्तूपों की लम्बाई और विस्तार का प्रमाण इस समय नष्ट हो चुका है।
भव्यजीव इन स्तूपों का अभिषेक, पूजन और प्रदक्षिणा करते रहते हैं।
ये स्तूप ऐसे दिखते थे कि मानों भगवान की नौ केवललब्धियाँ ही हों।
हरिवंशपुराण में कहा है-ये नौ-नौ स्तूप पद्मराग मणियों से निर्मित हैं तथा उनके समीप नाना प्रकार के सभागृह हैं जो कि स्वर्ण और रत्नों के बने हुए हैं। ये मुनियों के योग्य और देवों के योग्य हैं।
चतुर्थकोट-इस भवनभूमि को घेरकर आकाशस्फटिक से निर्मित चतुर्थ कोट है इसके चारों गोपुरद्वार मरकत मणि से बने हुए हैं।
इन गोपुरद्वारोें पर कल्पवासी देव हाथ में रत्नदण्ड लेकर द्वारपाल बनकर खड़े रहते हैं।
स्फटिक परकोटे से आगे श्रीमण्डपभूमि है। इसमें बारह कोठे बने हुए हैं। निर्मल स्फटिक मणि से सोलह दीवालों के बीच में ये बारह कोठे हैं क्योंकि चारों दिशाओं में जो विशाल वीथी-गलियाँ हैं उनके भी आजू-बाजू में दीवाले हैं अत: सोलह हो गई हैं अर्थात् चार-चार दीवालों के बीच तीन-तीन कोठे होने से बारह कोठे होते हैं।
द्वादशगण व्यवस्था-इन बारह कोठों में पूर्वदिशा आदि से-प्रदक्षिणा के क्रम से ऋषि आदि बारहगण बैठते हैं-
१. प्रथम कोठे में अक्षीण ऋद्धि आदि के धारक गणधरदेव आदि दिगम्बर मुनि बैठते हैं। २. स्फटिकमणि की दीवाल से व्यवहित दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियाँ बैठती हैं।
२. स्फटिकमणि की दीवाल से व्यवहित दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियाँ बैठती हैं।
३. तीसरे कोठे में आर्यिकाएँ तथा श्राविकाएँ बैठती हैं इसी में क्षुल्लिकाएँ, ब्रह्मचारिणियाँ शामिल हैं।
४. चतुर्थ कोठे में ज्योतिषी देवियाँ। ५. पाँचवें में व्यन्तर देवियाँ।
६. छठे में भवनवासिनी देवियां।
७. सातवें में भवनवासी देव।
८. आठवें में व्यन्तर देव।
९. नवमें में ज्योतिष्क देव।
१०. दसवें में सौधर्म स्वर्ग से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक के कल्पवासी देव।
११. ग्यारहवें में चक्रवर्ती, मांडलिक आदि राजागण व श्रावक बैठते हैं इसी में ऐलक, क्षुल्लक सम्मिलित हैं, जो कि यथायोग्य बैठते हैं और
१२. बारहवें कोठे में हाथी, सिंह, व्याघ्र, हरिण आदि पशुगण बैठते हैं।
इन सभी कोठों में बैठने वाले भव्यजीव पूर्व बैर को छोड़कर परस्पर में मैत्री भाव को धारण कर लेते हैं।
पाँचवीं वेदी-इसके आगे स्फटिक पाषाण से निर्मित पाँचवीं वेदी है जो कि चतुर्थ कोट के सदृश विस्तार वाली है।
हरिवंशपुराण में स्तूपों का कुछ विशेष वर्णन आया है उसे यहाँ संक्षेप से दिखाते हैं।
स्फटिकमणि से निर्मित तृतीय कोट है। इसके चारों गोपुरद्वारों के क्रम से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये नाम हैं।
इन द्वारों के पसवाड़ों में उत्तम रत्नमय आसनों के मध्य में स्थित मंगलरूप दर्पण हैं जो देखने वालों के पूर्वभव दिखलाते हैं। ये दर्पण गाढ़ अंधकार को दूर करते हैं। ‘विजय’ आदि गोपुरों में यथायोग्य ‘जय हो, कल्याण हो’ इन शब्दों का उच्चारण करते हुए कल्पवासी देव द्वारपाल रहते हैं। उसके आगे नानावृक्षों और लतागृहों से व्याप्त मंच, प्रेंखागिरि और प्रेक्षागृहों से सुशोभित अन्तर्वन हैं।
कल्याणजय-वीथियों-गलियों के बीच में ‘कल्याणजय’ नाम का आँगन है, उसमें केले के वृक्ष लगे हुए हैं। उन्हीं के भीतर नाटकशाला है जिसमें लोकपाल की देवांगनाएँ नृत्य करती हैं। उनके मध्य दूसरा ‘पीठ’ है। उसके आगे ‘सिद्धार्थवृक्ष’ हैं इसमें सिद्धों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
बारहस्तूप-उसके आगे एक मंदिर है जिसे पृथिवी के आभूषणस्वरूप ‘बारहस्तूप’ सुशोभित कर रहे हैं। इनके आगे चारों दिशाओं में शुभ वापिकाएँ हैं-नन्दा, भद्रा, जया और पूर्णा ये इनके नाम हैं उन वापिकाओं में स्नान करने से जीव अपना पूर्वभव जान लेते हैं। इनमें अपना प्रतिबिम्ब देखने से जीव अपने सात भव देख लेते हैं।
जयांगण-वापिकाओं से आगे एक ‘जयांगण’ बना हुआ है जो कि एक कोश ऊँचा और एक योजन चौड़ा है। इसमें तोरण बंधे हुए हैं, यह तीन लोक की विजय का आधार है, इसमें बीच-बीच में मूंगाओं की लाल-लाल बालुका का अंतर देकर मोतियों की सफेद बालू बिछी हुई है। वह ‘जयांगण’ अनेक चित्रावली, अनेक भवन, मंडप व निवास स्थानों से सहित है।
इन्द्रध्वज-उस जयांगण के मध्य स्वर्णमयी पीठ पर ‘इन्द्रध्वज’ सुशोभित है। उस पर मणियों से सुंदर एक ऊँची ‘पताका’ लगी हुई है। रत्नों की माला, किंकणी आदि से सुशोभित वह पताका जब आकाश में फहराती है, तब इन्द्रादिक देव भी बड़े ही कौतुक से उसे देखते हैं।
श्रुतदेवता-उसके आगे एक हजार खंभों पर खड़ा हुआ ‘महोदय’ नाम का मंडप है जिसमें ‘मूर्तिमती श्रुतदेवता’ विद्यमान रहती हैं। उस श्रुतदेवता को दाहिने भाग में करके ‘श्रुतकेवली’ महामुनि श्रुत का व्याख्यान करते रहते हैं। महोदय मंडप से आधे विस्तार वाले चार परिवार मंडप और हैं जिसमें कथा कहने वाले ‘आक्षेपणी आदि कथाएँ कहते रहते हैं। इन मंडपों के समीप में नाना प्रकार के और स्थान भी बने रहते हैं जिनमें बैठकर महाऋद्धियों के धारक ऋषिगण इच्छुकजनों के लिए उनकी इष्ट वस्तुओं का निरूपण करते हैं।
उसके आगे एक सुवर्णमय पीठ है जिसकी भव्यजीव समयानुसार पूजा करते हैं। उस पीठ का ‘श्रीपद’ नाम का द्वार है, उस द्वार के दोनों ओर ‘प्रभासक’ नाम के दो मंडप हैं जिनमें निधियों के स्वामी दो देव स्थित हैं।
प्रमदा नाट्यशालाएँ-उनके आगे ‘प्रमदा’ नाम की दो विशाल नाट्यशालाएँ हैं जिनमें कल्पवासिनी अप्सराएँ नृत्य करती रहत्ाी हैं।
१. लोकस्तूप-विजयांगण के कोनों में चार ‘लोकस्तूप’ होते हैं जो एक योजन ऊँचे हैं, इन पर पताकाएँ फहराती रहती हैं। ये लोकस्तूप तीन लोक की रचना दिखलाते हैं। ये नीचे वेत्रासन के समान, मध्य में झालर के समान, ऊपर मृदंग के समान और अंत में तालवृक्ष के समान लंबी ‘त्रसनाली’ से सहित हैं। इनका स्वच्छ स्फटिक के समान रूप है अत: ये अपने भीतर की रचना स्पष्ट झलकाते हैं।
२. मध्यलोकस्तूप-इन लोकस्तूपों से आगे ‘मध्यलोक’ नाम से प्रसिद्ध स्तूप है। जिनमें मध्यलोक की रचना स्पष्ट दिखती है।
३. मन्दरस्तूप-आगे मंदराचल के समान ‘मंदरस्तूप’ हैं जिन पर चारों दिशाओं में भगवान की प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
४. कल्पवासस्तूप-उनके आगे कल्पवासियों की रचना से युक्त ‘कल्पवासस्तूप’ है जो देखने वालों को कल्पवासी देवों की विभूति दिखलाते हैं।
५. ग्रैवेयकस्तूप-उनके आगे ग्रैवेयकों के समान आकार वाले ‘ग्रैवेयकस्तूप’ हैं जो मनुष्यों को ग्रैवेयकों की शोभा दिखाते हैं।
६. अनुदिशस्तूप-उनके आगे ‘अनुदिश’ नाम के नौ स्तूप सुशोभित हैं जिनमें प्राणी नौ अनुदिशों को प्रत्यक्ष देख लेते हैं।
७. सर्वार्थसिद्धिस्तूप-आगे चलकर चारों दिशाओं में विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित विमानों से सुशोभित समस्त प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले ‘सर्वार्थसिद्धि’ स्तूप हैं।
८. सिद्धस्तूप-उनके आगे स्फटिक के समान निर्मल ‘सिद्धस्तूप’ हैं जिनमें सिद्धों के स्वरूप को प्रगट करने वाली दर्पणों की छाया दिखाई देती है।
९. भव्यकूट-उनके आगे देदीप्यमान शिखरों से युक्त ‘भव्यकूट’ नाम के स्तूप रहते हैं जिन्हें अभव्यजीव नहीं देख पाते हैं क्योंकि इनके प्रभाव से उनके नेत्र अंधे हो जाते हैं।
१०. प्रमोहस्तूप-उनके आगे ‘प्रमोहस्तूप’ हैं जिन्हें देखकर लोग अत्यधिक भ्रम में पड़ जाते हैं और चिरकाल से अभ्यस्त भी गृहीत वस्तु को भूल जाते हैं।
११. प्रबोधस्तूप-आगे चलकर ‘प्रबोधस्तूप’ हैं जिन्हें देखकर लोग प्रबोध को प्राप्त हो जाते हैं और तत्त्व को प्राप्तकर साधु बनकर भी संसार से छूट जाते हैं।
इस प्रकार जिनकी वेदिकाएँ एक-दूसरे से सटी हुई हैं तथा जो तोरणों से समुद्भासित हैं, ऐसे अत्यंत ऊँचे दश स्तूप क्रम-क्रम से परिधि तक सुशोभित हैं।
वहाँ पर गणधर महामुनि की इच्छा करते ही एक ‘दिव्यपुर’ बन जाता है उसके त्रिलोकसार, श्रीकांत आदि अनेक नाम माने गये हैं। भगवान के प्रभाव से वह पुर तीनलोक के समस्त पदार्थों को धारण करने में समर्थ होता है।
अब तीन कटनी का वर्णन करते हैं-
प्रथम कटनी-इस स्फटिकमयी पाँचवीं वेदी के आगे ‘वैडूर्यमणि’ से निर्मित प्रथम पीठ-कटनी है। बारह कोठों से आगे और चारों वीथियों के आगे सोलह स्थानों के सामने प्रथम कटनी पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, ये सीढ़ियाँ भी सोलह-सोलह हैं।
धर्मचक्र-प्रथम कटनी पर चारों दिशाओं में एक-एक यक्षेन्द्र अपने मस्तक पर ‘धर्मचक्र’ को लेकर स्थित रहते हैं। इसी कटनी पर अष्टमंगलद्रव्य और पूजाद्रव्य रखे हुए हैं।
गणधर गुरु, अनेक ऋषिगण, देव-देवियाँ आदि इसी प्रथम कटनी पर चढ़कर भगवान की प्रदक्षिणा देकर जिनेन्द्रदेव के सन्मुख होते हुए पूजा करते हैं।
इस प्रथम कटनी की ऊँचाई चार धनुष-सोलह हाथ की है।
२. द्वितीय कटनी-प्रथम कटनी के ऊपर चारोें दिशाओं में चढ़ने के लिए आठ-आठ सीढ़ियाँ होती हैं। इस द्वितीय कटनी पर मणिमय स्तंभों पर लटकती हुई महाध्वजाएँ रहती हैं इन ध्वजाओं के चिन्ह-सिंह, बैल, कमल, चक्र, माला, गरुड़, हाथी और ध्वजा ये आठ प्रकार के माने हैं। यह कटनी स्वर्णमयी मानी गई है।
३. तृतीय कटनी-इस द्वितीय कटनी के ऊपर उतनी ही ऊँची तीसरी कटनी है, यह अनेक रत्नों से निर्मित है। दूसरी कटनी से चढ़ने के लिए इसमें भी आठ-आठ सीढ़ियाँ होती हैं।
गंधकुटी-इसी तृतीय पीठ पर एक सुंदर ‘गंधकुटी’ होती है। इस गंधकुटी की चौड़ाई और लम्बाई भगवान ऋषभदेव के समवसरण में छह सौ धनुष प्रमाण थी और ऊँचाई नौ सौ धनुष थी।
इस गंधकुटी में चंवर, किंकिणी, वंदनमाला, हार आदि सुशोभित रहते हैं और सुंदर ध्वजाएँ फहराती रहती हैं। मलय, चंदन, गोशीर, कालागरु आदि सुगंधित धूपों से सहित धूप घट रखे रहते हैं।
इस गंधकुटी के मध्य स्फटिक मणि से निर्मित भगवान की ऊँचाई के योग्य रमणीय सिंहासन है। भगवान ऋषभदेव उस सिंहासन के ऊपर आकाश में चार अंगुल अधर विराजमान थे।
श्री विष्णुसेन द्वारा रचित समवसरण स्तोत्र में सिंहासन के ऊपर कमल का वर्णन आया है।
तन्मध्यस्थितसिंहासन-मध्ये शोणमंबुजं रमणीयं।
दशशतदलसंयुक्तं, तन्मध्ये कनककर्णिकायामुपरि।।
गंधकुटी के मध्य सिंहासन है उस सिंहासन के बीच में लाल कमल है जो अतिशय सुंदर है, उसमें एक हजार दल हैं, उस कमल की कर्णिका के ऊपर चार अंगुल अधर तीर्थंकर प्रभु विराजमान रहते हैं।
गंधकुटी के ऊपर शिखर रहते हैं, जिन पर करोड़ों विजयपताकाएँ-ध्वजाएँ बंधी हुई हैं, ऐसे ऊँचे शिखरों से सहित वह गंधकुटी नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित है।
इससे स्पष्ट है कि समवसरण में गंधकुटी वेदी के समान शिखरों से सहित होती है।