अथ स्थापना—गीता छंद
बल्लीवनी को वेढ़कर, परकोट सुंंदर स्वर्ण का।
चउ गोपुरों से युक्त उससे, बाद चौथी भूमि का।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—गीताछंद
अति स्वच्छ शीतल नीर से, जिनपाद त्रयधारा करूँ।
निज मानसिक संताप शांती, हेतु मैं आशा धरूँ।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरी का गंध सुरभित, घिस कटोरी भर लिया।
निज तापत्रय संहार हेतू, नाथ पद चर्चन किया।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शुचि धौत तंदुल चन्द्रदीधित, सम धवल के पुंज से।
तुम पूजते निज आत्म अक्षय सौख्य होवे भक्ति से।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
दश दिश सुगंधित कर रहे, ये पुष्प बेला मल्लिका।
तुम पद कमल अर्पण किये, हो स्वात्म सुरभित संपदा।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूआ अंदरसा पूड़ियाँ, हलुआ भराया थाल में।
निज भूख व्याधी दूर होने, हेतु अर्पूं आज मैं।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर बाती जगमगे, तुम आरती रुचि से करूँ।
अज्ञान तम विध्वंस हो, निजज्ञान की ज्योति धरूँ।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दश गंध मिश्रित धूप सुरभित, अग्नि में खेऊँ अबे।
सब कर्म भस्मीभूत होकर, धूम्र के छल से भगें।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर केला आम अमरख, फल मधुर बहु ले लिया।
तुम पाद अग्र चढ़ावते, निज आत्म सुख अनुभव किया।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।८।।
ॐ ह्रींचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध आदिक अर्घ लेकर, स्वर्ण पुष्प मिलाइया।
यह अर्घ आप चढ़ाय के, निज आत्म निधि को पा लिया।।
उपवन धरा के चार दिश में, चैत्यद्रुम अति सोहने।
उनके जिनेश्वर बिंब को, हम पूजते मन मोहने।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिचतुर्दिक्चैत्यवृक्ष-संबंधिसर्वजिनप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
सुवरण झारी में भरूँ, गंगानदि को नीर।
शांतिधारा त्रय करूँ, मिले भवोदधि तीर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंप चमेली केवड़ा, बेला वकुल गुलाब।
पुष्पांजलि अर्पण करत, शीघ्र स्वात्मसुख लाभ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणस्थितचैत्यवृक्षजिनप्रतिमाभ्यो नम:।
(१०८ या ९ बार करें)
–दोहा—
नासा दृष्टी सौम्य छवि, जिनवर सम जिनबिंब।
नमूँ नमूँ मस्तक नमाँ, पाऊँ सौख्य अनिंद्य।।१।।
—शंभु छंद—
जय जय श्री जिनवर समवसरण, जय जय चौथी उपवन भूमी।
जय जय मणिमय जिन चैत्यवृक्ष, जय जय सुर नर वंदित भूमी।।
जय जय गणधर गुरु से वंदित, जय जय मुनिगण विहरण भूमी।
जय जय अशोक सप्तच्छद अरु, चंपक व आम्रवन की भूमी।।२।।
परकोटा दूजा स्वर्णमयी, चउ गोपुरद्वारों से युत है।
व्यंतर सुर मुद्गर लेकर के, जिनभक्त वहाँ पर रक्षक हैं।।
तोरणद्वारों के उभय तरफ, अठ विध के मंगल द्रव्य धरे।
प्रत्येक एक सौ आठ कहे, ये सर्व अमंगल दोष हरें।।३।।
उसके आगे वेष्टित करके, उपवन भूमी अति शोभ रही।
दिशक्रम से अशोक सप्तच्छद, चंपक व आम्रवन दिखें वहीं।।
चारों दिश इक इक चैत्यवृक्ष, प्रभु से बारह गुणिते ऊँचे।
प्रत्येक चैत्यतरु में चारों दिश, इक-इक जिनप्रतिमा दीखें।।४।।
ये आठ प्रातिहार्यों संयुत, मणिमय श्रीजिनप्रतिमायें हैं।
हर प्रतिमाओं के सन्मुख इक, इक मानस्तंभ कहायें हैं।।
ये तीन कोट से परिवेष्टित, त्रय कटनी के ऊपर शोभें।
मानस्तंभों के चारों दिश, इक इक जिनप्रतिमायें शोभें।।५।।
चौबिस जिनवर के उपवन में, छ्यानवे चैत्यतरु माने हैं।
उनमें त्रय शतक सुचौरासी, मणिमय जिनबिंब बखाने हैं।।
इनके मानस्तंभ तीन शतक, चौरासी ही हो जाते हैं।
चारों दिश जिनवर बिंब सभी, पंद्रह सौ छत्तिस गाते हैं।।६।।
इन जिनबिंबों को भक्ती से, जो नितप्रति वंदन करते हैं।
वे सर्व मनोरथ पूर्ण करें, क्रम से शिवलक्ष्मी वरते हैं।।
इन उपवन में कहिं बावड़ियाँ, कहिं क्रीड़ा पर्वत दिखते हैं।
कहिं भवन बने सुंदर ऊँचे, इनमें सुर नर नित रमते हैं।।७।।
पूरबदिश वन में बावड़ियाँ१, नन्दा नन्दोत्तर आनंदा।
नन्दवती व अभिनन्दिनी, नन्दिघोषा जलभरी महानंदा।।
जो जन इनकी पूजा करते, वे उदय सुफल को पाते हैं।
वापी से पुष्पों को लेकर, जिनबिंब पूजते जाते हैं।।८।।
दक्षिणदिश विजय तथा अभिजय, जैत्री व वैजयन्ती वापी।
अपराजित जयोत्तरा नामा, ये यजत विजय फल को देतीं।।
पश्चिमदिश कुमुदा नलिनी अरु, पद्मा पुष्करा वापियाँ हैं।
विश्वोत्पला, कमला ये छह, यजते प्रीति फल देती हैं।।९।।
उत्तर में प्रभासा भासवती, भासा सुप्रभा भरीं जल से।
पुन भानुमालिनी स्वयंप्रभा, ख्याती फल देतीं पूजन से।।
वापी जल से स्नान किये, भवि जन इक भव को देखे हैं।
उस जल अवलोकन से निज के, ही सात भवों को देखे हैं।।१०।।
इन उदय और प्रीती फलदा, बावड़ियों के मधि मारग के।
द्वय तरफी तीन तीन खन की, बत्तीस नाट्यशाला दीखें।।
प्रत्येक में बत्तिस बत्तिस ज्योतिषि, देवी नर्तन करती हैं।
वे हाव भाव से तन्मय हो, जिनवर गुण कीर्तन करती हैं।।११।।
हम नित्य नमें जिनप्रतिमा को, सारे कलिमल धुल जावेंगे।
निज आत्म सुधारस पीकर के, निज में ही तृप्ती पावेंगे।।
सब आधि व्याधि पीड़ा संकट, इक क्षण में ही नश जावेंगे।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करके, सिद्धालय में बस जावेंगे।।१२।।
—घत्ता—
जय जय जिनप्रतिमा, अनवधि महिमा, जय जिनवरगुण पूर्ण भरे।
जय सर्व सुखाकर, गुण रत्नाकर, पूजक भवदधि तूर्ण तरें।।१३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थित-उपवनभूमिसंबंधिमानस्तंभ-सहितसर्वचैत्यवृक्षजिनप्रतिमाभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—दोहा—
चैत्यवृक्ष पूजा करें, जो भविजन धर प्रीत।
समवसरण दर्शन करें, लहें स्वात्म नवनीत।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।